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बाकी है अभी सामाजिक न्याय की निर्दिष्ट परिभाषा!

14 अप्रैल से अम्बेडकर जयंती माह शुरू होता है, जो सामान्यतया मई के दूसरे सप्ताह तक जारी रहता है। इस दरम्यान पूरे देश में हर्षोल्लास के साथ आंबेडकर जयंती मनाने के साथ सामाजिक न्याय पर असंख्य संगोष्ठियां आयोजित होती हैं, जिनमें सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने का संकल्प लिया जाता है। यह चलन हर वर्ष […]

14 अप्रैल से अम्बेडकर जयंती माह शुरू होता है, जो सामान्यतया मई के दूसरे सप्ताह तक जारी रहता है। इस दरम्यान पूरे देश में हर्षोल्लास के साथ आंबेडकर जयंती मनाने के साथ सामाजिक न्याय पर असंख्य संगोष्ठियां आयोजित होती हैं, जिनमें सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने का संकल्प लिया जाता है। यह चलन हर वर्ष बढ़ता ही जा रहा है। इस वर्ष भी आंबेडकर जयंती माह में देश के कोने-कोने में सामाजिक न्याय पर असंख्य संगोष्ठिया हुईं और सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने का संकल्प लिया गया। बहरहाल, बहुजन बुद्धिजीवी सामाजिक न्याय के लड़ाई की बात तो समय-समय पर जरुर उठाते हैं, पर मुझे लगता है कि सामाजिक न्याय के लड़ाई की बड़ी- बड़ी घोषणाओं के बावजूद हमारे बुद्धिजीवी इसकी एक निर्दिष्ट परिभाषा सामने नहीं ला पाए हैं। इसलिए गत 7 मई को पटना में सामाजिक न्याय के मुद्दे पर आयोजित होने जा रहे एक ऐतिहासिक सम्मलेन को दृष्टिगत रखते हुए मैंने 5 मई को फेसबुक पर एक पोस्ट डालकर ‘सामाजिक न्याय’ की निर्दिष्ट परिभाषा सामने लाने का आह्वान किया। मैंने उस पोस्ट में लिखा था, ‘भूरि 2 इस्तेमाल होने वाले ‘सामाजिक न्याय’ की मेरे ख्याल से अबतक एक निर्दिष्ट परिभाषा सामने नहीं आई है। आमतौर पर इसका आशय सत्ता की संस्थाओं में प्रतिनिधित्व अर्थात आरक्षण से लगाया जाता है। क्या सामाजिक न्याय सत्ता के संस्थाओं में भागीदारी तक सीमित है या इसका दायरा और व्यापक है?’ इस पोस्ट को डालने की प्रेरणा मुझे 2018 के अगस्त में दिल्ली के मशहूर कांस्टीट्यूशन क्लब में सामाजिक न्याय पर आयोजित एक संगोष्ठी में मिली निराशाजनक अभिज्ञता थी। उस खास संगोष्ठी में इस लेखक को भी शिरकत करने का अवसर मिला, जिसमें हाईकोर्ट के एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने सामाजिक अन्याय पर एक सवाल खड़ा कर श्रोताओं को विस्मित कर दिया था। मुझे उनकी कही बात आज भी याद है।

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उन्होंने अपनी बात की शुरुआत करते हुए कहा था, ‘हम सभी यहाँ सामाजिक न्याय के सिपाही बैठे हुए हैं। पर, सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ते हुए हमने यह समझने का गंभीर प्रयास ही नहीं किया कि सामाजिक अन्याय था, इसलिए उसे दूर करने के लिए हमें सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। सामाजिक अन्याय के उत्पत्ति के कारण को ठीक से न समझ पाने के कारण ही आज हम सामाजिक न्याय की लड़ाई लगभग हार चुके हैं : सामाजिक अन्यायकारी वर्गों का दबदबा कायम हो चुका है।’ वह एक नया सवाल था, जिसका जवाब सुनने के लिए वर्षों से प्रतीक्षा कर रहा था। मेरा भी दृढ़ विश्वास रहा है कि सामाजिक अन्याय को ठीक से न समझ पाने के कारण ही देश का आरक्षित वर्ग आरक्षण बचाने, निजी क्षेत्र, न्यायपालिका, प्रमोशन में आरक्षण बढ़ाने के नाम पर सामाजिक न्याय की सिमित लड़ाई में व्यस्त रहा और आज शासकों द्वारा साजिश करके सरकारी नौकरिया ख़त्म किये जाने से वह गुलाम वर्ग में तब्दील होने जा रहा है। बहरहाल, सामाजिक अन्याय को लेकर सवाल उठाने वाले विद्वान वक्ता ने इसकी उत्पत्ति का जो कारण बताया। उससे लगा, उन्होंने खुद ही इस पर पर्याप्त चिंतन नहीं किया है। उन्होंने सामाजिक अन्याय का कारण ज्योतिबा फुले की इस कविता-विद्या बिना मति गयी, मति बिना नीति गई; नीति बिना गति, गति बिना वित्त गया; बिना वित्त शुद, इतने अनर्थ एक अविद्या ने किया- में ढूंढते हुए ‘अविद्या’ को ही मुख्य कारण  बताया। अर्थात शासकों द्वारा बहुजनों को अज्ञान बनाकर ही सामाजिक अन्याय को जन्म दिया गया, जिससे निजात दिलाने के लिए बहुजन महापुरुषों ने अपने-अपने स्तर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी। निसंदेह सामाजिक अन्याय की सृष्टि में भारत में वंचित जातियों का शिक्षा के क्षेत्र से बहिष्कार एक अन्यतम कारण रहा। लेकिन सामाजिक अन्याय तो एक वैश्विक परिघटना रही है और भारत से बाहर दुनिया में और कहीं वंचितों को शिक्षा से पूरी तरह बहिष्कृत नहीं किया गया, बावजूद इसके वहां भी सामाजिक अन्याय का अध्याय सृष्ट हुआ। ऐसे में  वंचितों का शिक्षा से बहिष्कार सामाजिक अन्याय का मूल कारण नहीं माना जा सकता। बहरहाल, सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वालों के लिए सामाजिक अन्याय के तह में जाना जरुरी था, जो नहीं किया गया गया: इसकी खासतौर से उपलब्धि उस दिन हमने हाईकोर्ट के विद्वान अधिवक्ता के संबोधन से हुई।

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बहरहाल, अगर भारत में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले नेता, एक्टिविस्ट और प्रोफ़ेसर- जज-वकील इत्यादि सामाजिक अन्याय के मूल को समझने का गंभीर प्रयास किये होते तो पाते कि नस्ल, लिंग, धर्म, भाषा, क्षेत्रादि के आधार पर विभाजित समाज के विभिन्न सामाजिक समूहों में से कुछेक का शासकों द्वारा शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनैतिक-शैक्षिक-धार्मिक इत्यादि) से जबरन बहिष्कार ही सामाजिक अन्याय कहलाता है। इस लिहाज से दुनिया में स्त्री के रूप में विद्यमान आधी आबादी सर्वत्र ही सामाजिक अन्याय का शिकार रही। सर्वाधिक अन्याय के शिकार समुदायों में अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत तथा भारत के बहुजन रहे। यदि मानव जाति के इतिहास के सर्वाधिक वंचित तबकों-प्राचीन रोम के प्लीबीयंस-नाइट्स-दास; यूरोप की सामंतवादी व्यवस्था के कृषक दास, अमेरिका-अफ्रीका इत्यादि के अश्वेत, मलेशिया-न्यूजीलैंड-आस्ट्रेलिया इत्यादि के मूलनिवासियों, भारत के दलित-आदिवासी-पिछड़ों इत्यादि की दुर्दशा के मूल में जाएँ तो पता चलेगा इन सभी में एक खास साम्यता रही। वह यह कि सभी को ही शासकों द्वारा कमोबेश शक्ति के उपरोक्त स्रोतों में वाजिब हिस्सेदारी न देकर ही उन्हें सामाजिक अन्याय का शिकार बनाया गया। सम्पूर्ण इतिहास में जिन्हें शक्ति के स्रोतों से दूर धकेलकर अशक्त बनाया गया, उनमें सर्वाधिक अभागे रहे भारत के बहुजन, विशेषकर दलित। सामाजिक अन्याय का शिकार बनाये गए दूसरे देशों के वंचितों को न तो शिक्षालयों से दूर रखा गया और न ही देवालयों से: राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियाँ भी उनके लिए पूरी तरह निषिद्ध नहीं रहीं। यह दुर्भाग्य एकमात्र दलितों के हिस्से में आया: इस त्रासदी से रोम से लेकर अमेरिका की दास- प्रथा के शिकार बने समस्त श्वेत-अश्वेत दास, यूरोप की सामंतवादी व्यवस्था के सिर्फ और मार्क्स के सर्वहारा काफी हद तक मुक्त रहे। बहरहाल, पूरी दुनिया में शासकों की साजिश से अशक्त बनाये गए तबकों के पक्ष में लेखक-पत्रकार-साहित्यकार-सोशल एक्टिविस्ट और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने जो अभियान चलाया, उसका चरम लक्ष्य रहा: शक्ति के स्रोतों में उनको वाजिब हिस्सेदारी दिलाना। उनके इस अभियान से आज की तारीख में भारत के शुद्रातिशूद्रों को छोड़कर सामाजिक अन्याय का शिकार बनाये गए विश्व के बाकी समुदायों के जीवन में चमत्कारिक बदलाव आ चुका है। इससे सर्वाधिक उपकृत होने वाले समूहों को यदि चिन्हित किया जाय तो अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के दलित अर्थात काले शीर्ष पर नजर आयेंगे है।

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अमेरिका के जो अश्वेत दास-प्रथा से मुक्त होने के सौ साल बाद भी दलितों से कहीं ज्यादा बदहाली में थे,1970 के दशक में वहां आंबेडकरी आरक्षण से उधार ली हुई सर्वव्यापी आरक्षण वाली डाइवर्सिटी पॉलिसी ने उनके जीवन में आश्चर्यजनक बदलाव ला दिया है। आज अमेरिका में सर्वत्र उनकी हिस्सेदारी दिख रही है। वे फिल्म और टीवी के सितारे हैं, वे बड़े-बड़े उद्योगपतियों में शुमार हैं। वे बड़ी-बड़ी कंपनियों के सीइओ हैं। नासा से लेकर हार्वर्ड और वालमार्ट से हॉलीवुड: जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां उनकी प्रभावी उपस्थिति न दिख रही हो। इस बीच उनके मध्य का ही एक व्यक्ति अमेरिका का प्रेसिडेंट तक बन चुका का है। जहाँ तक दक्षिण अफ्रीका के गोरों द्वारा शासित मंडेला के लोगों का सवाल है, 1994 में रंग-भेदी सत्ता के अवसान के बाद के दो दशकों में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनका प्रभुत्व स्थापित हो गया है। कभी जिन 9-10 प्रतिशत गोरों का वहां शक्ति के स्रोतों पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा हुआ करता था, आज वे तमाम क्षेत्रों में अपने सख्यानुपात पर सिमटते जाने से दुखी होकर वहां से पलायन करते जा रहे हैं। गोरो का एकमात्र कब्ज़ा बचा था भूमि पर। किन्तु फरवरी 2018 में दक्षिण अफ़्रीकी सरकार ने एक कठोर निर्णय लेते हुए, जिन 9-10 प्रतिशत गोरों की वहां की जमीन पर 72 प्रतिशत कब्ज़ा था, उसे बिना मुआवजा दिए अपने कब्जे में ले लिया है। अब वह जमीन सदियों के शोषित-वंचित बहुसंख्य कालों के मध्य बांटी जार ही है।

बहरहाल, बहुत पहले संवैधानिक अधिकार मिलने के बावजूद भारत के बहुजनों की स्थिति अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के कालों के मुकाबले अत्यंत कारुणिक है: इनमें नाममात्र का ही बदलाव आया है। आज भी हजारों साल पूर्व की भांति यहाँ उद्योग-व्यापार पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा वर्ण-व्यवस्था के विशेषाधिकारयुक्त तबकों का ही है। पूरे देश में आज जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हुए हैं, उनमें 80-90 प्रतिशत फ्लैट्स उन्ही के हैं। पॉश कालोनियों में आज भी किसी दलित-आदिवासी-पिछड़े को वास करते देखना अचम्भे जैसा लगता है। मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग माल्स में 80-90 प्रतिशत से ज्यादा दुकानें इन्ही की हैं। चार से लेकर आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें प्रायः 90 प्रतिशत से ज्यादा गाड़ियाँ उन्हीं की ही होती हैं। देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल उन्हीं के हैं। फिल्म और मनोरंजन उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा उन्हीं का है। संसद-विधानसभाओं में बहुजनों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, पर मत्रिमंडलों में 90 प्रतिशत वे ही हैं। मंत्रिमंडलों के लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले प्रायः 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों से हैं। शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार ज्ञान-उद्योग, फिल्म-मीडिया मठ-मंदिरों इत्यादि पर जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का बेहिसाब वर्चस्व आँख में अंगुली डाल कर बताता है कि भारत में हजारों वर्ष पूर्व की भांति सामाजिक अन्याय की धारा आज भी जोर-शोर से प्रवाहमान है।

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अब यहाँ स्वाभाविक रूप से सवाल पैदा होता है कि धरती की छाती पर एकमात्र भारत में ही क्यों सामाजिक अन्याय की धारा हजारों साल पूर्व की भांति आज भी कायम है? इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि  डॉ आंबेडकर की भाषा मे यहाँ का प्रभु वर्ग न सिर्फ सामाजिक विवेक, बल्कि देश-प्रेम से भी से भी शून्य है। इस कारण इस स्वार्थी वर्ग को इस बात की रत्ती भर भी चिंता नहीं है कि इस भयावह अन्याय के चलते देश टूट सकता है: डॉ. आंबेडकर के शब्दों में लोकतंत्र का ढांचा विस्फोटित हो सकता है। अब जहाँ तक वंचित वर्गों का सवाल है, सदियों से शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत रहने के कारण इन वर्गों से फुले, शाहूजी, आंबेडकर, पेरियार, रामस्वरूप वर्मा, जगदेव प्रसाद, नामदेव ढसाल, कांशीराम इत्यादि जैसे सर्वोच्च स्तर के चिन्तक व बहुजन मुक्तिकामियों का उदय न हो सका। मुख्यतः आंबेडकरी रिजर्वेशन का लाभ उठाकर अधिकारी-प्रोफ़ेसर-डॉक्टरबन कर कुछ-कुछ  मुखर हुए ये आन्दोलनकारी समाज विज्ञान के अध्ययन में अपनी उर्जा का पर्याप्त निवेश न कर सके। इसलिए सामाजिक अन्याय की उत्पत्ति और निवारण का सही सूत्र भी न समझ सके। अपने अधकचरे ज्ञान और संघर्ष के जज्बे के अभाव में सामाजिक न्याय के आन्दोलन के नाम पर आरक्षण और संविधान वचाने तथा निजी क्षेत्र-न्याय पालिका-प्रमोशन में आरक्षण की लड़ाई में समाज का मूल्यवान समय व धन का निवेश करवाते रहे। उधर, सामाजिक विवेक शून्य जन्मजात शोषक वर्ग निजीकरण-उदारीकरण और भूमंडलीकरण, विनिवेशीकरण, लैटरल इंट्री को हथियार बनाकर आरक्षित वर्गों, विशेषकर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले सबसे मुखर समूह दलितों को नए सिरे गुलाम बनाने का लक्ष्य पूरा कर लिया है। लेकिन आज जबकि 21वीं सदी के सभ्यतर युग में जन्मगत कारणों से शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत किये गए शेष विश्व के वंचित तबके प्रायः अपना वाजिब हक़ पा चुके हैं: भारत के सामाजिक न्यायवादी नेताओं-एक्टिविस्टों और बुद्धिजीवियों ने उनसे सबक लेते हुए शक्ति के सभी स्रोतों में हिस्सेदारी की लड़ाई ही नहीं लड़ा। वे आज भी कागजों की शोभा बन चुके आरक्षण को बचाने अर्थात नौकरियों में बहुजनों को हिस्सेदारी दिलाने में दुनिया की विशालतम वंचित समाज को उलझाये हुए हैं। इस कारण ही भारत में सामाजिक अन्याय की धारा आज भी सदियों की भांति प्रवाहमान है।

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ऐसा नहीं कि भारत में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वालों को सामाजिक अन्याय की परिभाषा बताने का प्रयास नहीं हुआ: हुआ और बहुत ज्यादा हुआ। बहुजन लेखकों का संगठन बहुजन डाइवर्सिटी मिशन (बीडीएम) पिछले डेढ़ दशक से सैकड़ों किताबों और हजारों लेखों के जरिये यह बताने का निरंतर प्रयास किया है कि शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक- से जबरन बहिष्कार ही सामाजिक अन्याय है और सामाजिक अन्याय के शिकार लोगों को शक्ति के समस्त स्रोतों में वाजिब हिस्सेदारी दिलाकर ही सामाजिक अन्यायमुक्त भारत का निर्माण किया जा सकता है : सामाजिक न्याय की लड़ाई जीती जा सकती है। इसके लिए बीडीएम की ओर से विविधतामय भारत के प्रमुख सामाजिक समूहों- एससी- एसटी, ओबीसी, धार्मिक अल्पसंख्यक और सवर्ण- के स्त्री-पुरुषों के मध्य शक्ति के स्रोतों के वाजिब बंटवारे का निम्न दस सूत्रीय एजेंडा भी जन-जन तक पहुँचाया गया।

  1. सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों व धार्मिक प्रतिष्ठानों अर्थात पौरोहित्य;
  2. सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप;
  3. सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीदारी;
  4. सड़क-भवननिर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग, परिवहन;
  5. सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों,  विश्वविद्यालयों, तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन, प्रवेश व अध्यापन;
  6. सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों, उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि;
  7. देश-विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ को दी जानेवाली धनराशि
  8. प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मिडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों;
  9. रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खाली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य-आदिवासियों में वितरित हो एवं
  10. ग्राम-पंचायत, शहरी निकाय, संसद-विधासभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद-राज्यसभा; राष्ट्रपति, राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि में…

अगर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले बहुजन लेखक, प्रोफ़ेसर, एक्टिविस्ट इत्यादि वंचित वर्गों के मध्य उपरोक्त क्षेत्रों के वाजिब बंटवारे की लड़ाई लड़ने का मन बनाये होते देश में सामाजिक न्याय का स्वर्णिम अध्याय रचित हो गया होता। ऐसा इसलिए कि बीडीएम के उपरोक्त एजेंडे में ही सामाजिक अन्यायमुक्त भारत निर्माण का सर्वोत्तम सूत्र उभर कर सामने आया। बीडीएम के एजेंडे की प्रभावकारिता का आंकलन करते हुए देश के प्रमुख राजनीतिक दलों ने इसे अपने चुनावी मैनिफेस्टो में जगह दिया: कई राज्य सरकारों ने ठेकों, सप्लाई, डीलरशिप, आउट सोर्सिंग जॉब, मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति में आरक्षण देकर इसकी उपयोगिता पर मोहर लगाया। किन्तु अज्ञात कारणों से सामाजिक न्याय के योद्धा बीडीएम के उपरोक्त एजेंडे की पूरी तरह अनदेखी कर गए। वे अज्ञात कारण क्या हैं, इसे कोई सामाजिक मनोविज्ञानी ही सामने ला सकता। बहरहाल, सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ाई लड़ने वालों द्वारा बीडीएम के एजेंडे की बुरी तरह अनदेखी के कारण ही आज बीडीएम से जुड़े लेखक सामाजिक अन्यायमुक्त भारत निर्माण के लिए बहुजन डाइवर्सिटी पार्टी के निर्माण की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं। अगर बहुजन बुद्धिजीवी-एक्टिविस्ट अपना इगो भूलकर जी-जान से इस पार्टी के साथ जुड़ सके तो सामाजिक अन्यायमुक्त भारत निर्माण का सपना सच होने में देर नहीं लगेगी!

लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

गाँव के लोग
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