Saturday, July 27, 2024
होमग्राउंड रिपोर्टउत्तन पाली में मछलियों की गंध से तेज फैलती जा रही है...

ताज़ा ख़बरें

संबंधित खबरें

उत्तन पाली में मछलियों की गंध से तेज फैलती जा रही है कूड़े की बदबू

सच बहुत भयानक है। जिस देश में ईवीएम से चुनाव होता है और एक संसद भवन रहते हुये दूसरा बन रहा हो। जिस देश में दुनिया के अमीरों में शुमार लोग रहते हों। जहां लाखों रुपए वाले मोबाइल हों। जो विश्वगुरु होने का दंभ पालता हो वहाँ पर कोलियों की स्थिति अभी भी उजड़ने-बसने की है और उनमें अपने जैसे मेहनत करनेवालों के प्रति नफरत भरी जा रही है। यह नफरत उनके मन में कौन भर रहा है? इससे उनको क्या हासिल होने जा रहा है?

ठाणे जिले के भायंदर के उत्तन बीच पर राजेश भंगा अपनी बूढ़ी माँ के साथ खड़े हैं। उनकी माँ बीच से चीरी गई मछलियों को सूखने के लिए अलगनी पर टाँग रही हैं। साथ ही पहले से सुखाई जा रही मछलियों की पूंछ बांधकर फिर से टाँग रही हैं। मैंने पूछा कि महँगाई आपके काम पर क्या प्रभाव डाल रही है तो उन्होंने छूटते ही कहा डीजल महंगा होने से बचत बहुत कम हो गई है।

राजेश के पास अपनी नाव नहीं है। वे साझे में काम करते हैं। उनके पार्टनर के पास नाव है। कई लोग मिलकर समुद्र में उतरते हैं। कुल पंद्रह लोगों की टीम है। वे बताते हैं कि उनके घर में कई पीढ़ियों से मछली का धंधा होता रहा है। उनके पिता मोजेज़ भंगा भी मछलियाँ पकड़ते थे। वे कहते हैं ‘मेरा भी एकमात्र धंधा यही है। खेती-वेती कुछ नहीं है। और कुछ आता भी नहीं इसलिए यही करते हैं लेकिन अब नयी पीढ़ी इस काम में नहीं आएगी। वह दूसरे पेशों में जा रही है।’ राजेश के दो बच्चे हैं जो कॉलेज में पढ़ रहे हैं।

साथ चल रहे शूद्र शिवशंकर सिंह यादव ने पूछा कि कुछ बच्चे पढ़कर आगे निकले हैं? राजेश ने बताया कि कई बच्चे नेवी में भर्ती हुये हैं। समुंदर से उनका बहुत पुराना नाता है। वे दूसरों के मुक़ाबले अच्छे तैराक होते हैं। इसलिए नेवी में उनके लिए बेहतर मौके हैं। लेकिन यहाँ से अभी कोई डॉक्टर-इंजीनियर नहीं बन पाया है।

शूद्र जी कहते हैं कि जिन दिनों वह टेलीफोन विभाग में कार्यरत थे तब वह इस इलाके से अच्छी तरह परिचित हो गए थे। वह कहते थे कि यहाँ एक गुंडा था जिसने विभाग की नाक में दम कर दिया था। बाद में उसे घुटनों पर ला दिया गया। वह कहते हैं कि कोली समाज मेहनतकश समाज है। वह सुबह से ही काम में लगता है। उसकी अपनी जीवन शैली और सांस्कृतिक दुनिया है। दूर से देखने पर लगता है कि यह पुराने पेशे से चिपका एक समाज है लेकिन असल में यह सदियों से अपने कौशल से समुद्र पर राज कर रहा है।

राजेश भंगा

राजेश भंगा उनकी बात से सहमति जताते हैं लेकिन वह कहते हैं कि अब इस धंधे पर भी लोगों की बुरी नज़र है। खासतौर से नए ठेकेदारों और कंपनियों की जो एक साथ बहुत पैसा कमाना चाहते हैं। वे बहुत बड़ी-बड़ी नावें और ट्रालर की सहायता से मछलियाँ पकड़ते हैं। इस प्रक्रिया में छोटी नाव के साथ काम करनेवाले मछुआरे कई तरह की जटिल स्थितियों का सामना कर रहे हैं। सबसे ज्यादा उन्हीं पर महँगाई की मार पड़ी है। बहुत से लोग जो पहले छोटे-छोटे समूहों में स्वतंत्र काम करते थे उनमें से कई लोग अब बड़े ठेकेदारों के यहाँ काम करने लगे हैं। राजेश की माताजी का कहना था कि अपने काम और नौकरी के काम में बहुत फर्क होता है।

राजेश रोज़मर्रा के अनेक संकटों से जूझते हैं। समुद्र में तूफान आने से मछलियाँ नहीं पकड़ सकते। कई बार ऐसा कई-कई दिन तक होता है और तब काम पूरी तरह ठप पड़ जाता है। समुद्र की स्थिति देखकर अंदाज़ा हो जाता है कि आज किस तरह की मछलियाँ मिलेंगी। किसी दिन छोटी मछलियाँ और झींगे। किसी दिन बड़ी और किसी किसी दिन बहुत मेहनत से ही कुछ हाथ लगता है। अलग-अलग मछलियों का अलग-अलग टाइम रहता है।

वे अभी जाल बना रहे थे। इसमें दो ढाई घंटे का समय लगता है। राजेश कहते हैं कि जाल डालने के बाद पाँच-छः घंटे के बाद उठाते हैं। मछलियों का अलग-अलग सीजन होता है। पॉपलेट अगस्त में मिलती है। अभी दिसंबर-जनवरी में बोम्बिल मिल रही है। आज छोटी मछलियाँ मिलीं जिनको कम लोग खाते हैं। उनकी चर्बी से  तेल निकाल कर बाकी मुर्गियों का चारा बना दिया जाता है।

ग्राहक के इंतज़ार में

वह कहते हैं कि अक्सर अलस्सुबह काम शुरू करते हैं। कभी-कभी पूरा दिन काम करना पड़ता है और किसी-किसी दिन दोपहर तक नाव भर जाती है तो लौट आते हैं। अर्थात एक बार समुद्र में उतारने के बाद जब तक नाव भरेगी नहीं तब तक वापसी नहीं होगी। प्रायः कई किलोमीटर अंदर तक चले जाते हैं।

पूरा बीच कोली समुदाय के स्त्री-पुरुषों से गुलजार है। सैकड़ों नावें और छोटे जहाज़ माहौल को रोमांचकारी बना रहे हैं। जनवरी की इस दोपहर जब उत्तर भारत कड़ाके की ठंड से ठिठुर रहा है तो समुद्र का यह किनारा सुनहरी धूप से जगमगा रहा है। बाँस की अलगनियों के नीचे कुत्ते आराम से सो रहे हैं। महिलाएँ टोकरी लिए बस्ती से किनारे और किनारे से बस्ती की ओर आ-जा रही हैं। कुछेक मिनी ट्रक और मैजिक खड़ी हैं जिनमें मछलियों के कैरेट लोड किए जा रहे हैं।

एक जगह बारह-तेरह कैरेट मछलियाँ और तौलने की मशीन रखी है और एक आदमी वहाँ बैठा है। कैरेट में छोटी मछलियाँ हैं जिनके साथ झींगे भी हैं। मैंने उससे बात शुरू कि लेकिन वह अपने में ही मगन रहा। तभी दो युवा वहाँ आए। एक गाजीपुर उत्तर प्रदेश का रहनेवाला दिनेश है तो दूसरा सोलापुर का निवासी सचिन है। दोनों मछलियाँ तौलने लगे। उन्होंने बताया कि ये मछलियाँ कोलाबा जाएंगी जहां इनसे तेल निकाला जाएगा और बची हुई चर्बी से मुर्गियों को खिलाने वाला पावडर बनेगा।

उन्होंने बताया कि ये छोटी मछलियाँ आमतौर पर लोग कम खाते हैं इसलिए इनको तेल निकालने के लिए ही भेज दिया जाता है। आज ये ही मिलीं। हर दिन अलग-अलग तरह की मछलियाँ मिलती हैं। ये मछलियाँ दस रुपए किलो बिकती हैं।

भायंदर डम्पिंग ग्राउंड जिसकी बदबू कस्बे को अपनी जद में ले रही है

एक जीवंत कस्बा जिसमें कूड़ा और प्रदूषण रिस रहा है

उत्तन की आबादी पहले सोलह हज़ार थी अब वह ज्यादा हो गई है। लेकिन आबादी के हिसाब से कोई सहूलियत यहाँ नहीं है। खासकर स्कूल और अस्पताल जैसी बुनियादी सहूलियत। एक सरकारी दवाखाना है जो साढ़े नौ बजे से एक बजे तक खुलता है। अधिक गंभीर बीमारी के लिए भायंदर अथवा मीरा रोड जाना पड़ता है। भायंदर वेस्ट से 1 और 2 नंबर की बसें उत्तन तक चलती हैं। कुछ निजी स्कूल हैं। बाज़ार हैं।

इसके अलावा यहाँ छोटे-बड़े कई चर्च, कुछेक मंदिर भी हैं। कुछ दूर पर आरएसएस द्वारा संचालित एक आश्रम भी है। यूं रोज़मर्रा के साधारण काम करते हुये अनेक लोग दिखते हैं। जिनमें कुछ लोग जालों का मरम्मत करते और कुछ नए जाल बनाते मिलते हैं। तटों पर मछलियों और झींगों के सुखाने और ढोने के काम में औरतों का एक झुंड लगा है। चारों तरफ सूखाई जा रही मछलियों की तीखी गंध फैली है। हम लोग इससे अधिक परिचित नहीं हैं इसलिए असुविधा महसूस होती है लेकिन वर्सोआ अथवा उत्तन जैसे इलाके इसी तीखी गंध से पहचान में आते हैं।

जिस बात पर शूद्र शिवशंकरजी का ध्यान बार-बार जा रहा था और जिसे वे बार-बार रेखांकित भी कर रहे थे वह था आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल अथवा भी अन्य धार्मिक संगठन के नारे अथवा झंडे नहीं दिख रहे थे। खासतौर से भायंदर जैसे तमाम उपनगरों में हिन्दुत्ववादी संगठनों के उग्र प्रचार जैसी बात यहाँ नहीं दिख रही थी। इसकी बनावट, बसावट और आबादी का व्यवहार देखकर प्रतीत होता कि वास्तव में हम किसी धार्मिक इलाके में नहीं बल्कि एक ऐसे कस्बे में घूम रहे हैं जो भारत के एक अलग मिजाज का प्रतिनिधित्व करता है।

महाराष्ट्र, खासकर मुंबई-ठाणे-पालघर आदि जिलों में कोली और आगरी दो महत्वपूर्ण समुदाय हैं लेकिन आगरियों का हिंदुकरण बहुत बड़े पैमाने पर हुआ है। अधिकांश आगरी शिवसैनिक बन चुके हैं। उनमें उग्रता और हिंसक स्थानीयता इतनी अधिक है कि किसी भी बाहरी समुदाय के खिलाफ वे संगठित दबाव पैदा कर देते हैं। उनके एकमुश्त वोट के लिए राजनीतिक पार्टियों उनको शह देती हैं। बाल ठाकरे के ‘शिव-बड़ापाव’ अभियान में आगरियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और एक समय अन्य प्रदेशों से आए दूकानदारों को भगा दिया।

मछलियाँ तौलने के लिए साथी का इंतज़ार करते हुए

लेकिन कोलियों के बीच ऐसी विशेषता नहीं है। वे आगरियों के मुक़ाबले विश्व नागरिकता से अधिक परिचित हैं। इतिहास में वे पुर्तगालियों-फ्रांसीसियों, डचों और अंग्रेजों के संपर्क में आए और उनकी बहुत सी बातों को अपनी जीवन-शैली में शामिल कर लिया। उसमें धर्म एक बुनियादी चीज है। इसके साथ ही तटवर्ती कोलियों ने अपना पेशा नहीं बदला। बेशक इसके पीछे और भी अनेक घटक हैं जिनकी वजह से कोलियों ने धार्मिक उग्रता को महत्व नहीं दिया। लेकिन चीजें अब यहाँ भी बदल रही हैं।

उत्तन में अनेक ढाबे और रेस्टुरेंट हैं जो मुसलमानों द्वारा संचालित हैं। दिलचस्प यह है कि जिस इलाके में मछलियों की अच्छी ख़ासी-वेराइटी है वहाँ मछलियों को बेचता हुआ कोई दुकानदार नहीं दिखा बल्कि एक लाइन से चिकन की दुकानें दिखीं। एक स्थानीय निवासी से जब हम बात कर रहे थे तो उसने बात करते-करते यह कहा कि ‘ये लोग’ यहाँ बहुत ज्यादा हो गए हैं। अब इनको यहाँ से भगाना है।’ यह हमारे लिए चौंकानेवाली बात थी।

मीरा-भायंदर महानगर पालिका के यहाँ तीन पार्षद हैं जो शिवसेना, भाजपा और कांग्रेस के हैं, लेकिन स्थानीय निवासी माइकल हँसते हुये कहते हैं कि इनसे कोई काम करा लेना आसमान से चाँद ले आना ही है। गलियों में गंदगी और नालियों में से सड़क पर चला आ रहा गंदा पानी इस बात का कुछ संकेत दे रहा है।

लेकिन सबसे भीषण दुर्गंध ऊपर पहाड़ पर बने डम्पिंग ग्राउंड से आ रही थी। सड़ते हुये कूड़े की अनवरत दुर्गंध वातावरण में घुली हुई थी। जब भी हवाओं का रुख समुद्र की ओर होता है तब पूरा कस्बा इस दुर्गंध में डूब जाता है। पहाड़ के ऊपर मीरा-भायंदर महानगर पालिका ने डम्पिंग ग्राउंड बनाया है। पहले इस तरफ कम आबादी थी लेकिन यहाँ रहनेवाले लगातार बढ़ते गए। डम्पिंग ग्राउंड में उड़ेला जानेवाला कूड़ा भी लगातार बढ़ता गया है। इसके निस्तारण के कभी-कभी आग लगा दी जाती है। इससे दुर्गंध और तेज हो जाती है लेकिन महानगर पालिका के लोगों को लगता है कि इस प्रकार कूड़ा नष्ट हो रहा है। बरसात के दिनों में कूड़े का ज़मीन में रिसाव तेज हो जाता है।

स्थानीय निवासियों ने इसके लिए अनेक प्रयास किए लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला उल्टे कूड़े का पहाड़ बढ़ता ही रहा। मुंबई-ठाणे के उपनगरों में कूड़े ने पर्यावरण के सामने भयानक संकट खड़ा कर दिया है। उत्तन भी उसका एक उदाहरण है। इसने लोगों को दुर्गंध और खुजली का उपहार दिया है। लोगों ने पार्षदों से, विधायक और सांसद तक गुहार लगाई लेकिन खास परिणाम नहीं निकला। कुछ लोगों ने आंदोलन की भी बात की। रस्साकशी चल रही है। नतीजा भविष्य की गर्भ में है।

साथी का इंतज़ार करते हुए

पुलिस पाटिल की तलाश में

शिवशंकरजी की स्मृति में उत्तन के पुलिस पाटिल का नाम है। शायद पॉल डीसूज़ा। वे राजेश भंगा से उनके घर के बारे में पूछते हैं। वे उंगली से इशारा करते हुये बताते हैं कि चौक के पास जो चर्च है वहीं उनका घर है। लेकिन जब हम किनारे से मुख्य सड़क पर आए तो पता लगा चर्च पहाड़ के ऊपर है लेकिन शिवशंकर जी की याद में पुलिस पाटिल का घर नीचे सड़क के किनारे ही है। पाटन बंदर रोड पर चौक की ओर चलते हुये एक दो जगह पूछ-ताछ करते हुये हम एक कॉटेज के पास पहुंचे। यही है। शिवशंकर जी ने विश्वास के साथ कहा।

आवाज देने पर एक युवा बाहर निकला। पूछने पर उसने बताया कि उसके पिता ही पुलिस पाटिल हैं। वह हमको अंदर ले गया। थोड़ी देर में उसके पिता बाहर आए तो उन्होंने शिवशंकर जी को पहचान लिया। बीस साल बाद मुलाक़ात हुई थी। दोनों लोग गर्मजोशी से हालचाल करने लगे। उनका वास्तविक नाम डायस विसेंट है। उन्होंने तुरंत अपना विजिटिंग कार्ड दिया। इसमें उत्तन पाली के पुलिस पाटिल के रूप में उनका पद दर्ज है। कार्ड पर डेविस इंटरप्राइजेज़ नामक फर्म का जिक्र है जो इमारती सामान, लकड़ी, सिलमिट और जलाऊ लकड़ी आदि की सप्लाई करती है।

उत्तन पाली के पुलिस पाटिल डायस विन्सेंट

डायस विन्सेंट ने बताया कि उनका जन्म यहीं हुआ था। उनके दादा यहाँ कोलाबा से आए थे। वह इस बारे में स्पष्ट नहीं थे कि वे कोली समुदाय से ही हैं लेकिन घुमा-फिराकर यह बात कह रहे थे कि बाद में उनका परिवार क्रिश्चियन बना लेकिन पहले शायद वह कोली ही था। वह अपने आपको मुंबई का मूल निवासी कह रहे थे।

सवाल मानवाधिकार को लेकर उठा कि क्या इधर किसी तरह का भेदभाव होता है या उसको लेकर कोई झंझट है? शायद वह इस बात को ठीक ढंग से नहीं समझ पाये लेकिन कहा कि कोई झंझट नहीं है। फिर तुरंत बोले कि ‘अभी मुसलमान लोगों का जो मामला है वह थोड़ा सा बवाल बन गया है इसलिए उनको दबाना मांगता है।’ शिवशंकर जी तुरंत बोले कि वे तो अपने लोग हैं उनको समझाना चाहिए। उनसे बात करनी चाहिए।

विन्सेंट बता रहे थे कि वे लोग यहाँ जगह लेते हैं और काम करने के लिए अपने लोगों को भेजते हैं। ‘इससे स्थानीय लोगों को यह मौका नहीं मिलता।’ बेशक यह एक गांठ है। बाहर से लोग आकर जगह खरीदते हैं और फिर अपने हिसाब से कर्मचारियों को नियुक्त करते हैं लेकिन स्थानीय लोगों को रोजगार नहीं देते। सीधा कारण यह माना जाता है कि स्थानीय लोग ठीक से काम नहीं करते और अनुशासन बिगाड़ते हैं। अनेक जगहों पर स्थानीय और बाहरी लोगों के बीच झगड़े, गाली-गलौज और मारपीट का उदाहरण दिया जाता है। मुंबई में यह एक आम बात है। पहले मुंबई-ठाणे-पालघर की राजनीति इसी पर चलती थी। स्थानीय लोगों को राजनीतिक शह और संरक्षण दिया जाता था लेकिन जैसे-जैसे बाहरी लोग भी वोट बैंक बनते गए वैसे-वैसे राजनीति ने इस मामले में निरपेक्षता अपना ली। अब ऐसे मामले कम होते दिखते हैं।

लेकिन जो बात ध्यान में आई वह थोड़ी भिन्न थी। स्थानीय बनाम बाहरी के पहले के टकराव में स्थानीय और बाहरी लोगों के बीच धार्मिक समानता थी। यानी मराठियों को लगता कि गैर मराठी उनके मौके हड़प रहे हैं। शिवसेना और मनसे जैसी स्थानीय पार्टियों की पूरी राजनीति इसी पर चलती थी। लेकिन अभी जो बात है उनमें अल्पसंख्यकों के खिलाफ अल्पसंख्यक समुदायों में भी अलगाव की भावना भर गई है। विन्सेंट जो बात कह रहे थे उसके पीछे भी ऐसा ही था।

यह भी पढ़ें…

बुद्ध और अंबेडकर अवसरवादी राजनीति के लिए तोता-रटंत टूलकिट क्यों बन गए हैं?

शिवशंकर जी ने उन्हें टोका- मैं यहीं के मामले में नहीं बल्कि पूरे देश के मामले में कह रहा हूँ कि मुसलमानों को दुश्मन समझने से पहले पूरे मामले को देखो कि संघ-भाजपा हर जगह ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ को मजबूत कर रहा है लेकिन बाकी लोगों को लड़ा रहा है। क्या आपको लगता है कि मुंबई में हर जगह स्टेशनों के आजू-बाजू कोलीवाड़ा नाम से बहुत से मुहल्ले थे जो मच्छीमारों के थे। वे सब अब कहाँ गए?’

विन्सेंट ने एक पल उनको देखा और बोले ‘हर जगह से कोली उजड़कर कहीं और चले गए। कोलीवाड़ा नाम भी अब कोई-कोई ही जानता होगा। उन जगहों पर अब बड़ी-बड़ी बिल्डिंग-मॉल बन गए।’ फिर वे बोले -‘ मुंबई तो कोलियों की ही थी। सबसे पहले की पुरानी मुंबई का नाम ही कोलाबा था। कोलाबा में एक से एक अमीर लोग रहते हैं लेकिन कोलियों को उजड़ना पड़ा।’

सच बहुत भयानक है। जिस देश में ईवीएम से चुनाव होता है और एक संसद भवन रहते हुये दूसरा बन रहा हो। जिस देश में दुनिया के अमीरों में शुमार लोग रहते हों। जहां लाखों रुपए वाले मोबाइल हों। जो विश्वगुरु होने का दंभ पालता हो वहाँ पर कोलियों की स्थिति अभी भी उजड़ने-बसने की है और उनमें अपने जैसे मेहनत करनेवालों के प्रति नफरत भरी जा रही है। यह नफरत उनके मन में कौन भर रहा है? इससे उनको क्या हासिल होने जा रहा है?

डायस विन्सेंट का दुख क्या है? उन्होंने बताया कि उनके दो बेटे हैं। बड़ा वाला भायंदर में ललन तिवारी ग्रुप ऑफ एजुकेशनल इंस्टीट्यूट में क्लर्क है। अभी भी वह ऐसी नौकरी की तलाश में है जहां आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त पैसा कमा सके। छोटे ने कोरोना से पहले इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की लेकिन लॉकडाउन लगने के कारण उसे नौकरी नहीं मिली। अभी भी कहीं से ऑफर नहीं है। सबसे बड़ी समस्या इस ज़मीन की है जिस पर उनका घर बना है। इसके मलिकाने को लेकर मामला अदालत में चल रहा है। इसी झगड़े की वह से डेविस इंटरप्राइजेज़ का काम भी आगे नहीं बढ़ पा रहा है।

पहाड़ के ऊपर से भायंदर की खाड़ी का एक दृश्य

उन्होंने बताया कि स्थानीय स्तर पर सुविधाओं का अभाव है। एक चैरिटेबल अस्पताल है लेकिन अस्पताल का कोई स्टैंडर्ड नहीं है। वहाँ केवल नर्स रहती हैं डॉक्टर के दर्शन भी नहीं होते। पिछले दिनों उनकी पत्नी की तबीयत खराब हो गई तो रात में दो बजे वहाँ लेकर गए। काफी देर तक वहाँ कोई इलाज नहीं मिला।

वह बताते हैं कि बच्चों ने कहाँ तो तो मम्मी नहीं बचेगी। फिर हम नायगाँव लेकर गए। वहाँ नर्सिंग होम में जांच से पता चला पित्त की थाली में पथरी है। सोनोग्राफी हुई और ऑपरेशन हुआ तब जाकर जान बची।

वे कहते हैं कि यहाँ क्रिश्चियन का कोई वर्चस्व नहीं है। जबकि काफी सम्पन्न लोग रहते हैं। वे कहते हैं कि कोलियों में बेरोजगारी बढ़ रही है। जब रोजगार बढ़ेगा तभी भाईचारा बढ़ेगा। इसके अलावा उनमें नशे की लत पहले से ज्यादा बढ़ी है। युवा पीढ़ी भी इसकी चपेट में है।

चाय पीकर हम पहाड़ पर गए। रास्ते में एक दर्जन से अधिक लोगों ने डायस विन्सेंट का अभिवादन किया और हालचाल पूछा। इससे पता चलता है कि इलाके में लोग उनका सम्मान करते हैं। लौटते हुये उन्होंने शिवशंकर जी से अपने बेटे को कहीं काम दिलाने का निवेदन किया और मुस्कराते हुये हमसे विदा ली।

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट की यथासंभव मदद करें।

3 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

लोकप्रिय खबरें