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मेहनत करते-करते हाथ की रेखाएं घिस गईं लेकिन हालात में कोई परिवर्तन नहीं हुआ

चौतरफा दमन और दबाव झेलने को विवश है थाना रामपुर का मुसहर समाज  वाराणसी। वह गर्मी से चिलचिलाती दोपहर के बाद की एक आँच फेंकती शाम थी, जब हम थाना रामपुर गाँव में पहुंचे। पसीना बहकर सूख चुका था और अब हमने इस बात की परवाह करना छोड़ दिया था कि चौड़े राजमार्ग बनाने के […]

चौतरफा दमन और दबाव झेलने को विवश है थाना रामपुर का मुसहर समाज 

वाराणसी। वह गर्मी से चिलचिलाती दोपहर के बाद की एक आँच फेंकती शाम थी, जब हम थाना रामपुर गाँव में पहुंचे। पसीना बहकर सूख चुका था और अब हमने इस बात की परवाह करना छोड़ दिया था कि चौड़े राजमार्ग बनाने के लिए सड़कों के किनारे के सारे पेड़ काट दिए गए हैं और अब हाइवे पर गति भले बहुत तेज हो लेकिन किनारे पर रेंड़ की छांव पाना भी संभव नहीं।

लेकिन इन बातों से बेख़बर रास्ते की जलती ज़मीन पर बोरागाड़ी खींचते दो बच्चे दिखे। तीसरा बच्चा बोरागाड़ी पर बैठा था। तीनों के चेहरे की प्रसन्नता देखकर यह अंदाज लगाना मुश्किल था कि बोरागाड़ी खींचने वाले को ज्यादा मज़ा आ रहा है या बैठने वाले को।

बोरागाड़ी का आनंद लेते बच्चे

इस गाँव में आने का हमारा उद्देश्य उस अफवाह का पीछा करना था, जिसके मुताबिक हाइवे बन जाने से मुसहर परिवारों को मोटा मुआवजा मिला है और उनके जीवन स्तर में भारी उछाल आया है। एक अफवाह तो यह भी थी कि पिछले साल हुई मारपीट में मुसहरों ने सवर्णों को बुरी तरह पीटा। बनारस के एक सामाजिक कार्यकर्ता इस बात पर लहालोट थे कि सदियों से मार खानेवाले मुसहरों ने ठाकुरों को पहली बार पीटा। ऐसी ही और भी अनेक बातें थीं, जिनकी सच्चाई को हम परख लेना चाहते थे।

गाँव के बाहर ही एक दुकान थी, जहां हमने मुसहर बस्ती के बारे में पूछा तो दुकानदार ने पहले तो हमें सवालिया नज़रों से देखा फिर बोला- उनसे क्या पूछना है? हमसे पूछिए जो पूछना है।

कुछ दूर जाने पर ग्राम प्रधान जयसिंह मिले। उन्होंने बताया कि थाना रामपुर गांव की आबादी लगभग 6 हजार है। गांव ठाकुर, ब्राह्मण, मुस्लिम बहुल है। गांव में 70-80 घर चमार और 30-40 घर मुसहर जाति के हैं। इसके बाद हम मुसहर बस्ती में गए। कोई नयापन नहीं था। कुछेक घर थे, लेकिन चारों ओर उदासी और गरीबी का आलम था। पहली नज़र में हमें नहीं लगा कि यहाँ कोई मोटा मुआवजा मिला होगा। लेकिन पता करने के लिए हम एक घर के समीप पहुंचे।

[bs-quote quote=”वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार यूपी में मुसहर समुदाय की आबादी 2.5 लाख थी। वहीं मुसहर समुदाय के बीच काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं का मानना है कि राज्य में इनकी आबादी 4 लाख से अधिक है, जो राज्य के 18 जिलों में फैली हुई है। जिनमें महाराजगंज, आजमगढ़, गाजीपुर, गोरखपुर, बलिया, कुशीनगर, जौनपुर, देवरिया, वाराणसी, संत कबीर नगर, मीरजापुर, अंबेडकर नगर, अमेठी, चंदौली, मऊ, प्रतापगढ़, सोनभद्र और सुल्तानपुर शामिल हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

घर के सामने लगी मड़ई में रामा बनवासी पत्तल बनाते हुए मिलीं। पूछने पर उन्होंने बताया कि एक शादी में देने के लिए पत्तल बना रही हैं। साल भर में पत्तल बनाने के कितने आर्डर मिल जाते हैं? इस सवाल का जवाब देते हुए वे कहती हैं कि प्लास्टिक के पत्तलों के आगे पत्ते के बने पत्तलों को अब कोई नहीं पूछता। पहले विवाह, तेरहवीं आदि में साल भर पत्तल बनाने का ऑर्डर मिलता था। अब इक्का-दुक्का लोग ही पत्ते से बने पत्तल का आर्डर देते हैं। उनका ऑर्डर भी बहुत कम होता है। पत्तलों की तरफ इशारा करते हुए वे बताती हैं कि ये सौ पत्तल हैं। इतने का ही आर्डर मिला है। पत्तल के रेट के बारे में पूछे जाने पर वे बताती हैं कि सौ पत्तल के सौ रुपये मिलते हैं। साथ ही जिस परोजन में पत्तल जाते हैं, वहां से घर भर के लिए खाना आता है। अन्य किसी रोजगार के संबंध में पूछे जाने पर वे बताती हैं कि पत्तल का रोजगार लगभग समाप्त हो गया है। घर के आदमी मेहनत-मजदूरी करते हैं, तब दोनों टाइम का खाना नसीब होता है। अपनी हथेलियों को दिखाते हुए वे उदासी से कहती हैं कि बाबू, मेहनत करते-करते हम लोगों के हाथ की रेखाएं घिस गईं, लेकिन हम लोगों की हालत में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।

पत्तल बनाते हुए रामा बनवासी

हाथ की रेखाएं मिटने से एक और समस्या खड़ी हो जाती है। इस संबंध में एक दैनिक समाचार पत्र के स्थानीय संवाददाता रामचंद्र गुप्ता ने बताया कि साफ़ फिंगर प्रिंट के अभाव में इन लोगों का आधार कार्ड बनने में भी दिक्कत आती है। सरकारी राशन की दुकान पर बायोमैट्रिक सिस्टम लग जाने से फिंगर प्रिंट मैच न होने के कारण इन लोगों को राशन लेने में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में घर के किसी अन्य सदस्य का फिंगर प्रिंट लेकर राशन दिया जाता है। कोटेदार संदीप गुप्ता ने बताया कि फिंगर प्रिंट मैच न होने पर मोबाइल पर ओटीपी के माध्यम से राशन दिया जाता है।

[bs-quote quote=”वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार बिहार में भी मुसहर समुदाय की जनसंख्या 2.5 लाख थी, लेकिन इनके लिए काम कर रहे एनजीओ द्वारा निकाले गए नवीनतम आंकड़ों से पता चलता है कि राज्य में मुसहरों की आबादी 30 लाख से कम नहीं हैं। बिहार में मुसहरों की आबादी सर्वाधिक है। बिहार के पूर्वी-पश्चिमी चंपारण, मधुबनी,  कटिहार, नवादा, गया, पटना आदि जिलों में मुसहर आबादी रहती है। बिहार और उत्तर प्रदेश के आलावा नेपाल की तराई में भी मुसहर बड़ी संख्या में रहते हैं। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

रामा बनवासी के पौत्र राजू बनवासी बस्ती में आने वाली बारात के स्वागत की तैयारी में थे। स्वागत के लिए कपड़े पहनकर तैयार थे। पास ही खड़े होकर अपनी दादी की बातें सुन रहे थे। दादी की बात समाप्त होने पर राजू ने बताया कि पत्ते के दोना-पत्तल की मांग समाप्त हो जाने से रोजगार के नाम पर दूसरे के खेतों में मजदूरी ही विकल्प है। मनरेगा के तहत कोई काम नहीं मिल रहा। बिना रोजगार के जीवन-यापन के संबंध में उन्होंने बताया कि सीआरपीएफ ने मेरी सात बिस्वा अधिगृहित जमीन के बदले जो मुआवजा दिया है, फिलहाल वही हमारे जीवन यापन का आधार है। बच्चों की शिक्षा के संबंध में बताते हुए वे निराशा से कहते हैं कि स्कूल में बनवासी समाज के बच्चों की छंटाई हो जाती है। हमारे बच्चों से अध्यापक अपने हाथ-पैर दबवाते हैं। बच्चों को पढ़ाते नहीं हैं। बिना वजह हमारे बच्चों को पीटते हैं। मिड-डे-मील बांटने के समय भी हमारे बच्चों के साथ भेदभाव किया जाता है। इस कारण बच्चे स्कूल जाना बंद कर देते हैं।

[bs-quote quote=”किसी तरह से एडमिशन मिलने के बाद मुसहर बच्चों के पढ़ाई छोड़ने का एक प्रमुख कारण भेदभाव है। मुसहर समुदाय के बच्चों को कक्षाओं में अलग बैठाया जाता है। वर्ग और जाति के आधार पर उन्हें अपमानित किया जाता है। उन्हें भोजन के वक्त भी अलग बैठाया जाता है। हालांकि स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा जागरूक किये जाने के बाद से बच्चों ने इन घटनाओं को रिपोर्ट करना शुरू कर दिया है। तब से इनमें कमी आने लगी है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मुसहर बस्ती की समस्याओं के बारे में बताते हुए राजू बनवासी कहते हैं कि बस्ती में तीन सरकारी हैंडपंप हैं। दो बस्ती में हैं। एक बस्ती के बाहर छोटे से तालाब के पास है। बस्ती में लगा एक हैंडपंप मरम्मत के अभाव में बंद पड़ा है। जो हैंडपंप चल रहा है, उसका पानी भी दूषित है। उसका पानी पीने से बस्ती के लोगों को कई बीमारियों से जूझना पड़ता है। बच्चे अक्सर बीमार रहते हैं।

बस्ती से डेढ़-दो सौ मीटर दूर छोटे से तालाब के पास लगे हैंडपंप की तरफ इशारा करते हुए राजू बनवासी बताते हैं कि बस्ती में लगा हैंडपंप ख़राब होने पर वहां से पानी लाना पड़ता है। वो हैंडपंप शुद्धक के कार्य के लिए लगाया गया है। किसी की मृत्यु के बाद दसवां के दिन अपने सिर मुंडवाकर लोग उसी हैंडपंप पर नहाते हैं। अगर वो हैंडपंप भी खराब हो जाता है, तो हमें पानी लेने कोटेदार के घर जाना पड़ता है। कोटेदार का घर दूर होने के कारण पानी लाना काफी थकाऊ हो जाता है। बस्ती से दूर स्थित कोटेदार के घर पानी लाने जाने के बारे में वे बताते हैं कि अन्य लोगों के दरवाजे हम लोगों के लिए बंद ही रहते हैं।

राजू बनवासी से बात कर आगे बढ़ने के दौरान चूल्हे-चौके के साथ रोजगार में जुटी महिला दिखीं। महिला पत्तल बना रही थीं। साथ में उनकी दो बच्चियां भी थीं।

अपने घर के सामने खाट पर बैठे विष्णु बनवासी मिले। बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि दोना-पत्तल का काम बंद होने के बाद वे ईंट भट्टे पर काम करने लगे। काम की तलाश में वे बनारस के साथ जौनपुर और सुल्तानपुर जिले में भी जाते थे। दो-चार महीने काम करने के बाद वे कुछ दिन के लिए घर वापस आते थे। परिवार के साथ कुछ समय बिताने के बाद वापस काम पर लौट जाते थे।

अपना राशन कार्ड दिखाते विष्णु बनवासी

विष्णु वनवासी ने आगे बताया कि सीआरपीएफ द्वारा अधिगृहित जमीन का मुआवजा मिलने के बाद से वे घर पर ही हैं। वे कहते हैं कि अब घर पर रहकर ही काम तलाश रहा हूं। मनरेगा में काम मिलने लगता तो घर पर रह कर बाल-बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर भी ध्यान दे पाता। विष्णु वनवासी के पास सफ़ेद राशन कार्ड (बीपीएल) है, जिस पर उन्हें 15 किलो राशन मिलता है। इसी दौरान बस्ती के दो लोग मनरेगा के तहत बना जॉब कार्ड लेकर आते हैं। जॉब कार्ड पर 2008 के बाद से कोई काम नहीं दर्ज है।

[bs-quote quote=”सूचना स्रोतों के अनुसार बिहार और उत्तर प्रदेश में मुसहरों की अनुमानित साक्षरता दर 8 से 9 प्रतिशत है। वहीं, मुसहर समुदाय के बीच काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनों का दावा है कि इस समुदाय में कुल साक्षरता दर केवल 3 फीसदी ही है। समुदाय की महिलाओं में साक्षरता दर केवल 1 फीसदी है। मुसहर समुदाय में साक्षरता दर अत्यधिक कम होने के कारण इनके लिए आधार कार्ड, राशन कार्ड, मनरेगा आदि योजनाओं का नाम ‘अपरिचित’ हैं। यही कारण है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में मुसहर समुदाय के बच्चे बंधुआ मजदूर के रूप में काम करते हैं। इसके पीछे एक कारण अत्यधिक गरीबी भी है। इसी कारण ज्यादातर बच्चों का स्कूलों में एडमिशन भी नहीं हो पाता है। हालांकि, मुसहर समुदाय के कल्याण के लिए काम करने वाली कुछ सामाजिक और मानवाधिकार स्वयंसेवी संस्थाएं लगातार इनकी शिक्षा के लिए संघर्ष कर रही हैं। इन बच्चों को स्कूल में प्रवेश न मिलने या होने वाली कठिनाई के पीछे उनके बच्चों का जन्म प्रमाण-पत्र नहीं होना एक और प्रमुख कारण है। शिक्षा का अधिकार (RTE) के बारे में मुसहर जाति को कम जानकारी है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

विष्णु बनवासी के पड़ोस में लड़की की शादी की तैयारी चल रही है। शादी के बारे में वे बताते हैं कि हम लोग हिन्दू धर्म के रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। ब्राह्मण हमारे बच्चों की शादी कराते हैं। विष्णु साथ में ये भी कहते हैं कि शादी कराने जो ब्राह्मण आते हैं, वे हमारे यहां भोजन नहीं करते। सिद्धा-पिसान और पैसे ले जाते हैं।

विवाह के लिए गड़े माड़ों के पास खड़ी नई मोटरसाइकिल की तरफ इशारा करते हुए विष्णु बताते हैं कि अपनी हैसियत के अनुसार हम दहेज़ भी देते हैं।

बस्ती में थोड़ा आगे बढ़ने पर अपने कच्चे घर की दीवारों की मरम्मत करने के लिए मिट्टी और भूसे के मिश्रण में पानी मिलाकर कच्ची दीवार का प्लास्टर तैयार कर रहीं नगीना मिलती हैं। नगीना बताती हैं कि उनको आवास नहीं मिला है। आवास न मिलने का कारण बताते हुए वे कहती हैं कि प्रधान के कारण उनको आवास नहीं मिला, क्योंकि वर्तमान प्रधान के खिलाफ बस्ती के दो लोग प्रधानी का चुनाव लड़े थे। चुनावी रंजिश के चलते प्रधान हम लोगों के साथ दुश्मनी और उपेक्षा का भाव रखते हैं।

मिट्टी-भूसे का मिश्रण करतीं नगीना और उनके पीछे ख़राब पड़ा हैंडपंप

नगीना बताती हैं कि हमें अब तक आवंटित जमीन भी नहीं मिली है। लगभग दस साल पहले जब जमीन का आवंटन हुआ था, तब मेरे श्वसुर जीवित थे। बरजी में जमीन का आवंटन हुआ था। कुछ दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई। उसके बाद बड़े बेटे ने आवंटित जमीन पर कब्ज़ा लेने की कोशिश शुरू की। इसी दौरान बीमारी से बड़े बेटे की भी अकाल मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद जमीन का कागज़ कहां रखा है, ये मुझे नहीं पता।

आवंटित जमीन के बारे में नगीना बताती हैं कि एक आदमी ने कहा कि वो कब्ज़ा दिला देगा। उस आदमी ने इस काम के लिए मुझसे पैसे भी लिए, लेकिन कब्ज़ा नहीं दिलाया। मेरा छोटा बेटा जब बरजी स्थित जमीन पर गया तो देखा कि उस जमीन पर एक आदमी ने चहारदीवारी बनाकर कब्ज़ा कर लिया है। जब मेरे बेटे ने उस आदमी से कहा कि यह मेरी जमीन है, तो उस आदमी ने कहा कि तुम्हारी जमीन है तो जमीन का कागज़ लेकर आओ। जमीन पर दूसरे आदमी द्वारा कब्ज़ा कर लिए जाने के संबंध में नगीना बताती हैं कि नई बस्ती के एक वकील ने मेरी जमीन पर दूसरे को कब्ज़ा दिला दिया।

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कृषि योजनाओं के बावजूद हो रही किसानों की दुर्दशा

नगीना कहती हैं कि एक बार गांव में मुसहर और ठाकुर जाति के बच्चों के बीच खेलने के दौरान झगडा हुआ था। बच्चों का झगड़ा बड़ों की लड़ाई में बदल गया। मुसहर और ठाकुर जाति के लोगों के बीच लाठी-डंडे चले। मुसहर बस्ती के लोगों ने झगड़े की सूचना पुलिस को दी। जब पुलिस आई तो एकतरफा कार्रवाई करते हुए मुसहर बस्ती के लोगों को पीटने लगी। इससे विवाद बढ़ गया और मुसहर बस्ती के लोग पुलिस से भिड़ गए।  बस्ती के लोग जब उग्र हुए तो पुलिस को पीछे हटना पड़ा। उस उपद्रव के दौरान मैंने एक पुलिसवाले को अपने घर में शरण दी। इस घटना के बाद पुलिस बस्ती से कई लोगों को थाने उठा ले गई। मैंने पुलिसवाले को शरण दी थी, इसलिए मुझे और मेरे छोटे बेटे को पुलिस ने नहीं छुआ। गांव के दबंग लोग तभी से चिढ़े हुए हैं। वे ही आवास नहीं मिलने दे रहे।

नगीना से बात करने के बाद गांव की दूसरी मुसहर बस्ती की तरफ बढ़े। दूसरी बस्ती में एक घर के सामने हैंडपंप लगाने के लिए बोरिंग का कार्य चल रहा था। वहां राधे बनवासी की पत्नी उषा बनवासी मिलीं। उषा बनवासी ने बताया कि सीआरपीएफ द्वारा जमीन अधिग्रहण से मिले मुआवजे से पहले दो पक्के कमरे बनवाये। अब पीने के पानी के लिए बोरिंग हो रही है। पेयजल की किल्लत के संबंध में उन्होंने बताया कि इस बस्ती में सिर्फ एक सरकारी हैंडपंप है। उसका भी पानी पीने लायक नहीं है।

बच्चों की पढ़ाई के बारे में उषा बनवासी ने बताया कि मुआवजे का पैसा बच्चों के नाम पर भी फिक्स कर दिया है, ताकि उनके भविष्य में सुधार में हो। वे पढ़-लिख सकें।

सरकारी आवास के लिए दर-दर भटक चुका है सनी बनवासी का परिवार

इनसे बात कर हम आगे बढ़े तो अपने कच्चे घर के सामने सनी बनवासी मिले। सनी बनवासी ने बताया कि मुझे भी आवास नहीं मिला है। आवास के लिए मैं और मेरी पत्नी ग्राम पंचायत से लेकर ब्लॉक तक दौड़-भाग कर चुके हैं। ब्लॉक पर गए तो वहां के बीडीओ ने मेरा पता पूछा। जब मैंने थाना रामपुर बताया तो बीडीओ ने कहा कि ‘तुम्हें आवास नहीं मिलेगा, क्योंकि तुम लोगों ने थानेदार को मारा है।’ ब्लॉक से लौटाए जाने के बाद मैं प्रधान से मिला, तो प्रधान ने कहा कि तुम्हें आवास नहीं मिलेगा। तुम्हारा आवास किसी और को आवंटित हो गया है।

सामने खड़े ट्रैक्टर की तरफ इशारा करते हुए सनी बताते हैं कि ट्रैक्टर पड़ोस के गांव के एक आदमी का है। मैं ड्राइवरी करता हूं। ड्राइवरी के सहारे मेरी जीविका चलती है। इसी के सहारे अपने दोनों छोटे भाइयों को पढ़ा रहा हूं। एक भाई अमित बनवासी बारहवीं और दूसरा भाई गोपी बनवासी दसवीं में पढ़ता है।

वहीं मिले बिफई बनवासी ने बताया कि इस बस्ती के अधिकतर लोग बटाई पर खेती करते हैं। गांव में जिनके पास अधिक खेत हैं, उनके खेत हम बटाई पर ले लेते हैं। जिसका खेत होता है, वो जुताई-बुआई-सिंचाई का खर्च उठाता है। बाकी सब कार्य हम करते हैं। इसके एवज में फसल का एक चौथाई हमें मिलता है। मैंने ठाकुर जाति के आदमी का दस बीघे खेत बटाई पर लिया है।

[bs-quote quote=”मुसहर समुदाय के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है। अशिक्षा के कारण उन्हें तमाम सरकारी योजनाओं की भी जानकारी नहीं होती। न तो उन्हें मनरेगा के बारे में कुछ पता है न ही अन्य किसी रोजगार के बारे में। उन्हें बंधुआ मजदूर के रूप में ईंट भट्टे या खेतों में तमाम शोषण सह कर कम पैसों में अतिरिक्त काम करना पड़ता है। उनके पास कोई पहचान पत्र या आधार कार्ड भी नहीं है। यही कारण है कि उन तक सरकारी योजनायें भी नहीं पहुंचती।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

पूर्वांचल की मुसहर आबादी परम्परागत रूप से भूमिहीन है। जमीन के नाम पर इनके पास सरकार की तरफ से उपलब्ध कराई जाने वाले पट्टे की जमीन होती है। घर के नाम पर ये घास-फूस की झोपड़ी में रहते आये हैं।

थाने रामपुर की मुसहर बस्ती की तरफ जाने पर वर्तमान और भविष्य से बेफिक्र बचपन बस्ती के कच्चे रास्ते पर ‘बोरागाड़ी’ की सवारी कर खुश होता नजर आता है। बच्चों के वर्तमान और भविष्य की चिंता में जवान, अधेड़ और बुजर्ग अपनी हड्डियां ईंट भट्टे, पत्ता तोड़ने, दिहाड़ी मजदूरी में गला रहे हैं। सुबह-शाम भोजन बनाने के साथ ही महिलाएं और लडकियां पुरुषों के साथ गारा-मिट्टी, फावड़ा-कुदाल चलाकर अपनी हथेलियों को तवा बना रही हैं।

मुसहर बस्ती के बच्चों के लिए स्कूल ऐसी औपचारिकता है जो उनकी गरीबी दूर नहीं कर सकता। पीठ पर किताबों के बस्ते के भार के साथ ही कंधे पर रोजी-रोटी का बोझ भी रहता है। रोजी-रोटी के बोझ तले दबकर कम उम्र में ही बच्चों की पीठ से किताबों का बस्ता उतर जाता है। रोजी-रोटी की तलाश में बचपन के कदम किसी ईंट भट्टे की तरफ चल पड़ते हैं।

मुसहरों की ऐसी स्थिति सिर्फ थाने रामपुर गांव की कहानी नहीं है। दलित समुदाय में भी महादलित मुसहर जिस भी प्रदेश, जिले, गांव में रहते हैं, हर जगह का सच यही है।

विभांशु केशव गाँव के लोग डॉट कॉम के मुख्य संवाददाता हैं।

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