Sunday, May 19, 2024
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इस एक बात पर दुनिया से जंग जारी है

दूसरा हिस्सा गोरखपुर में पदस्थापना अगस्त दो हजार आठ में हुई तो वसीम साहब से मुलाक़ात के कई अवसर मिले। बरेली आने-जाने का मौक़ा सरकारी कारणों से भी मिलता ही रहा। वे बरेली में होते तो उनका सान्निध्य ज़रूर हासिल होता। ऐसे ही एक सरकारी दौरे के समय जब हमलोग संरक्षा आडिट में गये थे […]

दूसरा हिस्सा

गोरखपुर में पदस्थापना अगस्त दो हजार आठ में हुई तो वसीम साहब से मुलाक़ात के कई अवसर मिले। बरेली आने-जाने का मौक़ा सरकारी कारणों से भी मिलता ही रहा। वे बरेली में होते तो उनका सान्निध्य ज़रूर हासिल होता। ऐसे ही एक सरकारी दौरे के समय जब हमलोग संरक्षा आडिट में गये थे – शाम को जश्ने-वसीम में शामिल होने का सुअवसर मिला। उनके तमाम चाहने वालों में डा॰ हाशमी सुरमावाले भी थे जो आयोजन के प्रमुख थे। उस रोज़ वसीम साहब की तबीयत ठीक नहीं थी फिर भी वे थोड़ी देर के लिए आये। शाइरी से बढ़कर उनकी तक़रीर ने लोगों को बहुत मुतासिर किया। ऐसे कई मौकों पर उनकी कविता के अलावा उनकी तक़रीर में सच्चाई और जनवादी स्वर सुनता आया हूँ। अच्छे कवियों और नामचीन शायरों से मिलने का यह अच्छा अवसर था।

एक बार देवरिया महोत्सव के आयोजन में शिरकत के सिलसिले में प्रोफेसर साहब का गोरखपुर  आना हुआ। तय यह हुआ कि गोरखपुर से सड़क मार्ग से चलकर हम लोग सीधे कार्यक्रम स्थल पर पहुँचेंगे। उनके साथ कविता पाठ  के लिए गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र को आमंत्रित किया गया था। हम लोग समय से पहुँच गये तथा कार्यक्रम के प्रथम सत्र में वसीम साहब एवं बुद्धिनाथ जी ने अपनी-अपनी रचनाएँ सुना लीं। द्वितीय सत्र की शुरुआत होनी थी कि प्रो॰ साहब ने मुझे बुलाये जाने का इसरार किया। तय कार्यक्रम के अनुसार मुझे काव्य-पाठ नहीं करना था। आयोजक असमंजस में थे, किन्तु उनके सामने किसी की नहीं चली। बहरहाल हमने दस मिनट का समय लेकर कुछ शेर सुनाए। आयोजक मंडल को महसूस हुआ कि यह कोई बेजा पैरवी नहीं थी। तब से लेकर अब तक; देवरिया के आयोजकों में मुख्य डा॰ संजय को यदि पता चल जाय कि मेरा उधर आना हो रहा है, तो वे मुलाक़ात के लिए अवश्य आ जाते हैं। उस यादगार कार्यक्रम को सोचकर वे सारे चित्र ज़हन में उभर आते हैं जिसमें वहाँ के प्रबुद्ध समाज ने उच्च साहित्कि परम्पराओं को पसंद करने तथा ज़िन्दा रखने की ग़वाही दी।

हावड़ा पोस्टिंग के दौरान वसीम साहब से कई मुलाक़ातें हुईं, ज़्यादातर हावड़ा की तरफ आते-जाते होने वाली यात्राओं के दौरान तथा स्टेशन पर ही जाकर। इधर अप्रैल महीने में उन्हें बलिया के एक प्रोग्राम में उनका आना हुआ। उनका आग्रह था कि मैं भी साथ चलूँ। वहाँ के कुछ नौजवानों तथा बी.एच.यू. हिन्दी विभाग के छात्रों ने अपने पूर्व विद्यालय में इस कवि सम्मेलन और मुशायरे का आयोजन किया था। मेरे पास आयोजकों का टेलीफोन भी आया था। बारह अप्रैल दो हज़ार पन्द्रह की शाम, बक्सर तक की ट्रेन यात्रा में हमलोग एक साथ थे। बक्सर से बलिया तक सड़क वाहन से यात्रा करते हुए लगभग नौ बजे शाम मुशायरे में पहुँच पाये। वहाँ पर राजस्थान से आए गीतकार डा॰ रमेश शर्मा, कवयित्री दीपिका माही, व्यंग्यकार संपत सरल तथा कानपुर के कवि प्रमोद तिवारी भी हमारे साथ थे। यह काव्य संन्ध्या रात एक बजे तक चली। वसीम साहब को लोगों ने जी-भर सुना। हमारी वापसी भी सड़क वाहन तथा ट्रेन द्वारा हुई। इस यात्रा में वसीम साहब के साथ लगातार चौबीस घंटे रहने का सौभाग्य मिला। पाँचों वक़्त के नमाज़ी, अल्प-भाषी तथा खाने-पीने में विशेष एहतियात बरतते हुए, पचहत्तर साल की उम्र पार करने के बाद भी वे मंचों की जीवन्तता को अपनी सक्रियता का आशीर्वाद दे रहे हैं। उनके सरल व्यक्तित्व तथा फ़कीराना अन्दाज़ का मुरीद हो जाना कोई अजूबा नहीं है। उनका मानवीय सरोकार, उनके एक-एक शेर से ही नहीं उनके एक-एक लफ़्ज से बोलता है। बलिया से लौटकर शाम लगभग छः बजे मुगलसराय के पत्रकारों से मुलाक़ात का कार्यक्रम तय था। साम्प्रदायिकता के प्रश्नों का जवाब देते हुए, जो सुझाव उन्होंने दिए वे क़ाबिले-ग़ौर हैं।

[bs-quote quote=”वे कहते हैं कि यदि भारत को साम्प्रदायिकता के ख़तरों से बचाना है तो भिन्न धर्म की महिलाओं का आपसी मेल-जोल ज़रूरी है। चूँकि बच्चे की परवरिश में माँ का अहम रोल होता है, अतः उसके ज़हन से जब तक साम्प्रदायिकता का ज़हर या अन्य मज़्हबों के बारे में भ्रम एवं ग़लतफ़हमी को दूर नहीं किया जाता; बच्चों के दिमाग़ों को साम्प्रदायिक संक्रमण से बचाया नहीं जा सकता। इसलिए उन्होंने ऐसे मेले, ऐसे आयोजन करने पर बल दिया जिसमें भिन्न धर्म की महिलाएं लम्बे समय तक साथ रहें।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

बार-बार साथ रहकर एक दूसरे से घुले-मिलें, साथ उठें-बैठें तथा बात-चीत करें। मात्र इतने से ही बहुत सी ग़लतफ़हमियाँ दूर हो सकती हैं। यश भारती पुरस्कार में मिली ग्यारह लाख की धन राशि का आधा भाग उन्होंने इस काम के लिए कार्यरत संस्था को दान कर दिया है ताकि साम्प्रदायिक सद्भाव बनाने का अहम काम पूरा किया जा सके।

इसी साल मई महीने में उनका दूसरा कार्यक्रम दैनिक जागरण महोत्सव के लिये लगा था। लगभग एक हफ्ते तक चलनेवाले कवि-सम्मेलन तथा मुशायरे क्रमशः भभुआ, सासाराम, औरंगाबाद, गया, बख्तियारपुर तथा बलिया में आयोजित थे। भभुआ के पहले प्रोग्राम में हम साथ-साथ थे। बाद में कुछ व्यस्तताओं के कारण मुझे उनके साथ रहने का मौका हाथ से गँवाना पड़ा। सप्ताह के आख़िरी दिनों में, 23 मई को वे लौटकर मुगलसराय आए। मुगलसराय के बंगला सं0 42 में सायंकाल, उनकी शान में एक कार्यक्रम शाम-ए-वसीम का आयोजन हुआ, जिसमें मुगलसराय के स्थानीय कवियों को भी भाग लेने हेतु आमंत्रित किया गया था। जिसमें सहर क़ाज़मी, तारिक मसूद, अलाउद्दीन, डा॰ ख़ालिद वकार, जुबैर अहमद, गुलाम जीलानी, दिनेश चन्द्रा, डा॰ अनिल यादव आदि कवि-शायर तथा प्रबुद्ध नगारिक थे। आमन्त्रित श्रोताओं के सामने एक संक्षिप्त कार्यक्रम में वसीम साहब के गीत-ग़ज़ल सुनकर श्रोता-भाव विभोर हो उठे। ऐसी यादें प्रायः अपना अस्तित्व दिल में बना लेती हैं तथा बार-बार एक ठंडे झोंके की तरह इस तपते समय में दिल को सुकून देती हैं। इस तरह, उनके व्यक्तिगत पहलू की कुछ झलक मिलती है जो उनकी साहित्यिक भूमिका में बराबर की साझेदार है।

व्यक्तिगत मुलाक़ातों में वसीम बरेलवी की शाइरी का जो रंग दिलो-दिमाग़ पर चढ़ा उसके कुछ पहलू सामने रखे बिना यह चर्चा शायद अधूरी रह जायेगी। इंसानियत के लिए, जो जज़्बा जो तड़प, जो छटपटाहट, जो बेचैनी और कुछ कर गुज़रने की लालसा, इच्छा और धुन बरेलवी साहब की शायरी में मौजूद है, कदाचित वह अन्यत्र दुर्लभ है। उनका फ़िक्रो-फ़न केवल फ़न की बारीकियों की नुमाइंदगी ही नहीं करता, बल्कि वह इन्सानियत की मज़बूरियों और बेकस मज़लूम जनता की बेचारगी की तरजुमानी करता उसके लिए नई सर ज़मीन तलाशता है।

सीम साहब ने वर्ष 1962 में बरेली कॉलेज में उर्दू विभाग में प्रवक्ता के पद पर ज्वाइन किया था और यहीं से वर्ष 2000 में विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए थे। आखिरी दो वर्षों में वे रुहेलखण्ड वि.वि. के कला संकाय के डीन भी रहे। मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन नेशनल काउन्सिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज नामक संस्था के वाइस चेयरमैन (वर्ष 2011-2014 के दौरान ) रहे वसीम बरेलवी की अब तक प्रकाशित सात ग़ज़लों की किताबों में (1) तबस्सुम-ए-गम (2) आँसू मेरे दामन तेरा (3) मिजा़ज़ (4) आँख आँसू हुई (5) मेरा क्या (6) आँखो आँखों रहे तथा (7) मौसम अंदर बाहर के अब तक साहित्य जगत की पूँजी बन चुकी हैं। सबसे नई किताब मेरा क्या हाल ही में देवनागरी में प्रकाशित हुई है जिसमें चुनिन्दा बेहतरीन ग़ज़लों को संकलित किया गया है। हर एक ग़ज़ल और हर एक शेर नये अन्दाज़ में पाठक से गुफ़्तगू करते हुए अन्तरतम में जगह बना लेता है। हिन्दी पाठकों के लिए यह एक सुखद संयोग है कि उन्हें हिन्दी-उर्दू की गजलें देवनागरी में उपलब्ध हैं जो निश्चित रूप से हिन्दी जगत की सम्पदा बढ़ा रही हैं।

उनके शेर ही उनके सम्पूर्ण जीवन-जगत की सच्चाई और उनके फ़लसफ़े को बयान करने के लिए पर्याप्त हैं –

                               जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा

                              किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता।

वह किसी रवायत के पाबन्द न होकर जिन नये बिम्बों और प्रतीकों के ज़रिये असर पैदा करते हैं वे साधारण एहसास से परे होते हुए भी साधारणता के ही पैरोकार हैं। शायरी की यह रौशनी आज राष्ट्रीय एवं अन्र्तरष्ट्रीय स्तर पर अपना परचम लहराये हुए है। बहरहाल शायर की चिन्ता आम आदमी के अँधेरों के लिए है और वे रौशनी की जुस्तुजू में अपनी नींदें, अपने सपने – लोक जीवन के हवाले करके उनके सुख-दुःख में साझीदार बनते हैं।

वसीम बरेलवी ऐसी शख़्सियत का नाम है जो हर छोटे-बड़े से झुक कर मिलता है केवल लफ़्जों की दुनिया में ही नहीं वरन हक़ीक़त की दुनिया में भी —

           ख़ाक-ए-पा होके मिलो, जिससे मिलो, फिर देखो

           इस बुलन्दी से तुम्हें कौन उतरने देगा।

और उसने ’मैं’ को दूर धकेल दिया है, घमण्ड और अहंकार की परछाई को पास तक फटकने नहीं दिया है। जो इंसान – इंसान के बीच तेरा, मेरा, ज़ात-पात और मज़हब की दीवार ढहाकर प्यार बाँटता चलता है, जो सच्चाई ईमानदारी और शराफ़त की हिफ़ाजत करता चलता है, उसी के नगमे, उसी के नग़में, उसी के गीत गाता, खुशियाँ बिखेरता चलता है, ऐसे शख्स के आगे श्रद्धावनत मन उसकी सहजता, सरलता, सादगी, दिलदारी और बेबाक़ बयानी का ख़ुद क़ायल हो जाता है। साथ ही साथ उसकी खुद्दारी कहीं भी ज़ोर ज़बरदस्ती या दौलतो-ताक़त के सामने ज़रा भी झुकने नहीं देती।

उनके शेरों में जो आध्यात्म और भारतीय दर्शन का पुट होता है, उसे भुला पाना सम्भव नहीं होता। वे शान्ति तथा अम्न को उसूलों से टकराने नहीं देते बल्कि उन सिद्धांतों को समाज के लिए गढ़ते हैं जिससे आपसी भाई-चारे तथा आत्म सम्मान के साथ जीने का वातावरण बन सके –

                                       उसूलों पर अगर आँच आये टकराना ज़रूरी है।

                                    जो ज़िन्दा है तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है।

वे, बल्कि उसूलों पर आँच आते ही टकरानें की ज़रूरत को आत्म-सम्मान की पहली ज़रूरत बताते हैं। आदमी के भीतर के आत्म-गौरव या ख़ुद्दारी से यह पता चलना चाहिए कि वह वाक़ई ज़िन्दा है अर्थात जागृत है। केवल साँस लेते हुए चलते-फिरते जिस्म से ही ज़िन्दगी का कोई माइने नहीं रह जाता। उनके शेर इतनी सादगी से बड़ी-बड़ी बातें कर जाते हैं कि पाठक को तथाकथित साहित्य की उलझाव भरी भाषा में डाले बिना भावों का यथार्थ आसानी से समझ में आ जाता है-

                            जायदादें कहाँ बँटी उनमें

                           जायदादों में बँट गये भाई

उनके कई शेर तो आम जन में इस तरह प्रचलित हैं कि सामाजिक जीवन का हिस्सा बन गए हैं। उनके ऐसे बहुप्रचलित शेरों में उनके व्यक्तित्व की ही तर्जुमानी नज़र आती है। उनका सच्चा शेर कि –

                      वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके़ से

                   मैं एतबार न करता तो और क्या करता

आसान भाषा में बोलता यह शेर एक साथ कई व्यंजनाएँ साथ लेकर उपस्थित होता है -झूठ बोलने का सलीका तथा एतबार करने की मज़बूरी का संश्लेषण अदभुत है। एक झूठ के प्रपंच की ऊँची पहुँच जो छद्म एतबार पैदा करा लेने की हद तक भारी हो जाता है। उनके कई शेर व्यंग्यात्मक संकेतों के ज़रिएदिलो-दिमाग़ को बहुत देर तक अपने असर में रखते हैं। एक और उदाहरण देखें –

                             उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में

                            इधर का लगता  रहे और उधर का हो जाये

इस तरफ़ का लगते रहना और उस तरफ़ का हो जाना – यह ऐसा कथन है जो मुहावरा बन जाता है। नकली चेहरों के किरदार के कामयाबी की यह अकेली दास्तान नहीं है। शायर ने झूठ के खि़लाफ़ अपनी कलम की तलवार उठा रखी है और बार-बार दौरे-हाज़िर की मक्कारी को बेनक़ाब करता चलता हैं। बार-बार ग़रीबों-मज़्लूमों के पक्ष में खड़े होने की ग़वाही देते हुए पूँजीवादी शोषण-व्यवस्था को चुनौती उनके लेखन में भरी पड़ी है। उनके शेरों में जो चीज़ बार-बार व्यक्त होती है, वह है भारतीय संस्कृति और सभ्यता को बचाये रखने का आवाहन।

कविता या शाइरी भी आत्म-साधना का ही दूसरा नाम है। जहाँ साधना नहीं होगी वहाँ लफ़्फ़ाजी और तुकबन्दी तो हो सकती है किन्तु शायरी नहीं हो सकती। शायरी का नाम इबादत और इबादत का नाम शायरी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसका जीता जागता ऐतिहासिक प्रमाण है कि भारत में जितने भी सूफ़ी-सन्त हुए, उनका आध्यात्मिक रास्ता उनकी वाणियों के ज़रिए ही तय हुआ है – या यूँ कहें कि आध्यात्म के लिए इस शब्द-साधना की पहली सीढ़ी चढ़नी ही होती है। शायरी में व्यक्त विचारों और आदर्शों को निजी जीवन में बिना प्रमाणित किए न तो जीवन की सार्थकता होगी न सच्ची शायरी की। इस लिहाज से वसीम साहब का व्यक्तित्व और कृतित्व आपस में इतना घुला-मिला है कि किसी एक को पढ़ लें तो दूसरा स्वतः ही समझा जा सकता है। उनकी आध्यात्मिक सोच कहीं से भी रूढ़िवादी दलदल में नहीं फँसती। उनके यहाँ परम्परा तो है किन्तु जड़ता नहीं है। आधुनिकता है तो फूहड़पन नहीं है। वहाँ गाँवों की सादगी, मासूमियत और भोलापन उनकी साफ़-सुथरी ज़िन्दगी की सच्चाई का प्रतीक बनता है न कि उनकी ग़रीबी और दरिद्रता को महिमा-मंडित करता हुआ उन्हें यथास्थिति में बनाये रखने का उपक्रम बनकर उभरता है। सच्चाई और सादगी से रहितआधुनिकता को वे उसी प्रकार नंगा करते हैं जैसे  किसी कूडे़-कचरे के ढ़ेर को सफाई के लिए उघाड़ा जाए।

[bs-quote quote=”उनके यहाँ परम्परा तो है किन्तु जड़ता नहीं है। आधुनिकता है तो फूहड़पन नहीं है। वहाँ गाँवों की सादगी, मासूमियत और भोलापन उनकी साफ़-सुथरी ज़िन्दगी की सच्चाई का प्रतीक बनता है न कि उनकी ग़रीबी और दरिद्रता को महिमा-मंडित करता हुआ उन्हें यथास्थिति में बनाये रखने का उपक्रम बनकर उभरता है। सच्चाई और सादगी से रहितआधुनिकता को वे उसी प्रकार नंगा करते हैं जैसे किसी कूडे़-कचरे के ढ़ेर को सफाई के लिए उघाड़ा जाए।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

जीवन के राग-द्वेष को एक साथ साधे हुए, उसे व्यावहारिक धरातल पर जीने का सामान बना कर वेअपने जन-कल्याण के मिशन में लगे हुए हैं।

शाइरी को साधना की तरह जीते हुए, उम्र के आठवें दशक में भी वे उर्दू मुशायरों की आबरू बचाए रखने में अपनी पूरी जीवनी-शक्ति लगाये हुए हैं। मजबूत साहित्यिक और सामाजिक विचारधारा को स्थापित करते हुए उनका ज़्यादातर लेखन केवल शाइरी के नाम ही रहा है, फिर भी वे निर्बल और मज़्लूम आम-जन को न्याय दिलाने की लड़ाई में इसी शाइरी को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं।

लोक-जीवन की व्यथा-कथा, उसकी जद्दो-जहद, जिन्दगी के उतार-चढ़ाव, उँचाइयों और पस्तियों को अपनी निस्पृह नज़र से तोलते, हक़ीक़त बयानी करते हुये, वे रिश्तों की बेवफ़ाई और बेइख़्तियारी को लानत भेजते हैं। वे सहज सादगी के प्रतीक इंसानियत के प्रबल पक्षधर हैं जिनकी शायरी पाठक या श्रोता के तन-मन को स्पंदित ही नहीं करती, वरन् उसे हिलाती-झकझोकरती और जगाती चलती है। यही कारण है कि उनकी शायरी केवल हिन्दी-उर्दू की धरोहर नहीं बल्कि आज दुनिया की धरोहर बन चुकी है। शायरी की इजहारिया कुव्वत, उसकी आम बोलचाल की भाषा और रोज़मर्रा के मसअलों पर गुफ़्तगू करता उनका साहित्य, उन्हें अन्य साहित्यकारों से अलग तथा विशिष्ट बनाता है। लफ़्फ़जी और गल्प उनकी शायरी का हेतु नहीं है। उनकी शायरी बनावटी और सतही भावों से अलग, सहज होकर; समस्याओं को पूरी तरह उभारती हुई उन्हें जनता के सामने बड़ी शिद्दत से पेश करती है।

लगभग पिछले पाँच दशकों से राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर एक चमकते हुए नक्षत्र की भाँति वे भारतीयता के उन्नायक, पोषक एवं क़ौमी एकता के संवाहक बने हुए हैं। इस देश की मिट्टी की सोंधी सुगन्ध के दीवाने, दलित शोषित जनता के प्रखर प्रवक्ता, पवित्र-प्रेम में रसासिक्त, भारतीय आदर्शो को नई उँचाई देते, जन-गण-मन में राष्ट्रीयता की भावना भरते सच्चाई की शुचिता का आदर्श स्थापित करते, आसमानी सपनों को ज़मीन पर उतारने की आशा का संचार करते, नकली चेहरों को बेनक़ाब करते, निर्भीक, निस्पृह, निरपेक्ष, निःस्वार्थ, निद्र्वन्द्व एवं निष्पक्ष दृष्टि के स्वामी हर किसी से दिल खोलकर मिलते, मानवीय संवेदनाओं को ग़ज़लों में उकेरते, लोक-जीवन की मर्यादा एवं प्राकृतिक जीवन-पद्धति के चितेरे, उर्दू-हिन्दी की गंगा-जमुनी तहजीब की जीती जागती मिसाल, मोहतरम प्रोफेसर वसीम बरेलवी कोई नाम नहीं बल्कि भारतीय सर-ज़मीन पर सच्चाई के पक्ष में एक संघर्ष का नाम है।

बी॰आर॰विप्लवी जाने-माने शायर और आलोचक हैं। रेलवे की नौकरी से रिटायर होकर लखनऊ में रहते हैं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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