14 अगस्त, 2022 को नेशनल दस्तक पर प्रख्यात पत्रकार शम्भू सिंह द्वारा लिए गए इन्टरव्यू से मुझे कुछ विचित्र अनुभव हुआ।
उनका पहला सवाल था और उनका भी कहना था कि, हम खुद शूद्र नहीं हैं और संवैधानिक अधिकार से पिछड़ी जातियों को SC, ST, OBC की मान्यता है। अब आप उन्हें शूद्र नहीं कह सकते हैं। वर्ण व्यवस्था में उन्हें हीन भावना से सबसे निम्न कोटि में रखते हुए सिर्फ ऊपर के तीन वर्णों, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करना और उनके पैर दबाने का कामकाज सौंपा गया था।
एक सवाल और था कि आज के संवैधानिक व्यवस्था में आप किसी को चमार शब्द का सम्बोधन नहीं कर सकते हैं, आप के उपर एफआईआर दर्ज हो जाएगी।
पहला सवाल? सिर्फ शम्भू का ही नहीं, बल्कि बहुत से लोगों के दिमाग में सदियों से हीन भावना से ग्रसित होने के कारण ही भ्रम फैला हुआ है।
सबसे पहले बता देना चाहता हूं कि, बेशक, संविधान ने शूद्रों को SC, ST, OBC की मान्यता दी है, हमें स्वीकार करना भी चाहिए, लेकिन क्या सिर्फ हमें ही स्वीकार करना चाहिए? क्या तीनों वर्णों पर यह लागू नहीं होना चाहिए? क्या सामाजिक व्यवस्था में एक परसेंट भी संविधान के अनुरूप व्यवहार हो रहा है। कड़वा सच है कहीं भी, किसी भी तरह से लागू नहीं हो रहा है। सत प्रतिशत समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनिया और फिर शूद्रों की छ: हजार जातियां ही समाज में व्यावहारिक रूप से चल रही है। तो शूद्र लगाने की उपाधि पर सिर्फ हमसे ही शूद्र पर सवाल क्यों?
[bs-quote quote=”मनुवादी यह जानते हैं कि जैसे-जैसे शिक्षा का सही और वैज्ञानिकता आधारित प्रचार-प्रसार हो जाएगा तो आने वाले दिनों में, चमार, लोहार, बढ़ई, कोहार अहीर, कास्तकार, नाई, धोबी, जोलाहा, बुनकर, मिस्त्री आदि अनेक जातियों के साथ सम्मानपूर्वक आविष्कार, इंजीनियरिंग, उत्पादनकर्ता का टैग जुड़ जाएगा और हमारा भेद खुल जाएगा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दूसरा सवाल? शूद्रों को सिर्फ सेवा करना और पैर दबाना? ऐसी बुद्धिहीन, गुलाम मानसिकता के लोगों से खेदभरी आपत्ति पिछले सात सालों से ही जताते आ रहा हूं।
सोचिए! पहले ब्राह्मणवादी थोपी गई मानसिकता से बाहर निकलिए! चमार, मरे हुए पशुओं के चमड़े पर रिसर्च करके, उसे पकाकर, फिर हर तरह के शेप और डिजाइन का आविष्कार कर, सभी मानव जाति के लिए चमड़े के जूते-चप्पल, चमड़े के छोटे-बड़े बैग, पेटी और भी जीवनोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन कर, सभी समाज को सुख और सुविधाओं से सम्पन्न बनाया।
यदि सदियों से मानवीय मूल्यों पर आधारित, ब्राह्मण या सभी समाज ने, उनको काम के अनुसार मान-सम्मान और उचित मूल्य दिया होता तो, कल्पना कीजिए, वह समाज आज कहां होता? क्या अब्राहम लिंकन की तरह इस देश का राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री नहीं होता?
इस पूरी प्रक्रिया में सिर्फ सेवा करना और पैर दबाने का टैग लगा देना, कहां तक और कैसे उचित हो सकता है?
ठीक इसी तरह कुम्हार, जरा कल्पना कीजिए, 500-600 साल पहले खाने-पीने की जरूरतों के लिए बर्तनों, सामान रखने और भी कई तरह के उपयोग में लाए जाने लायक सामानों का आविष्कार और उनका उत्पादन, भव्य मकान या इमारत और उन पर आलीशान अद्भुत नक्काशी वाली कारीगरी, जो आज भी देखने को मिल जाया करती है। क्या इसमें किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य का किसी तरह का योगदान है? क्या इन्हें सिर्फ सेवा करने वाला, निकृष्ट, नींच, दुष्ट, पापी कहने या बोलने में आपको अपराध बोध नहीं होता है। यदि सच में नहीं होता है तो, आप इन्सान ही नहीं हो। हैवान हो!
लोहार या बढ़ई का नाम भी आप कुछ लोगों ने सुना होगा, आने वाले जनरेशन के लिए जान-बूझकर यह नाम गायब कर दिया जाएगा, क्योंकि इस नाम से लोहे या लकड़ी से जुड़े हुए रिसर्च, इंजीनियरिंग और फिर उत्पादनकर्ता का लेबल लगा हुआ है। इसलिए मनुवादियों को यह नाम बहुत खटकता है, यदि नहीं। तो, कैसे और किस मानसिकता से सेवा करने और पैर दबाने का टैग इस जाति पर लगाया जा सकता हैं?
इसी तरह विभिन्न तरह के रिसर्च और फिर जीवनोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन करने वाली सभी कर्मशील जातियों को शूद्र की श्रेणी में डाला गया है।
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अभी-अभी 13 सितंबर, 2022 को वेबसाइट gaonkelog.com इंस्ट्राग्राम पर छत्तीसगढ़ के बसोड़ आदिवासियों द्वारा बांस के पतले-पतले छिलके के द्वारा तरह-तरह के जीवनोपयोगी वस्तुएं, सूप, डोलची, टोकरी, दउरी आदि कई प्रकार के खिलौने आदि बनाने की कारीगरी देखकर मैं स्तब्ध रह गया। उस लेख को मैंने सोशल मीडिया पर प्रसारित भी किया था। क्या आज हम लोग इस वैज्ञानिक युग में, इतने पत्थर दिल के हो गए हैं कि इन कारीगरों के प्रति अपनी मानसिकता नहीं बदल सकते। क्या हम लोग इतने संवेदनहीन हो गए है? मेरा अनुभव भी है कि इन्हें इनकी मेहनत और हुनर की सही कीमत नहीं मिलती है तो, कम से कम इनकी कला को मान-सम्मान तो देना चाहिए।
चमार शब्द का प्रयोग, मिशन गर्व से कहो हम शूद्र हैं के लिए पिछले सात सालों से मैं बराबर कर रहा हूं, इन्टरव्यू में शम्भूजी ने नाम लेते ही टोक दिया और पूरा जवाब नहीं देने दिया।
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इन्टरव्यू के बाद उनसे हमारी काफी तीखी बहस भी हुई। चमार शब्द का प्रयोग आप किस परिप्रेक्ष्य में कर रहे हैं, उसके ऊपर एफआईआर डिपेंड करती है। मैंने कहा कि मैं चमार शब्द का प्रयोग उन्हें मान-सम्मान दिलाने के उद्देश्य से कर रहा हूं। हमारे कई दोस्त हैं जो सरनेम चमार भंगी लिखते हैं। चमारजी, चमार साहब बोलिए, कोई विरोध क्यों करेगा? मैंने यह भी कहा कि हमारे एक विद्वान दोस्त हैं, उनका नाम ही भंगी राजतिलक है तो उनको आप कैसे सम्बोधन करेंगे? बताइए। कुछ सहमति जताए, लेकिन चलते-चलते मैंने खेद व्यक्त करते हुए कहा कि यह मेरा इन्टरव्यू आप अपने चैनल पर अपलोड मत करिएगा, क्योंकि मैं इससे संतुष्ट नहीं हूं, आपने मुझे बराबर जवाब नही देने दिया, हर समय टोकते रहे। उनका कहना था इन्टरव्यू लोड करना या नहीं करना मेरे अधिकार क्षेत्र में है। उनको मैंने एक प्रोग्राम का भाषण भी चैनल पर अपलोड करने के लिए दिया था, जिसमें मैंने चमार शब्द का प्रयोग किया था, इसी आधार पर आप उसे भी अपने चैनल पर अपलोड मत करिएगा। उन्होंने कहा एडिटिंग करके लोड कर दूंगा। लेकिन पता नहीं मुझे क्या सूझी कि, आफिस से बाहर आते ही उनको टेलीग्राम पर दिए हुए मैसेज को डिलीट कर दिया। मांफी चाहता हूं, उस समय तक, जो अगाध सम्मान उनके प्रति मेरे दिल में था, उस दिन से उसमें कुछ गिरावट आ गई है।
उस एडिटेड इन्टरव्यू को, 22अगस्त को उन्होंने अपने चैनल नेशनल दस्तक पर अपलोड किया हुआ है।
मांफी चाहता हूं, इस पूरे प्रकरण में सिर्फ शम्भूजी का ही दोष नहीं है, ब्राह्मणवादी द्वारा पोषित परम्परा इसके लिए दोषी है, जिससे निजात पाना हम सबकी जिम्मेदारी है।
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इस इन्टरव्यू से यह निष्कर्ष निकला कि, मनुवादी यह जानते हैं कि जैसे-जैसे शिक्षा का सही और वैज्ञानिकता आधारित प्रचार-प्रसार हो जाएगा तो आने वाले दिनों में, चमार, लोहार, बढ़ई, कोहार अहीर, कास्तकार, नाई, धोबी, जोलाहा, बुनकर, मिस्त्री आदि अनेक जातियों के साथ सम्मानपूर्वक आविष्कार, इंजीनियरिंग, उत्पादनकर्ता का टैग जुड़ जाएगा और हमारा भेद खुल जाएगा। इसलिए उन पुस्तैनी नामों को बदला जा रहा है, फिर आने वाले जनरेशन को यह बताने की कोशिश करेंगे कि सभी तरह के रिसर्च, इंजीनियरिंग और उत्पादन में ब्राह्मणों का योगदान था। इसी क्रम में फिर शूद्रों के सहयोग से, साबित करने में सफल हो जाएंगे कि, शूद्रों को सिर्फ सेवा करना और पैर दबाने का ही काम वर्ण व्यवस्था में दिया गया था।
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अंत में शम्भूजी तथा सभी शूद्र भाइयों से यही अनुरोध है कि सदियों से थोपी गई ब्राह्मणवादी मानसिकता, जिसने एक परम्परा का रूप ले लिया है, उससे निजात पाइए और दूसरों की भी मानसिकता बदलने का हर सम्भव प्रयास करिए।
लेखक शूद्र एकता मंच के संयोजक हैं और मुम्बई में रहते हैं।
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