Friday, March 29, 2024
होमग्राउंड रिपोर्टकृषि योजनाओं के बावजूद हो रही किसानों की दुर्दशा

ताज़ा ख़बरें

संबंधित खबरें

कृषि योजनाओं के बावजूद हो रही किसानों की दुर्दशा

किसान और कृषि विभाग में तालमेल का अभाव है। किसानों का आरोप है कि पदाधिकारी जान-पहचान वाले लोगों को किसान बताकर किसान श्री सम्मान और अन्य कृषि लाभ देते रहते हैं। कागजी खानापूर्ति करके किसी तरह योजनाओं का बंदरबांट हो जाता है। दूसरी ओर, वास्तविक किसानों को मौसम की मार ओलावृष्टि, कभी बाढ़, कभी सुखाड़ की मार झेलनी पड़ती है। फसल भंडारण की कोई उचित व्यवस्था नहीं है।

मुजफ्फरपुर (बिहार)। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का मेरुदंड है। कृषि से जुड़ी सरकार की रिपोर्ट के अनुसार साल 2020-21 में भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने में कृषि व वानिकी का सकल घरेलू उत्पाद में 20.2 प्रतिशत हिस्सा रहा है। देश-दुनिया में अनेक प्रकार के रोजगार के साधन हैं, लेकिन उन सभी संसाधनों को ठोस बुनियाद पर खड़ा करने वाला शक्ति का केंद्र किसान है। भारत में किसानों को वृहद किसान, मध्यम वर्गीय किसान एवं लघु यानी छोटे किसान के रूप में लक्ष्य करके योजनाएं और नीतियां बनाई जाती हैं। लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि जो किसान हमारा अन्नदाता हैं वह खुद बदहाल और फटेहाल की ज़िंदगी गुज़ारने को मजबूर होता है। वह अथक परिश्रम करके देश की 140 करोड़ जनता को अनाज, फल-फूल, दलहन, तेलहन आदि की पूर्ति करने में अपना पसीना बहाता है। किसान जो अनाज का उत्पादन करते हैं, खुद उन्हें दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए कठिन श्रम करना पड़ता है। खेतों में ससमय जुताई, बुआई, सिंचाई, निकौनी के साथ कीटनाशक, फसल की अच्छी तरह से देखभाल आदि करने में नकद पैसे लगाने पड़ते हैं।

फसल अच्छी हुई तो घर अनाज से भर जाता है, वरना कर्ज और भुखमरी की स्थिति पैदा हो जाती है। किसान न कभी चैन से सो पाते हैं और ना ही चैन से पौष्टिक आहार ही प्राप्त कर पाते हैं। कड़ी मेहनत के उपरांत उनकी फसल तैयार होती है, तो उन्हें आशा रहती है कि उन्हें इसका उचित दाम मिलेगा और उनकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी। सरकारी व्यवस्था के तहत पैक्स के माध्यम से अनाज नकद क्रय करने के लिए काउंटर तो खोले जाते हैं, पर किसानों को समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता है। जिसके कारण वह महाजन (साहूकार) या बैंक का कर्ज चुकाने में भी असमर्थ हो जाते हैं और खेती को घाटे का सौदा समझने लगते हैं।

इस संबंध में बिहार के मुजफ्फरपुर जिला स्थित पारु एवं साहेबगंज प्रखण्ड के दर्जनों किसान अपना दर्द बयां करते हैं। पारू प्रखंड स्थित डुमरी परमानंदपुर गांव के किसान सुरेंद्र कुमार कहते हैं कि किसान होना अभिशाप बन गया है। अभी खरीफ फसल लगाने का समय है। फसल लगाने से पहले जुताई, बीज-खाद, निकौनी आदि करने के लिए नकद पैसे लगाने पड़ते हैं। फसल तैयार करने के बाद सिंचाई, खाद, कीटनाशक आदि में भी बहुत पैसे लगते हैं। ओलावृष्टि, तूफान व प्राकृतिक प्रकोप से बचते हुए फसल तैयार होती है। सरकारी खाद-बीज की दुकान रहते हुए भी किसानों को अधिक दामों पर बीज और रासायनिक खाद के लिए दर-दर भटकने की नौबत आ जाती है। उन्हें बाजार से महंगे दामों पर खरीदने पड़ते हैं। यदि बीज का अंकुरण नहीं हुआ तो साल भर की मेहनत और पैसे बर्बाद हो जाते हैं। उपज होने के बाद बाजार व पैक्स में बिचौलिये की वजह से किसानों को उपयुक्त कीमत नहीं मिल पाती है।

साहेबगंज प्रखंड के हुस्सेपुर परनी छपड़ा गांव के किसान सहिन्द्र राउत सरकारी कामकाज पर नाराज़गी जताते हुए कहते हैं कि सरकार किसानों की तकलीफ पर गंभीरता से ध्यान नहीं दे रही है। पोस्टर बैनर, गोष्ठी, प्रशिक्षण आदि के नाम पर हजारों-लाखों पैसे खर्च किए जा रहे हैं। लेकिन अधिकारी, पदाधिकारी एवं कर्मचारियों की मिलीभगत से किसानों की हकमारी हो रही है। बीज और रासायनिक खादों की कालाबाजारी रोकने में सरकार नाकाम है। खेती के समय सरकारी लाभ मिल जाए तो किसानों की समस्या दूर हो जाएगी। किसान खेती अपने बलबूते पर तो कर लेता है, परंतु अनाज का उचित मूल्य नहीं मिलता है। ऐसे में एक किसान करे तो क्या करे? गेहूं के बीज 35-40 रुपये प्रति किलो के भाव से खरीद कर खेतों में बुआई करता है। आज उसी गेहूं की फसल तैयार होने के बाद 2000-2100 किलो के हिसाब से बाजार मूल्य तय कर दिया जाता है, जो उसकी लागत से कम है। खेती करे किसान और दाम लगाए बाजार। यह कहां का न्याय है? खेती के समय 50 किलो डीएपी का दाम 1800-2000, वही यूरिया का मूल्य 400-500, पोटैशियम का 1800-2100 40 किलो का पैकेट का मूल्य देना पड़ता है। सिंचाई में 200 रुपये प्रति घंटे की दर, मजदूरी 400 प्रतिदिन, गेहूं की दौनी के लिए प्रति घंटे 1000 लगते हैं। क्या इससे किसानों की आय दोगुनी हो सकती है?’

यह भी पढ़ें…

प्लास्टिक सामग्रियां छीन रही हैं बसोर समुदाय का पुश्तैनी धंधा

किसान कृष्ण बिहारी साह कहते हैं कि किसानों को सरकार कामधेनु गाय समझती है। खेतीबारी के समय बीज, खाद, ट्रैक्टर, सिचाई, मजदूरी, डीज़ल आदि महंगे खरीदने पड़ते हैं। एक एकड़ आलू की खेती करने में बीज का दाम 13500, डीएपी में 60 किलो 3200, पोटैशियम खाद 50 किलो 1900, खेतों में दो बार स्प्रे का खर्च, दवाई और मजदूर सहित 2450 रुपये, दो बार यूरिया यानी नाइट्रोजन 900 रुपये, दो बार सिचाई के लिए 2300 रुपये, आलू बोआई और खुदाई तक 60 मजदूरों के खर्च 400×60=24000 हजार रुपये की लागत आती है, तब कहीं एक एकड़ में आलू की खेती होती है। फिर बाजार में उसका मूल्य तय होता है। कभी-कभार लागत से कम मूल्य पर फसल बेचने की मजबूरी हो जाती है।

ऐसा लगता है कि किसान और कृषि विभाग में तालमेल का अभाव है। किसानों का आरोप है कि पदाधिकारी जान-पहचान वाले लोगों को किसान बताकर किसान श्री सम्मान और अन्य कृषि लाभ देते रहते हैं। कागजी खानापूर्ति करके किसी तरह योजनाओं का बंदरबांट हो जाता है। दूसरी ओर, वास्तविक किसानों को मौसम की मार ओलावृष्टि, कभी बाढ़, कभी सुखाड़ की मार झेलनी पड़ती है। फसल भंडारण की कोई उचित व्यवस्था नहीं है। कठिन परिश्रम के बाद भी आलू की उचित कीमत नहीं मिलती है। इस बाबत साहेबगंज प्रखण्ड के हुस्सेपुर के पैक्स अध्यक्ष बिट्टू कुमार यादव कहते हैं कि सरकारी दर से किसानों को गेहूं का समर्थन मूल्य 2150 रुपये है, जबकि बाजार यानी बनिया द्वारा एक क्विंटल गेहूं का मूल्य 2200 रुपये दिए जाते हैं। किसानों का मानना है कि बड़ा, मध्यम या लघु किसान हो सरकारी योजना के भरोसे रहेंगे तो खेतीबारी से हाथ धोना पड़ेगा। कृषि योजना धरातल पर आते-आते दम तोड़ देती है। विभिन्न कंपनियों के द्वारा बीज-खाद्य पर मनमाना मूल्य वसूला जा रहा है। यदि कृषि योजना पूरी ईमानदारी से किसानों तक पहुंचाया जाए तो निःसंदेह किसान खेतों में सोना उगाएंगे। किसान खुशहाल होंगे तो देश खुशहाल होगा।

यह भी पढ़ें…

बिहार की गर्म जलवायु में भी सेब की सफल खेती

बहरहाल, किसान खेतों में खरीफ फसलों की बुआई में मशगूल हैं। दूसरी ओर, सरकारी मिशनरी की उदासीनता की वजह से एकबार किसानों को अपनी जेब से या कर्ज लेकर बीज-खाद, जुताई और खेतों की तैयारी करनी पड़ेगी। आज भी गांव में अधिकांश छोटे किसानों के पास केसीसी नहीं है। बैंकों का रवैया किसी से छुपा नहीं है। बहुत कम बैंक हैं जो बिना रिश्वत के किसानों को केसीसी लोन उपलब्ध कराते हैं। अंततः किसानों को साहूकारों के पास ही पैसे के लिए जाना पड़ता है। जो 3 से 5 प्रतिशत मासिक ब्याज की दर पर उन्हें लोन देते हैं। समय पर सरकारी दुकान से खाद-बीज नहीं मिलने के पश्चात किसानों को महंगे मूल्य पर अन्य दुकानों से खाद-बीज लेने की मजबूरी बन जाती है। गांवों में किसानों के बीच गोष्ठी कम कागज पर अधिक आयोजित हो जाती है। किसानों की बेहतरी के लिए सरकार की ठोस योजना कागज पर अधिक धरातल पर कम दिखती है। ऐसे में अन्नदाता की आर्थिक स्थिति तो बदतर रहती ही है, जबकि बिचौलियों, साहूकारों, निजी दुकानदारों आदि की चांदी रहती है। जबतक इस ज़ंज़ीर को तोड़ा नहीं जायेगा तबतक किसानों को योजनाओं का पूरा लाभ नहीं मिल सकता है।

फूलदेव पटेल
फूलदेव पटेल, मुजफ्फरपुर, बिहार के सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं। 

2 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

लोकप्रिय खबरें