मैं यह पोस्ट किसी को नीचा या ऊपर दिखाने के लिए नहीं लिख रहा हूँ। मैं 12 साल की उम्र में ही राष्ट्रीय सेवा दल में शामिल हो गया था। जब 20 साल का था तब तक 1973-1976 के आपातकाल के दौरान जेल जाने के कारण मुझे राष्ट्रीय सेवा दल से इस्तीफा देना पड़ा था। लेकिन उसके बाद से राष्ट्रीय सेवा दल का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गया।
देश की वर्तमान परिस्थिति की बात करें तो देखेंगे कि आजादी के बाद सांप्रदायिक ध्रुवीकरण सबसे ज्यादा बढ़ा है।
वर्ष 2017 से 2019 तक दो वर्ष के लिए राष्ट्रीय सेवा दल का अध्यक्ष बनाया गया। अध्यक्ष पद संभालने के बाद, मैंने अपने पहले संबोधन में ही सभी प्रतिनिधियों को बताया था कि ‘कि मैं चालीस साल बाद राष्ट्र सेवा दल का अध्यक्ष बना हूँ, सिर्फ और सिर्फ भारत को संघ मुक्त बनाने के लिए। जब मैं तीस साल का था, तब से मुझे अध्यक्ष बनने के लिए कहा जा रहा था। हमारे बच्चे छोटे होने और मैडम खैरनार सरकारी नौकरी (केंद्रीय विद्यालय में) के कारण मैं खुद एक हाउस हसबैंड के रूप में अपनी घरेलू जिम्मेदारियों को पूरा करने में व्यस्त था। इसीलिए मैंने अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी उठाने से मना किया लेकिन जब सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के कारण देश की स्थिति गंभीर हो गई, तब साठ साल की उम्र पार करने के बाद भी मैंने राष्ट्र सेवा दल का अध्यक्ष बनना स्वीकार कर लिया।
अपने सम्बोधन में मैंने कहा कि अगर इस सभा का एक भी सदस्य मेरे ‘संघ मुक्त भारत’ के घोषणापत्र से असहमत है, तो मैं अपने पद से इस्तीफा देने के लिए तैयार हूँ। मेरे हिसाब से आज भारत की सबसे बड़ी समस्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देश के कोने-कोने में फैलने से रोकना है। राष्ट्र सेवा दल ही एकमात्र ऐसा संगठन है जो इसका पर्याय बनने की क्षमता रखता है इसीलिए मैंने अध्यक्ष बनने का फैसला किया और आज मैं यह घोषणा कर रहा हूँ। यह खुशी की बात है कि मेरे संघ मुक्त भारत के घोषणापत्र का एक भी प्रतिनिधि ने विरोध नहीं किया। मैंने दो साल तक अध्यक्ष के रूप में अपना पद निभाया।
उसी आधार पर मैंने तुरन्त ही बंगाल, बिहार, झारखंड का संयुक्त शिविर आयोजित किया। बंगाल में तिलौतिया, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश, असम और उत्तर पूर्व, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आंध्र-तेलंगाना, तमिलनाडु, गोवा, गुजरात, केरल, दिल्ली, हरियाणा यानि देश के सभी राज्यों में राष्ट्र सेवा दल की गतिविधियों के प्रसार की संभावनाओं को तलाशने का प्रयास किया। जहाँ भी मुझे अनुकूल परिस्थितियां मिली, वहाँ मैंने पाँच-छह बार किया। उस दौरान कुछ स्थानों पर शिविर और सम्मेलन आयोजित किए गए। अध्यक्ष पद पर रहते हुए मैंने इन दो सालों में अपनी तरफ से बहुत प्रयास किए। इसके बाद 2019 में पद मुक्त हो गया लेकिन मैं मरते दम तक राष्ट्र सेवा दल का सिपाही बना रहूँगा!
अचानक मेरी नज़र वाल्टर के. एंडरसन और श्रीधर डी. दामले द्वारा लिखी गई ‘द आरएसएस एव्यू टू द इनसाइड’ पुस्तक पर पड़ी। मुझे लगा कि इसे ठीक से पढ़ना चाहिए। मैं इसे रात के 2 बजे तक पढ़ता रहा। सुबह उठने के बाद मैंने सोचा कि मुझे आप लोगों के साथ आरएसएस के संगठनात्मक तथ्य और आंकड़े साझा करने चाहिए। ताकि हम पढ़ते-लिखते और बोलते समय यह जान सकें कि आरएसएस की सौ साल की यात्रा में उसकी संगठनात्मक ताकत क्या है? उसका सामना करने के लिए हम कैसे तैयार हो सकते हैं? यह पुस्तक पेंगुइन इंडिया ने 2018 में प्रकाशित की थी। हालांकि लेफ्ट वर्ड ने एक साल बाद 2019 में एजी नूरानी की 547 पेज की पुस्तक ‘द आरएसएस’ भी प्रकाशित की। देशराज गोयल, जो खुद लंबे समय से आरएसएस से जुड़े हैं, उनकी भी ‘आरएसएस’ नामक पुस्तक हिंदी और अंग्रेजी में उपलब्ध है। भंवर मेघानी और प्रोफेसर शमशुल इस्लाम, डॉ. राम पुनियानी, प्रो जयदेव डोले, प्रो रावसाहेब कस्बे, डॉ. बाबा अधव, देवनूर महादेवन और मधु वाणी जैसे कार्यकर्ताओं के हजारों लेख और वीडियो सामग्री उपलब्ध है। लेकिन इस पुस्तक में, दोनों लेखकों ने 405 पृष्ठ की पुस्तक को अकादमिक तरीके से लिखा है, तटस्थता के साथ बिना किसी आलोचना या टिप्पणी के।
आरएसएस 1990 के बाद दुनिया का सबसे बड़ा संगठन बना। संघ की वर्तमान संगठनात्मक ताकत के आंकड़ें देखें तो दैनिक गतिविधियों में दो करोड़ लोग भाग लेते हैं। जिसमें 57000 दैनिक शाखाओं, 14000 साप्ताहिक शाखाओं, 7000 मासिक शाखाओं तक, देश के विभिन्न क्षेत्रों में 36,293 शाखाओं का विस्तार है। ये 2016 के आंकड़े हैं। वर्ष 2015 से 2016 के दौरान शाखाओं की संख्या 51,332 से बढ़कर 57000 हो गई। संघ 6000 प्रचारकों की मदद से हिंदू राष्ट्रवाद के प्रचार के लिए लगातार जुटा हुआ है।
इसके अलावा 1980 के बाद अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिंदू परिषद के अलावा जीवन के हर क्षेत्र के लिए अलग-अलग इकाइयों का गठन किया गया। जिसमें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, स्वदेशी जागरण मंच, अखिल भारतीय उपभोक्ता संगठन, वरिष्ठ नागरिक मंच, वनवासी कल्याण आश्रम, विज्ञान भारती, ज्ञान प्रबोधिनी जैसी महत्वपूर्ण संस्थाएं शामिल हैं। इसके अलावा दीनदयाल शोध संस्थान, रामभाऊ म्हालगी अकादमी जैसी संस्थाओं का गठन किया गया। इसी तरह देवरस जब संघ के प्रमुख बने तो उन्होने सबसे पहले यह बात कही कि भारत जैसे बहुजातीय देश में संघ के ब्राह्मणवादी स्वरूप को बदलने की जरूरत है और इसे बदलने की ऐतिहासिक पहल शुरू की। इसी वजह से स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में आदिवासियों के बीच अपने काम को बढ़ाया और मुख्य रूप से एनजीओ के माध्यम से आदिवासी और ग्रामीण इलाकों में कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिए ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ की स्थापना की।
1989 में उनके कार्यकाल में परियोजनाओं की संख्या 5000 से बढ़कर दस गुना होते हुए 1998 में 1,40,000 और 2012 में 1,65,000 हो गई। महाराष्ट्र के आदिवासी क्षेत्रों का दौरा करने के बाद पत्रकारों से बात करते हुए देवरस ने कहा कि ‘45-48 विभागीय (आरएसएस भारत की संघीय व्यवस्था में विश्वास नहीं करता है, इसलिए उन्होंने अपनी भाषा में और अपनी सुविधानुसार विभाग बनाए हैं) कार्यकर्ताओं को विशेष रूप से सेवा के क्षेत्र में काम करने के लिए जुटाए जाने की आवश्यकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा और आरएसएस के साथ सार्वजनिक योजनाओं पर एक संगोष्ठी आयोजित करने के बाद, दोनों के बीच संवाद शुरू हो गया। नीतिगत योजनाओं के संबंध में, हमने उन्हें जनता के सामने लाना शुरू कर दिया और इस तरह सांस्कृतिक और राजनीतिक मामलों में भारत, एक दूसरे के बीच आदान-प्रदान और सहयोग को मजबूत करने की एक महत्वपूर्ण शुरुआत की।
संघ के 98 साल के सफर में गोलवलकर और हेडगेवार क्रमश: पहले और दूसरे प्रमुख के रूप में 48 साल तक ज़िम्मेदारी संभाले। देवरस ने 21 साल अर्थात पहले तीनों संघ प्रमुखों का कार्यकाल जोड़ें तो 69 साल का रहा। यह तीन संघ प्रमुख, संघ के 100 साल के कम से कम तीन-चौथाई वर्ष रहे। आज का आरएसएस केवल उनकी मेहनत और कल्पनाशीलता के कारण ही अस्तित्व में है। कई लोग आरएसएस पर ‘एक नेता’ होने का आरोप लगाते हैं। लेकिन आज देश भर में आरएसएस के काम के फैलाव को देखते हुए ऐसा लगता है कि उन्होंने जमीनी स्तर पर काफी सोच-विचार के बाद ऐसा संगठनात्मक हिस्सा बनाया ताकि वे इसे एक स्थायी रूप दे सकें। इसके विपरीत, आधे-अधूरे लोगों ने लोकतंत्र की नकल करने के प्रयास में, अपने संगठनों में तथाकथित चुनावों की नकल की। वर्तमान चुनाव प्रणाली की सभी विकृतियों के साथ, संगठन में फर्जी सदस्य, फर्जी पार्षदों से लेकर चुनाव का खेल खेलने के लिए पैसों से अपनी जेबें भरीं और अन्य सभी चुनावी धांधलियां कीं।
तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने पसंदीदा लोगों को उन पदों पर बिठाने के लिए अनेक प्रकार के हथकंडों का इस्तेमाल करते हैं। उनकी पूरी ऊर्जा सिर्फ़ और सिर्फ़ चुनावों के इर्द-गिर्द ही घूमती नज़र आती है। वे इस बात पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते कि चुने गए लोगों में उनके संगठन को बढ़ाने की क्षमता है या नहीं।
वे उनके इशारों पर नाचते हैं। इसी साधारण तथ्य के आधार पर उनके संगठनों में महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियाँ की जाती हैं और यही कारण है कि देश के सभी संगठनों की स्थिति संघ के सामने नगण्य होते हुए भी देश की 140 करोड़ की आबादी में एक भी ऐसा संगठन नहीं है जो संघ को चुनौती देने की क्षमता रखता हो। यही कारण है कि संघ दिन-रात तरक्की कर रहा है।
बालासाहेब देवरस, संघ के अध्यक्ष के रूप में अपने 1973-94 के इक्कीस वर्ष के कार्यकाल के दौरान संघ के ब्राह्मण और शहर केंद्रित स्वरूप को बदलने का निर्णय लिया था। ग्रामीण क्षेत्रों से सैकड़ों युवाओं को दलितों और आदिवासियों के कल्याण कार्यों के लिए भेजा था। जिसका परिणाम यह है कि आज पूर्वोत्तर राज्यों से लेकर देश के आदिवासी इलाकों और ग्रामीण क्षेत्रों में भी संघ की पैठ बनाने के लिए देवरस के समय में काफी काम हुआ है।
इसी प्रकार इक्कीसवीं सदी का संज्ञान लेते हुए उन्होंने अपनी नीतियों और सदस्यों में परिवर्तन करने के लिए विशेष प्रयास किए हैं। 1990 के बाद से राष्ट्रीय आर्थिक विकास में 400% की वृद्धि होने के कारण विश्व बैंक के अनुसार 1960 की तुलना में 2015 में शहरीकरण दोगुना हो गया है। 1960 में 18%, 1990 में 26% और 2015 में 33% था। किन्से इंस्टीट्यूट के अनुसार मध्यम वर्ग की वृद्धि की गति 2005 में 14% से बढ़कर 2015 में 29% हो गई है। उनके अनुमान के अनुसार 2025 में 44% हो जाएगी। जिसके परिणामस्वरूप मोबाइल फोन का उपयोग करने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
और नरेन्द्र मोदी पहले भारतीय राजनेता हैं जिन्होंने इन्हें अपने नियंत्रण में लिया है। 2007 में गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने थाईलैंड की एक कंपनी को काम पर रखा और अपने विचारों का प्रचार करने के लिए मोबाइल धारकों से ट्रोलिंग शुरू की। इन लोगों की संख्या शुरुआत में हजारों में थी लेकिन अब यह लाखों में है। जिसकी तुलना मैंने ‘भगवा डिजिटल आर्मी’ से की है। ये लोग 12 महीने 24 घंटे दूसरे विचारों के लोगों के खिलाफ अपना दुष्प्रचार और बदनामी अभियान चलाते रहते हैं। जिसके लिए फर्जी खबरों का इस्तेमाल किया जाता है। यहां तक कि ये बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सीरिया की घटनाओं को भी तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं जैसे कि वो भारत में घटित हुई हों।
मुख्यधारा की मीडिया संगठनों की मदद से यही करते हैं। जैसे, गुजरात चुनाव के दौरान कोलकाता के मोमिनपुर में मुस्लिम समुदाय किस तरह हिंदुओं जो अत्याचार किया, उसकी 5-10 मिनट की क्लिप ‘आजतक’ जैसे चैनलों पर लगातार दिखाई जा रही थी। भगवा डिजिटल आर्मी इसे व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के माध्यम से फैला रही थी।
सबसे ज़्यादा दर्शक वाले चैनल ‘आजतक’ जैसे वैश्विक समाचार चैनल लगातार ऐसा दावा दिखाता रहा। स्थानीय लोगों का कहा कि, ‘आपसे पहले हमारे इलाके में कोई मीडियाकर्मी नहीं आया था। वे उल्टा कह रहे थे। आप ही हैं जो इसकी जांच कर रहे हैं।’
उस दौरान मुझे कोलकाता से खादीग्राम बिहार के लिए ट्रेन पकड़नी थी। इसलिए, 14 नवंबर 2022 को नागपुर से निकलकर मैं सुबह कोलकाता पहुंचा। खादीग्राम के लिए मेरी ट्रेन शाम को थी। 15 नवंबर को मैं हावड़ा स्टेशन से सीधे मोमिनपुर गया। दो-तीन घंटे इलाके में घूमने और स्थानीय लोगों से बात करने के बाद, मुझे कोई भी तथाकथित अफवाह सच नहीं लगी। एक अफवाह यह थी कि ‘मुस्लिम समुदाय ने हिंदुओं का रहना गैरकानूनी बना दिया है।‘ और दूसरी यह कि ‘हिंदू कई दिनों से अपने घरों में बंद हैं।’ पूरे मोमिनपुर में दो-तीन बार घूमने के बाद, मैंने देखा कि कहीं कोई घटना नहीं हुई। लोग हमेशा की तरह व्यवहार कर रहे थे और मैंने आगजनी या तोड़फोड़ की एक भी घटना नहीं देखी। मैंने दोपहर का खाना भी वहीं खाया।
संघ के सरसंघचालकों ने वर्तमान संघ और उसकी कार्यप्रणाली से लेकर हिंदुत्व का बौद्धिक समागम स्थल बनाने का काम किया। कई लोग संघ को सिर्फ़ ब्राह्मणों का संगठन कहने की भूल करते हैं। लेकिन देवरस ने अपने कार्यकाल में पिछड़े, दलित, मुस्लिम और ईसाई लोगों को संघ में प्रवेश देना शुरू किया। नरेंद्र मोदी, आदित्यनाथ, विनय कटियार, उमा भारती जैसे पिछड़ी जातियों के लोग इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं।
नई आर्थिक नीति के दौरान संघ प्रमुख रहते हुए बाला साहब देवरस ने तथाकथित वैश्वीकरण के जल्दबाजी भरे दौर का फायदा उठाते हुए, पहचान की राजनीति को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने बाबरी राम मंदिर आंदोलन के दौरान हर दरवाजे पर ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ के स्टीकर लगवाने का काम किया। 1985-86 में शाहबानो को लेकर कट्टरपंथी मुस्लिम समुदाय द्वारा उठाए गए विवाद के समय नारा निकाला; ‘सवाल आस्था का है, कानून का नहीं।’ इसे और राम जन्मभूमि विवाद के नाम पर पूरे देश में सोमनाथ से अयोध्या तक रथ यात्राओं की श्रृंखला शुरू की।
जिसके बाद नई आर्थिक नीतियों, महंगाई, बेरोज़गारी, विस्थापन, पर्यावरण और रोज़मर्रा के सवाल हाशिए पर चले गए। ज़रूरी मुद्दों पर होने वाले आंदोलनों की जगह जन लोकपाल जैसे अजीबोगरीब मुद्दे पर आंदोलन हुए। लेकिन जैसे ही बीजेपी सत्ता में आई, उसके बाद यह ठंडा पड़ गया। इसका मतलब है कि इस आंदोलन के पीछे संघ के लोग थे। वे रोज़ सुबह 5 बजे तय करते थे कि जंतर- मंतर पर क्या होगा। यहां तक कि कौन से नारे लगाने हैं और कौन से नहीं, कौन मंच पर होगा और कौन नहीं। इसका मतलब है कि जन लोकपाल एक जोकर बन गया। दुर्भाग्य की बात है कि उस समय अच्छे लोग उस हवा में बह गए। जिन्हें बाद में दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर फेंक दिया गया।
दलितों से लेकर पिछड़ी जातियों व आदिवासियों तक उनकी पैठ होने के कारण, कम्युनिस्टों, समाजवादियों, नक्सलवादियों से लेकर अंबेडकरवादियों व कई एनजीओ, मज़दूर संगठनों तक जो धर्मनिरपेक्ष थे, देखते ही देखते ज़्यादातर लोग हिंदुत्ववादियों के चंगुल में फँस गए। भागलपुर से लेकर गुजरात तक के दंगों में उन्होंने अगुआ की भूमिका निभाई। बाबरी मस्जिद के विध्वंस से लेकर अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ़ मॉब लिंचिंग जैसे हमलों में वे सबसे आगे रहे।
सत्तर के दशक में पूरे उत्तर भारत में अगड़ी और पिछड़ी जातियों की राजनीति शुरू हो गई। मंडल की जगह वे कमंडल की राजनीति करने में सफल रहे। यही कारण है कि पिछड़ी जातियों के अधिकांश लोग मंदिर आंदोलन से जुड़ने लगे। इसी वजह से कल्याण सिंह, उमा भारती, विनय कटियार जैसे लोगों को उत्तर भारत की राजनीति में बढ़ावा मिलना शुरू हो गया।
बीएसपी, एसपी और समता पार्टी यानी एक समय में नीची जाति के समाजवादी जॉर्ज फर्नांडिस का एनडीए के अध्यक्ष बनने तक का सफर राजनीतिक आत्महत्या का सफर रहा है। गुजरात दंगों के समर्थन में लोकसभा में बोलने से लेकर उड़ीसा के कंधमाल में फादर ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बच्चों को जला देने की घटना को क्लीन चिट देने के पतन की हद तक चले गए। उनके इस पतनशील व्यवहार के बारे में मैंने अलग से ‘मेरे समय का हीरो आज जीरो है’ शीर्षक से लिखा है।
अन्यथा नरेंद्र मोदी जैसे व्यक्ति को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभालने के लिए नहीं चुना जाता। भारत को सौ साल पहले नाजी जर्मनी की स्थिति में ले जाना आज संघ परिवार के अथक प्रयासों का परिणाम है। दिल्ली में फिर से नरेंद्र मोदी की सरकार है, जिसने पहले चरण में नोटबंदी जैसे फैसले से देश की आर्थिक स्थिति खराब कर दी और आम लोगों की हालत दयनीय हो गई। जिसने दो करोड़ नौकरियों की घोषणा की, उसने उलटे और अधिक लोगों को बेरोजगारी का दंश झेलने पर मजबूर कर दिया। महंगाई आसमान छूने लगी। सत्ता में आने से पहले घरेलू गैस की कीमत 300 रुपये से बढ़कर 1000-1100 रुपये तक पहुँच गई। दाल, सब्जी और घरेलू सामान की कीमत से लेकर पेट्रोल-डीजल की कीमत कितनी बढ़ी है? किसानों के साथ कितना अन्याय हुआ! लेकिन उसके बावजूद 2023 में फिर से सत्ता में वापसी एक रहस्य है।
आरएसएस संगठन की संरचना, उसकी कार्यशैली, तथा अन्य क्षेत्रों में संघ के विस्तार का ग्राफ, उसकी शाखाओं, उपशाखाओं की संख्या के साथ राजनीतिक इकाई भाजपा के मतों के अनुपात से लेकर संख्यात्मक बढ़त दर्शाता है कि संघ ने देश की आधी से अधिक आबादी को अपने प्रभाव में ले लिया है। शिक्षा के क्षेत्र में, आज भारत में छात्रों, शिक्षकों तथा कुलपतियों की संख्या को देखते हुए ऐसा लगता है कि आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बराबरी करने की क्षमता किसी अन्य संगठन में नहीं है।
मैं पचास वर्षों से अधिक समय से राष्ट्र सेवा दल के काम का अनुसरण कर रहा हूं। तब से मुझे एहसास हुआ कि हम भी मतलब राष्ट्र सेवा दल 4 जून 2023 को 82 वर्ष का हो जाएगा और संघ 2025 में अपना शताब्दी वर्ष मनाएगा। हमारी और उनकी उम्र में केवल सोलह वर्ष का अंतर है। जबकि हमारी स्थापना के दूसरे वर्ष में, हमने मुंबई जैसे शहर में 125 शाखाएं फैलाई थीं। मुंबई की मिलों की तरह, हमारी 125 शाखाओं की गतिविधियाँ तीन शिफ्टों में आयोजित की गई थीं। यह बात मुझे 2017 में अध्यक्ष के रूप में मेरे कार्यकाल के दौरान पालघर के 90 वर्ष से अधिक उम्र के नवनीत भाई शाह ने एक मुलाकात के दौरान बताई थी। वहीं 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा के बाद की बात है। भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में पूरे महाराष्ट्र में राष्ट्र सेवा दल द्वारा आयोजित दौरे के दौरान, पहली बार यह बात सामने आई है कि अकेले राष्ट्रीय सेवा दल के एक हजार से अधिक शहीद तीस वर्ष से कम उम्र के थे।
गोवा की आजादी की लड़ाई में बेलगाम और गोवा, महाराष्ट्र और कर्नाटक के अन्य सीमावर्ती क्षेत्रों से राष्ट्रीय सेवा दल के सैकड़ों सैनिकों ने हिस्सा लिया था, जिनमें बैरिस्टर नाथ पई, मधु लिमये, मधु दंडवते, नानासाहेब गोरे, महादेव जोशी, एडवोकेट राम आप्टे, मेनासे, वासु देशपांडे और अन्य सैकड़ों लोग शामिल थे। इसी तरह हैदराबाद के निजाम के खिलाफ मराठवाड़ा राष्ट्रीय सेवा दल के सैकड़ों लोगों ने प्रोफेसर नरहर कुरुंदकर से लेकर अनंतराव भालेराव, डॉ. बापू कालदाते, गंगाप्रसाद अग्रवाल, विनायकराव चर्थनकर, गोविंद भाई श्रॉफ, जस्टिस नरेंद्र चपलगांवकर ने अपनी जान की परवाह किए बिना हिस्सा लिया था। स्वतंत्रता आंदोलन, हैदराबाद मुक्ति आंदोलन और गोवा मुक्ति आंदोलन में राष्ट्रीय सेवा दल के हजारों सदस्यों ने अपनी जान की परवाह किए बिना भाग लिया, आज यह एक विडंबना है कि इन सभी लड़ाइयों से गायब रहने वाले संघी राष्ट्रवाद और देशभक्ति का प्रमाण पत्र बांट रहे हैं। और आज हम कहां हैं? आरएसएस कहां है? शायद हम लंबे समय से आरएसएस को संकीर्ण सोच वाला कहते आ रहे हैं। लेकिन इस किताब की शुरुआत में ही प्रस्तावना में बहुत अच्छे से बताया गया है कि देवरस (1980) के नेतृत्व में संघ ने त्रिपुरा में सुनील देवधर जैसे अपने अनुयायियों को भेजकर दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के बीच पहचान की राजनीति को बढ़ावा देकर अपनी पैठ बनाने की कोशिश की है।
पचास साल से भी ज्यादा समय से हमारे मित्र कामरेड शरद पाटिल, मेधा पाटकर, कुमार शिरलकर, किशोर धमाले, वाहरू सोनवणे, अम्बरसिह महाराज, प्रतिभा शिंदे ने आदिवासियों के विस्थापन या उन्हें जमीन के पट्टे दिलाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर पहचान की राजनीति में संघ के लोग उन पर भारी पड़ गए। साल 1990 के तथाकथित वैश्वीकरण के संक्रमण काल में और बाबरी मस्जिद-राम मंदिर आंदोलन के कारण कई आर्थिक समस्याओं के बावजूद लोगों के आर्थिक मुद्दों पर जितने आंदोलन होने चाहिए थे, उससे ज्यादा आंदोलन धार्मिक आधार पर हुए।
रथयात्रा से लेकर कारसेवा तक के आस्था का सवाल पर जुटे। सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश से लेकर गुजरात के हालिया चुनावों में महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के बावजूद सिर्फ धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर अगड़े-पिछड़े के सिद्धांत से लेकर हर तरह के मुद्दों को छोड़कर केवल ‘गर्व से कहो कि हम हिंदू हैं’ ने चुनाव की नाव पार। यानी सौ साल पूरे होने से पहले ही संघ को अघोषित हिंदू राष्ट्र बनाने में सफलता मिल रही है। इस तथ्य को स्वीकार करने के बाद, इससे निपटने के लिए पहल करने की जरूरत है।
वाल्टर के. एंडरसन, दक्षिण एशिया अध्ययन के प्रोफेसर, स्कूल ऑफ एडवांस्ड इंटरनेशनल स्टडीज (SAIS) जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी, SAIS में शामिल होने से पहले, वे निकट पूर्व और दक्षिण एशिया के विश्लेषण कार्यालय में अमेरिकी विदेश विभाग के दक्षिण एशिया प्रभाग के प्रमुख के रूप में कार्यरत थे और सह-लेखक महाराष्ट्र से हैं, लेकिन वर्तमान में अमेरिका में रह रहे हैं।
वाल्टर के. एंडरसन, दक्षिण एशिया अध्ययन के प्रोफेसर, स्कूल ऑफ एडवांस्ड इंटरनेशनल स्टडीज (एसएआईएस) जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय, एसएआईएस में शामिल होने से पहले, उन्होंने निकट पूर्व और दक्षिण एशिया के विश्लेषण कार्यालय में अमेरिकी विदेश विभाग के दक्षिण एशिया प्रभाग के प्रमुख के रूप में कार्य किया और सह-लेखक महाराष्ट्र से हैं, लेकिन वर्तमान में अमेरिका में रह रहे हैं। श्रीधर डी. दामले अमेरिका में स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार और भारतीय राजनीति के विद्वान हैं।