Saturday, July 27, 2024
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पंडित जवाहरलाल नेहरू : लोकतन्त्र को शासन व्यवस्था नहीं बल्कि एक संस्कार मानते थे

आज देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की 60वीं पुण्यतिथि है। नेहरू जी केवल प्रधानमंत्री ही नहीं थे बल्कि वे आधुनिक भारत के निर्माता थे। वे भारतीय राष्ट्र के समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष के प्रणेता माने जाते हैं । उन्होंने 1947 के बाद देश को किस तरह आगे ले जाना है इसकी बेहतर नींव रखी। लोकतन्त्र को केवल शासन-व्यवस्था नहीं, एक संस्कार मानते थे। वे स्वयं को देश का प्रधान सेवक मानते थे लेकिन आज के प्रधानमंत्री की तरह नहीं।

(पंडित जवाहर लाल नेहरू की 60 वें पुण्यस्मरण के बहाने)

जवाहर लाल नेहरू के मृत्यु की जब खबर आई तब मैं ग्यारह साल का था। उन दिनों मैं धुले जिला का तालुका शिंदखेडा में अपनी बुआ के घर गर्मी की छुट्टियां मनाने आया हुआ था। बुआ के घर में फिलिप्स कंपनी का अच्छा-सा रेडियो था। जिसे हम लोग बहुत शौक से सुना करते थे। वह 27 मई, 1964 का दिन था और दोपहर के दो बजने से पहले ही, अचानक रेडियो का प्रसारण रोक दिया गया और समाचार आने लगा, जिसमें जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु की खबर प्रसारित होने लगी। मैं सुन कर स्तब्ध हो गया था।

उनकी मृत्यु बड़ी खबर थी। कुछ समय पहले ही लोकसभा चुनावों में पिता, जो स्वतंत्रता सेनानी और कांग्रेस के कमिटेड कार्यकर्ता थे, के साथ मैंने भी  चुनाव प्रचार में हिस्सा लिया था और उनकी देखा-देखी ही मैंने भी खद्दर पहनने की शुरुआत की। जहां हम रहते थे, उसी के नजदीक गांव में पिताजी की चुनावी सभा चल रही थी, यहीं पर, विरोधी दल के लोगों ने हुडदंग मचा कर कुछ पत्थरबाजी की, जिसकी वजह से मेरी दाहिनी आंख के दाहिने कोने पर पत्थर लगने से मैं लहुलूहान हो गया था।शायद मैं बेहोश हो गया था।

बहरहाल दाहिनी आँख बच जाने के बाद और जवाहरलाल नेहरू के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने से पहले उनके इस दुनिया में न रहने की खबर बहुत ही दुख के साथ सुन रहा था। उनके नहीं रहने की खबर से मैं लंबे अर्से तक मायूस रहा।

मेरे दादा जी की मृत्यु के पश्चात, 27 मई, 1964  के दिन नेहरू जी के नहीं रहने की खबर के बाद पहला मौका था, जब मैं लंबे समय तक दुखद मनःस्थिति में बना रहा। उसके बाद मराठी के दैनिक अखबारों में नेहरूजी के संबंधित जो भी फोटो, जानकारी और खबरें आईं, उन्हें कैंची से काट कर अपनी नोटबुक में गोंद से चिपकाकर एल्बम बनाया था। लेकिन सातवीं कक्षा के बाद पढ़ाई की कई बार जगह बदलने के कारण, पहली कक्षा से ग्यारहवीं तक किए गए सभी संग्रह पंद्रहवे वर्ष की उम्र में छूट गए। लेकिन उन दिनों की यादें आज भी जेहन में हैं।

आज जवाहरलाल नेहरू की 60 वीं पुण्यतिथि के बहाने मैं अपनी बात स्वीकार करते हुए यह कहना चाहता हूँ कि भारत जैसे बहुआयामी संस्कृति के वाले देश को, आजादी के 77 सालों तक एक सूत्र में बांध कर रखने के लिए पहला श्रेय महात्मा गाँधी और उसके बाद जवाहरलाल नेहरू को जाता है।

अन्यथा वर्तमान सत्ताधारी दल ने कसम खाई है कि आजादी के 77 वर्ष और 2025 के संघ स्थापना के सौ साल के दौरान, इस बहुआयामी संस्कृति वाले देश को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने करने की कसम खाई है।

वजह गत दस सालों से वर्तमान समय में प्रधानमंत्री के पद पर बैठे महाशय ने मूर्ति भंजन का कार्यक्रम चला रखा है लेकिन संघ और प्रधानमंत्री मोदी, नेहरू फोबिया की बीमारी से ग्रसित नेहरूजी की आलोचना करने में पीछे नहीं रहे। ऐसा नहीं है कि मैं शुरू से नेहरू का समर्थक रहा हूँ। सोलह बरस की उम्र उम्र में लोहिया के विचारों से प्रभावित होने के बाद नेहरू विरोधी खेमे में रहते हुए पच्चीस-तीस साल तक नेहरूजी के प्रति उपेक्षा का भाव रखा।

संघ लगातार बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद काशी, मथुरा और लगभग सभी मस्जिदों से लेकर कुतुब मीनार, ताजमहल, लाल किला, औरंगजेब तथा अन्य बादशाह के कार्यकाल के दौरान किए गए सभी इमारतों में धार्मिक स्थलों पर राजनीति जोर-शोर से की जा रही है।

लेकिन महात्मा गाँधी के सहिष्णुता तथा जवाहरलाल नेहरू के सेक्युलरिज्म ने देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करने के कारण ही देश की स्वतंत्रता के पचहत्तर साल बाद एकता और अखंडता को विशेष नुकसान नहीं हुआ है।

संघ एक षडयंत्र के तहत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से अलग रहा है। उल्टा अंग्रेजों की सेना, पुलिस में भर्ती से लेकर खुफिया एजेंसी फिर आईबी हो या सीआईडी या एनआईए से लेकर सीबीआई, इडी जैसे महत्वपूर्ण जांच एजेंसियों का अपने हिसाब से उसका दुरुपयोग मुख्यतः अपने विरोधियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। और सबसे संगीन बात- अब तक एजेंसियों की मदद से कश्मीर में सरकार बनाने और गिराने के किस्से कहानियां  सुनते आये थे, लेकिन भारत में महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की सरकारों को बनाने-बिगाड़ने के लिए इन एजेंसियों की मदद ली जा रही है।

आजादी के पचहत्तर साल में यह संविधानिक संस्थाओं को अपने मनमर्जी के निर्णय लेने के लिए मजबूर करने के उदाहरण देखने के बाद न्यायालय, पुलिस, प्रशासनिक क्षेत्र के उपर से विश्वास खत्म होने की संभावना दिन-प्रतिदिन बनती जा रही है।

 इसी परिप्रेक्ष्य में जवाहरलाल नेहरू की विरासत बार-बार याद आती है। जिस आदमी ने अपनी लोकप्रियता को देखते हुए उसके खतरों के प्रति भली भांति परिचित होने के कारण ‘नहीं चाहिए कोई तानाशाह’ लेख ‘चाणक्य’ छद्म नाम से केवल देशवासियो को ही नहीं बल्कि  खुद को भी इन खतरों से आगाह करने के लिए लिखा था। और इसके उलट पत्रकार आशीष नंदी ने गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी का सायको एनालिसिस अंग्रेजी पत्रिका में प्रकाशित किया था तब मोदी ने करोड़ों रुपये का दावा ठोक दिया था। (फिलहाल उस केस का क्या हुआ पता)

नेहरू के लिए लोकतंत्र का मतलब था कि यह शासन से लेकर सामाजिक मानस तक में शामिल होना चाहिए था क्योंकि नेहरू जी लोकतन्त्र को केवल शासन-व्यवस्था नहीं, एक संस्कार मानते थे। वे स्वयं को देश का प्रधान सेवक मानते थे। पत्रकारों से नियमित वार्ता करते थे। हर महीने नेहरू जी मुख्यमंत्रियों को चिठ्ठी लिखा करते थे। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम के साथ इन चिठ्ठियों में संस्कृति और कला के बारे में सरकार की जिम्मेदारी जैसे विषयों पर भी विचार-विमर्श करते थे। उनके बाद प्रधानमंत्रियों द्वारा मुख्यमंत्रियों को नियमित पत्र लिखने का सिलसिला समाप्त हो गया। पिछले आठेक साल में तो भारतीय प्रधानमंत्री ने एक भी पत्रकारवार्ता नहीं की। उनके इंटरव्यू तीखे प्रश्नों के सटीक उत्तरों के लिए नहीं, बल्कि आम चूसकर खाये जाए या काटकर? जेब में बटुआ रखते या नहीं? न थकने के लिए टॉनिक लेते है क्या? सरीखे मार्मिक प्रश्नों के सुंदर उत्तरों के लिए चर्चित हुए हैं।

यह स्थिति अपने आप नहीं पैदा हो गई है। व्यवस्थित प्रयत्न के जरिए बनाई गई। टीवी पर होने वाली बहसें, मुहल्ले के चौराहे पर होने वाले झगड़ो और स्टैंड-अप कॉमेडी, बल्कि हॉरर शो से होड़ ले रही है। सरकार से जवाबदेही की उम्मीद करना लोकतांत्रिक अधिकार नहीं, महापाप मान लिया गया है। इस बात को भुला देने की पुरजोर कोशिश की जा रही है कि लोकतंत्र केवल संख्याओं का खेल नहीं, बल्कि संस्थाओं, मर्यादाओं और परंपराओं के आधार पर चलने वाली व्यवस्था है। यह अल्पमत के साथ सम्मानपूर्वक संवाद करने वाली व्यवस्था है, बहुमत को मनमानी की छूट देने वाली व्यवस्था या साधन संम्पन्न लोगों के मनोरंजनार्थ चलनेवाली डिबेटिंग सोसायटी नहीं है।

विडम्बना यह है कि लोकतंत्र को बोझ या बस संख्याओं का खेल समझने वाले एस्पिरेशनल मिडिल क्लास का इतनी तेजी से विस्तार कांग्रेस सरकार द्वारा अपनाई गई उदारीकरण, निजीकरण की विकासपरक नीतियों के फलस्वरूप ही हुआ है लेकिन क्या निजीकरण, उदारीकरण के साथ ही लोकतंत्र का महत्व समझने वाले; भारतीय समाज की बहुलता, विविधता में एकता का सम्मान करने वाले सामाजिक मानस को बनाए रखना, इन चीजों को नई पीढ़ी का संस्कार बनाना भी उतना ही जरूरी नहीं था? इस सवाल को पूछे बिना यह समझना असंभव है कि क्यों भारतीय लोकतंत्र तेजी से कोरी औपचारिकता और बहुमतवाद में बदलता जा रहा है। नई पीढ़ी के मानस से नेहरू की स्मृतियाँ, उनके योगदान का बोध गायब क्यों होता जा रहा है? यह सवाल नेहरू की पार्टी, कांग्रेस को तो अपने आप से पूछना ही होगा, उन्हें भी पूछना होगा जो भारतीय लोकतंत्र का महत्व समझते हैं, उसे बचाये रखना चाहते हैं। उन्हीं में से बहुत से लोगों को 2014 तक यकीन था कि भारतीय लोकतंत्र का संस्थागत आधार इतना मजबूत हो चुका है कि तानाशाही मिजाज इसे  कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता है।

2015 में एक टीवी डिबेट में यह कहने पर कि ‘वर्तमान प्रधानमंत्री को आपातकाल की औपचारिक घोषणा की जरूरत ही नहीं  है, वे और उनके समर्थक ऐसा किसी घोषणा के बिना ही भय का वातावरण बना देने में सक्षम हैं। भाजपा के प्रवक्ता ही नहीं, लिबरल, लोकतांत्रिक तबकों में परम लोकप्रिय एंकर साहब भी कुपित हो गए थे, वे ही क्या, देश-विदेश के अग्रणी विद्वान भी आश्वस्त थे कि भारतीय लोकतंत्र की संस्थाएँ इतनी मजबूत हो चुकी है कि तानाशाही मिजाज की प्रतिष्ठा अब असंभव है।

पिछले कुछ सालों में घटनाक्रम ने इस यकीन की सीमाओं को उजागर कर दिया है  और हमारा चुनाव आयोग, हमारे संसद में पारित होने वाले बिल और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हमारी न्यायव्यवस्था किस तरह बहुसंख्यक समुदाय के दबाव में फैसले लेने लगी है। उसे सही ठहराने वाले विद्वान, एक तरह से इस देश को अघोषित हिंदू राष्ट्र बनता जा रहे हैं।

आज जवाहरलाल नेहरू की स्मृति में सिर्फ उनके नाम के कशीदे पढ़कर एक कर्मकाण्ड करने के बजाय सही मायने में सेक्युलर, समाजवादी भारत के निर्माण हेतु संकल्प के साथ मैदान में उतर कर इन फिरकापरस्त ताकतों का मुकाबला करने का संकल्प लेकर अपने आप को झोंकने की कसम खाने की आवश्यकता है।

(इस पोस्ट को लिखने के लिए मुख्य रूप से प्रोफेसर पुरूषोत्तम अग्रवाल ने संपादित की हुईं किताब ‘कौन है भारत माता?’ में से  कुछ मजमून की मदद ली है।)

 

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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