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फैज़ की रचनाओं से तानाशाह का डरना लाज़िम है (डायरी 24 अप्रैल, 2022)

बीती रात राजस्थान की राजधानी जयपुर आया। यहाँ की यह मेरी पहली यात्रा है। इस यात्रा में जाे कुछ हासिल हो रहा है, वह तो विस्तार से लिखूंगा, फिलहाल इस यात्रा के बारे में केवल इतना ही कि जयपुर एक सुंदर शहर है और यहां की खाद्य संस्कृतियों में गांव की मिट्टी का सोंधापन है। […]

बीती रात राजस्थान की राजधानी जयपुर आया। यहाँ की यह मेरी पहली यात्रा है। इस यात्रा में जाे कुछ हासिल हो रहा है, वह तो विस्तार से लिखूंगा, फिलहाल इस यात्रा के बारे में केवल इतना ही कि जयपुर एक सुंदर शहर है और यहां की खाद्य संस्कृतियों में गांव की मिट्टी का सोंधापन है।
यात्राओं से एक बात आयी। यह जीवन एक तरह की यात्रा ही है। इन दिनों कबीर को पढ़-गुण रहा हूं तो एक बार समझ में आती है कि यदि आदमी के पास यात्रा का हुनर नहीं होता तो निश्चित तौर पर सभ्यता का विकास नहीं होता। फिर चाहे हम किसी भी सभ्यता की बात कर लें। यदि मैं सिंधु घाटी सभ्यता की भी बात करूं तो यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि इसका निर्माण भी यात्राओं का फलाफल था और इसके सृजनकर्ता कोई तथाकथित ब्रह्मा नहीं थे और ना ही किसी विष्णु इसके संचालन के लिए जिम्मेदार था। सिंधु घाटी सभ्यता असल में उन यायावर समुदायों की सभ्यता थी जो मवेशियों को लेकर दुनिया भर की खाक छानते रहे। मेरे हिसाब से उन दिनों तब दो ही तरह के समुदाय थे। एक वे जो कृषि पर आश्रित थे और दूसरे वे मवेशियां चराते थे। कृषि के विकास में भी चरवाहाें की बड़ी भूमिका रही।
खैर, सिंधु घाटी सभ्यता नागरीय सभ्यता की शुरुआत थी। सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का स्तर तब इतनी विकसित नहीं थी कि इसे दीर्घायु नसीब होती। नतीजा यह हुआ कि करीब 850 सालों तक जो सभ्यता अस्तित्व में रही, वह अचानक तो नहीं लेकिन करीब डेढ़ सौ साल की अवधि में ही पूरी तरह खत्म हो गई।

[bs-quote quote=”हमारे देश के हुक्मरान को नेहरू से बहुत डर लगता है। हालांकि मुझे नेहरूवाद कहना ही चाहिए। गांधी और नेहरू में एक बड़ा अंतर यह है कि नेहरू गांधी की तरह जड़ नहीं थे। हालांकि हिंदू कोड बिल को लेकर वे उस तरह का साहस नहीं कर पाए लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने हिंदू कोड बिल के अनेक प्रावधानों को लागू नहीं किया। हिंदू विवाह अधिनियम के तहत उन्होंने उन प्रावधानों को लागू किया जिसके हिमायती डॉ. आंबेडकर थे और जो भारतीय हिंदू महिलाओं के लिए बेहद जरूरी थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

मैं यह बात आज इसलिए कह रहा हूं क्योंकि फिर से इसी तरह की परिस्थितियां बनायी जा रही हैं। मामला एकदम ताजा है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई), जिसके उपर वर्तमान में आरएसएस का कब्जा है, उसने इतिहास को ही इतिहास से गायब करने की योजना को अंजाम दिया जा रहा है। मसलन, सीबीएसई ने निर्णय लिया है कि 11वीं और 12वीं के लिए इतिहास व राजनीति विज्ञान पाठ्यक्रम के अनेक अध्यायों को खत् करेगी। इनमें गुटनिरपेक्ष आंदोलन, शीतयुद्ध के दौर, अफ्रीकी-एशियाई देशों में इस्लामी सम्राज्य के उदय, मुगल सल्तनत का इतिहास और औद्योगिक क्रांति से संबंधित अध्याय शामिल हैं। आने वाली पीढ़ी अडाणी और अंबानी पर सवालिया निशान न लगाए, इसके लिए खाद्य सुरक्षा से संबंधित कृषि पर वैश्वीकरण का प्रभाव को हटाया जा रहा है।
मैं व्यंग्य बहुत कम लिखता हूं। सच कहूं तो लिख ही नहीं पाता। व्यंग्य लिखना एक कला है। लेकिन शौकिया तौर पर कभी-कभार हाथ आजमा लेता हूं। हालांकि आज जिस तरह का गंभीर मसला मेरे सामने है, व्यंग्य से बात बनेगी नहीं। लेकिन व्यंग्य की एक खासियत यह है कि इसमें लिखने की छूट मिल जाती है और आज मैं इसी छूट का इस्तेमाल करना चाहता हूं।
तो पहली बात तो यह है कि हमारे देश के हुक्मरान को नेहरू से बहुत डर लगता है। हालांकि मुझे नेहरूवाद कहना ही चाहिए। गांधी और नेहरू में एक बड़ा अंतर यह है कि नेहरू गांधी की तरह जड़ नहीं थे। हालांकि हिंदू कोड बिल को लेकर वे उस तरह का साहस नहीं कर पाए लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने हिंदू कोड बिल के अनेक प्रावधानों को लागू नहीं किया। हिंदू विवाह अधिनियम के तहत उन्होंने उन प्रावधानों को लागू किया जिसके हिमायती डॉ. आंबेडकर थे और जो भारतीय हिंदू महिलाओं के लिए बेहद जरूरी थे।
नेहरू ने भारत को जो कुछ दिया, उनमें से एक गुटनिरपेक्ष आंदोलन भी है, जिसके प्रतिपादकों में नेहरू रहे। हालांकि चीन के हमले ने उनके विश्वास को जरूर तोड़ा, लेकिन दुश्मनी तो कोई भी निकाल सकता है। किसी एक की बदनीयती या बददिमागी के कारण गुटनिरपेक्ष आंदोलन जैसे विषय के महत्व कम नहीं होते। लेकिन मौजूदा संघी शासक नेहरू के इसी कामयाबी से यहां के बच्चों को अंजान बनाए रखना चाहता है।
कहा न मैंने? मैं व्यंग्य लिख ही नहीं सकता। व्यंग्य लिखने की कला एकदम अलग होती है। खैर, यह तो मेरी अपनी सीमाएं हैं। मैं तो यह देख रहा हूं कि हमारे हुक्मरान को फैज़ अहमद फैज की केवल दो अनूदित रचनाओं से भय लग रहा है।
फैज़ आप पर हमें नाज है। आज भी तानाशाह आपके शब्दों से डरते हैं और हम जैसे इंसाफपसंद लोग सीना ठोंककर गाते हैं–
सब तख्त गिराए जाएंगे,
सब ताज उछाले जाएंगे,
हम देखेंगे…

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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