कार्य विभाजन का सिद्धांत या दर्शन तो इमाईल दुर्खीम और कार्ल मार्क्स ने 19वीं और 20वीं सदी में विकसित किया, जो औद्योगिकरण के बाद परिस्थितियों के संदर्भ में था। कार्य विभाजन तो दुनिया के सभी समाज में था। कहीं महिला सत्ता थी तो ज्यादातर समूहों और समाज में पुरुष वर्चस्व विद्यमान रहा। भारतीय दर्शन में तो इसे निम्न प्रकार परिभाषित किया गया, जो वस्तुतः जेंडर आधारित कार्य विभाजन की तरफ इंगित करता है-
बाहर हल चलता रहे। घर में चूल्हा जलता रहे।।
हल की मूठ परंपरागत रूप से पुरुषों ने थाम रखी है और औरतें चूल्हा जलाकर भोजन पकाने एवं घर संभालने के नाम पर गृह स्वामिनी बनी हुई हैं। यह बात भारतीय दर्शन की है और एक बड़े दार्शनिक ने गोरखपुर विश्वविद्यालय में कही थी। जातीय कार्य विभाजन को देखें तो जो ज्यादा श्रम करता था उसकी इज्जत उतनी ही कम थी और उसे ‘नीच’ भी समझा गया। परिवार में महिलाओं ने घर की जिम्मेदारी संभाली, माहवारी के दर्द सहे, गर्भवती हुई, बच्चे पाले तो उन्हें कमजोर समझकर घर की चारदीवारी तक सीमित करने के प्रयास निरंतर हुए जो अब भी हो रहे हैं। सत्य तो यह है कि आदिवासी व कृषक समाज और अब अत्याधुनिक विकसित समाज में जहां महिलाएं उच्च पदस्थ हो, सार्वजनिक पदों पर बैठ कार्य कर रही हैं वहाँ भी वे पुरुषों की तुलना में ज्यादा काम करती हैं। उनमें कार्य क्षमता और सहन क्षमता पुरुषों से ज्यादा है। हाँ, प्रकृति ने उन्हें कोमल और संवेदनशील बनाया है, वे सृजनकर्ता हैं लेकिन पुरुषों ने उन्हें कमजोर मान कर उन पर बनावटी निर्योग्यताएं थोप दीं और बेईमानी से सत्ता हथियाते रहे।
सन 2021 में रिलीज हुई मलयाली फिल्म द ग्रेट इंडियन किचन भारतीय समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच और महिलाओं की परिवार व्यवस्था में दोयम दर्जे की स्थिति को दर्शाती एक महत्वपूर्ण फिल्म है। लेकिन यह फिल्म यथास्थितिवादी नहीं है। फिल्म की मुख्य महिला चरित्र अपने खिलाफ पुरुषों द्वारा किए जाने वाले शोषण और दुर्व्यवहार के खिलाफ दृढ़ संकल्प हो उठ खड़ी होती है और यह संदेश देने में कामयाब होती है कि महिलाएं पुरुषों के ऊपर आर्थिक रूप से निर्भर होने के कारण सारे दबाव-अपमान को सहने के लिए विवश नहीं हैं। उनके पास अपनी योग्यताएं व क्षमताएं हैं जो कहीं से भी पुरुषों से कम नहीं है और जिस दिन यह ठान करके महिला अपने घर की चौखट से बाहर निकलकर समाज के भीतर प्रवेश करती है और अपने दम पर अलग स्थान बनाने को सोच लेती है तो उसका रास्ता कोई रोक नहीं सकता। हालांकि, भारतीय समाज में शिक्षा और तमाम कानूनों व मूलतः संविधान में दिए गए अधिकारों के फलस्वरूप महिलाओं की स्थिति में निरंतर सुधार हुआ है। प्राइवेट स्फ़ीयर के साथ-साथ पब्लिक स्फीयर में भी उन्हें बराबरी का हक़ और सम्मान दिया जाने लगा है। परंतु समाज का एक बहुत बड़ा तबका अभी भी परंपरागत रूढ़िवादी पुरुष वर्चस्ववादी सोच और पूर्वाग्रह से ग्रसित है। वह महिलाओं के ऊपर ढेर सारी पाबंदियाँ लगाता है।
महिलाएं भेदभावपरक सामाजिक संरचना में कई सदियों से लगातार ‘एडजस्ट’ करके रहती चली आई हैं इसलिए उन्हें अपने खिलाफ हो रहे दुर्व्यवहार और पुरुष वर्चस्व का बोध और उनका विरोध करने का विचार प्रायः कम ही आता है। ऐसे विचार व्यक्तिगत या संगठनात्मक रूप से जागरूक समूहों द्वारा किए जा रहे आंदोलनों के फलस्वरुप ऐसी महिलाओं को प्रभावित करते हैं जो प्रताड़ना से पीड़ित होती हैं। इस फिल्म के शीर्षक को ध्यान से देखें तो यह व्यंग्यात्मक और विरोधाभासी अर्थ लिए हुए है। एक महिला या महिलाओं की दुनिया को रसोईघर तक सीमित कर दिया जाता है। भोजन बनाने की तैयारी से लेकर बर्तन साफ करने, कचरे इकट्ठा करने और उसको बाहर या डस्टबिन में डालने, किचन के सिंक की सफाई, घर में झाड़ू-पोछा लगाने, पुरुषों की अंडरवियर और बनियान से लेकर गंदे कपड़े साफ करना महिलाओं का काम है, वह भी बिना किसी गलती के। अगर पुरुष की नज़र में गलती हो जाये तो बिना माफी मांगे या सॉरी बोले माफी भी नहीं मिलती।
मार्च 2023 में रिलीज फिल्म मिसेज चटर्जी वर्सेज नार्वे की मुख्य महिला पात्र घरेलू हिंसा की शिकार है। वह पुरुषों के बारे में टिप्पणी करती है कि पुरुषों को सब कुछ करने के लिए पैसा है बस पत्नी फ्री की चाहिए। अर्थशास्त्री भी कहते आए हैं कि भारतीय महिलाओं के श्रम का कोई मूल्य नहीं है जबकि वे कितने सारे काम करती हैं। जहां उनके श्रम का मूल्य है वहाँ भी पुरुषों से कम मजदूरी उन्हें मिलती है। शायद भारतीय समाज में महिला और श्रम का अपमान करने की लंबी परंपरा रही है। यह फिल्म दिखाती है कि एक हाउस वाइफ किस तरह किचेन से डायनिंग टेबल तक दिन भर खटती है और पुरुषों के लंबी जीभ के स्वाद के जुगाड़ में लगी रहती है। औरत माँ हो या नई बहू, उसकी सुबह झाड़ू से होती है और रात भी झाड़ू करने के बाद होती है। उस बीच में उसे कई बार गीला कूड़ा बाहर नगर पालिका के डस्टबिन में डालना होता है। पुरुष देवता को पहले भोजन कराने के बाद उन्हें गंदी टेबल मिलती है जहां दोबारा खाना नहीं खाया जा सकता, उलटी तक आती है।
टेबल मैनर्स फिल्म बहुत बारीकी से महिलाओं के हक़ की बात रखती है। फ़िल्म के फोटोग्राफर ने कैमरे से कमाल का काम किया है। कैमरे की ही ताकत है कि एक शब्द बोले बिना सब कुछ कह दे। फ़िल्म के ज्यादातर हिस्से में हम नई बहू को किचन से डाइनिंग टेबल से भागते, खाना पकाते और परोसते देखते हैं। घर के लोग साधन सम्पन्न हैं जैसा कि नायिका की माँ फिल्म में कई बार कहती है। घर के पुरुष ताजा और गर्म खाना खाते हैं जो कि अच्छाई और समृद्धि का प्रतीक है, ऐसा माना जाता है।
ससुरजी तो उज्ज्वला गैस के जमाने में भी लकड़ी की आंच पर पकी दाल और सांभर खाते हैं नहीं तो उनका टेस्ट खराब हो जाता है। फ्रिज में रखा खाने का कोई आइटम अगर साल में एक दिन भी गलती से गर्म करके दे दिया जाए तो बाप और बेटे नाराज होकर टेबल से उठ जाते हैं।बचा हुआ भोजन दूसरे पहर खाने से उनका धर्म भ्रष्ट हो जाता है।
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माहवारी के दिनों में अस्पृश्यता और अमानवीयता की हद तक नई बहू का अपमान पति और ससुर करते हैं क्योंकि वे संस्कारी नायर ब्राह्मण हैं। उनके देवता सबरीमाला के देव अयप्पा हैं जिनके मंदिर में रजस्वला लड़कियां और महिलाएं प्रवेश नहीं कर सकतीं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी आंदोलन करने वाली महिलाओं के साथ अपमानजनक मारपीट होती है।
इस फिल्म का लोकेशन केरल है, जो देश का सर्वाधिक शिक्षित राज्य है, लेकिन एक परंपरागत हिन्दू परिवार में महिला की स्थिति कितनी दयनीय है, यह फिल्म का मुख्य कथ्य है। बाहर वे मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकती घर के अंदर भी अस्थायी अस्पृश्यता और बहिष्कार व अपमान झेलने को विवश हैं।
संदर्भ
The Great Indian Kitchen: Serving of an Unpalatable Tale of Male Chauvinism in Home.
Juxtaposing The Great Indian Kitchen and the Kudumbashree: Women, Work and Agency in Kerala.
बहुत ही सुंदर विश्लेषण। स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आये यह हम सभी चाहते हैं लेकिन समाज में व्यक्ति की सामाजिक ज़िम्मेदारी का निर्धारण पुरुषों ने ही सम्हाल रखा है। जिसमें अपनी विशेष सुविधा का ख्याल करते हुए ही अपनी जरूरतों के हिसाब से स्त्रियों के लिए श्रम का निर्धारण करता है। कुल मिलाकर सामाजिक शक्ति संरचना में स्वयं को शासक घोषित कर लिया है। स्त्रियों के कार्य को कमतर समझना और अर्थव्यवस्था में उनके योगदान को महज ‘टोकन इकोनॉमी’ के रूप गणना करना आधी आबादी के योगदान को नजरअंदाज करता है। लेक इस यथार्थ का सुंदर चित्रण प्रस्तुत करता है।
महिला एवं पुरुष के बीच काम के बंटवारे को लेकर पुराने समय से भेदभाव बना हुआ है जिसे कई फिल्मों में प्रदर्शित किया है ।
आपने बड़ी बारीकी से इसकी समीक्षा की है
अब इन सभी फिल्मों को देखने का मन कर रहा है।
आपकी समीक्षा बड़ी बारीक हुआ सटीक है।🙏
शानदार तरीके से आप ने आधी आबादी का अनकहा दर्द, शोषण जो गाहे बगाहे परम्पराओं रिवाजो के माध्यम से होता आ रहा है, उसको उजागर किया । अभी भारत में महिलाओं के श्रम व सम्मान के साथ संविधानिक अधिकारों को प्राप्त करना जारी है, उनके जागरूकता पर निर्भर करेगा। इसमें भारतीय सिनेमा का जो रोल होना चाहिए वह अभी नही कर पा रहा है।
हमारे समाज मे ऐसी फिल्में मुख्यधारा से कट जाती है ,समाज में स्त्रियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार आम बात है चाहे वो चाहदीवारी के भीतर हो या बाहर छोटी सी छोटी जगहों पर उन्हें अपमानित होना पड़ता है क्यों क्योंकि वो एक स्त्री है उसे कहाँ आता बड़ी बड़ी बातें करनें ,यथार्थ का सजीव चित्रण, फ़िल्म के माध्यम से जनजागरूकता होती है ।
महिलाओं की स्थिति जानने का आधार मुख्य रूप से उनका सामाजिक आदर ,शिक्षा व्यस्था, परिवार में स्थान ,लैंगिक भेदभाव का न होना, रूढ़ियों एवम कुप्रथाओं का न होना , अधिक संसाधनों पर नियंत्रण , निर्यण लेने की क्षमता का प्रयोग एवम् स्वतंत्र आदि में निहित होता है। आप ने इस लेख के माध्यम से उजागर किया।👌👌👌👌🌻🌻🌻🙏🙏🙏🙏
समाज का यह एक बड़ी सच्चाई है , यह समाज के सभी वर्गों में विद्यमान है कि आज भी महिला को हेय दृष्टि से देखा जाता है,सफाई का सारा काम उनके जिम्मे ही रहता है।
बेहतरीन समीक्षा सर…
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