Tuesday, October 15, 2024
Tuesday, October 15, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमविचारसिलीकान बेस्ड उत्पाद से जुड़ी पूंजी का पूरा चरित्र ही बदल गया...

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

सिलीकान बेस्ड उत्पाद से जुड़ी पूंजी का पूरा चरित्र ही बदल गया है

डा. राजेश्वर सक्सेना की वैचारिकी का प्रभाव बौद्धिक जगत में व्यापक रूप से पड़ा है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में वे अपनी वैचारिकी के कारण चर्चा का विषय रहे हैं। उन्होंने साहित्य, संस्कृति, राजनीति, आर्थिक, सामाजिक, मानविकी, सौन्दर्य शास्त्र, भाषा शास्त्र, दर्शन के अलावा आधुनिक और उत्तर आधुनिकता पर खुलकर अपने विचार रखे हैं। उनके विचार […]

डा. राजेश्वर सक्सेना की वैचारिकी का प्रभाव बौद्धिक जगत में व्यापक रूप से पड़ा है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में वे अपनी वैचारिकी के कारण चर्चा का विषय रहे हैं। उन्होंने साहित्य, संस्कृति, राजनीति, आर्थिक, सामाजिक, मानविकी, सौन्दर्य शास्त्र, भाषा शास्त्र, दर्शन के अलावा आधुनिक और उत्तर आधुनिकता पर खुलकर अपने विचार रखे हैं। उनके विचार द्वंद्ववादी ज्ञान मीमांसा के पक्ष में तर्क जुटाते हैं जो ठोस और अकाट्य होते हैं। आज के उत्तर आधुनिक दौर में जो गैर द्वंद्ववादी, गैर राजनीतिक आभासी दुनिया खड़ी की गई है उसके पीछे छुपी ताकतों को सामने लाते हैं जो मनुष्य को गुलाम बनाए रखना चाहते हैं। ये वही शक्तियां हैं जो दूसरे महायुद्ध के बाद ब्रेटनऊड में बैठकर दुनिया को लूटने के नये तरीके तलाश रहे थे। तब सोवियत संघ के हस्तक्षेप से उनके मंसूबे पूरे नही हुए, तब सोवियत संघ के विघटन के बाद इन्होंने जश्न मनाया। वे फिर मिले और एक नया वर्ल्ड आर्डर घोषित किया जो वाशिंगटन सहमति पत्र के नाम से प्रचारित किया गया। हम जिसे ग्लोबलाइजेशन कहते हैं, नव उपनिवेशवाद कहते हैं या नई अर्थ व्यवस्था वह वाशिंगटन सहमति पत्र के ही नाम हैं। मजे की बात तो यह है कि इस सहमति पत्र पर दुनिया के किसी देश के राष्ट्राध्यक्षों के हस्ताक्षर नहीं हैं। इसमें हस्ताक्षर हैं वाल स्ट्रीट में स्थित तीन बड़ी आर्थिक संस्थानों के संस्थाध्यक्षों के जिनके नाम है वर्ल्ड बैंक, इंटरनेशनल मानीटरी फंड और वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन। इनका ग्लोबलाईजेशन बिना ग्लोबल गवर्नमेंट के, निरंकुश आज भी जारी हैं। आज दुनिया को इनकी नई अर्थ व्यवस्था नियंत्रित कर रही है। कह सकते हैं कि दुनिया राजनीति विहीन हो गई है। दुनिया द्वंद्व रहित हो गई है। ये जो जानकारी दर्ज की गई है वे सब डाॅ. राजेश्वर सक्सेना की किताब उत्तर आधुनिकता और द्वंद्ववाद में बिखरी पड़ी है।

सोवियत संघ के टूटने के बाद प्रगतिशील तबके को झटका लगना स्वाभाविक था। कई तो अवसाद में चले गये। कई मौन हो गये। कइयों ने पाला बदल लिया। डॉ सक्सेना भी महीनों बेचैन रहे, फिर भी उनका मनन जारी था। यही वह दौर था जब डाॅ. सक्सेना इस टूटन और विघटन की पड़ताल करते हैं। दुनिया भर से किताबें-पेपर्स मंगाकर मथ डालते थे तब वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि दूसरे महायुद्ध के बाद ब्रेटनऊड में कथित ताकतों ने ये मंसूबा बना किया था कि सोवियत संघ हमारे रास्ते का कांटा है। उसके रहते हम अपनी विश्व पर शासन करने की इच्छा पूरी नही कर सकते हैं। वे खुद से पूछते हैं कि वह जमीन कौन-सी है, जिसमें सामाजिक संबंध हमेशा मन ऐतिहासिक रहते है? वह जमीन कौन-सी है, जहां विज्ञान कोई रचनात्मक अर्थ नही ले पाता?

डॉ राजेश्वर सक्सेना एकाग्र कार्यक्रम में वक्तव्य देते मुमताज़ भारती (फोटो-गूगल)

डाॅ. सक्सेना इस जमीन को चिन्हांकित करते हैं, जहां कोई इतिहास नहीं, कोई सांस्कृतिक परम्परा नहीं, अगर कोई इतिहास है तो वह है बर्बरता का जिसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उस जमीन के स्वाभाविक उत्तराधिकारी, अजटेक और इंका जनजातियों के नरसंहार का। इस जाति विनाश पर औपनिवेशक एजेंटों ने जश्न मनाया। यह जाति विनाश सोने की लालच में किया गया। यह व्यापार और भौगोलिक खोजों का युग था। यह जमीन जिसे आज अमेरिका के नाम से जानते हैं कभी इंग्लैंड का उपनिवेश था जहां गुलामों का व्यापार होता था। इसी जमीन पर पहली बार नस्ल का मिथक गढ़ा गया। श्रेष्ठ नस्ल और निम्न नस्ल जिनके ऊपर हुकूमत की जा सकती है। ईश्वर ने गोरी जातियों को काली जातियों पर शासन करने के लिए रचा है।

यह सब ईश्वर द्वारा प्रायोजित है, जिसे बदला नहीं जा सकता। यह विचार प्रयोजनवाद के रूप में अमेरिका के गोरे शासकों व व्यापारियों और नागरिकों के स्वभाव का ही हिस्सा बन गया। आज यह नव प्रयोजनवाद के नाम से जारी है। यह नई वित्तीय पूंजी का नव उपनिवेशी स्वरूप है जिसकी गिरफ्त में दुनिया के अविकसित और विकासशील देश फंसे हुए हैं।

डाॅ. सक्सेना ने अपनी पुस्तक उत्तर आधुनिकता और द्वंद्ववाद पर विस्तार से प्रकाश डाला है। वे लिखते हैं कि यह समय अमेरिकन अर्थक्रियावाद या अपने एक विशेष अर्थ में अमेरिकन बाजार की व्यवहारिक विशेषताओं को संवादित करने वाले विचार दर्शन (प्रेग्मैटिज्म) के परवर्ती विकास का और उत्तर आधुनिक नव्यक्रियावाद (न्यू प्रैग्मेटिज्म) के आधिपत्य का है।

यह भी पढ़ें…

कैसे डॉ. अंबेडकर ने मेरी जीवनधारा बदली

(न्यू प्रैग्मेटिज्म) आधुनिक संकेत विज्ञान वाला है। यह निर्मिति मूलकवादी है। सामान्य अर्थ में यदि प्रैग्मेटिज्म बीसवीं सदी के आरंभिक दौर में व्यवहारिक मनोविज्ञानवाद का, आइन्स्टाइन, अणु विज्ञान और हैवी इडंस्ट्री के युग का, फोर्डडियन अर्थशास्त्र के युग है तो न्यू प्रैग्मेटिज्म विशेषकर, गोर्डनमूर की सिलीकान बेस्ड तकनीकी क्रांति का है। यह थैचरवादी रीगनवादी अर्थशास्त्र के दौर का है। इस न्यू प्रैग्मेटिज्म की भौतिक परिस्थिति का खुलासा आज की सूचना प्रौद्योगिकी और जैव प्रौद्योगिकी से होता है। अब तो सिलिकस चिप्स की लघु या सूक्ष्म प्रक्रिया-गतिकी (माइक्रो-प्रोसेसिंग) ही उत्पादन का मुख्य साधन है। इस सिलीकान बेस्ड उत्पाद से जुड़ी पूंजी का तो संपूर्ण चरित्र ही बदल गया है। इस पूंजी के प्रतिवर्त और परावर्त भंग हो गये हैं। आज की वित्तीय पूंजी में कोई परावर्तनीयता नहीं दिखाई देती, वह कोई नया संबंध पैदा नही करती। अमेरिकन मूल के इस नये प्रैग्मैटिज्म के दौर में विज्ञान के वैचारिक और दार्शनिक मन्तव्य ध्वस्त हो गये हैं। यह दुनिया जटिलताओं की विकास प्रक्रिया में होते हुए भी सपाट-सी दिखाई देने लगी है।

[bs-quote quote=”डाॅ. सक्सेना इस जमीन को चिन्हांकित करते हैं, जहां कोई इतिहास नहीं, कोई सांस्कृतिक परम्परा नहीं, अगर कोई इतिहास है तो वह है बर्बरता का जिसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उस जमीन के स्वाभाविक उत्तराधिकारी, अजटेक और इंका जनजातियों के नरसंहार का। इस जाति विनाश पर औपनिवेशक एजेंटों ने जश्न मनाया। यह जाति विनाश सोने की लालच में किया गया। यह व्यापार और भौगोलिक खोजों का युग था। यह जमीन जिसे आज अमेरिका के नाम से जानते हैं कभी इंग्लैंड का उपनिवेश था जहां गुलामों का व्यापार होता था। इसी जमीन पर पहली बार नस्ल का मिथक गढ़ा गया। श्रेष्ठ नस्ल और निम्न नस्ल जिनके ऊपर हुकूमत की जा सकती है। ईश्वर ने गोरी जातियों को काली जातियों पर शासन करने के लिए रचा है। ” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

यह समय वित्तीय पूंजी (वाद) और बाजार (वाद) की शक्ति का है। इस समय में उत्पादन संबंधों की हर ज्ञान मीमांसा भंग हो गई है। सिर्फ शक्ति सम्बंध ही शेष रह गया है। यह अति यथार्थ और अभाषी यथार्थ (हाइपर रियल और वर्चुअल रियल) की तकनीकी सोच का गठन करने वाले ज्ञान समाज का समय है।

इस तरह यह लोक समाज और ज्ञान समाज की शत्रुता का समय है। अब इन दोनों सभाओं के आपसी रिश्तों में कोई द्वंद्वात्मकता शेष नही रह गई है। दोनों में जो एक साकल्यवाद (हालिस्टक) भाष्य विषयकता को बीच में लाया जा रहा है, उससे तो केवल संरचनावादी नृविज्ञान (लेवीस्ट्रास) की कोटियों में पहुंच पाना ही संभव हो सकता है। स्पष्ट है कि इस तरह की भाष्यविषयिकता में इतिहास विखंडित हो जाता है। इतिहास के ऐसे विखंडन को खुलापन कहा जाता है। इतना ही नही इसे भाषा में मुक्ति के एक फलसफे की तरह देखा जाता है।

यह भी पढ़ें…

दर-दर पानी के लिए भटकते ग्रामीण

यह समय, नीत्शेय्यन-फूकोल्डियन वंशक्रम (जैनियालाजी) के आचार व्यवहार की व्यवस्था का है। इस समय में जीवन की स्थितियों का सिर्फ वर्टिकल प्रेक्षप ही संभव है। क्षैतिज के बारे में हर भौतिक सोच विखंडित हो गई है। पूर्व और पार्श्व के विस्तार ध्वस्त हो गये हैं। यह जैनियालाजी विकास के विचार से बिचकती है। इसलिए हमारा मानना है यह है कि एक आत्महंता समय है, एक मानवहंता समय है। इस समय रथ का सारथी है अमेरिका। इस समय-रथ में विराजमान है, विकसित राष्ट्र, शेष सभी राष्ट्रों के साथ महा समर जारी है। इस समय में पूरी दुनिया के पिछड़े हुए और विकासशील राष्ट्रों की जिंदगी और मौत का युद्ध जारी है। गुलाम बनाने और शोषण करने वाली शक्तियों के हौसले बुलंद हैं। उनकी विजयों का सिलसिला जारी है, ऐसे में मानव मुक्ति की सभी ज्ञान मीमांसाओं को तोड़-फोड़ कर फेंक दिया गया है।

दर्शन की आंख से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इस समय का मूलभूत अंतर्विरोध विचारधारा बनाम वंशक्रम- (जैनियालाजी) का है। स्पष्ट है कि इन दोनों के अंतर्विरोध को खोले बगैर नया रास्ता नहीं पकड़ा जा सकता, कोर्ट द्वारा सकारात्मक कदम नहीं उठाया जा सकता। पता नहीं क्यों, आज के द्वंद्ववादी इस अंतर्विरोध की जगह को पहचानने से बचते दिखाई देते हैं?

जहां तक इस किताब का सवाल है, यह तो इस समय की आलोचना के वास्ते द्वंद्ववाद जीवितम का प्रतिपादन करती है। आज के विज्ञान और आज की टेक्नोलॉजी के इस विराट समय में यह किताब द्वंद्ववादी ज्ञान मीमांसा के पक्ष में तर्क जुटाती है। इस तरह डाॅ. सक्सेना की वैचारिकी मानव केन्द्रित है और मनुष्य को बेहतर बनने से प्रेरित करती व जातियों और सम्प्रदाय में बंटा समाज बंधुत्व का संदेश देती है। उनकी वैचारिकी उन ताकतों का विरोध करती है जो समाज में भेदभाव और असानता को बनाए रखना चाहती है।

मुमताज़ भारती चिंतक एवं विचारक हैं और वर्तमान में रायगढ़ में रहते हैं ।

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here