Thursday, April 25, 2024
होमसंस्कृतिसाहित्यख़्वाबों के सात रंग

ताज़ा ख़बरें

संबंधित खबरें

ख़्वाबों के सात रंग

साल 2021 के आखिरी महीने में जबकि कोरोना अभी पूरी तरह से गया नहीं और ओमिक्रोन का खतरा आसन्न है, ऐसे में वरिष्ठ रंगकर्मी, लेखक और निर्देशक आलोक शुक्ला द्वारा लिखित सात छोटे-बड़े नाटकों का संग्रह ख्वाबों के सात रंग किसी हर्षगीत से कम नही है।  लेखक द्वारा प्रस्तुत ‘भूमिका’ और ‘नाटकों के बारे में’ […]

साल 2021 के आखिरी महीने में जबकि कोरोना अभी पूरी तरह से गया नहीं और ओमिक्रोन का खतरा आसन्न है, ऐसे में वरिष्ठ रंगकर्मी, लेखक और निर्देशक आलोक शुक्ला द्वारा लिखित सात छोटे-बड़े नाटकों का संग्रह ख्वाबों के सात रंग किसी हर्षगीत से कम नही है।  लेखक द्वारा प्रस्तुत भूमिका’ और नाटकों के बारे में’ खण्ड एक नए प्रयोग की तरह लगे जो सराहनीय हैं। पुस्तक के आरम्भ में ही पाठक को एक सार-संक्षेप मिल जाता है जो उसे बाक़ी पुस्तक पढ़ने के लिए ललचाता है।

[bs-quote quote=”नाटकों के अलग-अलग प्रारूप एक ही पुस्तक में उपलब्ध कराना एक सराहनीय और दुःसाहसिक कार्य है। इस संग्रह में एक एकल नाट्य, एक नुक्कड़ नाटक, दो लघु नाटिकाएं, दो पूर्णकलिक नाटक और एक ऐसा द्विपात्रीय नाटक जो बहु पात्रीय है, इसे निर्देशक जैसा चाहे कर सकते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

नाटकों की पृष्ठभूमि और कथानक लाजवाब है। लगभग सभी नाटक लेखक के व्यक्तिगत अनुभव और आस-पास के वातावरण के प्रति संवेदना और सजगता बयान करते हैं। इसके पात्र हमारे आस-पास ही मौजूद हैं। यही इन नाटकों की असली ताक़त हैं। इसके पात्र आपको कहीं से भी काल्पनिक नहीं लगते हैं। सभी नाटक समाजिक विषमताओं पर लिखे गए हैं जो लेखक की सामाजिक प्रतिबद्धता को प्रतिबिंबित करते हैं।

नए नाटकों के साथ प्रयोग करने वाले कलाकार, निर्देशकों के लिए ये बहुत ही अच्छा संकलन साबित हो सकता है। नाटकों के अलग-अलग प्रारूप एक ही पुस्तक में उपलब्ध कराना एक सराहनीय और दुःसाहसिक कार्य है। इस संग्रह में एक एकल नाट्य, एक नुक्कड़ नाटक, दो लघु नाटिकाएं, दो पूर्णकलिक नाटक और एक ऐसा द्विपात्रीय नाटक जो बहुपात्रीय है, इसे निर्देशक जैसा चाहे कर सकते हैं।

यह भी देखें:

लगता है काशीनाथ जी ठाकुर नहीं अहीर हैं तभी यादव जी से इतनी दोस्ती है!

संवादों के माध्यम से जो संदेश लेखक ने देने का प्रयास किया है ज़्यादातर प्रयासों में सफलता मिलती नज़र आती है। जैसे पहले ही नाटक, ख़्वाब और बाप रे बाप के अंतिम दृश्य में मुख्यपात्र और अंतरात्मा के बीच संवाद। उसके साथ में पीड़ित लड़की के एकल संवाद इत्यादि।

अंतिम नाटक देखो ना  बाक़ी नाटकों के साथ यदि तुलनात्मक रूप से देखें तो लेखक की वरिष्ठ और प्रबुद्ध रचना प्रतीत होती है। यूँ तो प्रारम्भ में यह नाटक एक अलग ही पृष्ठभूमि के साथ प्रारम्भ होता है, लेकिन समापन एक बहुत ही सुंदर और सामयिक विषय के साथ होता है, यह प्रयोग बहुत ही सुंदर बन पड़ा है।

हालांकि प्रूफ की कई गलतियां आपको नज़र आती हैं लेकिन एक अच्छे नाट्य संग्रह के लिए इन्हे नजरअदाज़ किया जा सकता है, ऐसे ही लगता है कि बाप रे बाप और उसके साथ की अंतिम स्पीच के कुछ अंश थोड़े और संपादित हो सकते थे लेकिन यह कार्य नाटक का निर्देशक बड़ी आसानी से कर सकता है।

ऐसे ही लगता है कि विभिन्न क्षेत्रीय बोलियों/भाषाओं का जो प्रयोग किया गया है वो बेहतर होते हुए भी थोड़ा और न्याय मांगता था। इसके प्रूफ रीडिंग में सुधार किया जा सकता था।

अगोरा प्रकाशन की यह बुक अब किंडल पर भी उपलब्ध है:

जो भी हो यहां ये ध्यान देना ही होगा कि लेखक पिछले डेढ़ साल से स्वास्थ्य के स्तर पर कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं लेकिन इस सब के बीच जिस प्रकार से उन्होंने अपने नाट्य संग्रह के प्रकाशन के सपने को साकार किया है वो अनुकरणीय है।

उनकी गम्भीर बीमारी और कोरोना की परिस्थितियों को देखते हुए इसे एक बेहद सराहनीय प्रयास कहा जा सकता है, इसके लिए लेखक और प्रकाशक दोनों ही साधुवाद के हक़दार हैं। इसका रंग जगत को भरपूर स्वागत करना चाहिए क्योंकि जो भी मौलिक नाटक हैं, वे हैं तो ज़रूर पर प्रकाशित नहीं हैं और प्रकाशित हैं तो उपलब्ध नहीं हैं।

लेखक ब्लॉगर और रंगकर्मी हैं।

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट की यथासंभव मदद करें।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

लोकप्रिय खबरें