Saturday, July 27, 2024
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बढ़ता जा रहा है सोरघाटी का जल संकट, गायब हो रही जैव विविधता

पश्चिमी हिमालय में आने वाले कुमाऊँ क्षेत्र के पिथौरागढ़ और यहाँ रहने वाले लोगों का गला अब सूखने लगा है। पानी का बिल चुकाते लोगों के घरों तक जो पानी पहुँच भी रहा है, उसकी गुणवत्ता का पता इसी बात से चलता है कि जर्जर हो चुकी स्वास्थ्य सुविधाओं के बीच, दूषित पानी से होने […]

पश्चिमी हिमालय में आने वाले कुमाऊँ क्षेत्र के पिथौरागढ़ और यहाँ रहने वाले लोगों का गला अब सूखने लगा है। पानी का बिल चुकाते लोगों के घरों तक जो पानी पहुँच भी रहा है, उसकी गुणवत्ता का पता इसी बात से चलता है कि जर्जर हो चुकी स्वास्थ्य सुविधाओं के बीच, दूषित पानी से होने वाली बीमारियाँ, जैसे पीलिया, टाइफाइड, हेपटाइटिस, डायरिया अब यहाँ समान्य मानी जाती हैं। पिथौरागढ़ जिले में काली, सरयू और पूर्वी रामगंगा जैसी सदानीरा नदियां बहती हैं। यहाँ अभी तक छोटे-छोटे गाड़-गधरे (छोटी-छोटी सरिताएँ) धारे और नौले (गड्ढा नुमा पानी का स्रोत, जिसमें छत, दीवाल और खुले दरवाजे होते हैं) अपने हिस्से का पानी छलकाते हैं, पर आज यही पानी सील लगी बोतलों में बंद हो चुका है। पानी के इन अधिकतर जलस्रोतों में पाई जाने वाली जैवविविधता गायब होने को है। एक समय कृषि सम्पन्न माने जाने वाला पिथौरागढ़ आज खेती करना भूल चुका है।

पानी की कमी और इसकी गुणवत्ता से जूझता शहर

कुमाऊँ क्षेत्र के सबसे बड़े जिले पिथौरागढ़ की नगरीय (नगर पालिका क्षेत्र) जनसंख्या लगभग 70,000 के करीब है। जिला मुख्यालय से लगे इसी इलाके को लोग प्यार से सोर घाटी या मिनी कश्मीर पुकारना पसंद करते हैं। कश्मीर के श्रीनगर की तरह यहाँ कोई प्राकृतिक झील तो नहीं है, लेकिन अगर हम यहाँ की मिट्टी खोदते-छानते हुए, इसके भौगोलिक इतिहास को तलाशें तो पाएंगे कि वर्षों पहले यहाँ एक झील हुआ करती थी, जो कि भूगर्भीय हलचलों के कारण रिसने लगी और बाद में दलदली और कछार से भरी बेहद उपजाऊ जमीन में तब्दील हो गई। इसी जमीन पर सबसे पहले कोल समाज के लोगों ने धान और अन्य फसलों की खेती करना शुरू किया।

[bs-quote quote=”हाल ही में नीति-निर्माताओ ने यहाँ कुछ परियोजनाओं पर काम शुरू किया है, जिसमें एसटीपी प्लांट, थरकोट झील का निर्माण आदि शामिल हैं। इनका प्रयोग पर्यटन, सिचाई और पीने के पानी लिए संभव है। यहाँ यह समझना होगा कि किसी भी मानव निर्मित झील, तालाब, टंकियों या पाइपो में पानी किसी जलस्रोत से ही आता है और उसको बचाने की जरूरत सबसे पहले होनी चाहिए।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आमतौर पर पहाड़ों में पानी की कमी होती है, लेकिन 1600 मीटर की ऊंचाई में स्थित इस घाटी में धान और इसकी कई किस्में (जिन्हें खूब पानी चाहिए) आसानी से उगाई जाती थी। पूरा घाटी क्षेत्र दो गाड़ो (छोटी-छोटी नदियाँ) रंधौला और रई (यक्षवती) से सिंचित रहता था। इन गाड़ो में इतना पानी हुआ करता था कि इसमें बनने वाली तालें काफी गहरी हुआ करती थीं, जहां लोग तैराकी और मछली पकड़ा करते थे। ये दोनों गाड़, सेरादेवल में मिलकर ठुलीगाड़ बन जाती है, जो आगे जाकर काली नदी में मिलती है।

अनाज को पीसने के लिए प्रत्येक गाँव के पास अपना ‘घराट’ (पन चक्की) हुआ करता था, जो उसी गाँव की किसी गाड़ या गधेरे के पानी से चलता था। गाँव के लोगों की प्यास नौलों और धारो से बुझा करती थी। पानी की इस उपलब्धता के चलते हाल के वर्षों तक पूरा सोरघाटी क्षेत्र कृषि और जल सम्पन्न माना जाता रहा।

सोरघाटी के पानी का संबंध बहुत कुछ यहाँ के स्थानीय मौसम से भी जुड़ा हुआ है। जहां यह माना जाता है कि यदि कुछ दिन गर्मी पड़ने लगे तो तुरंत ही बारिश होने की  संभावना बनने लगती है, जिसका मानसूनी हवाओं से कोई संबंध नहीं होता। इसका एक कारण, इस क्षेत्र का दोआब जैसी स्थिति में होना भी है। जहाँ इसकी पूर्वी दिशा में काली नदी बहती है, वहीं इसके पश्चिम में पूर्वी रामगंगा और सरयू नदी। इन जल धाराओं का वाष्पित पानी जैसे ही ऊपर उठता है, वैसे ही घाटी के उत्तर स्थित महान हिमालय इसे बरसने पर मजबूर कर देता है। घाटी से लगे थलकेदार, मडधुरा, सुवालेक, सौड्लेक के बांज और अन्य चौड़ी पत्तियों वाले पौधों के जंगल इस पूरी प्रक्रिया में अपना योगदान देते हैं।

प्राकृतिक सम्पन्नता के बावजूद सोरघाटी पानी के लिए तरस रही 

पिथौरागढ़ की सीमाएँ उत्तर में तिब्बत और पूर्व में नेपाल से लगती हैं। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद यहाँ सेना आ बसी, उनको पानी की अपनी जरूरतें थीं, जिसके लिए पहली बार ठूलीगाड़ जल परियोजना सामने आई। इस परियोजना ने सेना और शहर के लोगों तक पानी पहुंचाया। क्षेत्र का सबसे बड़ा बाजार सोरघाटी में बसने लगा और आसपास के गाँवों, कस्बों और नेपाल के लोग भी यहाँ आकर बसने लगे। इस कारण यहाँ की जनसंख्या और पानी पर निर्भरता बढ़ने लगी। इसको पूरा कर पाना यहाँ के प्राकृतिक जलस्रोतों के लिए संभव नहीं था। इस कारण शहर से 30 किमी. दूर यानी सरयू नदी से घाट पंपिंग योजना द्वारा शहर में पानी लाया गया।

हालिया 30 वर्षों में सोरघाटी में बेतहाशा निर्माण कार्य से उपजी कालोनियों ने आसपास के गाँवों को निगल लिया है। इनमें से अधिकतर कालोनियों का भवन निर्माण कृषि और सीमार वाली उस दलदली भूमि के ऊपर किया गया है, जो स्थानीय जलस्रोतों का पुनर्भरण करती थीं। कृषि क्षेत्र कम होने के कारण, बारिश का पानी भी नालियों से होता हुआ बह जाता है, जिस कारण स्थानीय जलस्रोतों और भूजल के कैचमेंट एरिया में पानी की कमी होने लगी है। आज इस घाटी को प्रतिदिन 12 एमएलडी पानी चाहिए, जिसे पूरा करने के लिए यह शहर अब पूर्वी रामगंगा में स्थित आंवलाघाट परियोजना तक जा पहुंचा है। अब यहाँ से पानी की जरूरतों को पूरा करने की कोशिश की जा रही है। इस तरह से यह तो साफ है कि पिछले 70 वर्षों मे पानी और सोरघाटी के बीच दूरी बढ़ी है। यह दूरी वक़्त के साथ और बढ़ने वाली है।

सोरघाटी के लोगों और यहाँ के प्रशासन ने कभी भी अपने कूड़े-कचरे, नालियों व सीवरलाइन का उचित रखरखाव नहीं किया। इस कारण स्थानीय जलस्रोतों का बचा पानी भी दूषित हो चुका है, जिसका प्रमाण हाल ही में जल संस्थान द्वारा पानी की जांच में सामने आया। इस जाँच में सिर्फ पाँच स्रोतों का पानी पीने योग्य पाया गया। हालांकि, इस सूची में जल संस्थान द्वारा घरों में दिए जाने वाले स्वयं के पानी की गुणवत्ता से संबन्धित कोई आंकड़ा नहीं था। पिथौरागढ़ शहर की स्वास्थ्य सुविधाएं हमेशा से ही लचर रही हैं। ऐसे में यहाँ का दूषित पानी और इससे जुड़ी बीमारियाँ आम लोगों का जीना दूभर किए रहती हैं।

समय-समय पर स्थानीय जलस्रोतों को बचाने की बात जरूर की गयी, लेकिन व्यावहारिक समझ की कमी के चलते इनके सौंदर्यीकरण के नाम पर कोटा स्टोन, टाइलें और सीमेंट की चिनाई कर दी गयी। इसने पानी के बहाव को और भी कम किया। जलस्रोत में पानी बढ़ाने के लिए उसके कैचमेंट एरिया से संबन्धित न तो कोई योजना बनाई गई, न ही कोई कार्य किया गया, जिससे पानी की कमी बनी रही। ऐसे में लोगों ने भूजल का दोहन करना शुरू कर दिया। इस कारण जगह-जगह बोरवेल और कुएँ बनने लगे, लेकिन सीवर और जल के कुप्रबंधन में कोई कमी नहीं आई। अब यहाँ का अधिकतर भूजल भी प्रदूषित होने के साथ-साथ काफी कम हो चुका है।

इन सब समस्याओं के बीच रही-सही कसर ग्लोबल क्लाइमेट के बदलाव ने पूरी कर दी है। पिछले दस वर्षों में सोरघाटी में कई ऐसे दिन रहे हैं, जब सर्दियों में बारिश और बर्फ न के बराबर गिरी है, जिससे जलस्रोतों का पुनर्भरण नहीं हो पाता। जलावन की लकड़ी के लिए जंगलों पर लोगों की निर्भरता और मवेशियों की संख्या दोनों में कमी आई है। इस कारण आसपास का वन-क्षेत्र कुछ समृद्ध हुआ है, लेकिन गर्मियों में जंगलों में आग की समस्या अभी भी जस की तस है। पानी का मूल कहे जाने वाले इन जंगलों को वैश्विक पर्यावरण में हुए बदलाव और जंगलों की आग ने काफी नुकसान पहुंचाया है।

तो क्या सोरघाटी की पानी की जरूरत को पूरा नहीं किया जा सकता?

सोरघाटी में पानी की समस्या बहुत गंभीर हो चुकी है। कुछ स्थितियों को अब उत्क्रमित नहीं किया जा सकता लेकिन फिर भी कुछ चीजें हैं, जिन पर कार्य करके स्थिति को कुछ हद तक सुधारा जा सकता है।

रेनवॉटर हार्वेस्टिंग : पहाड़ी समाज में पारंपरिक रूप से बारिश होने पर पानी को इकट्ठा करने की परंपरा थी। एकत्र किए पानी को ‘बंधारी का पानी’ कहा जाता था। यह और कुछ नहीं रेनवॉटर हार्वेस्टिंग का ही एक रूप था। आज जहां सोरघाटी में सिर्फ घर ही घर हैं, वहाँ  प्रत्येक घर के लिए रेनवॉटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य होना चाहिए, जिससे कि पारंपरिक जलस्रोतों और भूजल की स्थिति में सुधार किया जा सके। खाली पड़े स्थानों पर चाल-खाल (चार से पाँच फिट का एक आयताकार गड्ढा, जो पहाड़ों के ढलान पर बारिश के पानी को इकट्ठा करने लिए बनाया जाता है) के साथ रिर्वस बोरिंग द्वारा भी पानी को संजोया जा सकता हैं, जो कि पानी को सीधे वॉटर-टेबल तक पहुंचाता है। हालांकि, इस कार्य के लिए उपयुक्त भूगर्भीय अध्ययन जरूरी होगा। 

दूषित जल : तकनीक के इस काल में जोहकासौ सिस्टम  जैसी मशीनों का प्रयोग किया जाना चाहिए। जोहकासौ एक जापानी तकनीक है, जो कि घर से निकलने वाले गंदे पानी और सीवेज को इतना साफ कर देती है कि उसे किसी भी जल धारा में छोड़ा जा सकता है। आईआईटी रुड़की द्वारा इस तकनीक की जांच की गई, जिसके आधार पर इसे पहाड़ों के लिए सबसे उपयुक्त पाया गया है। घरों के छोटे-छोटे समूहों के लिए प्लांट लगा कर दूषित जल की समस्या को काफी हद तक सुलझाया जा सकता है।

सामाज और नीति-निर्माताओ की समझदारी 

हाल ही में नीति-निर्माताओं  ने यहाँ कुछ परियोजनाओं पर काम शुरू किया है, जिसमें एसटीपी प्लांट, थरकोट झील का निर्माण आदि शामिल हैं। इनका प्रयोग पर्यटन, सिंचाई और पीने के पानी लिए संभव है। यहाँ यह समझना होगा कि किसी भी मानव निर्मित झील, तालाब, टंकियों या पाइपों में पानी किसी जलस्रोत से ही आता है और उसको बचाने की जरूरत सबसे पहले होनी चाहिए।

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चिंता का विषय है पहाड़ों पर कूड़े का ढेर

समय के साथ पारंपरिक जल स्रोतों पर समाज और स्थानीय लोगों की निर्भरता कम हुई है। आलम यह है कि शहर के किसी बच्चे से पूछो कि आपके घर में पानी कहाँ से आता है? तो उत्तर होता है- टंकी से। हमें खुद को और आने वाली पीढ़ी को समझाना होगा कि पानी के लिए हमारे आस-पास के जंगल, गाड़, गधेरे और नदियां कितनी जरूरी हैं। इनको साफ रखने और इनके जल की मात्रा को बढ़ाने का उपक्रम हम सभी को मिलकर करना होगा।

यहाँ के पहाड़ी समाज को समझना होगा कि कैसे पिछले 70 वर्षों में सोरघाटी से पानी दूर होता गया। आने वाले समय में पानी के संचय की उपयुक्त व्यवस्था नहीं हुई, तो निःसंदेह खरीदकर पानी पीने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होगा। गंभीर सवाल यह है कि क्या पानी को खरीद पाना यहाँ के लोगों के सामर्थ्य में होगा? क्या उस पानी से सोरघाटी की प्यास बुझ पाएगी?

मनोज मटवाल पर्यावरण कार्यकर्ता हैं।

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