उत्तर प्रदेश के बाहुबली -10
हाथ की मेहंदी का रंग उतरा भी नहीं था और चूड़ियाँ तोड़ दी गईं। ऐसी स्थित में स्त्रियाँ अक्सर टूट जाती हैं पर बाहुबल की कुछ ऐसी भी परछाइयाँ रही हैं, जिन्होंने चूड़ी जरूर तोड़ी थी पर अपने अंदर के कांच को किसी फौलाद की तरह मजबूत बनाने से भी गुरेज नहीं किया था। ‘उत्तर प्रदेश के बाहुबली’ शृंखला लिखते हुए अब तक हमने यूपी के नौ बाहुबलियों से आपको रूबरू करवाया। उनके बारें में अपनी अवधारणा की बात करें तो हमने उनके खिलाफ न तो शत्रुवत व्यवहार किया न ही मित्रवत। कोशिश यह रही कि आप इस माध्यम से उनके बारे में अपनी राय खुद कायम करें। क्योंकि उनके सिर पर जो ताज सजा था उसके पीछे अगर उनके गुनाह थे तो आपके वोट भी थे। आपने सब कुछ जानते हुए भी उन्हें अपने प्रतिनिधि के रूप में विधानसभा में बैठाया। अपना सांसद चुना। अपने भविष्य की डोर आप जिनके हाथ में सौंप रहे थे, उसके पीछे आपके भी निश्चित रूप से कुछ स्वार्थ रहे होंगे या फिर उनके अपराध का डर रहा होगा। समाज और सिस्टम दोनों ने मिलकर उन्हें रचा था। हमारी सिर्फ यह कोशिश रही है कि उनके चेहरे को उसी तरह आपके सामने लाऊँ जैसा वे वास्तव में हैं। बुरे से बुरा मनुष्य भी कहीं न कहीं अपने जीने भर का इंसान बने रहने का प्रयत्न करता है। इन माफियाओं ने भी जरूर किया था। मैंने कोशिश की है। उनका वह पक्ष भी आप देखें। किसी के बारे में एकांगी दृष्टिकोण बनाना सबसे उपयुक्त तरीका नहीं है। इस बाहुबल की राजनीति के साथ आप कैसा व्यवहार करना चाहते हैं, यह आपको तय करना है।
फिलहाल, आज इस शृंखला की अंतिम किश्त में हम किसी बाहुबली से न मिलवाकर आपको उनकी परछाइयों से रूबरू करवा रहे हैं। कुछ ने अपने पति के न रहने पर उनके साम्राज्य को संभाला तो किसी ने समानांतर रूप से अपने पति के साथ राजनीतिक उड़ान भरी और घूँघट की कारा तोड़कर सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियों को स्वीकार किया। कुछ उन महिलाओं का ज़िक्र भी करते हैं, जिन्होंने बाहुबल के खिलाफ अपने दुस्साहस का दम दिखाया और विपक्षियों को पराजित किया।
विजमा यादव
विजमा यादव इलाहाबाद (प्रयागराज) के बाहुबली नेता जवाहर यादव ‘पंडित’ की पत्नी हैं। जवाहर यादव का जन्म जौनपुर में हुआ था। पूजा-पाठ में खूब मन रमता था इसलिए धीरे-धीरे लोग जवाहर यादव से जवाहर पंडित कहने लगे। 1981 में कमाने के लिए घर से निकले तो नया आशियाँ प्रयागराज बना। मंडी में बोरी सिलने का काम करने लगे। जवाहर बोरी सिलने के लिए इलाहाबाद नहीं आए थे पर अभी रास्ता नहीं मिला था। जब इलाहाबाद से जान-पहचान बढ़ी तो कच्ची शराब के धंधे में हाथ डाल दिया। धीरे-धीरे हाथ जम गया तो पैसा भी बरसने लगा। चार साल में ही जवाहर पंडित ने पैसे के दम पर ठेकेदारी के धंधे में हाथ डालना शुरू किया। 1989 में मुलायम से किसी तरह से मुलाकात हो गई। जवाहर ने मुलायम पर जाने कौन सा जादू-टोना किया कि खुद तो मुलायम के भक्त हुए ही, उन्हे भी अपना मुरीद बना लिए। मुलायम ने इलाहाबाद में पार्टी की कमान जवाहर को सौंप दिया। 1991 में पार्टी के टिकट से चुनाव लड़ा पर हार गए। चुनाव हारे पर हिम्मत नहीं और 1993 में पहली बार इलाहाबाद की झूँसी विधानसभा से चुनाव जीत गए। जीत मिली तो ताकत में भी उछाल आया। ठेकेदारी को लेकर बाहुबली करवरिया परिवार से सीधी भिड़ंत होनी शुरू हुई।
कौशांबी का करवरिया परिवार भी अब इलाहाबाद में बस चुका था और बालू के ठेके में श्याम नारायण करवरिया उर्फ मौला महराज का एकछत्र राज था। जवाहर पंडित ने न सिर्फ इसमें सेंध लगाई बल्कि ज्यादातर ठेके अपने नाम करवा लिए। एक समय स्थिति ऐसी बनी कि मौला महराज के पास बालू के घाट तो थे पर बालू ले जाने का रास्ता नहीं बचा। सब पर जवाहर का कब्जा हो चुका था। जवाहर ने उनके ट्रकों को अपनी जमीन से गुजरने से रोक दिया। कुछ बिचौलियों के माध्यम से समझौता करने के लिए दोनों की बैठक हुई। मौला महाराज ने जाने-अनजाने या फिर पीढ़ियों के संस्कारवश जवाहर को जातीय तौर पर नीचा दिखाने का प्रयास किया जिसे सुनकर जवाहर आग बबूला हो गए। मौला महाराज पर रायफल तान दी और बोल दिया कि मेरी जमीन से तुम्हारा ट्रक अब कभी नहीं गुजरेगा। करवरिया परिवार को उन्होंने बालू से बाहर खदेड़ दिया। उस समय जवाहर सरकार में थे इसलिए करवरिया परिवार चुप रहा और सही वक्त का इंतजार करने लगा। 1995 में सरकार गिर गई और उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया।
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एक दिन एक सफेद मारुति कार सिविल लाइन के रोडवेज बस अड्डे से हाईकोर्ट की ओर जा रही थी। इसमें जवाहर पंडित बैठे थे। उनकी गाड़ी सुभाष चौराहे के आगे जैसे ही पैलेस सिनेमा हॉल के पास पहुँची तभी एक टाटा सिएरा कार ने ओवरटेक कर लिया और जवाहर की गाड़ी के पीछे एक टाटा सूमो खड़ी हो गई। टाटा सियरा से मौला महराज और उनके भाई कपिल मुनि करवरिया, सूरजभान करवरिया और उदयभान करवरिया निकलकर बाहर आ गए। पिछली गाड़ी से रामचन्द्र त्रिपाठी उर्फ कल्लू भी मय हथियार उतर आए। जवाहर पंडित पूरी तरह से घिर चुके थे। तभी मौला महाराज ने एके-47 लहराते हुए जवाहर पंडित को ललकारा कि ‘जवाहर पंडित निकल बाहर’। जवाहर जब तक कुछ समझ पाते तब तक खुली सड़क पर गोलियां तड़तड़ा उठीं। इलाहाबाद में पहली बार एके-47 चली थी। जवाहर के शरीर में ऊपर से नीचे तक गोलियां धँस चुकी थी। जवाहर की मौत का यकीन हो जाने पर मौला महराज आराम से चले गए।
जवाहर के भाई सुलाकी यादव ने इस केस को पूरी हिम्मत के साथ लड़ा। बावजूद इसके फैसला आने में 23 साल का वक्त लगा। भाजपा के कलराज मिश्रा ने करवरिया को बचाने के लिए लिखित बयान दिया, अदालती कार्यवाही में भी शामिल हुए और कहा कि उस दिन कपिल मुनि करवरिया पूरा दिन उनके साथ रहा, पर कोर्ट ने उनकी गवाही नहीं मानी और अब जवाहर के हत्यारे जेल में हैं। जवाहर यादव की हत्या के बाद उनकी पत्नी विजमा यादव ने बिना किसी डर के पति की जमीन संभाली और 1996 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर जीत दर्ज कर विधानसभा पहुँचीं। 2002 में भी वह 18000 वोट से जीतीं। 2007 में हारीं तो 2012 में वापस जीत गईं। 2017 में हारीं लेकिन 2022 में जीतकर वापस विधायक बनीं। विजमा यादव बाहुबल के मैदान में स्त्रियों के लिए लगभग बंजर-सी जमीन में किसी कोमल हरी दूब-सी उगी थीं पर आज राजनीति में वह किसी दरख्त कि तरह अपने होने का अर्थ रखती हैं।
पूजा पाल
पूजा पाल का जिक्र आते ही सबसे पहले याद आती है प्रयागराज के सबसे बड़े माफिया अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ अहमद की। 2004 में समाजवादी पार्टी ने अपने विधायक अतीक अहमद को लोकसभा का टिकट दिया तो अतीक जीतकर लोकसभा में पँहुच गया। अतीक की रिक्त विधानसभा सीट पर 2005 में उपचुनाव हुआ तो सपा ने अतीक के भाई अशरफ को मैदान में उतार दिया। बसपा के उम्मीदवार बने राजू पाल। राजू पाल कभी अतीक के करीबी थे, पर चुनाव में दोनों अलग हो गए। राजू पाल ने अशरफ को चुनाव हरा दिया। अतीक के परिवार की यह पहली हार थी, जिसे अतीक ने बर्दाश्त नहीं किया और अशरफ को लगा दिया राजू पाल की हत्या करने के मिशन पर। राजू पाल के विधायक बनने के बावजूद उन पर तीन हमले हुए लेकिन इन हमलों में वे बच गए थे। 9 जनवरी को राजू पाल ने अपने समाज की एक सामान्य लड़की पूजा पाल से शादी रचाई और पारिवारिक जीवन की शुरुआत ही कर रहे थे कि गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) के एक दिन पहले 25 जनवरी, 2005 को धूमनगंज में राजू पाल पर हमला हो गया। चारों तरफ से घेर कर राजू पाल पर गोलियां बरसाई गईं। अभी पूजा पाल के हाथों में लगी मेंहदी का रंग भी नहीं कुम्हलाया था कि सुनहरी जिंदगी का ख्वाब ही कुम्हला गया।
इस घटना ने 18 साल बाद अतीक अहमद का सब कुछ खत्म कर दिया। राजू पाल की हत्या के बाद मायावती के सहयोग से पूजा पाल ने पति की विरासत संभाली। राजू पाल की हत्या से रिक्त हो चुकी सीट पर एक बार फिर चुनाव हुआ। पूजा पाल ने पति की जगह नामांकन किया और राजू पाल के हत्यारोपी अशरफ से चुनाव हार गईं। इसके बाद भी 2007 के विधानसभा में पूजा पाल बसपा के झंडे के साथ चुनावी समर में उतरीं और पहली बार जीत दर्ज कीं। बाद में पूजा ने इसी सीट पर अपना दल के टिकट पर लड़ रहे बाहुबली अतीक को मात देकर अपनी जीत दर्ज कराई। 2018 में बसपा का साथ छूट गया। अनुशासनहीनता के आरोप में पार्टी ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था। इसके बाद पूजा पाल समाजवादी पार्टी के साथ चल पड़ीं। उन्नाव से पार्टी ने लोकसभा का चुनाव लड़वाया, पर हार गईं। 2022 में कौशांबी की चायल विधानसभा से चुनाव जीतीं और आज भी विधायक हैं। शादी के नौवें दिन विधवा होने वाली पूजा पाल ने उस समय रो-रो कर कहा था कि जिसने उनकी मांग उजाड़ी है, उन्हें भी एक दिन यह दिन देखना पड़ेगा। फिलहाल 18 साल बाद राजू पाल के हत्यारे की हत्या हो चुकी है और पूजा पाल भी अब दूब से दरख्त बन चुकी हैं।
अन्नपूर्णा सिंह
बृजेश सिंह की पत्नी हैं अन्नपूर्णा सिंह। बनारस के बाहुबली बृजेश सिंह के बारे में हम पहले ही इस सीरीज में लिख चुके हैं। पति के तेरह साल तक जेल में रहने के दौरान पत्नी अन्नपूर्णा सिंह ही उनका सारा कारोबार संभालती रहीं। 2010 में अन्नपूर्णा सिंह बसपा से एमएलसी बनकर सदन में पहुँचीं थीं।
रामलली मिश्रा
भदोही के बाहुबली विजय मिश्रा की पत्नी हैं रामलली मिश्रा। पति के जेल जाने के बाद इन्होंने भी घूँघट की चहारदीवारी लांघ कर उत्तर प्रदेश की सियासत में अपने लिए जगह बनाई। रामलली भी एमएलसी बनकर सदन में पहुँचने में कामयाब रहीं और पति का पूरा कारोबार संभालने की जिम्मेदारी भी उठाई। फिलहाल बाद में पति के साथ इन पर भी कई मुकदमे हुए।
शाइस्ता परवीन
अतीक की पत्नी हैं और फरार हैं। राजनीति में पहला कदम आगे बढ़ाया ही था कि परिवार ही बिखर गया। उत्तर प्रदेश में चल रहे निकाय चुनाव से पहले बसपा में शामिल होकर मायावती से मेयर का टिकट पक्का कर आई थीं। इसी बीच उमेश पाल हत्याकांड में आरोपी बन गईं। इस हत्या कांड में एक बेटे असद का एनकाउंटर हो गया। इसी बीच पति अतीक अहमद और देवर अशरफ की हत्या हो चुकी है। पति के जेल में रहने दौरान कारोबार की लगाम तो संभाले रहीं पर सियासी समर में अपने होने का अर्थ साबित करने से पहले ही पुलिस के साथ छुपन-छुपाई का खेल शुरू हो गया। 50,000 की इनामी बन गईं और सियासी सफर के सपने पर सेंध लग चुकी है।
राजकुमारी रत्ना सिंह
प्रतापगढ़ के कालाकांकर रियासत की राजकुमारी हैं राजकुमारी रत्ना सिंह। इनके पिता राजा दिनेश सिंह कांग्रेस के बड़े नेता और इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में भारत के विदेश मंत्री थे। इन्होंने कभी बाहुबल की राजनीति नहीं की। स्वच्छ छवि के साथ राजनीति में आईं और कांग्रेस के टिकट पर सांसद चुनी गईं। बाद में प्रतापगढ़ के बाहुबली विधायक राजाभैया के बाहुबली चचेरे भाई अक्षय प्रताप सिंह को हराकर अपने होने को एक अलग अर्थ दिया। कांग्रेस के टिकट पर तीन बार सांसद रह चुकीं रत्ना सिंह अब भाजपा की नाव पर सवार हैं। 2004 के लोकसभा चुनाव में वह अक्षय प्रताप से हार गई थीं, पर 2009 के चुनाव में अक्षय प्रताप सिंह को हराकर अपनी अदावत का जौहर दिखा दिया था। रत्ना सिंह को हथियारों का बड़ा शौक है। उनके पास लगभग 10 लाख रुपये के लाइसेंसी हथियार हैं।
रंजना यादव
आजमगढ़ के बाहुबली रमाकांत यादव की पत्नी हैं रंजना यादव। पति के सांसद बन जाने पर राजनीति में आईं और सपा के टिकट पर 1996 और जदयू के टिकट पर 2002 में फूलपुर से विधानसभा का चुनाव लड़ा पर दोनों बार उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रामनरेश यादव से हार गईं। पति की तमाम हनक और रसूख भी इन्हें सियासी गद्दी नहीं दे सका।
कुमार विजय गाँव के लोग डॉट कॉम के मुख्य संवाददाता हैं।
बहुत सुंदर संदेश