कर्नाटक की जीत से उत्साहित विपक्ष क्या भाजपा के खिलाफ एक हो सकेगा? यह बड़ा सवाल है और हर पार्टी इसका उत्तर खोजने में भी लगी हुई है। पर मुश्किल यह है कि जो भी उत्तर तलाश रहा है वह उत्तर के सूत्रधार के रूप में सिर्फ और सिर्फ खुद को देखना चाहता है। सभी उस सत्ता के प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा से लबरेज हैं, जिस सत्ता की अभी कोई जमीनी बुनियाद ही नहीं है। वहीं, कर्नाटक जीतकर पुनर्नवा होती कांग्रेस अभी विपक्षी एकता के मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए है। अभी 2024 के पहले राजनीति के सियासी रंग कई बार बदलेंगे।
कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के बाद बहुत ही अस्वाभाविक रूप से यह दिख रहा है कि इस जीत से जितनी खुशी कांग्रेस के गलियारे में है, उतनी ही खुशी सम्पूर्ण विपक्ष में है। जिसकी वजह से भारतीय राजनीति अपने नए उत्सर्ग काल की ओर अग्रसर होती दिख रही है। अब तक किसी भी तरह सिर्फ सत्ता तक पहुँचने का प्रयास कर रहा विपक्षी खेमा पहली बार भाजपा की दिनों-दिन अराजक होती राजनीति पर अंकुश लगाने की नीयत से एक-दूसरे के साथ खड़े होने के लिए उत्साहित है। स्वतंत्र छत्रप के रूप में ताने गए विपक्षी सेना के शामियाने अब एक-दूसरे के प्रति मित्रवत दिख रहे हैं। कर्नाटक की यह जीत भाजपा के खिलाफ संगठित होती केन्द्रीय राजनीति का स्वतः स्फूर्त संधि स्थल बन रही है।
अब तक पूरा विपक्ष अपने-अपने तरीके से भाजपा से लड़ रहा था। साझा संयुक्त मोर्चा सब चाहते हैं पर विडंबना यह है कि उस मोर्चे का नायक तय करना मुश्किल हो रहा है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी विपक्षी मोर्चे की नेता बनने के लिए लंबे समय से सक्रिय हैं तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी पिछले कुछ महीनों से अपने आपको सर्वमान्य नेता स्थापित करने की कवायद में लगे हुए हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल भी अपने आपको लगातार भाजपा के खिलाफ बड़े चेहरे के तौर पर स्थापित करने की कोशिश में हैं। केसीआर भी अपने तरीके से विपक्ष को लामबंद करने की कोशिश में लगे हुए हैं। यह सब कर्नाटक जीत के पूर्व से ही विपक्षी एकता के लिए प्रयासरत हैं, पर कांग्रेस को नेतृत्व देने के लिए कोई तैयार नहीं है। खासतौर पर राहुल गांधी के नेतृत्व पर सत्ता पक्ष जितना ही संशय विपक्ष के दल भी दिखाते रहे हैं।
[bs-quote quote=”2014 की राजनीति से राहुल गांधी को भाजपा ने जिस तरह से कमतर और कमअक्ल बताने की कोशिश कर समग्र राजनीति में उनको अप्रासंगिक बनाने का प्रयास शुरू किया था। उसके बाद पहली बार राहुल गांधी अपनी उस छवि को तोड़ने में कामयाब हुए हैं। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने राहुल गांधी को पुनर्नवा बनाने का कम किया है। यहाँ तक आने के बाद राहुल गांधी और कांग्रेस निःसन्देह किसी राजनीतिक दबाव में आने वाले नहीं हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
अब जबकि कांग्रेस ने कर्नाटक पर दमदार जीत हासिल कर ली है, तब पूरे विपक्ष का ताना-बाना बदलता दिख रहा है। इसकी कई वजहें हैं। जिसमें दो सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण हैं – पहली यह कि कांग्रेस ने सिर्फ जीत ही नहीं हासिल की है बल्कि उसने भाजपा के उस चेहरे की चमक पर स्याही भी पोत दी है जिसके लिए पूरी भाजपा अब तक ‘महाबली’ की टैग लाइन ट्रेंड करा रही थी। इस चुनाव में भी भाजपा के तथाकथित महाबली और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा को सत्ता तक पहुँचाने के लिए हर वह हथकंडा अपनाया था, जिससे अब तक वह अपनी पार्टी की तमाम खामियों के बावजूद सत्ता तक पहुँचने में कामयाब होते रहे थे। इस बार वह अपनी पूरी ताकत लगाने के बाद भी जिस तरह से धराशायी हुए उसने पूरे विपक्ष को यह बता दिया कि जिसकी आभासी ताकत से हम डरे हुए थे, वह कोई वास्तविक शेर नहीं है बल्कि वह सिर्फ मीडिया के महिमामंडन और भक्त लॉबी के शोर से स्थापित आभासी शेर है। जिसे अगर पूरी ताकत से खदेड़ा जाए तो भगाया भी जा सकता है। जिसे शेर समझकर अब तक सब डरे हुए थे उसे पहली बार खदेड़ने का काम राहुल गांधी ने किया तो निःसन्देह इसका फायदा राहुल गांधी को मिलना ही था। अब तक विपक्षी एकता के हाशिये पर रखे जा रहे राहुल गांधी एक झटके से इस संधिस्थल का केंद्र बन गए। दूसरी जरूरी बात यह है कि राहुल गांधी के अलावा विपक्षी मोर्चे के लिए कदम बढ़ा रही हर पार्टी का अस्तित्व स्थानीय है, जबकि कांग्रेस का ढांचा भारत के सभी राज्यों में है। इस मामले में भी राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा निकालकर न सिर्फ पूरे भारत से जुड़ने का बड़ा प्रयास किया, बल्कि भाजपा और उसके महाबली यानी नरेंद्र मोदी को नफ़रत की राजनीति का चेहरा स्थापित करने में भी बड़ी सफलता हासिल की।
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राहुल गांधी जिस तरह से प्रधानमंत्री पर हमला कर रहे हैं वैसा हमला कोई और विपक्षी नेता नहीं कर पा रहा है। अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी के नेता संजय सिंह भी लगातार नरेंद्र मोदी और भाजपा की नीतियों और कार्यों पर सवाल उठाते रहे हैं पर अभी तक किसी भी राज्य की सत्ता वह भाजपा से नहीं छीन सके हैं। आम आदमी पार्टी उन्हीं राज्यों में खुद को स्थापित कर पाई है जहां उससे पहले सत्ता के केंद्र में कांग्रेस थी। दिल्ली नगर निगम को भाजपा से छीनकर अपनी पार्टी को नगर निगम में स्थापित करना केजरीवाल की भाजपा के खिलाफ अब तक की सबसे बड़ी जीत है। नीतीश कुमार का विरोध विपक्ष को उतना विश्वसनीय नहीं लगता, क्योंकि वह भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाते रहे हैं और नरेंद्र मोदी पर हमलावर रहने के बावजूद भी उनके मन में हमेशा ही भाजपा के लिए साफ्ट कार्नर दिखता रहा है। ममता बनर्जी खुलकर भाजपा को चुनती देती रही हैं और राज्य चुनाव में भाजपा को पराजित भी किया है पर उनके शासनकाल में ही भाजपा ने पश्चिम बंगाल में अपनी पैठ बनाने की सफलता भी अर्जित की है जबकि कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस को ममता बनर्जी की पार्टी ने पश्चिम बंगाल में ज्यादा नुकसान पहुँचाया है और वही कांग्रेस को विपक्षी चेहरा बनाने के मुद्दे पर अब तक सबसे ज्यादा विरोध भी करती रही हैं। इन तमाम वजहों के बावजूद अब जबकि कांग्रेस और राहुल गांधी ने पहले हिमाचल प्रदेश और अब कर्नाटक में भाजपा को हराकर अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बना ली है, तब पूरे विपक्ष की सोच में साफ बदलाव देखने को मिल रहा है।
कर्नाटक जीतने के तुरंत बाद ही ममता बनर्जी ने बदलती सोच का साफ संकेत भी दे दिया है। उन्होंने कांग्रेस को इस जीत की बधाई देते हुए कहा था कि, “अब समय आ गया है जब हमें विपक्षी एकता के लिए जो पार्टी जहां मजबूत है, उसे वहाँ प्राथमिकता देनी चाहिए। जहां कांग्रेस मजबूत है, वहाँ उसे लड़ना चाहिए। इसमें किसी को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।” इसके लिए उन्होंने कांग्रेस को उन 200 सीटों पर फोकस करने के लिए कहा, जहां 2014 और 2019 के चुनावों में वह सीधे भाजपा के सामने लड़ाई में रही है। उन्होंने कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों के लिए कहा कि, ‘यदि आप कुछ बड़ा करना चाहते हैं तो कुछ जगहों पर त्याग भी करना होगा।” उन्होंने उदाहरण के तौर पर उन राज्यों के नाम भी गिनाए, जिनमें स्थानीय पार्टियां कांग्रेस से ज्यादा ताकतवर हैं। जैसे उत्तर प्रदेश में सपा या फिर दिल्ली में आपके साथ पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, झारखंड, पंजाब, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, उड़ीसा और बिहार जैसे राज्य।
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ममता बनर्जी के इस मसविदे पर लगभग पूरा विपक्ष सहमत दिख रहा है पर कांग्रेस अब भी भविष्य के साझे को लेकर मौन है। कांग्रेस अभी किसी जल्दबाजी में कोई बयान नहीं देना चाहती है। ऐसी स्थिति में सोनिया गांधी ने हमेशा कांग्रेस को अंत समय तक चुप रखा है। वह जानती हैं कि उनकी पार्टी की स्थिति आज भले ही लोकसभा में कमजोर है पर इसके बावजूद भी वह विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है और कांग्रेस के बिना किसी भी तरह के संयुक्त मोर्चे की बात करना चुनावी राजनीति में किसी के लिए कोई मायने नहीं रखता। आम आदमी पार्टी को छोड़कर विपक्ष की हर पार्टी लगभग एक राज्य की पार्टी है, किसी दूसरे राज्य में उसका कोई जनाधार नहीं है। इसलिए कोई भी पार्टी एक-दूसरे को चुनावी फायदा दे पाने का सामर्थ्य नहीं रखती। जबकि कांग्रेस हर राज्य में अपना एक जनाधार रखती है। ऐसे में यह तो तय है कि विपक्षी एकता का सूत्रधार कोई भी बने पर संधि के केंद्र में कांग्रेस ही रहेगी।
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2014 की राजनीति से राहुल गांधी को भाजपा ने जिस तरह से कमतर और कमअक्ल बताने की कोशिश कर समग्र राजनीति में उनको अप्रासंगिक बनाने का प्रयास शुरू किया था। उसके बाद पहली बार राहुल गांधी अपनी उस छवि को तोड़ने में कामयाब हुए हैं। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने राहुल गांधी को पुनर्नवा बनाने का कम किया है। यहाँ तक आने के बाद राहुल गांधी और कांग्रेस निःसन्देह किसी राजनीतिक दबाव में आने वाले नहीं हैं। इसलिए अभी विपक्षी एकता का जो भी ताना-बाना बुना जा रहा है, उसके वास्तविक समीकरण क्या बनेंगे? यह कहना मुश्किल है। उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में कांग्रेस वापस अपनी जड़ जमाने की पूरी कोशिश में लगी हुई है। हिमाचल और कर्नाटक जीत के बाद कांग्रेस पूरे देश को यह बताने में कामयाब हुई है कि वही है जो भाजपा की नफ़रत की राजनीति को रोक सकती है। ऐसे आत्मविशास के समय में वह राज्य की स्थानीय पार्टियों से बड़ा मोल-तोल भी जरूर करेगी। साथ ही स्थानीय पार्टियों के जनाधार को अपने पक्ष में सीढ़ी बनाकर विपक्षी एकता के केंद्र में खुद को उस जगह जरूर देखना चाहेगी जहां यदि विपक्ष भाजपा को पराजित करने में कामयाब हो तो बिना किसी दया के सत्ता का ताज राहुल गांधी को सौंप दिया जाए।
कुमार विजय गाँव के लोग डॉट कॉम के मुख्य संवाददाता हैं।