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मुंबई : 22 जनवरी को सार्वजनिक अवकाश घोषित करना ‘राजनीतिक उद्देश्यों के लिए सत्ता का दुरुपयोग’ वाली याचिका खारिज हुई

मुंबई। अयोध्या में 22 जनवरी को होने वाले प्राण प्रतिष्ठा समारोह के मद्देनजर सरकार की तरफ से की गई सार्वजनिक अवकाश को रद्द करने के लिए चार छात्रों की ओर से दायर याचिका को बंबई उच्च न्यायालय ने खारिज कर दी। न्यायमूर्ति गिरीश कुलकर्णी और न्यायमूर्ति नीला गोखले की पीठ ने महाराष्ट्र और गुजरात के […]

मुंबई। अयोध्या में 22 जनवरी को होने वाले प्राण प्रतिष्ठा समारोह के मद्देनजर सरकार की तरफ से की गई सार्वजनिक अवकाश को रद्द करने के लिए चार छात्रों की ओर से दायर याचिका को बंबई उच्च न्यायालय ने खारिज कर दी।

न्यायमूर्ति गिरीश कुलकर्णी और न्यायमूर्ति नीला गोखले की पीठ ने महाराष्ट्र और गुजरात के चार विधि छात्रों द्वारा दायर जनहित याचिका पर रविवार को विशेष सुनवाई की और कहा कि याचिका ‘राजनीति से प्रेरित, महत्वहीन और झुंझलाहट पैदा करने वाली’ है। अदालत ने छात्रों को सलाह दी कि वे ‘अपने समय का उपयोग बेहतर काम में करें।’

पीठ ने कहा कि आम तौर पर अदालत ऐसी याचिका को खारिज करते समय याचिकाकर्ता पर कठोर जुर्माना लगाती है, लेकिन वह ऐसा करने से परहेज कर रही है क्योंकि ये याचिकाकर्ता युवा छात्र हैं और इसलिए आगाह किया जाना ही पर्याप्त होगा।

महाराष्ट्र सरकार ने दलील दी कि छुट्टी घोषित करना सरकार के कार्यकारी नीतिगत निर्णय के अंतर्गत आता है और यह न्यायिक पड़ताल के दायरे में नहीं आना चाहिए।

छात्रों ने अपनी याचिका में दावा किया कि आगामी लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए सार्वजनिक अवकाश घोषित करने का निर्णय ‘राजनीतिक उद्देश्यों के लिए सत्ता का दुरुपयोग’ है।

शिवांगी अग्रवाल, सत्यजीत साल्वे, वेदांत अग्रवाल और खुशी बांगिया द्वारा दायर याचिका में अनुरोध किया गया था कि अदालत 22 जनवरी को छुट्टी घोषित करने वाले सरकारी आदेश को रद्द कर दे।

पीठ ने कहा, ‘याचिका में राजनीतिक निहितार्थ हैं और यह एक ऐसी याचिका प्रतीत होती है जो राजनीति से प्रेरित और प्रचार पाने के लिए है। याचिका की प्रकृति और खुली अदालत में दी गई दलीलों से ऐसा ही प्रतीत होता है।’

अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ताओं ने एक अन्य मामले में पारित आदेश में उच्चतम न्यायालय के विवेक पर भी सवाल उठाया है और इसने ‘हमारी न्यायिक चेतना’ को हिला दिया है।

पीठ ने कहा, ‘हमें इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह जनहित याचिका अनावश्यक कारणों से दायर की गई है। यह बिल्कुल महत्वहीन और झुंझलाहट पैदा करने वाली प्रतीत होती है और इस लायक नहीं है कि अदालत इस पर गौर करे।’

उसने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसी याचिकाएं ‘कानून का घोर दुरुपयोग’ हैं और इन्हें लंबित नहीं रखा जा सकता। अदालत ने याचिका में की गई राजनीतिक टिप्पणियों पर भी सवाल उठाया और सवाल किया कि किसके कहने या प्रेरणा से ये बयान याचिका में शामिल किए गए।

पीठ ने सवाल किया, ‘जैसा कि प्रतिवादी (महाराष्ट्र सरकार) ने उल्लेखित किया है, याचिका में राजनीतिक एजेंडे के बारे में कुछ बयान हैं जो राजनीतिक प्रकृति के हैं… कुछ बहुत ही लापरवाह बयान हैं। किसकी प्रेरणा से या किसके कहने पर उन बयानों को याचिका में शामिल किया गया है?’ उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं से यह भी सवाल किया कि अदालत के समक्ष रखे जाने से पहले ही मीडिया को याचिका के बारे में कैसे पता चला।

याचिका में कहा गया है कि मंदिर में होने वाला प्राण प्रतिष्ठा समारोह हिंदू धर्म से जुड़ी एक आवश्यक धार्मिक प्रथा है और इसलिए यह किसी भी तरह से सरकार के सरोकार का विषय नहीं हो सकता है। याचिका में दावा किया गया है कि हिंदू मंदिर में होने वाले प्राण प्रतिष्ठा समारोह का जश्न मनाने के लिए सार्वजनिक अवकाश की घोषणा सहित सरकार द्वारा उठाया गया कोई भी कदम और कुछ नहीं बल्कि एक विशेष धर्म के साथ पहचान बनाने का एक कृत्य है।

जनहित याचिका में दावा किया गया था, ‘एक हिंदू मंदिर में होने वाले प्राण प्रतिष्ठा का जश्न मनाने और उसमें हिस्सा लेने और इस तरह एक विशेष धर्म से जुड़ने का सरकार का कृत्य धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर सीधा हमला है।’ याचिका में कहा गया था कि इस तरह का सार्वजनिक अवकाश शायद किसी देशभक्त या ऐतिहासिक हस्ती की याद में घोषित किया जा सकता है, लेकिन समाज के एक विशेष वर्ग या धार्मिक समुदाय को खुश करने के लिए किसी मंदिर में होने वाले प्राण प्रतिष्ठा का जश्न मनाने के लिए नहीं।

याचिका में कहा गया है कि पूरे भारत में कई मंदिर हैं और यदि सरकार पुराने या नवनिर्मित मंदिरों में विभिन्न देवी-देवताओं के प्राण प्रतिष्ठा का जश्न मनाना शुरू कर देती है, तो ऐसे प्रत्येक दिन सार्वजनिक अवकाश घोषित करना होगा।इसमें आगे  कहा गया है कि ‘साल में केवल 365 दिन होते हैं और वे इस तरह के आयोजन का जश्न मनाने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकते।’

इसमें कहा गया है कि यदि शैक्षणिक संस्थान बंद होते हैं तो सार्वजनिक छुट्टियों से शिक्षा का नुकसान होगा, यदि बैंकिंग संस्थान बंद होते हैं तो वित्तीय नुकसान होगा और यदि सरकारी और सार्वजनिक कार्यालय बंद होते हैं तो शासन और सार्वजनिक कार्यों का नुकसान होगा।

महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश महाधिवक्ता बिरेंद्र सराफ ने रविवार को दलील दी कि छुट्टी घोषित करना सरकार के कार्यकारी नीतिगत निर्णय के अंतर्गत आता है और यह न्यायिक पड़ताल के दायरे में नहीं आना चाहिए।

सराफ ने कहा, ‘याचिका गलत आधार पर आगे बढ़ रही है कि निर्णय मनमाना है। अधिकांश सार्वजनिक छुट्टियां धार्मिक आयोजनों के लिए होती हैं। इससे नागरिक अपने धार्मिक समारोहों में शामिल हो सकते हैं। ऐसी छुट्टियां केवल एक समुदाय के लिए घोषित नहीं की जाती हैं। यह सभी धार्मिक समुदाय के लिए किया जाता है।’

चार छात्रों द्वारा दायर की गई याचिका में जो मुद्दे उठाए गए हैं वह कहीं से भी गलत नहीं प्रतीत होते भले ही अदालत की नजर में इसे ऐसी याचिकाएं लोकप्रियता प्राप्त करने की बात कही गई हो ।

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