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दुनिया में बेनजीर अफगानिस्तान की ये पांच-छह महिलाएं डायरी (18 अगस्त, 2021)

 मैं बेहद रोमांचित हूं और एक हद तक खुश भी। मुझे ये अहसास बहुत कम ही मिलते हैं। कई बार तो लंबे समय तक इस अहसास से वंचित रहता हूं। सामान्य तौर पर मैं यह मान लेता हूं कि रोज-रोज आदमी को इस तरह का अहसास हासिल नहीं हो सकता है। उसे ऐसी अपेक्षा रखनी […]

 मैं बेहद रोमांचित हूं और एक हद तक खुश भी। मुझे ये अहसास बहुत कम ही मिलते हैं। कई बार तो लंबे समय तक इस अहसास से वंचित रहता हूं। सामान्य तौर पर मैं यह मान लेता हूं कि रोज-रोज आदमी को इस तरह का अहसास हासिल नहीं हो सकता है। उसे ऐसी अपेक्षा रखनी भी नहीं चाहिए। अलबत्ता खुश रहने के और भी तरीके हैं। इनमें सबसे आगे इश्क है। एक यही है जिससे आदमी खुश रह सकता है। लेकिन इश्क की भी अपनी सीमायें होती हैं।

खैर, कल से जिस कारण मैं रोमांचित और खुश हूं, इसके पीछे की वजह बहुत खास है। इतनी खास कि मैंने यह इमेजिन भी नहीं किया था कि इतना शानदार नजारा देखने को मिलेगा। बात अफगानिस्तान की है। सुना है कि जैसे भारत में भाजपा शहरों के नाम बदल रही है, वैसे ही तालिबान ने अफगानिस्तान का नाम बदलने की योजना बनायी है। जैसे भारत में उत्तर प्रदेश सरकार अलीगढ़ को हरिगढ़ बनाने जा रही है, वैसे ही तालिबान अपने मुल्क को इस्लामी अमीरात की संज्ञा देने जा रहे हैं। वैसे यह संयोग नहीं है। आरएसएस और तालिबान में कोई खास अंतर मुझे नहीं दिखता। दोनों महिलाओं को लेकर बेहद संकीर्ण मानसिकता रखते हैं।

[bs-quote quote=”दरअसल, भारतीय महिलाओं (अपवादों को छोड़ दें) का यह स्वभाव रहा है कि वह अपनी ताकत का इस्तेमाल ही नहीं करती हैं। खासकर तब जब उनके साथ कोई घटना घटित हो जाय। मैं ऐसी महिलाओं को गुलाम ही मानता हूं। पितृसत्तावादी ब्राह्मणवादी समाज में पुरुषों की गुलाम महिलाएं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

तो बात यह कि मैं किस कारण से रोमांचित और खुश हूं। दरअसल, कल काबुल से एक तस्वीर आयी। तस्वीर में पांच-छह महिलाएं वहां के राष्ट्रपति भवन के पास हाथों में तख्तियां लेकर खड़ी थीं। वहां के राष्ट्रपति भवन पर अब तालिबान का कब्जा है। कल ही एक और तस्वीर सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुई। इस तस्वीर में तालिबानी सैनिक वहां के संसद भवन में कूद-फांद कर रहे थे। ऐसी और भी कई तस्वीरें सामने आयीं। लेकिन सबसे खास रही महिलाओं की तस्वीर।

सचमुच कितनी बहादुर औरतें हैं वे जो एक ऐसे हुक्मरान के सामने सिर उठा रही हैं, जिसके हाथ में बंदूक है और जिसके केंद्रीय चरित्र में धार्मिक कट्टरता है जो कि असल में पितृसत्ता के वर्चस्व को जायज ठहराता है। तस्वीर से ही एक बात और याद आयी। कल ही तो सीएनएन की एक महिला रिपोर्टर की वीडियो रिपोर्ट सामने आयी। खास यह कि विदेशी महिला पत्रकार ने सामान्य अफगानी महिलाओं के जैसी पोशाक पहन राखी थी। लेकिन वे पांच-छह महिलाएं सचमुच बहुत बहादुर दिखीं जो तालिबान से महिलाओं के लिए सार्वजिनक स्तर पर सम्मान देने की मांग कर रही थीं।

कल जैसे ही यह तस्वीर सामने आयी, मैं इस कदर रोमांचित हुआ कि मैं पूर्वी दिल्ली के किराए के अपने कमरे में खड़ा हो गया और मैंने जिंदाबाद कहा। यह तस्वीर है ही इतनी बेमिसाल कि देखने मात्र से मन रोमांचित हो उठता है।

[bs-quote quote=”कल काबुल से एक तस्वीर आयी। तस्वीर में पांच-छह महिलाएं वहां के राष्ट्रपति भवन के पास हाथों में तख्तियां लेकर खड़ी थीं। वहां के राष्ट्रपति भवन पर अब तालिबान का कब्जा है। कल ही एक और तस्वीर सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुई। इस तस्वीर में तालिबानी सैनिक वहां के संसद भवन में कूद-फांद कर रहे थे। ऐसी और भी कई तस्वीरें सामने आयीं। लेकिन सबसे खास रही महिलाओं की तस्वीर।.” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मैं तो इन अफगानी महिलाओं को भारत की महिलाओं से अधिक बहादुर मानता हूं जो आज भी पितृसत्ता के सामने सिर उठाकर साहस के साथ यह मांग नहीं कर सकी हैं कि उन्हें सार्वजनिक स्तर पर सम्मान मिले।

मेरी जेहन में एक घटना का स्मरण हो रहा है। बात मार्च, 2017 की है। तारीख शायद 30 मार्च, 2017  थी। उन दिनों मैं पटना में ही था। वहां हिंदी दैनिक तरुणमित्र का समन्वय संपादक था। उन दिनों मैं संपादन के साथ ही रिपोर्टिंग भी करता था। खासकर विधान मंडल की रिपोर्टिंग। बजट सत्र चल रहा था। हालांकि मैंने वह नजारा अपनी आंखों से नहीं देखा। हुआ यह था कि भाजपा के विधान पार्षद रहे लालबाबू प्रसाद ने लोजपा की विधान पार्षद रही नूतन सिंह के साथ विधान परिषद के अंदर गलत तरीके से छूने की कोशिश की। इस बात की सूचना नूतन सिंह जो कि अब भाजपा में शामिल हो गयी हैं, ने अपने पति नीरज कुमार बबलू को दी। ये वही नीरज कुमार बबलू हैं जो सुशांत सिंह राजपूत के करीबी रिश्तेदार हैं। नीरज कुमार बबलू तब भाजपा के विधायक थे और उस दिन विधानसभा में ही थे।

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तो हुआ यह कि नूतन सिंह के द्वारा सूचना दिए जाने पर नीरज कुमार बबलू ने लालबाबू प्रसाद को विधान परिषद के अंदर ही ठोक दिया और वह भी तब जब सदन की कार्यवाही स्थगित हो गयी थी सभी सदस्य कक्ष से बाहर निकल रहे थे। ठीक विधान परिषद के सभापति के कक्ष के सामने ही। मैं तब विधानसभा के प्रेस कक्ष में बैठा था। वहीं सूचना मिली। मैं और कुछ अन्य पत्रकार साथी लगभग दौड़ते हुए विधान परिषद पहुंचे। ठोकने का कार्यक्रम पूर्ण हो चुका था। सुशील मोदी नीरज कुमार बबलू को समझा रहे थे। नीरज कुमार बबलू लालबाबू प्रसाद को गालियां दे रहे थे।  सुशील मोदी कह रहे थे कि पार्टी लालबाबू प्रसाद को सजा देगी।

अगले दिन जब सदन की कार्यवाही शुरू हुई तो विपक्ष राजद ने यह सवाल उठाया और सभी ने इस घटना की निंदा की। सभापति ने काला दिवस कहा तो किसी एक ने कहा कि इस घटना से बिहार विधान परिषद का माथा शर्म से झुक गया है।

[bs-quote quote=”क्यों भारत की महिलाएं अपने साथ हो रहे इस जुल्म का समुचित तरीके से प्रतिकार क्यों नहीं कर पाती हैं? मुझे लगता है कि इन सवालों का जवाब ब्राह्मणों के ग्रंथों में है, जिसे भारतीय महिलाओं ने पत्थर की लकीर मान रखा है। खासकर मनुस्मृति। यह घिनौना ग्रंथ इस देश के शूद्रों और महिलाओं के लिए कितना अहितकारी है, इसका अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि 25 दिसंबर, 1927 को डॉ. आंबेडकर ने मनुस्मृति का दहन किया था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

लेकिन मेरी जेहन में तब भी यह सवाल था और आज भी है कि नूतन सिंह ने अपने पति को फोन क्यों किया? वह स्वयं परिषद की सदस्या थीं। कद-काठी भी ऐसी कि लालबाबू प्रसाद को दो-चार हाथ लगा सकती थीं। या यह भी हो सकता था कि जब सदन के अंदर उनके साथ घटना घटित हुई तब वह स्वयं इस बात को सभापति से मिलकर या फिर सदन के अंदर स्वयं ही उठा सकती थीं। यह नहीं करने के बजाय उन्होंने अपने पति को फोन क्यों किया?

दरअसल, भारतीय महिलाओं (अपवादों को छोड़ दें) का यह स्वभाव रहा है कि वह अपनी ताकत का इस्तेमाल ही नहीं करती हैं। खासकर तब जब उनके साथ कोई घटना घटित हो जाय। मैं ऐसी महिलाओं को गुलाम ही मानता हूं। पितृसत्तावादी ब्राह्मणवादी समाज में पुरुषों की गुलाम महिलाएं।

कल की ही बात है। दलित लेखक संघ की अध्यक्ष अनीता भारती दीदी का फोन आया। उन्होंने जानकारी दी कि दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर नीलम जी को उनके ही कॉलेज की एक महिला प्रोफेसर रंजीत कौर ने थप्पड़ मार दिया है। उन्होंने जो कुछ बताया, उसके हिसाब से यह जातिगत पूर्वाग्रह के कारण हुआ है और दलित लेखक संघ इसका विरोध करता है। मैंने अनीता दीदी से डॉ. नीलम का नंबर मांगा ताकि उनसे बात कर एक खबर के बारे में प्लान कर सकूं। अनीता दीदी ने नंबर दिया भी लेकिन डॉ. नीलम ने मेरा फोन रिसीव नहीं किया। दिल्ली विश्वविद्यालय में ही पदस्थापित एक और महिला प्रोफेसर मित्र से इस बारे में कहा कि वह डॉ. नीलम से बात करें और उनसे कहें कि मैं इस मकसद से उन्हें फोन कर रहा हूं। जवाब में मेरी प्रोफेसर मित्र ने कहा कि डॉ. नीलम सदमे में हैं और इसलिए अभी बात नहीं करना चाहती हैं।

डॉ. नीलम के पक्ष में दलित लेखक संघ द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति

खैर, यदि कोई घटना घटित हो और कोई सदमे में रहना चाहे तो यह उसका अधिकार है। लेकिन वे सदमे में क्यों हैं? उन्हें तो हमलवार होना चाहिए। हमलावर ना हों तो ना सही कम से कम उन पांचों अफगानी महिलाओं के जैसे साहसपूर्ण व्यवहार तो करना ही चाहिए।

अब सवाल यह है कि ऐसा क्यों है? क्यों भारत की महिलाएं अपने साथ हो रहे इस जुल्म का समुचित तरीके से प्रतिकार क्यों नहीं कर पाती हैं?

मुझे लगता है कि इन सवालों का जवाब ब्राह्मणों के ग्रंथों में है, जिसे भारतीय महिलाओं ने पत्थर की लकीर मान रखा है। खासकर मनुस्मृति। यह घिनौना ग्रंथ इस देश के शूद्रों और महिलाओं के लिए कितना अहितकारी है, इसका अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि 25 दिसंबर, 1927 को डॉ. आंबेडकर ने मनुस्मृति का दहन किया था।  इसमें एक श्लोक है, जो कि भारतीय महिलाओं के लिए किसी कानून से कम नहीं।

अस्वतंत्रता: स्त्रियः  कार्या: पुरुषै स्वैदिर्वानिशम

विषयेषु च सज्जन्त्य: संस्थाप्यात्मनो वशे

पिता  रक्षति कौमारे भर्ता यौवने

रक्षन्ति  स्थाविरे पुत्र,न स्त्री स्वातान्त्रयमर्हति

सूक्ष्मेभ्योपि प्रसंगेभ्यः स्त्रियों रक्ष्या विशेषत:

द्द्योहिर कुलयो:शोक मावहेयुररक्षिता:

इमं हि सर्ववर्णानां पश्यन्तो  धर्ममुत्तमम

यतन्ते भार्या भर्तारो  दुर्बला अपि

यानी पुरुषों को अपने घर की सभी महिलाओं को चौबीस घंटे नियन्त्रण में रखना चाहिए और विषयासक्त स्त्रियों को तो विशेष रूप से वश में रखना चाहिए! बाल्यकाल में स्त्रियों की रक्षा पिता करता है! यौवन काल में पति  तथा वृद्धावस्था में पुत्र उसकी रक्षा करता है! इस प्रकार स्त्री कभी भी स्वतंत्रता की अधिकारिणी नहीं है! स्त्रियों के चाल-ढाल में ज़रा भी विकार आने पर उसका निराकरण करनी चाहिये! क्योंकि बिना परवाह किये स्वतंत्र छोड़ देने पर स्त्रियाँ दोनों कुलों (पति व पिता ) के लिए दुखदायी सिद्ध हो सकती है! सभी वर्णों के पुरुष इसे अपना परम धर्म समझते है! और दुर्बल से दुर्बल पति भी अपनी स्त्री की यत्नपूर्वक रक्षा करता है!

मनुस्मृति में एक श्लोक और है जो यह बताता है कि महिलाएं ब्राह्मणों की नजर में क्या हैं, फिर वह उनके घर की ही महिला यानी मां, बहन और बेटी ही क्यों न हो –

स्वभाव एष नारीणां  नराणामिहदूषणम .

अतोर्थान्न प्रमाद्यन्ति, प्रमदासु विपश्चित:

अविद्वामसमलं लोके,विद्वामसमापि  वा पुनः

प्रमदा द्युतपथं नेतुं काम क्रोध वाशानुगम

मात्रस्वस्त्रदुहित्रा वा न विविक्तसनो भवेत्

बलवान इन्द्रिय ग्रामो विध्दांसमपि कर्षति !

कहने का मतलब यह कि पुरुषों को अपने जाल में फंसा लेना तो स्त्रियों का स्वभाव ही है! इसलिए समझदार लोग स्त्रियों के साथ होने पर चौंकन्ने रहते हैं, क्योंकि पुरुष वर्ग के काम क्रोध के वश में हो जाने की स्वाभाविक दुर्बलता को भड़काकर स्त्रियाँ, मूर्ख  ही नहीं विद्वान पुरुषों तक को विचलित कर देती है! पुरुष को अपनी माता, बहन तथा पुत्री के साथ भी एकांत में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियों का आकर्षण बहुत तीव्र होता है और विद्वान भी इससे नहीं बच पाते।

यानी केवल योनि की वजह से भारतीय महिलाएं दोयम दर्जे की नागरिक हैं और वह भी उस योनि की वजह से जिससे वह पुरुषों को जन्म देती हैं?

 

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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