इस जुलाई के मध्य में मैं गोरखपुर में था। यह संयोग ही था कि मैं अपने मित्र राजाराम चौधरी से मिलने प्रेमचंद पार्क में गया। वह वहां एक नाटक की पूर्व तैयारी के लिए वर्कशॉप चला रहे थे। यह प्रेमचंद पार्क मूलतः उनका गोरखपुर का आवास था। बेतियाहाता में स्थित यह आवास प्रेमचंद के यहां आने के समय निकेतन के तौर पर था। उनका बचपन गोरखुपर के ही तुर्कमानपुर मोहल्ले में गुजरा। पार्क स्थित आवास में वह 1916 में आये और 1921 में वह इसे छोड़कर बनारस चले गये। इस समय यहां एक लाइब्रेरी चल रही है। यह चलना भी नाम भर का ही है। किताबें बस देखी जा सकती हैं। इसे देखने वाले भी यहां कम ही हैं। पार्क अमूमन जिस प्रयोजन के लिए बनाये जाते हैं, वही स्थिति इसकी भी थी। इसका नाम प्रेमचंद के नाम पर न होकर कुछ और होता, तब भी जो भीड़ यहां थी, वैसी ही होती।
निहायत घनी बसावट वाले इस शहर में पार्कों की बेहद कमी है। लेकिन, इस पार्क का संदर्भ इतिहास के एक ऐसे पन्ने से जुड़ा है जो हिंदी और भारतीय साहित्य में अमर है। यहां की इमारत और उसमें रहने वाले प्रेमचंद का समय 100 साल पार कर गया है। इस पार्क को और यहां चल रहे संस्थान को बनाते समय क्या उद्देश्य था, इसका विवरण मुझे हासिल नहीं हुआ। लेकिन, निश्चित ही वह नहीं हो सकता जो इस समय वहां दिख रहा है। इस पार्क में घूमने के लिए गेट पर टिकट लेना पड़ता है। यहां घूमने आये लोगों को देखने के लिए क्या है? प्रेमचंद के ‘निकेतन’ में चल रही लाइब्रेरी के अलावा ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे देखा जा सके। न तो प्रेमचंद के जीवन से जुड़ी वस्तुओं, लेखन या अन्य चीजों को प्रदर्शित करने के लिए कोई संग्रहालय है और न ही उससे जुड़ी कोई नई रचनात्मक अभिव्यक्तियां।
इस डिजिटल दौर में पार्क में मोबाइल से सेल्फी लेते युवाओं और प्रेमियों को देखा जा सकता है। इसी डिजिटल तकनीक का प्रयोग वहां आये लोगों को प्रेमचंद से अवगत कराने में आसानी से किया जा सकता है। प्रेमचंद की कहानियों, उपन्यासों पर सैकड़ों नाटक और फिल्में बनी हैं। उनका प्रदर्शन किया जा सकता है। इनके माध्यम से उनकी किताबों और कहानियों से परिचय कराया जा सकता है। दीवारों पर चित्रकला और पार्क के भीतर मूर्तिकला के माध्यम से उनकी जिंदगी के कई हिस्सों से लोगों को रूबरू कराया जा सकता है। लेकिन, यहां ऐसा कुछ भी नहीं है।
यही वह जगह थी जहां उन्होंने ‘ईदगाह’ और ‘नमक का दरोगा’ जैसी कहानियां लिखीं। गोरखपुर, बस्ती और देवरिया का समाज और उसकी संस्कृति उनके मानस का हिस्सा बन गया। यहां के गांव और गन्ना मिलें, शहर और उसकी दरकी हुई नैतिकता, इन दोनों के बीच मछली की तरह तैरते, शोषण और लूट की कमाई खाकर मुटाते सूदखोर, दलाल और मठाधीशों को वह अच्छी तरह देख और समझ रहे थे।
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1920 तक ब्रिटिश हुकूमत और उसकी आर्थिकी, प्रतिरोध में बन रही कांग्रेस के राष्ट्रवाद को परखने के लिए वह किसान को केंद्र में लाते हैं। यही वह समाज था, जिसकी संरचना उनके प्रसिद्ध उपन्यास गोदान में निखरकर सामने आती है। एक तरफ सरमायेदार, जमींदार, सूदखोर आदि हैं और दूसरी ओर किसानों की विभिन्न श्रेणियां हैं। इसमें आर्थिक, सामाजिक स्तर पर सबसे निचले पायदान पर होरी है। इस उपन्यास में वह अपनी ही रचनाओं की सीमाओं को तोड़ जाते हैं। यह संयोग नहीं हैं कि उनके इस उपन्यास का प्रभुत्वशाली हिस्सा सिर्फ आर्थिक ही नहीं जाति के तौर पर भी समाज में ऊपर है, कथित तौर पर सवर्ण है। जबकि दमित और शोषित हिस्सा हाशिये पर फेंके जाने को अभिशप्त गरीब और कथित तौर निम्न जाति से है। इस विभाजन की गूंज 21वीं सदी चौथाई पूरा हो जाने के बाद भी संसद में गूंज रही है। जबकि सड़क पर किसानों का संघर्ष खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है।
इसी प्रेमचंद साहित्य संस्थान, गोरखपुर में 31 जुलाई, 2010 को प्रसिद्ध इतिहासकार शाहिद अमीन ने व्याख्यान दिया था। यह व्याख्यान साखी प्रत्रिका के 21वें अंक में ‘ऐसे हैं प्रेमचंदः एक सरजूपारी इतिहासकार का प्रेमचंद को नजराना’ के नाम से छपा। शाहिद अमीन का जन्म देवरिया में हुआ है। उन्होंने पूर्वांचल के गन्ना किसानों पर बेहतरीन पुस्तक भी लिखी है। यहां मैं उनके इस व्याख्यान का एक हिस्सा, जो थोड़ा बड़ा है, उद्धृत कर रहा हूं – ‘‘उपनिवेशवाद ने सबको अमुक निचली जाति जैसा बनाकर छोड़ा, वरना हम भी ….।’ यह भावना एक जातिगत राष्ट्रवाद की अहम पहचान है। ‘आर्थिक राष्ट्रवाद’ के चलते देशी शोषण को एक तरह से पिछले अइले पर रख दिया गया था, ताव पर आया था ग्रामीण समाज का उपनिवेशी शोषण। इस प्रकार के विश्लेषण में जब ग्रामीण भारत पर आर्थिक भार की बात होती थी, सरकार को जमींदार द्वारा दिया गया लगान, जो कि किसानों से अर्जित पोत का मात्र आठवां भाग था, उसी को रेखांकित किया जाता था।/ इसी प्रकार अभी हाल तक भारतीय आर्थिक इतिहस लेखन में भूमिहीनों की समस्या उपनिवेशी सरकार की आर्थिक नीतियों का खामियाजा भोगते हुए मध्यम जाति के किसान इकाइयों की चरमराहट और खेतिहरों के भूमिहीन मजूर होने की प्रक्रिया के रूप में देखी जाती थी। 1960 के दशक तक यह बात, कि भूमिहीनता का एक लंबा जातीय इतिहास है, और यह ऊंची जाति के हल जोतने को एक नीच पॉल्यूटिंग कार्य समझना, इससे बाजाफ्ता जुड़ा हुआ है, पर इतिहासकार सोचने को तैयार ही नहीं थे। कारण यह था कि आर्थिक संबंधों को निजी आर्थिकता के बाहर सामाजिक और जातिगत संबंधों के साथ जोड़कर देखने का अकादमिक प्रचलन ही नहीं हुआ था, और न ही इस मामले में पुरानी राष्ट्रवादी सोच किसी भी दायरे से प्रश्नचिन्हित हुई थी। यह कि ज्यादातर बंधुआ मजदूर ऐसी दलित जातियों से थे जिन्हें किसानी का नहीं वरन दूसरों के लिए हल जोतने का अधिकार था, और यह कि भारत के कई इलाकों में इनकों हलपति (गुजराती) हलवाहा या हरवाहा कहा जाता था- यह तो इतिहासकार जानते थे, लेकिन जाति, भूमिहीनता, हलवाही का संबंध राष्ट्रवादी, आर्थिक इतिहास की समझ के अंदर बहुत मुश्किल से समा सकता था।’
किसी रचना की प्रासंगिकता उसके समयकाल के संदर्भ में तो रहती ही है, उस रचना में प्रयुक्त संदर्भों में यदि वह समय मूर्त हो उठे तब वह समयकाल की सीमा को पार कर जाती है। वह रचना सिर्फ समयकाल का दस्तावेज नहीं रह जाती, बल्कि उस समय का प्रतिनिधित्व करती है। समय पदार्थ की अनवरत गतिमान अवस्थिति है। यही कारण है कि प्रेमचंद की रचना आज भी न सिर्फ अपने समय को अभिव्यक्त करती है, बल्कि यह हमारे समय अपने दस्तावेजों को लिए हमारे सामने आ खड़ी होती है। उनकी रचनाएं महज साहित्य और सौंदर्य के सृजन का माध्यम नहीं हैं। वे हमारे साथ संवाद स्थापित करती हैं। और एक सौ साल गुजर जाने के बाद भी वर्तमान में चल रहे लेखन को प्रेरित करती है। हमारे चिंतन और सर्जन के बीच जो लेखन की शैली और पद्धति है, उस पर सोचने के लिए विवश करती है। प्रेमचंद भारतीय समाज में वर्ग और जाति की बनावट और उसके आपसी संदर्भों को एक बार फिर देखने के लिए नजरिया पेश करते हैं। हिंदी साहित्य जहां पिछले 70 सालों में हर दस साल पर ‘युग बदल देने’ वालों का साहित्यिक शगल सर चढ़कर बोलता रहा है, हर साल साहित्यकार बना देने का तमगा बंटता रहा है, वहां पिछले 50 सालों से ‘प्रेमचंद से आगे’ जाने का खूब कदमताल चल रहा है, लेकिन कोई कहीं नहीं जा रहा है। प्रेमचंद अब भी अपने से आगे जाने वालों की राह देख रहे हैं।