मेरा गाँव मेरे लिए दुनिया की सबसे सुंदर जगह है, जहां मेरा बचपन बीता था। गाँव और बचपन की स्मृतियाँ मुझे रोमांचित कर देती हैं। दिल करता है कि उड़कर गाँव पहुंच जाऊं । यही कारण है कि समय निकालकर वहां जाता रहता हूँ। वहां बिताये हुए कुछ ही दिन मुझे पूरे साल के लिए ऊर्जा प्रदान करते हैं।
मेरे लिए गाँव का मतलब है प्रकृति का साथ, खेत-खलिहान, जहाँ सुबह आपकी आँख मुर्गे की बांग या किसी पशु के रंभाने से खुले, जहां मोर नाचते हों, झिंगुरों की आवाज सुनी जा सके, रात में एक-एक तारा साफ दिखाई दे, अंधेरे का संगीत और सन्नाटा सुनाई दे, साझी विरासत हो और साझी ही बहन-बेटियां, सहयोग हो, सामाजिकता हो, सादा खाना हो, मोटा पहनावा हो।
ऐसा ही तो था मेरा गाँव, सरल और सीधा जहां लोग पूरी तरह खुशमिजाज और मिलनसार थे। आज शहर में दौड़ते रहकर भी पीछे छूट जाता हूं और गांव में रेंगता भी था तो लगता था हवा में उड़ रहा हूँ। यहाँ सब को जानकर भी लगता है कौन है मेरा, वहाँ इतना कम जाता हूँ फिर भी लगता है सभी मेरे हैं। यहां कुछ भी खा लूं सिर्फ पेट भरता , गांव में चटनी-रोटी के साथ छाछ भी पेट के साथ आत्मा को भी तृप्त कर देती है। गाँव , दरअसल बहुत बड़ी विलासिता है, हम गरीबी के कारण कुछ ज्यादा की तलाश में थे और गाँव छूट गया। तरक्की के लिए गाँव छोड़ा था, हिसाब करता हूँ तो लगता है कि शहर आकर तो और भी गरीब हो गया हूँ।
मैं सत्तर और अस्सी के दशक के मेरे गाँव के विषय में बताने जा रहा हूं। मेरे गाँव का संबंध अहीरवाटी राठ क्षेत्र से है, जो कि दिल्ली और जयपुर के बीच हरियाणा और राजस्थान की सीमा पर बसा है। अपनी पूर्व, उत्तर-पूर्व , उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम से यह गाँव लगभग तीन किलोमीटर की दूरी से हरियाणा से जुड़ा हुआ है और दक्षिण हरियाणा से लगा उत्तर-पूर्व में यह राजस्थान की पूंछ का लगभग आख़िरी गाँव है । गाँव सभी एक जैसे ही होते हैं इसलिए गाँव का नाम बताने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
[bs-quote quote=”स्कूल के पाठ्यक्रम की तरह बचपन में खेलों का समय भी मौसम के हिसाब से तय होता था। सर्दियों में उठते ही दिन की शुरुआत काँच के कंचों से होती थी। खेल में जीतना जरूरी भी होता था क्योंकि किसी स्टेडियम की भीड़ ना सही, मोहल्ले के बीस- तीस दर्शक तो होते ही थे। भीड़ में से कोई कहता की पीली गोली को मार तो पीली को उड़ाने का आनंद ही कुछ और होता। दोपहर में पिट्ठू या मालधड़ी, (जिसमें कपड़े की गेंद जिसे हाथ आए दूसरे को मारना), हूल (ग्रामीण हॉकी), खद्दा-खुलिया, गिल्ली-डंडा खेलते थे। गिल्ली-डंडा बहुत खतरनाक खेल था और कई बार इससे आँख में चोट लग जाती थी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
बचपन में माँ ने कभी भी अपनी गोद से अलग नहीं किया। रात में सोते समय मैं माँ से कहता कि माँ कोई बात ( कहानी ) सुना तो प्रारंभ में वह जूं की कहानी सुनाती, जिसे हम बड़े शान से सुनते –
जूं जूं कित चाली साग तोड़न
साग तोडै कैंतरा चुट्टक चुट्टक
साग चीरै कैंतरा चुर्रक चुर्रक
साग रार्धैं कैंतरा खदड़ खदड़
साग खावां कैंतरा सप्पड़ सप्पड़
खाकै सौवां कित चूल्हा पाछै
बिछावा के छाज
ओढै के छालनी
पादा कैंतरां टूँ ऊँ
शाबास मेरी जूँ
तेरै मोगरा की दूँ
जैसे-जैसे आयु बढ़ती गई, उसी तरह की कथाएँ सुनाई जाती। माँ एक राजा के सात लड़कियां थी की कहानी या ऐसी ही कोई राजकुमारी की कहानी सुनाती। राजा मोरध्वज और बेमाता की कहानी कई बार सुनाती। माँ को सुबह जल्दी उठकर चक्की पर हाथ से आटा पीसना होता था। चक्की की वह आवाज ही मेरा पहला संगीत थी। चक्की के साथ सबसे प्यारी नींद आती थी।
बचपन में खेलना बिल्कुल अपने पड़ोस तक ही सीमित था । खेल हम बड़ों को देखकर ही सीखते हैं । बचपन गुड्डे – गुड्डी के खेल से शुरू हुआ । मेरे पड़ोस और परिवार की लड़कियां ही खेल में साथी होती थी । हम आपस में पति-पत्नी बनते । कभी कोई लड़की तो कभी कोई पत्नी बनती ।
[bs-quote quote=”राठ अलीबख्श के खयालों की विरासत है। इसलिए राठ और हरियाणा में सांग ( नौटंकी ) का खूब चलन था। रेडियो पर किसान भाइयों के लिए सायं छ: बजकर बीस मिनट पर ग्राम संसार कार्यक्रम आता था जिसमें किसानों के मनोरंजन के लिए रागनियाँ भी सुनाई जाती थी । मुझे मेरे पिताजी ने रागनियों के मेरे आकर्षण के कारण ही रेडियो लाकर दिया था। उस दौर में रामकुमार खालेटिया, नेकी राम , चंद्रबादी के सांगो कि गाँवों में धूम थी। दूर-दूर तक हम मेलों में या शादी-विवाह में सांग देखने जाते थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मेरी माँ जब मुझे पहली बार मेरे मामा के यहाँ ले गई, तो वह मेरे जीवन की पहली रेल यात्रा थी । रेल क्या थी कुछ डिब्बों की छोटी-सी गाड़ी थी जिसे सब लोग अद्दा कहते थे। जानवरों की तरह इंसानों से भरी इस रेलयात्रा का मेरे मन पर ऐसा बुरा असर हुआ कि बाद में बहुत लंबी-लंबी यात्राएँ मैंने बस से ही की थी। मुझे बहुत वर्षों बाद यह पता चला की अच्छी और सुविधाजनक रेल भी होती हैं।
मेरी माँ मुझे सवेरे बिना खाना खिलाए घर से नहीं निकलने देती थी क्योंकि एक बार घर से निकलने के बाद मैं कब घर में वापिस घुसूँगा उसका कोई भरोसा नहीं होता था। स्कूल के पाठ्यक्रम की तरह बचपन में खेलों का समय भी मौसम के हिसाब से तय होता था। सर्दियों में उठते ही दिन की शुरुआत काँच के कंचों से होती थी। खेल में जीतना जरूरी भी होता था क्योंकि किसी स्टेडियम की भीड़ ना सही, मोहल्ले के बीस- तीस दर्शक तो होते ही थे। भीड़ में से कोई कहता की पीली गोली को मार तो पीली को उड़ाने का आनंद ही कुछ और होता। दोपहर में पिट्ठू या मालधड़ी, (जिसमें कपड़े की गेंद जिसे हाथ आए दूसरे को मारना), हूल (ग्रामीण हॉकी), खद्दा-खुलिया, गिल्ली-डंडा खेलते थे। गिल्ली-डंडा बहुत खतरनाक खेल था और कई बार इससे आँख में चोट लग जाती थी। उन दिनों कोई गाँव ऐसा नहीं होगा जिसमें गिल्ली से किसी न किसी ने आँख न गँवाई हो। सांयकाल मर्दाना खेल कबड्डी खेलते थे। गर्मियों में वक्त काटने का सबसे बड़ा सहारा ताश खेलना और शादी-विवाह के बचे हुए लड्डू होते थे। उन दिनों विवाह में लड्डू बहुत बच जाते थे जिन्हें हमारी बाल टोली गर्मियों में खत्म करती थी। गाँव की शादी-विवाह के बचे हुए यह सूखे हुए लड्डू उन दिनों बहुत स्वादिष्ट लगते थे। गाँव के बच्चे ताश के लगभग सभी खेलों से परिचित होते हैं क्योंकि उनका बचपन से ही अच्छा प्रशिक्षण हो जाता है। कान डंका (पेड़ पर चढ़ना) चंगा (आधुनिक लूडो) कांटिया और कबड्डी तो सदाबहार खेल था है। शहरों से आयातित एक खेल आइस-पाइस ने पहली बार फ्रायड द्वारा बताई गई मूलभूत प्रवृत्तियों में से एक से परिचय करवाया जब हम लड़कियों के साथ छुपते थे। संभवत: इस खेल के दौरान ही पहली बार किसी लड़की के गालों की पप्पी ली थी और उसके उभारों को छुआ था।
[bs-quote quote=”उन दिनों विवाह हो या मृत्युभोज में लोगों में जीमण के लिए बहुत उत्साह होता था। लोग बड़ी संख्या में गाते-बजाते दूसरे गाँवों में पैदल जीमने जाते थे। लोगों की खुराक बहुत अच्छी होती थी। बहुत से पाहुने (मेहमान) चिंहित थे जिन्होंने किसी जिमाने वाले को बिना डलवाए जाने नहीं दिया। लोग आपस में बात करते और गिनती कि फलाने ने पैंतालीस लड्डू खा लिए हैं। जीमने और जिमाने वाले दोनों के लिए वह बहुत खूबसूरत दौर था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
हम उन दिनों किसी मित्र की मैड़ी (पक्के मकान पर फूस या छान से बना दो मंजिला मकान) में गर्मियों में ताश खेलते थे। गर्मियों में यह मैड़ी बहुत ठंडी रहती थी और उसकी बारियों से बहुत ठंडी हवा थी। गर्मियों में आग भी इन मैड़ियों में ही अधिक लगती थी। बचपन में हम देखते थे कि गर्मियों के दिनों में नियमित रूप से सही समय पर काली-पीली आँधी आती थी। भभूलिया (रेत का बवंडर) आसमान तक जाता था। लोग छप्परों से चिपक जाते और उन्हें उड़ने से रोकते। गाँव में फिर भी कई छप्पर हवा में उड़ जाते थे। आँधी इतनी तेज होती थी कि कुछ भी नहीं दिखाई देता था। आँधी नियमित समय पर आती और सभी चिल्लाने लगते की आंधी आ गई है। लोग अपने – अपने कपड़े उठाने लगते। इन दिनों ही घास-फूस के घरों में आँधी के कारण आग लगना आम बात थी। गाँव वाले चिल्लाते कि फलाँ के घर में आग लग गई है और सारे गाँव वाले पानी की बाल्टियाँ लेकर उधर आग बुझाने के लिए भागते।
बरसात में मालपुए, चीलवे, तवे पर चने भूनना, पकोडियाँ तलना बहुत भाता था। बरसात में कभी-कभी सात दिन तक सूरज नहीं दिखता था। झड़ (धीमी बारिश) कई दिनों तक रुकती ही नहीं थी। इस दौरान छत टपकती तो घर के सभी छोटे- बड़े बर्तन टपकों के नीचे काम आ जाते थे। बरसात खेलने में खलल डालती थी इसलिए उन दिनों बरसात को ही खेल बना लिया जाता था। छपाक -छप, पानी में नाव चलाना, नाले में तैरना इत्यादि। रेडियो पर सुनकर हम इन दिनों क्रिकेट के खेल से भी परिचित हो गए थे। लकड़ी की तीन डंडीयाँ रोपकर, खाती द्वारा बनाए गए बैट और रबड़ की गेंद से हम क्रिकेट खेलते।
राठ अलीबख्श के खयालों की विरासत है। इसलिए राठ और हरियाणा में सांग ( नौटंकी ) का खूब चलन था। रेडियो पर किसान भाइयों के लिए सायं छ: बजकर बीस मिनट पर ग्राम संसार कार्यक्रम आता था जिसमें किसानों के मनोरंजन के लिए रागनियाँ भी सुनाई जाती थी । मुझे मेरे पिताजी ने रागनियों के मेरे आकर्षण के कारण ही रेडियो लाकर दिया था। उस दौर में रामकुमार खालेटिया, नेकी राम , चंद्रबादी के सांगो कि गाँवों में धूम थी। दूर-दूर तक हम मेलों में या शादी-विवाह में सांग देखने जाते थे।
स्कूल की आधी छुट्टी में हम घर से लाई गई लहसुन की चटनी लेकर खेतों में चने का हरा साग खाने जाते थे और एक मित्र की बेरियों से बेर लाकर खाते थे।
पटवारी का महत्व जानना है तो गाँव के किसी गरीब किसान से पूछो – ऊपर करतार और नीचे पटवार। पटवारी भारतीय उपमहाद्वीप के ग्रामीण क्षेत्र में सरकार का प्रशासनिक पद होता है। गाँव में गरीब किसान के लिए पटवारी ही बड़ा साहब होता है। पंजाब में तो पटवारी को पिण्ड दी माँ (गाँव की माँ) कहा जाता है। राजस्थान में पहले पटवारियों को हाकिम साहब कहा जाता था। इसका कारण उनके द्वारा ज़मीन की हाकिमी वसूल करना होता था, जो पहले राजस्व शुल्क था। लोग कलेक्टर, तहसीलदार की परवाह करें या नहीं लेकिन पटवारी की खातिर सभी को करनी पड़ती थी। पटवारी से बैर रखना किसी को भी भारी पड़ सकता था। हाकिमी, मुआवजा, जन्म-मरण या किसी प्राकृतिक आपदा हर जगह पटवारी की जरूरत पड़ती थी। पटवारी सरकार का चेहरा होता है। पटवारी चाहे तो कितनी ही योजनाएँ धरी रह जाएं और पटवारी मेहरबान तो लागू हो जाएं। पटवारी की कलम हल्की सी भी इधर-उधर चल गई तो कुछ का कुछ हो सकता है।
[bs-quote quote=”उन दिनों विवाह में विदाई के समय दहेज में एटलस साइकिल, फिलिप्स का रेडियो और एचएमटी की घड़ी मिल जाना बहुत अच्छी शादी और विदाई मानी जाती थी। बारातियों के लिए विदा में एलुमिनियम का गिलास और एक रुपिया दिया जाता था। बारात जाने पर औरतें रतजगा करतीं और खोडिया खेलती जिसमें एक औरत मर्दाने कपड़े पहनकर पुरुष बनती तथा दूसरी महिला। सामान्यतः गाँव की कोई बहू ही महिला बनती थी। इस खेल में पुरुषों की नकल करते हुए महिलाएं जिस अश्लील भाषा का प्रयोग करती वह पुरुष तो कभी भी नहीं कर सकते थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
हमारे गांव के बहुत से लोग मुंबई रहते थे लेकिन वह शादी-विवाह करने गाँव ही आते थे। उनके यहां जब हलवाई बैठाने का समय होता था तो हम बच्चे उसका बहुत आनंद लेते थे। गांव का कन्हैया हलवाई हमारी मंडली का खास होता था क्योंकि मुंबई वाले तो कुछ दिन के मेहमान होते परंतु हम बच्चों को तो ताऊ की सेवा में हमेशा रहना था। जैसी ही भट्टी चढ़ती हम इशारा करते और ताऊ कन्हैया समझ जाता और जलेबी की जगह जलेबा (मोटे -मोटे) बनाकर देवताओं से पहले ही हम बच्चों का पेट भर देता। यह गोपनीयता ताऊ हलवाई और बच्चों तक ही सीमित रहती थी। उन दिनों लड्डू वगैरह गाँव के लोग ही बांधते थे। आज की तरह हलवाई सभी काम नहीं करते थे। हमारी मंडली लड्डू बांधने बैठती थी तो दो तरह के लड्डू बांधे जाते थे एक हाथ में पूरा लड्डू तो दूसरे में बच्चा लड्डू। पूरा लड्डू दुक्कड़िये में जाता था और बचा लड्डू सीधा मुंह में।
इन दिनों शादी-विवाह और नुकतों में पहली बार किसी ब्रांड से परिचय हुआ था। तब वनस्पति घी का प्रचलन शुरू हो गया था और पहले वनस्पति घी के रूप में हमारा परिचय रथ वनस्पति से हुआ जो उस समय सबसे बड़ा ब्रांड था। उसके बाद डालडा एक ब्रांड बना जिसके नाम पर वनस्पति घी का नाम ही डालडा पड़ गया। लोग पूछते कि हलवा देशी घी में बना है कि डालडा में। उसी दौर में दो साबुन के ब्रांड चलते थे । एक का नाम सनलाइट था और दूसरे का नाम हमाम। सनलाइट से नहाने और कपड़े धोने दोनों काम हो जाते थे जबकि हमाम केवल नहाने के काम आता था। लक्स सिनेमा वालों का साबुन मानते थे जा शहरों में चलता होगा।
उन दिनों विवाह हो या मृत्युभोज में लोगों में जीमण के लिए बहुत उत्साह होता था। लोग बड़ी संख्या में गाते-बजाते दूसरे गाँवों में पैदल जीमने जाते थे। लोगों की खुराक बहुत अच्छी होती थी। बहुत से पाहुने (मेहमान) चिंहित थे जिन्होंने किसी जिमाने वाले को बिना डलवाए जाने नहीं दिया। लोग आपस में बात करते और गिनती कि फलाने ने पैंतालीस लड्डू खा लिए हैं। जीमने और जिमाने वाले दोनों के लिए वह बहुत खूबसूरत दौर था।
गाँव की बारातों के अपने किस्से होते थे। बारात ट्रैक्टर की शाही सवारी या बस में सवार होकर निकलते ही एक तरफ तो हमारी बच्चों की मंडली का गाना और शरारतें शुरू हो जाती और दूसरी तरफ बुड्ढों की गालियाँ। बुड्ढों को हमेशा ही अंदेशा रहता था कि हमारी वजह से ही गांव की नाक कटेगी। बारात के लिए बिना कहे है गाँव के लोग अपने-अपने घर से एक खाट और बिस्तर जनवासे में पहुंचा देते थे। बारात कम से कम दो दिन रुकने का रिवाज था और बारात पूरे गांव की मेहमान होती थी। बारात की चढ़त के समय एक बात हमेशा माथा-फोड़ी का कारण जरूर बनती थी कि किसी बाराती का छोड़ा हुआ कोई पटाखा गाँव के किसी कच्चे मकान के ऊपर गिरता तथा आग लग जाती। गाँव वाले और बाराती इस बात को लेकर आमने-सामने हो जाते , जिसमें एक-दो बाराती किसी को पीटकर निकल लेते और बदले में गाँव वाले सारी बारात को धोते थे क्योंकि पूरे गाँव से बारात कैसे निपट सकती है। संघर्ष का दूसरा कारण छेड़छाड़ होती थी। कई बार गाँव की लड़कियां बारात के कुछ मनचलों के सामने सभी मर्यादाएं तोड़ देती थीं। बाराती भी इस आमंत्रण की अनदेखी कैसे करते। गाँव का कोई लड़का इसे देख लेता और उधम हो जाता। पहचान नहीं होना भी कई बार फायदे का सौदा हो जाता है। कई बार देखा गया की बारात के किसी सुंदर लड़के का वहां की लड़की से नै -मटक्का हुआ और दोनों किसी गुप्त जगह मिल लिए। एक दूसरे का नाम जाने बिना ही दोनों भवसागर तर जाते थे। इसका मनोविज्ञान शायद यह है कि एक तो दूर का आकर्षण दूसरा बिना पहचान के कारण सुरक्षा।
[bs-quote quote=”उन दिनों वर्षा खूब होती थी और किसान भी विवाह, मेले इत्यादि के पश्चात नई ऊर्जा के साथ खेतों में लग जाता। इस फसल में बाजरे के साथ ग्वार, मूंग और तिलहन की फसल बोई जाती। इन्हीं के साथ कुछ कचरी और खरबूजे के बीज भी डाल दिए जाते जिनकी बेले हम बच्चों का लक्ष्य होतीं थी। उन दिनों बाजरे में भी घी जैसा स्वाद होता था। ग्वार की फली में कचरी मिलाकर उसकी सब्जी को बाजरे की रोटी के साथ खाने का जो स्वाद होता था उसकी आज सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। खेतों में उन दिनों केवल देशी खाद ही डाली जाती थी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
उन दिनों विवाह में विदाई के समय दहेज में एटलस साइकिल, फिलिप्स का रेडियो और एचएमटी की घड़ी मिल जाना बहुत अच्छी शादी और विदाई मानी जाती थी। बारातियों के लिए विदा में एलुमिनियम का गिलास और एक रुपिया दिया जाता था। बारात जाने पर औरतें रतजगा करतीं और खोडिया खेलती जिसमें एक औरत मर्दाने कपड़े पहनकर पुरुष बनती तथा दूसरी महिला। सामान्यतः गाँव की कोई बहू ही महिला बनती थी। इस खेल में पुरुषों की नकल करते हुए महिलाएं जिस अश्लील भाषा का प्रयोग करती वह पुरुष तो कभी भी नहीं कर सकते थे।
विवाह में एक-दूसरे की मदद के लिए नौता लेने की प्रथा थी। जहाँ हर घर से कुछ पैसे बही में लिखवाए जाते थे। जब लिखवाने वाले के घर में विवाह होता था तो लेने वाले को यह राशि देते समय कम से कम दुगनी लिखवानी होती थी जिससे अब राशि जिसके यहाँ विवाह है उस पर चढ़ जाती थी। इसी प्रकार बिंदोरी के आगे-आगे एक आदमी बही लेकर सब का हिसाब-किताब लिखता था। रेल से बारात जाने की स्थिति में बारातियों को एक तरफ का किराया देना होता था। इस प्रकार पूरी बस्ती के सहयोग से विवाह संपन्न होता था। इसके अतिरिक्त मामाओं द्वारा भात की रसम में दिया गया सहयोग भी मददगार होता था।
सुबह भोर में उठकर चक्की पीसने से मेरी माँ के दिन की शुरुआत होती थी । उसके पश्चात कुएं से पानी खींच कर सारे घर का पानी भरती थ । समय रहते खाना बनाना होता था क्योंकि उन्हें भूखे बकरी-बच्चों और जानवरों को खेतों में ले जाना होता था। वह दिन ढले खेतों से लौटती तो फिर सायं के पानी भरने के लिए पनघट की ओर दौड़ती। पानी भरते-भरते रात के भोजन बनाने का वक्त हो जाता। पत्थर के सिलबट्टे पर मसाला पीसना पड़ता था। कई बार जिंदगी के संघर्ष का स्वाद हांडी में भी आ जाता और सब्जी अच्छी नहीं बनती तो वह सफाई देती रहती कि मैंने दो अटकड़ी तेल डाला था और भुनाव भी ठीक से लगाया था। पता नहीं सब्जी को क्या आग लग गई। माँ हमें कांसे की थाली में भोजन परोसती थी। बरसात के दिनों में बिजली गिरने के डर से इन बर्तनों को छुपाया जाता था। हमारे घर में एक ही कचोला था जिसमें खाने को लेकर मेरे और छोटी बहन में हमेशा झगड़ा होता था। गर्मियों में एक कचोला राबड़ी पीकर आदमी मस्त हो जाता था। माँ दुधारुओं का दूध निकाल कर मिट्टी की कढावनी में जगरा लगाकर (गोबर के कंडे सुलगाकर) गर्म करती थी। घी निकालकर तावणी में डालती और घी तैयार होने पर उसे मिट्टी की घीलडी में रखती। आटा डालने के लिए ढकोला कागज और मुल्तानी मिट्टी से बनाती थी, जिसे वे रंगकर उस पर कई चित्र बनाती थी। उन दिनों घर में बहुत से मिट्टी के बर्तन होते थे जैसे मोण (बड़ा मटका) , बिलोवणा ( जिसमें छाछ बिलोई जाती है) , झाल (बहुत बड़ा मटका), माँगा (छोटा मटका), कूल्हड़ी इत्यादि। ओखली-मूसली मिट्टी के अलावा लकड़ी के भी होते थे। पेड़ की टहनियों से मेरी माँ चंगेरी (रोटी रखने की टोकरी) बहुत सुंदर बनाती थी।
बचपन में मैंने देखा हमारे खेतों में बहुत अधिक चने होते थे। लोग कच्चे चने उखाड़ कर खाते कुछ बाँट भी दिए जाते, लेकिन इसका उपज पर कोई खास असर नहीं होता था और घर तक बंपर फसल पहुंचती थी। घरवाले मिल-जुल कर किसी कर्मकांड की तरह फसलों की कटाई करते थे। अनाज निकालने के लिए हमारे पनघट के कुएं के पास सुरक्षा की दृष्टि से सभी के खाते (खलियान) पास-पास बनते थे । मशीनों का चलन नहीं होने से बैलों के गाहटे के बाद ही खातों को बरसा कर अनाज निकलता।
रबी की फसल के बाद किसान आषाढ़ तक खेती के कार्य से मुक्त हो जाता और हाथ में पैसे होने के कारण यह अवसर विवाह जैसे मांगलिक कार्यों का होता। अक्षय तृतीया और बढ़लिया नोमी जैसे अबूझ साये किसानों के लिए उपयुक्त होते थे। खान-पान के लिए और खराब मौसम होने की आशंका के कारण विवाह के लिए यह कोई बहुत अच्छा समय नहीं होता था लेकिन किसान के हाथ में चार पैसे इसी दौरान ही होते थे। आषाढ़ के आते ही सभी की नजरें आकाश को तकती कि इंद्र देवता कृपा करें तो खरीफ की फसल बोई जाये। उन दिनों वर्षा खूब होती थी और किसान भी विवाह, मेले इत्यादि के पश्चात नई ऊर्जा के साथ खेतों में लग जाता। इस फसल में बाजरे के साथ ग्वार, मूंग और तिलहन की फसल बोई जाती। इन्हीं के साथ कुछ कचरी और खरबूजे के बीज भी डाल दिए जाते जिनकी बेले हम बच्चों का लक्ष्य होतीं थी। उन दिनों बाजरे में भी घी जैसा स्वाद होता था। ग्वार की फली में कचरी मिलाकर उसकी सब्जी को बाजरे की रोटी के साथ खाने का जो स्वाद होता था उसकी आज सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। खेतों में उन दिनों केवल देशी खाद ही डाली जाती थी। उसके पश्चात ज्यों-ज्यों खेतों में यूरिया खाद बढ़ता गया अनाज का स्वाद भी उसी अनुपात में घटता गया। खेतों में जो मूँग होता था उस पर सभी का हक होता था। बहन- बेटियों के यहां मूँग और कचरी-फली की थैलियाँ (बीदड़ियाँ) बनाकर भेजी जाती थी।
कुछ वर्षों के बाद लोगों ने पानी का इंजन लगाकर सिंचाई की वैकल्पिक व्यवस्था करना शुरू कर दिया। इसके पश्चात एक बात देखी कि रबी की फसल में एकदम से लोगों ने चना और जो बोना बहुत कम कर दिया। खरीफ की फसल से मूंग और तिलहन तो गायब ही हो गए। अब इंजन चलते ही खेती की प्रक्रिया में भी आमूल परिवर्तन हो गए। चड़स और रहट अचानक दिखने बंद हो गए। लोगों ने बैल पालने और रखने बंद कर दिए। बैल,जो की अर्थव्यवस्था का स्तम्भ था, अचानक बोझ लगने लगा। इंजन आ गया तो जल्दी ही थ्रेसर भी आ गया। बैल गाहटों से मुक्त हो गए और फसल निकालना, जो कि कई दिनों तक चलने वाला उपक्रम था अब कुछ ही घंटों में आसानी से निकालना संभव हो गया। नई तकनीक की कम समझ होने के कारण थ्रेसर की मशीन ने गाँवों में बहुत से लोगों के हाथ टुंडे कर दिये। अज्ञानता के कारण अक्सर लोगों का हाथ मशीन में चला जाता। हरित क्रांति के पश्चात उत्पाद को बढ़ाने के लिए बीज की नई प्रजाति आने लगी जिससे फसल का उत्पादन तो बढ़ गया लेकिन नए बीज की यह फसल न तो देखने में सुंदर लगती है और ना खाने में स्वाद है।
गाँव के लोग प्राकृतिक संकेतों से ही मौसम का मिजाज समझ जाते थे । बादल किधर से चढ़ा है, चिड़िया मिट्टी में नहा रही हैं या चिड़िया अपने अंडों को सुरक्षित स्थान पर ले जा रही हैं, मसालों में सीलन आ रही है तो समझो बरसात आने वाली है।
गाँव के लोगों में सामान्यतः समरसता और एकरूपता होती है जिसका कारण सबकी एक जैसी आजीविका है । खान-पान के साथ समझौते और एक ही जोड़ी कपड़ों में निर्वाह होना आम बात है।
गाँव में त्योहारों का उल्लास अलग-अलग होता है तथा विशेष जातियों के लिए उनका विशेष महत्व होता है, जैसे विजयदशमी का राजपूतों के लिए, रक्षाबंधन का ब्राह्मणों के लिए, मकर संक्रांति का अहीर जैसी खेतिहर जाति के लिए तथा धुलंडी का मांसाहारी जातियों के लिए।
गांव के बस्ती भूगोल या बसावट पर भी जातीय समाजशास्त्र का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। इन जातियों, जैसे भंगी, चमार, और धानक इत्यादि, को गाँव के बाहर ही बसने दिया जाता है, जिसके दो प्रमुख कारण हैं। पहला तो गाँव पर महामारी या अन्य कोई भी विपदा आये तो उसका सबसे पहले असर इन्हीं जातियों पर होगा, दूसरा कारण आर्थिक है। भंगी सूअर पालते हैं तथा सभी निम्न जातियाँ मुर्गे- मुर्गियाँ पालती हैं जो गंदगी फैलाते हैं। इन जातियों के घर गाँव से बाहर रहने के कारण इस गंदगी का प्रभाव मुख्य बस्ती पर नहीं पड़ पाए।
गाँव में गर्मियों के दिन तपते हैं लेकिन रातें बहुत सुहानी होती है। गाँव में हमारे रिश्तेदार रात्रि में गर्मी से बचने के लिए अपनी चारपाईयाँ खेतों में बिछाते लेकिन आधी रात के बाद सर्दी के कारण उन्हें वापस कमरों में आना पड़ता था। रात्रि में गाँव में आसमान एकदम साफ दिखाई देता है। आप चाँद और तारों को स्पष्ट देख पाते हैं और उन्हें अपने बहुत करीब पाते हैं। गाँव के लोग निश्चित समय पर आने-जाने वाले राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय हवाई जहाजों के समय से परिचित हो जाते हैं। रात में समय का अंदाज मृगशीर्ष जिसे गाँव के लोग हिरनी कहते हैं, देखकर लगाते हैं और दिन में धूप कितनी लाठी चढ़ चुकी है, उससे समय का अनुमान लगाते हैं। गर्मी में शाम को बड़ी मस्त हवाएं चलती हैं। वर्षा के समय सामने सुदूर गाँव के पहाड़ों पर बादलों का बैठना बहुत खूबसूरत लगता है था। सर्दियों में हम बच्चे पहाड़ की खदानों में से मयूर के पंख एकत्रित करते थे। भोर के समय कोयल की कुहुक और सावन में मोर चिल्ला-चिल्ला कर आसमान सर पर उठा लेते है। मोरों का लयबद्ध नृत्य मन मोह लेता था।
गाँव में लोक देवी-देवताओं के मेलों का भी बहुत बड़ा आकर्षण होता है। जन्म और विवाह के समय बहुत से लोक देवता या देवियों की जात देना अनिवार्य होता है। भारतीय समाज की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि व्यक्ति कहीं भी रहे लेकिन वह अपनी जड़ों से नहीं कटता। यही कारण है कि अब भी लोग गाँव के मकान और जमीन बेचना बहुत बड़ी मजबूरी में ही स्वीकार करते हैं।
ऋतु पर्व (सावन-फाल्गुन), शिवरात्रि, ग्रहण, मेले, तीर्थ, स्नान, कार्तिक स्नान, तीज-त्यौहार, गोगानवमी, सक्रांति, एकादशी, पशु मेले, देवी मेले तथा मंदिर ग्रामीण क्षेत्र की संस्कृति के प्रमुख बिंदु हैं। गाँव में सोने तथा चांदी के आभूषणों का प्राचीनकाल से प्रचलन रहा है। स्त्रियां अपने शरीर पर पाँच-पाँच किलो चांदी के आभूषण धारण करती थीं। पुरुष भी कानों में, गले में तथा हाथों में आभूषण पहनते थे। स्त्रियां पैरों में कड़ी, छैलकड़े, नेवरी, ताती-पात्ती, पायल, पाजेब तथा गले में पत्ती, ताबीज, चंद्रहार, मटर माला, मोहनमाला, ढोल, गलसरी तथा हाथों में कंगन, पोंची, घड़ी, कानों में बजणी, बाले, झुमकी, बुंदे, कनफूल तथा कुंडल, कमर पर तागड़ी, पावों की उँगली में चुटकी , बिछिया पहनती थी । नाक में काँटा व लोंग, कमर में नाड़ा तथा माथे पर टीका, बोरला व सिंगार पट्टी यही प्रमुख आभूषण थे।
गाँव का भोजन सादा किंतु ऊर्जा तथा शक्ति देने वाला होता है। घी, दूध, दही, मक्खन, लस्सी यहाँ के लोगों के प्रिय शक्तिवर्धक पेय हैं। गेहूं तथा मक्की की रोटी, बाजरे की रोटी व खिचड़ी, राबड़ी, दलिया, सरसों का साग बथुए का रायता तथा गुड़, बूरा, चावल, चूरमा, पूड़े, हलवा, खीर यहां के लोगों का प्रिय भोजन है।
गाँव में में तीज-त्यौहार पर बड़ी रौनक होती थी। कुंवारियाँ जिनकी सगाई हो चुकी होती और नवविवाहित लड़कियों के ससुराल वाले सिंजारा लेकर आते थे जिसमें उनके लिए सुंदर कपड़े, श्रृंगार का सामान, मिठाइयों के अलावा रस्सी और पाटकड़ी जरूर होती थी। गाँव में झूलों और सावन के गीतों की बहार होती थी। सिंजारे के बदले लड़कीवाले भी अपनी श्रद्धा अनुसार मेहमानों को विदा करते। नवविवाहित लड़कियां तीज पर अपने पीहर आती थीं और रक्षाबंधन, जिसे स्थानीय भाषा में सलूनों कहते हैं, पर भाइयों को राखी बांधकर ससुराल जाती थीं। राखी या पहुंची बंधाई में यहां नगद भेंट और कपड़ों के अलावा बकरी, भैंस, गाय आदि भी दिए जाते थे। मान लो किसी ने बकरी भेंट में दी है तो वह उसे मायके में छोड़ जाती थी। मायके वालों की जिम्मेदारी होती कि उसका ध्यान रखें। अक्सर उस बकरी या भैंस की कई संतानें हो जाती जिन पर लड़की का हक होता था।
गाँव में फाल्गुन का महीना बहुत विशेष और मस्ती से भरा होता था। रात में हम आती-पाती के खेल में मस्त रहते और सारा गाँव नंबरदार की बैठक में होने वाले सांग देखने के लिए जुटता। नंबरदार की बैठक में प्रतिदिन नए-नए स्वांग रचे जाते थे तथा लोग एक-दूसरे का मजाक बनाते थे। उन दिनों लोगों में बहुत अधिक बर्दाश्त होती थी तथा कोई किसी का बुरा नहीं मानता था।
गाँव में चिट्टियां और तार का वह दौर भावनाओं का ज्वार-भाटा लेकर आता था । पोस्टकार्ड भी कई प्रकार के होते थे। कोई हल्दी से रंगा, कोई गुलाबी रंगा तो कभी-कभी कोने से कटा हुआ भी। हल्दी से रंगा पोस्टकार्ड किसी सम्बन्धी के यहाँ विवाह कि सूचना लाता था। गुलाबी रंग लगा होता था तो लोग समझ जाते थे कि किसी सामाजिक या धार्मिक उत्सव का निमंत्रण है। पोस्टकार्ड का अगर कोना कटा होता तो देखते ही जान हलक में आ जाती थी। उसे डरते-डरते पढ़ा या पढ़वाया जाता कि भाई कौन सरक लिया। ऐसे पोस्ट कार्ड को घर में ले जाना शुभ नहीं माना जाता था। उसे पढ़कर फाड़ कर फेंक दिया जाता था।
फाल्गुन की तरह ही रामलीला का मौसम भी बहुत आनंद का होता था । गाँव के जोगी और ब्राह्मणों की टोली मिलकर गाँव में रामलीला का आयोजन करती थी। तुलसी बाबा की रामचरित मानस में स्थानीय बोली के तत्व भी मिल जाते थे। रामलीला से ही मेरा परिचय महान अमीर खुसरो और कबीर की लेखनी से हुआ।
बचपन में जब विवाह-बरात या अन्यथा कहीं भी जाना होता था तो विदाई के समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था कि उस गाँव में अपने गाँव, जाति अथवा गोत्र की कोई बहन-बेटी तो नहीं है। कई बार ऐसी लड़कियां किसी को भेजकर अपने घर पर चाय-नाश्ते के लिए आमंत्रित करती थी। ऐसे में बारात है तो पैसे उगाह कर और अकेले हैं तो व्यक्तिगत रूप से उस बहन-बेटी के हाथ में चार पैसे रखकर ही विदा लेते थे। बहन-बेटी की तरह बटेऊ या मेहमान भी उन दिनों बहुत महत्वपूर्ण और सारे गाँव का साझा मेहमान होता था। जैसा कि बताया है गाँव जाकर मुझे सर्वाधिक आनन्द की अनुभूति होती है लेकिन इस बार गाँव बहुत दिन बाद आना हुआ।
बहुत ढूंढा तो गाँव तो नहीं लेकिन गाँव जैसा कुछ मिला। मेरा गाँव बदल गया है। किसी के घर जाता तो चाय मिलती क्योंकि दूध सारा डेरी वाला ले जाता है तो छाछ-दही कहां से मिलेगा। गाँव में कोठीनुमा घर बन गये हैं और बहुत से घरों पर केबल की छतरी लगी हुई है। एक विवाह में शामिल हुआ तो देखा कि विवाह आजकल सामुदायिक आयोजन ना होकर व्यक्तिगत और व्यावसायिक आयोजन में बदल गए। तीज- त्योंहारों का केवल सांकेतिक महत्व रह गया है। गाँव का पहाड़ जिसका सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक महत्व है, बुरी तरह खोद दिया गया है। उच्चतम न्यायालय का दखल नहीं होता तो शायद आज पहाड़ कहीं दिखाई ही नहीं देता।
बचपन में पांच कोस पैदल चलकर कुण्ड स्टेशन से रेल पकड़ते थे। नई-नवेलियों को श्रवण ठाकर के ऊंट की सवारी से लाते थे। आज गांव सात तरफ से सड़क से जुड़ गया है। रेवाड़ी, नारनौल और बहरोड़ के लिए साधन उपलब्ध हैं। गाँव के बस अड्डे पर बहुत-सी दुकानें खुल गई हैं। एक दलित लड़के ने परचून और सब्जी की दुकान खोल ली है। बैलों की जगह घरों के सामने हाथी जैसे ट्रेक्टर खड़े हो गए हैं। छोटे से गांव में बीस ट्रेक्टर, तीस मोटरसाइकिल और चार-पांच कार हैं। चपरासी की नौकरी वाले को भी दहेज में मोटरसाइकिल चाहिए। इनमें से बीस मोटरसाइकिलें दहेज में ही मिली हैं।
जो भी बदलाव दिखे उन्हें आधुनिक विकास या आधुनिकरण की संज्ञा नहीं दी जा सकती। हां, शायद इसे आप शहरीकरण के साथ जोड़ सकते हैं। शहर की नकल करते गाँव इतना बदल गया कि अब न तो वो गाँव रहा और न शहर ही बन पाया।
गाँव के एक बुजुर्ग से मिला तो उसकी आवाज में आत्मीय शिकायत थी। उसने कहा कि ‘भाई तू तो दिल्ली को ही होकै रह गयो। गाँव नै तो भूल ही गयो। भाई, तूनै लाड़-प्यार देबा मैं तो कोई कसर छोडी कोन्या।’
‘गाँव अब रहा ही कहाँ है चाचा। गाँव तो अब खेतों में बस गया। फागुन में डफ नहीं बजता, सांग नहीं निकलते। सावन के झूले कहाँ गए? बरसात क्यों नहीं होती? रामलीला क्यों नहीं होती ? अलीबख़्श के सांग कहाँ गए? औरतें शादियों और त्योंहारों के गीत नहीं जानती , पुराना एक बर्तन नहीं दिखता, घर-घर में मोटर साइकिल, मोबाइल और इन सड़कों की क्या कीमत चुका रहे हो कभी हिसाब लगाया। कुओं का पानी कहाँ गया ? वर्षा इतनी कम क्यूँ होतीं है? सबको अपनी-अपनी पड़ी है। सांझी विरासत कहाँ खो गई?’
मेरे इतने सारे सवालों से बचने के लिए हमारे बुजुर्ग ने विषय बदलने के लिए पूछा – ‘और सुना बूढ़लिया और बूढ़ी को के हाल सै?’ मैंने कहा ‘बूढ़ालिया और बूढ़ी तो दोनों जा लिया। हो गया राम का प्यारा।’ ‘दोनूं ही जा लिया के? भाई सभी चल्यागा, हम कित जांवां ?’ ऐसा कहकर वह वहीं घुटनों पर ही बैठ गया।
मौत तो एक दिन सभी की तय है और मेरे गाँव की भी, लेकिन मेरे गाँव को मैं यह कैसे बताता कि केवल छ: गाँव बचे हैं रिको औद्योगिक क्षेत्र में जाने से। जल्दी ही यहाँ कोरियन और जापानी औद्योगिक जोन बनेंगे, बहुमंजिली इमारतें और फ्लैट बनेंगे। यह बताकर मैं गाँव और उस बुजुर्ग को समय से पहले ही नहीं मारना चाहता था।
चलने लगा तो उस बुजुर्ग चाचा ने ऐसे कसकर गले लगाया जैसे हम अब कभी नही मिल पाएंगे और जार-ज़ार रोने लगा, मैं भी भरी आँखें लिए दिल्ली के लिए चल पड़ा।
ज्ञान चंद बागड़ी विगत 32 वर्षों से मानवशास्त्र और समाजशास्त्र का अध्ययन और अध्य्यापन कर रहे हैं। वे उपन्यास, कहानी, यात्रा वृतांत, संस्मरण और कथेतर लेखन के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाओं में स्तंभ लेखन कर रहे हैं और फिलहाल दिल्ली में रहते हैं। आखिरी गाँव उपन्यास प्रकाशित।