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ओबीसी के साथ सुप्रीम कोर्ट की ‘साजिश’(डायरी, 21 जनवरी 2022)

साजिशें कैसे रची जाती हैं? यह एक बड़ा अजीबोगरीब सवाल है। लेकिन बेहद दिलचस्प। मतलब यह कि साजिशें भी कई तरह की होती हैं। कुछ साजिशें तो इसलिए रची जाती हैं ताकि उनका लाभ एकदम तुरंत मिल सके। वहीं कुछ साजिशों को रचते समय इसका ध्यान रखते हैं कि उनके उपक्रम का लाभ उन्हें बेशक […]

साजिशें कैसे रची जाती हैं? यह एक बड़ा अजीबोगरीब सवाल है। लेकिन बेहद दिलचस्प। मतलब यह कि साजिशें भी कई तरह की होती हैं। कुछ साजिशें तो इसलिए रची जाती हैं ताकि उनका लाभ एकदम तुरंत मिल सके। वहीं कुछ साजिशों को रचते समय इसका ध्यान रखते हैं कि उनके उपक्रम का लाभ उन्हें बेशक तुरंत ना मिले, लेकिन साल-दो-साल में जरूर मिल जाय। वहीं कुछ साजिशें अलहदा होती हैं। साजिश रचनेवाला मानता है कि वह एक बीज बो रहा है और उसके पेड़ का लाभ उसके बाद की पीढ़ियां उठाएंगीं। मतलब यह कि दूरगामी परिणाम को सोचकर रची जानेवाली साजिशें।

आज साजिशों की बात इसलिए कि मेरे सामने भी एक तीसरी तरह की साजिश है। यह क्या है, इसको समझने के लिए पहले कल सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एएस बोपन्ना की खंडपीठ द्वारा सुनाया गया एक फैसला है। अपने फैसले में न्यायाधीश द्वय ने स्नातक और परास्नातक चिकित्सा पाठ्यक्रमों के लिए राष्ट्रीय पात्रता एवं प्रवेश परीक्षा नीट में अखिल भारतीय सीटों में ओबीसी को मिलने वाले 27 फीसदी आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा है। हालांकि इसकी सूचना पहले ही सार्वजनिक कर दी गयी थी। लेकिन कल खंडपीठ ने अपने फैसले को विस्तार से सामने रखा। उनका कहना है कि ‘अगर खुली प्रतियोगी परीक्षाएं अभ्यर्थियों को प्रतिस्पर्धा के अवसर को समानता प्रदान करती हैं तो आरक्षण यह सुनिश्चित करता है कि अवसरों को इस तरह से वितरित किया जाय ताकि  पिछड़े वर्ग ऐसे अवसरों से समान ढंग से लाभान्वित हो सकें जो आम तौर पर संरचनात्मक बाधाओं के कारण उनसे छूट जाते हैं।’

[bs-quote quote=”कल सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एएस बोपन्ना की खंडपीठ द्वारा सुनाया गया एक फैसला है। अपने फैसले में न्यायाधीश द्वय ने स्नातक और परास्नातक चिकित्सा पाठ्यक्रमों के लिए राष्ट्रीय पात्रता एवं प्रवेश परीक्षा नीट में अखिल भारतीय सीटों में ओबीसी को मिलने वाले 27 फीसदी आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा है। हालांकि इसकी सूचना पहले ही सार्वजनिक कर दी गयी थी। लेकिन कल खंडपीठ ने अपने फैसले को विस्तार से सामने रखा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

अब आप कहेंगे कि इसमें साजिश वाली बात कहां से आ गयी? बिल्कुल, आपका सवाल वाजिब है। लेकिन जो साजिशें लंबी अवधि के उद्देश्य के लिए रची जाती हैं, वे होती ही ऐसी हैं कि सामनेवाले को पता ही नहीं चलता है कि उसके खिलाफ साजिशें रची जा रही हैं। मसलन, अपनी उपरोक्त टिप्पणी में सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों ने पिछड़े वर्ग की परिभाषा को ही बदलने की कोशिश की है। हमारे संविधान में पिछड़े वर्गों के लिए जो शब्द निर्धारित है, वह है –सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग। हमारे नीति निर्धारक बेवकूफ नहीं थे, जिन्होंने ऐसा कहा था। वे जानते थे कि समाज का जो ऊंची जातियों वाला तबका है, वह अफरमेटिव एक्शंस को बाधित करेगा। इसलिए पुख्ता इंतजाम किया गया था।

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अब जैसा कि संवैधानिक परिभाषा है सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग, तो इसमें सामाजिक पिछड़ापन भी शामिल है और शैक्षणिक पिछड़ापन भी। अब हम खुली प्रतियोगी परीक्षाओं की बात करते हैं। फिर चाहे वह नीट की परीक्षा हो या फिर कोई भी, तो प्रतियोगी परीक्षाओं में प्रतिस्पर्धा के लिए भी पिछड़े वर्गों के अभ्यर्थियों को प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। उन्हें परीक्षाओं के लायक खुद को बनाना पड़ता है। आरक्षण का लाभ उन्हें ही मिलता है जो परीक्षाओं में सफलता हासिल करते हैं। तो शैक्षणिक रूप से पिछड़ेपन का मतलब यह है कि उन्हें शिक्षा किन परिस्थितियों में प्राप्त हुई है। अब अगर वे किसी कारण अंक के मामले में पिछड़ जाते हैं तो उन्हें आरक्षण का लाभ देकर उन्हें अवसरों की समानता का लाभ दिया जाय।

सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश द्वय जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एएस बोपन्ना पिछड़ेपन के कारण को ही बदल देना चाहते हैं। उन्होंने जो शब्द इस्तेमाल किया है, वह है– ‘संचरनात्मक बाधाएं’।

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अब इसी शब्द पर विचार करते हैं। वे बाधाएं कौन से हैं जिन्हें संरचनात्मक बाधाओं की संज्ञा दी जा सकती है? एकदम प्रारंभ से बात करते हैं। भूमिहीनता या जमीन पर न्यूनतम भागीदारी वाला पिछड़ा वर्ग आज भी रोजी-रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है। उसके बच्चों के लिए हालांकि सरकार ने प्राइमरी क्लास से ही सरकारी स्कूलों की व्यवस्था कर रखी है। लेकिन इन सरकारी स्कूलों के हालात जगजाहिर हैं। अब जरा ऊंचे तबके के लोगों की बात करें। उनके पास संसाधन है और वे अपने बच्चों को उच्च गुणवत्ता वाले स्कूलों में पढ़ाते हैं। उनकी पढ़ाई हिंदी के बजाय अंग्रेजी में होती है। जाहिर तौर पर वे अधिक सक्षम होते हैं। सरंचनात्मक बाधाओं के उदाहरण के रूप में सरकारी कॉलेजों को देखा जा सकता है।

लेकिन यह मामला संरचनात्मक बाधाओं का है ही नहीं। यह तो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ेपन का है। आज भी ओबीसी की जातियों को समाज में समान दर्जा हासिल नहीं है। रही बात शासन-प्रशासन में भागीदारी की तो 52-54 फीसदी आबादी वाले इस वर्ग के लोगों की नुमाइंदगी एक-चौथाई भी नहीं है जबकि देश को आजाद हुए 75 साल से अधिक का समय बीत चुका है। वह तो 1990 में मंडल कमीशन की अनुशंसाएं लागू कर दी गईं तब जाकर एक-चौथाई की स्थिति है। यदि ऐसा नहीं होता तब की स्थिति क्या होती, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है।

दरअसल, मैं जिस साजिश की बात कर रहा था, वह यही शाब्दिक धांधलियां हैं, जो कल जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एएस बोपन्ना के फैसले में सामने आया है। सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ेपन को संरचनात्मक बाधाओं के कारण पिछड़ापन करार दिया जाना एक दूरगामी साजिश का हिस्सा है।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।

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2 COMMENTS
  1. मतलब जो फैसला आपकी सोच और अति बुद्धिवादी सोच के मुताबिक न हो तो वो गलत और साजिश है, आपको मालूम है ये कोर्ट ऑफ कॉन्डेम भी हो सकता है

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