मिर्जापुर जिले के किरियात इलाके में रामविलास बिन्द के किस्से आज भी सुनाई पड़ते हैं। बहुत से लोग उन्हें एक बहादुर व्यक्ति के रूप में याद करते हैं जो कभी किसी से नहीं डरा। पुलिस के बड़े-बड़े अधिकारी उनके खौफ़ से कभी सामने नहीं पड़ते थे। कुछ लोग कहते हैं कि कई सूरमा अपनी वीरता के डींगें हाँकते थे लेकिन रामविलास बिन्द का सामना होने पर भय से पीले पड़ गए और उनके मुंह से आवाज तक न निकली।
उनके डकैत बनने की कहानी कहते हुये कुछ लोग कहते हैं कि वह पहले पत्थर गढ़ते थे लेकिन एक सामंत ने जब उनकी मजदूरी नहीं दी तब वे बागी हो गए और उसे मार डाला। तभी से उनका किस्सा मशहूर हो गया और लंबे समय तक उनको पकड़ना किसी के लिए भी नामुमकिन हो गया।
कुछ किस्सों में रामविलास बिन्द रॉबिनहुड थे जो अमीरों को लूटते और गरीबों की मदद करते थे। जो भी उनके पास गया उन्होंने पूरी तरह उसकी मदद की। अपने इलाके की दर्जनों लड़कियों की शादी कराई।
एक किंवदंती के अनुसार एक बार एक लड़की की शादी में वे कन्यादान के लिए स्त्री के वेश में पहुंचे। वहाँ पहले से सादे वेश में पुलिस मौजूद थी लेकिन कन्यादान करने के बाद वह कब वहाँ से निकल गए किसी को पता नहीं चला। कुछ लोगों का कहना है कि जब वे जाने लगे तो उनके डील-डौल और पाँव के जूतों से पुलिस ने अनुमान लगा लिया कि यही रामविलास बिन्द हैं लेकिन जब तक वे उनको पकड़ पाते तब तक वह निकल गए।
ऐसे अनेक किस्से हैं जो लोग बताते हैं। मुझे लगा कि इन किस्सों की तसदीक करनी चाहिए। इसके लिए हम चुनार तहसील के सीखड़ ब्लॉक स्थित मढ़िया गाँव में गए जहां रामविलास बिन्द के बड़े बेटे विजय शंकर बिन्द अपने परिवार के साथ रहते हैं।
कौन थे रामविलास बिन्द
रामविलास बिन्द का गाँव मढ़ियां सीखड़ ब्लॉक में स्थित है। यह गाँव गंगा नदी के किनारे है जिसे किरियात कहा जाता है। इसी गाँव में उनके बड़े पुत्र विजय शंकर अपने परिवार के साथ रहते हैं। मरून रंग के एक छोटे से गेट पर लोहे से रामविलास भवन लिखा है। अंदर एक गाय और उसके बछड़े के पास एक चारपाई पर विजय शंकर बैठे मिले।
विजय शंकर बताते हैं ‘ मैं ‘कुख्यात’ डकैत रामविलास बिन्द का बड़ा लड़का हूँ। सन 1974 में नैनी सेंटल जेल के पास मेरे पिता का एनकाउण्टर हो गया। मेरे पिताजी एक अच्छे आदमी थे, सिर्फ यहां के लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि सब जगह के लिए। किसी गरीब को उन्होंने तमाचा तक नहीं मारा। जहां तक हो सका बहू-बेटियों का शादी-ब्याह करवाए। हाथ जोड़कर जो भी उनके सामने आया, उन्होंने खुले हाथ से उसकी मदद की। यहां से लेकर बराकस, झरिया, आसनसोल तक उनकी दौड़ थी। यह भी नहीं कि था कि वे ज्यादा पढ़े-लिखे थे।
‘जब उनकी मृत्यु हुई उस समय उनकी उम्र 45-50 साल के बीच में थी। उस समय मेरी उम्र 12 साल थी। 1971 में वे जेल से भागे थे। यहां आने पर उन्होंने कल्लू पहरी का कत्ल कर दिया। कत्ल करने बाद उनका पकड़ने का दौर शुरू हो गया। फिर तीन साल के बाद उनका एनकाउंटर हो गया।’
मैंने पूछा क्या आपको अपने पिता के डकैत होने पर कभी शर्मिंदगी महसूस हुई? विजय शंकर बोले ‘मुझे शर्म नहीं, अपने पिता पर गर्व होता है। वह एक बहादुर आदमी थे। उन्होंने कभी किसी गरीब आदमी के घर डकैती नहीं डाली बल्कि जो अपने को बहुत अमीर लगाते थे उनको लूटा। जो उनको चुनौती देता या मुखबिरी करता उसको उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। केवल उसी का नुकसान किया जो उनके सामने खड़ा होने की कोशिश करता था। वे किसी गरीब को नहीं मारते-पीटते थे। ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्होंने किसी साधारण आदमी को नुकसान पहुंचाया हो। साधारण आदमी पर उन्होंने कभी हाथ तक नहीं उठाया।’
विजय शंकर रोष में कहते हैं कि ‘जब वह जीवित थे तो मेरी उम्र बहुत कम थी। मैं समझ नहीं सकता था कि वह जो कर रहे हैं वह सही है या गलत है। लेकिन धीरे-धीरे जब मैं दुनिया को समझने लगा तो मुझे लगता है कि उनका रास्ता सही था। मेरा रास्ता गलत है। मेरा रास्ता गलत इसलिए हुआ क्योंकि हम लोग सही हो गए। इंसान को इतना भी सीधा नहीं होना चाहिए कि रास्ते चलता कुत्ता भी आपके उपर पेशाब कर दे। ऐसा सीधा नहीं होना चाहिए।’
विजय शंकर कहते हैं कि जब पिताजी थे तब उन दिनों लोग उनका नाम सुनकर ही रास्ता छोड़ देते थे लेकिन आज हालत यह है कि हर खुरपेंची आदमी चाहता है कि हमारा घर-दुआर हड़प ले। असल में हम तो अब हथियार नहीं उठाएंगे। नाते-रिश्तेदारों ने अपने तरीके से हमको धोखा दिया और गाँव में भी कुछ ऐसे लोग हैं जिनकी नज़र हमारी ज़मीन पर है।
जब हम वहाँ बातचीत कर रहे थे तभी उस गाँव के प्रधान का फोन वहाँ मौजूद एक ग्रामीण के पास आया और उन्होंने पूछा कि आप वहाँ क्या कर रहे हैं। मैंने कहा कि रामविलास जी से मिलने आए हैं अगर आप मिलना चाहते हों तो आ जाइए। इस पर प्रधान ने कहा कि आपसे मिलना चाहता हूँ।
बाद में विजय शंकर ने बताया कि मीडिया का नाम सुनकर प्रधान की हवा टाइट हो गई है क्योंकि वह मेरी कुछ ज़मीन को हड़पना चाहते हैं और उनको डर हो गया है कि कहीं यह बात बाहर न चली जाय।
विजय शंकर कहते हैं ‘मेरे पिताजी मुझसे बहुत प्यार करते थे, क्योंकि चार बहनों के बाद मैं अकेला भाई था। उसके बाद हमारा छोटा भाई पैदा हुआ। उसके बाद भी पिताजी मुझे बहुत ज्यादा लाड-प्यार करते थे। उनके जैसा व्यक्ति पूरे बिंद बिरादरी में कहीं नहीं मिलेगा। मिर्जामुराद स्थित साधु की कुटिया मेरे दादा जी का समाधि स्थल है। वह हमारे दादा जी की समाधि है।
‘हमारा जन्म यहीं हुआ है। मेरे पिताजी का भी जन्म यहीं हुआ। मेरे दादा का जन्म कहाँ हुआ इसके बारे में मुझे नहीं पता लेकिन जो आज साधू की कुटिया है वहीं मेरे दादा की समाधि है।
‘लठियां (वाराणसी) में उनके मामा थे श्रीनाथजी। उस समय ब्रिटिश सरकार का शासन था। सरकार ने उनको बनारस से निकाल दिया था। वह यहां आकर रहने लगे। धीरे-धीरे उन्होंने ही पिताजी को सारी चीजें सीखाईं। सिखाते-सिखाते पूरी तरह से उनको पक्का कर दिया।
‘लास्ट टाइम में उनका भी कत्ल कर दिए पिताजी। रोहनिया थाने पर एक राजकुमार मिश्रा थे। वह रोहनियां थाने पर खबर भेजते थे। जब पिताजी उनके यहां जाते थे तो वह यह खबर थाने पर पहुंचाते थे। एक तरफ पिताजी से दोस्ती रखते थे और उनसे पैसे ऐंठते थे लेकिन दूसरी ओर उन्हें पकड़वाने की भी जुगत में थे ताकि उनकी तरक्की हो जाय। किसी ने खबर कर दी कि वे तो आपके वहां होने की हर खबर थाने में देते हैं। तो पिताजी ने उनका भी कत्ल कर दिया। उनके कत्ल के कुछ साल बाद मेरे पिताजी का कत्ल हो गया।’
जब भी मेहनत से रोटी कमाने की कोशिश की तब-तब पुलिस ने मजबूर किया
किशोरावस्था से ही रामविलास बिन्द पत्थर गढ़ते थे और काफी समय तक उन्होंने यह काम किया। विजय शंकर कहते हैं कि परिवार चलाने के लिए व्यक्ति कोई भी काम करता है। मेरे दादाजी पत्थर गढ़ने का काम करते थे। मेरे पिताजी भी पत्थर गढ़ने थे। कई साल तक उन्होंने पत्थर गढ़ा।
लेकिन पत्थर गढ़ने के दौरान कभी इस तरह की कोई बात नहीं हुई कि पैसे को लेकर उन्होंने किसी का कत्ल किया हो । वे अड़ियल स्वभाव के जरूर थे लेकिन पैसे के भुगतान को लेकर कभी किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं किए।
विजय शंकर कहते हैं कि पिताजी अपने मामा के चलते डकैती जरूर डालने लगे थे लेकिन कभी उन्हें लगा होगा कि इससे अच्छा है कि मैं कोई दूसरा काम करूँ। उन्होंने बनारस में चौक में कपड़े की एक छोटी सी दुकान खोली। इससे उनके परिवार का भरण-पोषण अच्छी तरह हो रहा था लेकिन पुलिस ने उनको वहाँ भी चैन से नहीं रहने दिये। उनके ऊपर दबिश होती। इससे आसपास के माहौल में उनका सम्मान कम हो रहा था।
यह बात पिताजी कभी बर्दाश्त करनेवाले नहीं थे कि कोई भी उन्हें अपनी धौंस में ले ले। चाहे कोई भी हो उसे काटकर फेंकने में वह एक मिनट भी नहीं लगाते थे। जब बात हद से बढ़ने लगी तो वह बराकस और झरिया, धनबाद की ओर निकल गए और वहीं कोयले की ठेकेदारी करने लगे। उन्होंने इस काम से बहुत पैसा बनाया। बाद में वह गाँव लौट आए और यहीं रहने लगे।
विजय शंकर बताते हैं ‘पिताजी की एक कपड़े वाली कुर्सी रहती थी। वह उसी पर बैठते थे। एक बार की बात है। चुनार थाने से पुलिस आई और हमारे मकान के उस वाले कार्नर से छुपकर देख रही थी। उसके बाद उनकी (पिताजी) नजर पुलिस पर पड़ गई। उस समय मेरे घर की दीवारों पर 4-6 बंदूकें टंगी रहती थी। पिताजी जोर से बोले, ऐ सुनो, क्या बात है? तब पुलिस वाले बोले, अरे साहब यहां से हट जाइए, दौड़ आने वाली है। वे अपने से आकर सतर्क करते थे। यहां पर (घर पर) हमेशा 4-6 लोग खाना खाते थे। कुछ न कुछ लोग और रिश्तेदार हमेशा यहां पर रहते थे। पिताजी के न रहने पर आज वही रिश्तेदार आना छोड़ दिए।’
कल्लू पहरी की हत्या
विजय शंकर बिन्द बताते हैं कि पहले कल्लू पहरी पिताजी के बहुत खास आदमी थे। वह उनके ऊपर बहुत भरोसा करते थे। बहुत सारा सामान कल्लू के पास रहता था लेकिन बाद में उनके मन में लालच आ गया और उन्होंने पिताजी को धोखा दे दिया।
वह उन दिनों जेल में थे। कल्लू पहरी के पास पिताजी ने एक बक्सा गहने और अशर्फ़ियाँ रखी थीं। कल्लू के मन में खोट आ गया। उस बक्से की आधी रकम उन्होंने अपने खेत में गाड़ दिया था और आधी अपने घर में ज़मीन के नीचे गाड़ी। जब वह खेत में रकम गाड़ रहे थे तब एक महिला ने उन्हें उन्हें देख लिया और अगली रात तक चुपचाप उसने वहाँ से सारा माल निकाल लिया।
कल्लू को जब मालूम हुआ तो उनकी चालाकी धरी की धरी रह गई। लेकिन माल तो पिताजी का था। उन्होंने अपनी बेचैनी छिपा ली। जब पिताजी जेल से छूट कर आए तो उन्होंने कल्लू से अपना बक्सा वापस मांगा। इस पर कल्लू पहरी ने कहा कि घर में चोर आए और सब उठा ले आए। यह बात विश्वास के योग्य नहीं थी। पिताजी जानते थे कि उनके खौफ़ से चोर क्या बड़े से बड़ा डाकू भी यहाँ पर नहीं मार सकता।
उन्होंने कल्लू से कहा कि सच बताओ कहाँ रखे हो? कल्लू वही दोहराते रहे। पिताजी को गुस्सा आया और उन्होंने कल्लू का मर्डर कर दिया। इसके बाद फिर धर-पकड़ शुरू हुई और वह छिपकर रहने लगे। कल्लू के मर्डर के बाद उनके बेटों ने यहाँ का घर बेच दिया और दूसरी जगह बस गए। जब खरीदनेवाले ने उस घर को खुदवाया तब नीचे से बक्सा मिला। इसनी दौलत देखकर वे सब भी पगला गए।
यह घटना 1971 की है। इसके तीन साल बाद पिताजी का एनकाउंटर हो गया।
कच्ची उम्र और रिश्तेदारों की दगाबाजी
विजय शंकर कहते हैं ‘मैं अपने आपको बहुत खुशनसीब समझता हूं कि मैं उनका बेटा हूं। बस तकलीफ इस बात की है कि वह बहुत पहले चले गए। वह दस साल और जिंदा होते तो हम लोग अपने पैरों पर ठीक से खड़े हो गए होते। वे हमें बीच रास्ते में ही छोड़कर चले गए। कम अवस्था में ही उनकी मृत्यु हो गई और हम संभल भी नहीं पाए। हम चार बहन, दो भाई हैं। मेरे दिमाग में हमेशा यह रहा कि मैं अपने घर के लोगों को कितना पढ़ा दूं। इसी चक्कर में मै पढ़-लिख नहीं सका।
मेरी तीन लड़कियां और एक लड़का है। एक भाई है वह लखनऊ हाईकोर्ट में है। मेरा बेटा बीए कर रहा है। दो लड़कियां आर्ट्स से बीए कर चुकी हैं। एक लड़की बीए करने के बाद एमए कर रही है।
पिताजी के मर्डर के बाद परिवार में अनेकों प्रकार की मुसीबतें आने लगीं। मेरे नाते-रिश्तेदार दूर भागने लगे। जैसे मेरा उन लोगों से कोई रिश्ता ही न हो । मेरे रिश्तेदार ऐसे दूर हुए जैसे गधे के सिर से सींग गायब हो जाए। मेरे सगे फूफा मेरे यहां से बक्सा भर भरकर रूपया पैसा ले गए। 35 बीघा जमीन रजिस्ट्री करवाए। दो पंपिंगसेट लगवाए, लेकिन मुड़कर कभी इस घर की ओर देखा तक नहीं कि उनके बच्चे किस तरह से जी खा रहे हैं।
इसी तरह से और भी रिशतेदारों ने यथासंभव मौका का फायदा उठाया। जो भी मिला उसे उठा ले गए। मैंने मेहनत-मशक्कत से अपने परिवार को चलाया।’
मढ़िया और सिंधोरा गाँव के बुजुर्गों ने बताया
रामविलास बिन्द के गाँव में अब कम ही लोग बचे हैं जिन्होंने उनको देखा हो। मढ़िया गांव के रहने वाले एक व्यक्ति रामनरेश यादव ने उनके बारे में बताया कि ‘रामबिलास बिंद के बारे में जितना सुना है, वह यही है कि वे गरीबों की बहुत मदद करते थे। किसी गरीब को उन्होंने सताया नहीं। उन्हें दो थप्पड़ तक नहीं मारा। हम उस समय छोटे थे। वे हमें उठाकर ले जाते थे और खेलाते थे। हमारे बाबूजी को भाई की तरह मानते थे। जब तक वे थे हमारे घर पर हमेशा जाते रहे। हमारे बाबू जी को भैया ही कहकर बुलाते थे। उस समय हम केवल उन्हें देखे भर थे। बहुत समझ हमारे अन्दर नहीं थी। लेकिन उन्हें मैं जानता था कि यही हैं रामविलास बिंद। मेरे पिताजी से जहां भी मिलते थे हाल-चाल होता था। उसके बाद वे चले जाते थे।’
मोहम्मद राहजहां इसी के गांव के रहने वाले हैं। वह रामविलास बिन्द के बारे में बताते हैं कि ‘उस समय हम लोग छोटे थे। उनके साथ अगल-बगल थोड़ा बहुत घूमने जाते थे। हम लोग उनके पीछे-पीछे झारिल मारने के लिए जाते थे। जो खोखा बजता था तो हम लोगों को उसी में बड़ा मजा आता था।’
सिंधोरा गाँव मढ़िया के सामने ही गंगा के उस पार स्थित है। वहाँ के कुछ लोगों से जब मैंने रामविलास बिन्द के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि यह उनके जन्म के पहले की बात है। लेकिन एक बुजुर्ग ने बताया कि मैंने उनके बारे में खूब अच्छी तरह सुना है। वह शेर थे और सच में वह अकेले चलते थे। उन्होंने कभी अपना गिरोह नहीं बनाया बल्कि अकेले ही और कहकर डकैती डालते थे। मैं खुद बिन्द जाति से हूँ और जानता हूँ कि सामंतियों की धौंस और हनक के नीचे जीना क्या होता था। अगर वह धूप में खड़ा कर दें तो भी खड़ा रहना पड़ता था लेकिन रामविलास जी के नाम का रुतबा ऐसा था कि बड़े बड़े सामंती लोगों की पेशाब निकल जाती थी। उनकी वजह से हम किसी से डरते नहीं थे।
दादी से सुनी बातों के आधार पर पोती ने बताया
रामविलास बिन्द की छोटी पोती बीना कुमारी अपने दादा के बारे में दादी से सुनी हुई अनेक बातें साझा करती हैं। वह कहती है कि दादा एक बहुत ही अच्छे इंसान थे। गरीबों की बहुत मदद करते थे। वे किसी कमजोर को नहीं सताए। मेरी बुआ भी बताती हैं कि वे एक बहुत अच्छे इंसान थे। वे सबके बारे में अच्छा सोचते थे। मेरे पापा बहुत पढ़े-लिखे तो नहीं हैं लेकिन इन्होंने हम लोग को अच्छे से पढ़ाया-लिखाया। मेरी बुआओं की शादी अच्छे घरों में अच्छे तरीके से की। पिताजी बताते हैं कि मेरे दादा जी कभी-कभी घर आते थे। रोज नहीं आते थे। जिस समय उनका एनकाउण्टर हुआ था, उसके एक दिन पहले वे घर आए थे। वे पापा से बताए थे कि अब शायद इसके बाद घर न आ पाए। पापा रोने लगे।
मैंने अपनी दादी को देखा था। उनकी मृत्यु को अभी दो साल हुए। वे हमारे साथ ही रहती थीं। वे भी बताती थीं कि दादा जी उनको फिल्म दिखाने के लिए ले जाया करते थे। घुमाने के लिए भी ले जाया करते थे। जहां पर लोग डांस करते थे पहले वहां पर भी ले जाया करते थे। दादी से बहुत प्यार करते थे। मेरे दादा की एक और पत्नी थी जो मर गईं तब दादा ने मेरी दादी से शादी की। जब दादा का इनकाउण्टर हुआ था तो दादी मायके गई हुई थीं। पापा से मिलने के बाद दादी से भी मिलने के लिए दादा गए। वहां उन्होंने दादी से कहा कि देखो हो सकता है कि अब इसके बाद मैं न रहूं। इसलिए बच्चों को तुम्हीं को देखना है। तुम्हें ही बच्चों से संभालना है।’
उसके बाद दादा फिर कभी नहीं आए।
नायक या खलनायक
रामविलास बिन्द ब्रिटिश भारत में 1930 के दशक में पैदा हुये और उनकी आर्थिक हालत इस बात से समझी जा सकती है कि किशोरावस्था में ही वह अपने पिता के साथ पत्थर गढ़ने लगे थे। लेकिन जवानी तक आते-आते वह किंवदंतियों के पात्र बन गए। उनके बारे में बहुत से किस्से फैल गए। आखिर वह किन परिस्थितियों में डाकू बने होंगे। उनके बड़े बेटे विजय शंकर उनके एनकाउंटर के समय महज 12 साल के थे। ऐसे में अपने पिता के बारे उन्होंने अपनी माँ अथवा दूसरे लोगों से जो सुना होगा उसी आधार पर अपनी धारणा बनाई होगी।
लेकिन एक बात स्पष्ट है कि मिर्ज़ापुर के किरियात इलाके में रामविलास बिन्द का होना एक खास अर्थ रखता है और उस अर्थ को जाति-व्यवस्था और आज भी बची रह गई सामंती संपत्ति और अकड़ के मद्देनज़र ही देखा जा सकता है। बिन्द, मल्लाह, केवट, धीमर आदि जातियाँ आज भी किस सामाजिक दबाव में जीती हैं इसे यदा-कदा प्रकाशित उन अखबारी रपटों में देखा जा सकता है जहां वे अत्याचार भी झेलते हैं और उनकी रपट भी दर्ज़ नहीं हो पाती। न्याय तो दूर की कौड़ी है। फूलन देवी के मामले को हम देख सकते हैं।
सत्तर के दशक का दौर तो और भी खतरनाक था और जिनके पास ज्यादा खेत थे उनके पास लाइसेंसी बंदूकें भी थीं और अगर उस दौर के सामाजिक इतिहास को दर्ज़ किया जाय तो यह स्पष्ट रूप से मालूम होगा कि जो सताये गए उन्हें न्याय नहीं मिला और वे अंततः मिट्टी में मिल गए लेकिन जो उत्पीड़क थे वे अट्टहास करते रहे।
इसलिए ऐसे परिवेश में रामविलास बिन्द का पैदा होना खास रखता है। रामविलास थे तो एक सामंती समाज के भीतर की पैदावार लेकिन बाद में मिले मौखिक तथ्यों से पता चलता है कि कुछ सामंती लोगों ने भी उनका फायदा उठाया। वे उन्हें शरण देते थे और इसके बदले मोटी रकम वसूलते थे। इसके अलावा उन्होंने मुखबिरी भी जिसका पता चलने पर रामविलास ने उनको मार डाला। रामविलास के सामने अपनी ताकत और हनक बनाए रखने की चुनौती थी और लोग बताते हैं कि इसी वजह से वे बार-बार जगह बदलते रहे। उनकी जाति ही नहीं अन्य पिछड़ा वर्ग की अनेक जातियों के लोग उन्हें हीरो मानते हैं।
किरियात में ही नवें दशक तक दलित स्त्रियों का जिस तरह शोषण और उत्पीड़न किया जाता रहा और जिसकी बाद में लोमहर्षक प्रतिक्रियाएँ हुईं उनसे लोगों के मन यह बात अच्छी तरह बैठ गई है कि अन्याय के खिलाफ अगर खुद खड़ा नहीं हुआ गया तो कानून-व्यवस्था हमेशा पंगु बनी रहेगी। ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जिनपर लिखे जाने की जरूरत है।