यह केवल भारत की बात नहीं है। हालांकि भारत में यह कुछ ज्यादा ही है कि लोग जब भी किसी को गालियाँ देते हैं तो जिन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, उनका सम्बंध महिलाओं से ही होता है। मतलब माँ, बहन और बेटी को लगाकर गालियाँ देना तो जैसे हर पुरुष का जन्मसिद्ध अधिकार है। हालांकि इसके लिए देश में कानून है और इसके तहत यदि मुकदमा दर्ज हो तो आरोपी को तीन महीने की सजा हो सकती है। हालांकि मेरी जानकारी में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि गाली देने के लिए किसी को सजा हुई हो। वैसे चाहें तो यदि कोई हमें गालियाँ देता है तो उसके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 294 के तहत मामला दर्ज कराया जा सकता है।
सवाल यही है कि पुलिसकर्मी गालियाँ क्यों देते हैं? मेरा अपना मत है कि हरवे-हथियार से लैस होने के बाद हर पुलिसकर्मी अपने आपको ताकतवर समझता है और वह इसी ताकत के कारण गालियाँ देता है। वह जानता है कि यदि उसने गालियाँ दी और किसी ने विरोध किया तो वह विरोध करनेवाले की हड्डियाँ भी तोड़ दे तब भी उसके खिलाफ कोई मामला नहीं बनेगा। गालियाँ देना तो वैसे भी बहुत हल्की बात है।
लेकिन यह केवल कहने की बात है। एक उदाहरण यह कि कल मेरे एक परिचित की गाड़ी चोरी हो गई। वह बेचारा थाना फरियाद करने पहुँचा। वहाँ मौजूद एक दारोगा ने जिस अंदाज में उससे बात की, बेचारे ने मुझे फोन कर दिया कि मैं यहाँ अपनी गाड़ी चोरी किए जाने की रपट दर्ज कराने आया हूँ और यहाँ का दारोगा मुझे गालियाँ दे रहा है। मुझे यह बात अजीब लगी। मैंने अपने परिचित से पूछा कि दारोगा कह क्या रहा है। जवाब मिला कि दारोगा पहले गाड़ी के दस्तावेज और वाहन चलाने का लाइसेंस माँग रहा है। जब यह कहा कि सारे दस्तावेज गाड़ी की डिक्की में ही रखा था तो दारोगा ने गालियाँ दी।
हालांकि बाद में मैंने संबंधित थाना के प्रभारी को फोन किया तो मेरे परिचित की रपट दर्ज कर ली गई, लेकिन तबसे मैं सोच रहा हूँ कि पुलिस थानों में जहाँ कि आदमी इस विश्वास के साथ जाता है कि उसके साथ हुई ज्यादती पर कार्रवाई होगी, वहाँ उसे गालियाँ क्यों सुनने को मिलती हैं? क्या यह इस वजह से है कि पुलिस के पास बहुत काम है और संसाधन बहुत कम? हालांकि यह संभव है कि काम का दबाव बहुत अधिक हो जाने पर पुलिसवालों का दिमाग खराब रहता हो और वे गालियाँ देते रहते हैं। अभी हाल ही में एक युवती का मोबाइल चोरी हो गया और वह जब पटना के सचिवालय थाना पहुँची तो वहाँ मौजूद दारोगा ने गालियाँ देते हुए उसे पहले उसके बाप को बुलाने को कहा। ऐसे उदाहरण अनेकानेक हैं।
दरअसल, सवाल यही है कि पुलिसकर्मी गालियाँ क्यों देते हैं? मेरा अपना मत है कि हरवे-हथियार से लैस होने के बाद हर पुलिसकर्मी अपने आपको ताकतवर समझता है और वह इसी ताकत के कारण गालियाँ देता है। वह जानता है कि यदि उसने गालियाँ दी और किसी ने विरोध किया तो वह विरोध करनेवाले की हड्डियाँ भी तोड़ दे तब भी उसके खिलाफ कोई मामला नहीं बनेगा। गालियाँ देना तो वैसे भी बहुत हल्की बात है। पुलिसकर्मी यही सोचते हैं कि किसी की माँ-बहन-बेटी को गाली देने से क्या हो जाएगा। यह मुमकिन है कि वे भारतीय दंड संहिता की धारा 294 को नहीं जानते हों। वैसे भी हमारे पुलिसकर्मियों को कानून इतना ही बताया जाता है जितने से कि राज-काज चल सके।
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गालियों से एक घटना की याद आई। शायद यह परसों की घटना है, भागलपुर जिले की। वहाँ एक उत्पाद निरीक्षक (आप शराब का दारोगा समझिए) को शराब तस्कर ने अगवा कर लिया। हुआ यह कि वह हाई-वे पर गाड़ियों की जाँच कर रहा था कि कहीं कोई शराब की ढुलाई तो नहीं कर रहा है। इसी कम में दिल्ली नंबर की एक गाड़ी आई और उसने जब गाड़ी दिखाने की बात कही तो तस्करों ने उसे जबरन गाड़ी में बिठा लिया। करीब पाँच-दस किलोमीटर दूर जाने के बाद तस्करों ने उसे यह कहते हुए उतार दिया कि जाइए सर, अब आप ड्यूटी करिए।
मुझे विश्वास नहीं हो रहा है इस घटना पर। हालांकि अविश्वास की भी कोई वजह नहीं। शराब के दारोगा ने खुद को अगवा किए जाने का जो मामला सम्बंधित थाने में दर्ज करवाया है, उसमें उसने इन्हीं शब्दों में अपनी बात कही है।
शराब के उपरोक्त दारोगा की बात पर यकीन केवल इस बात नहीं हो रहा है कि तस्करों ने उसे आदर और सम्मान के साथ कहा होगा कि जाइए सर, अब आप ड्यूटी करिए। तस्करों ने उसे मारा-पीटा होगा। जबरन बिठाने का मतलब यह कि उसके उपर पिस्तौल ताना होगा और गालियाँ देते हुए अंदर बैठने को कहा होगा। गाड़ी में बिठाने पर उसके साथ मारपीट की होगी और गालियाँ भी दी होगी। लेकिन यह बात शराब के दारोगा ने छिपा ली। हालांकि वह चाहता तो अपनी एफआईआर में 294 का उल्लेख भी कर सकता था, जैसे कि उसने 307 का किया।
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दरअसल, यह केवल पुलिसकर्मी अथवा शराब के उपरोक्त दारोगा का मामला नहीं है। यह मामला हम सभी का है। कोई हमारी माँ-बहन-बेटी को लगाकर गालियाँ देता है तो भी हम शिकायत नहीं दर्ज कराते हैं। मैं तो प्रधानमंत्री तक की बात कहता हूँ और दावे के साथ कहता हूँ कि यदि कोई भारत के प्रधानमंत्री को भी सार्वजनिक तौर पर गालियाँ देगा तब भी भारत की पुलिस उसके खिलाफ कोई मुकदमा दर्ज नहीं करेगी। मुख्यमंत्री और मंत्री आदि तो बहुत छोटी चीज हैं। साहित्य के संदर्भ में कहूँ तो काशीनाथ सिंह जो कि ‘काशी का अस्सी’ लिखकर गालियों को साहित्यिक मँजूरी दिला दी है। अब तो वही फिल्में रियल मानी जाती हैं, जिनमें माँ-बहन-बेटियों को गालियाँ दी जाती हैं।
लेकिन यह गलत है। गालियाँ देने से कोई ताकतवर नहीं हो जाता है। लेकिन इतना जरूर है कि गालियाँ सुनकर भी मुकदमा दर्ज नहीं कराने वाला कायर जरूर होता है।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।
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