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ग्राउंड रिपोर्ट

लोक चेतना में स्वाधीनता की लय खोजने की कोशिश है यह किताब

प्रकृति, संस्कृति और स्त्री किताब के सारे आलेख एक साथ मिलकर एक ऐसी वैचारिकी रचते हैं, जिसमें हमारी पूरी भारतीय परम्परा, राष्ट्रीय जीवन और व्यक्ति की स्वायत्तता का यथार्थपरक चिंतन उभरता है। सृष्टि का संवाह करने वाली नारी की अस्मिता पर यथार्थपूर्ण और आवेशहीन बहुआयामी विमर्श समावेशी और गहरी चिंतन दृष्टि का परिचायक है तथापि प्रखरता और तेजस्विता कहीं से कम नहीं है।

प्रकृति, संस्कृति और स्त्री की त्रयी के बहुआयामी विमर्श को सहेजती आकांक्षा यादव की पुस्तक

स्त्री चेतना, पर्यावरण और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी सुप्रतिष्ठित लेखिका सुश्री आकांक्षा यादव के आलेखों का संग्रह ‘प्रकृति, संस्कृति और स्त्री’ को पढ़ते हुए जहाँ हम विषयवार उनके विचारों, विवरणों और विवेचनों से प्रभावित होते हैं, वहीं हम निबंध विधा के महत्व को भी जान पाते हैं। संवेदनाओं और सरोकारों से प्रेरित यह विधा लेखन की अन्य विधाओं की तुलना में निश्चय ही कहीं ज़्यादा श्रमसाध्य, अध्ययनजन्य, शोधपरक और बौद्धिक है। एक अच्छा आलेख वह है जो हमें आत्मनिष्ठ रूप से वस्तुनिष्ठ जानकारियाँ, समझ और दृष्टि दे और हमारी चेतना तथा संवेदना का विस्तार करे। इस कसौटी पर इस किताब के आलेख जो संख्या में सोलह हैं, सोलह आने खरे हैं।

 इस पुस्तक में स्त्री पक्ष पर छ:, प्रकृति पक्ष से दो और शेष संस्कृति पक्ष पर आलेख हैं। नारी विमर्श, लोक चेतना, प्रेम, भाषा, शिक्षा, साहित्य, सोशल मीडिया से जुड़े मुद्दों के साथ ही पर्यावरण विषयक चिंताएं लेखिका की प्रस्तुत कृति के मुख्य विषय हैं। विभिन्न विधाओं में सृजनरत आकांक्षा यादव की यह चौथी पुस्तक है। एक लेखिका के साथ-साथ अग्रणी महिला ब्लॉगर के रूप में भी उन्होंने देश-विदेश में कीर्ति फैलाई है।

इस आलेख-संग्रह में ‘प्रकृति, संस्कृति और स्त्री’ शीर्षक से कोई आलेख नहीं है लेकिन सारे आलेख इस महाशीर्षक के अंतर्गत हैं जो मानवीय परम्पराओं, उसके वर्तमान और भविष्योन्मुखी जीवन-संभावनाओं पर आधारित हैं। इनके विषय हमारे रोज़मर्रा के अनुभवों या अवसर विशेष के अनुभवों से संबंधित हैं। हम इन्हें कैसे जीते थे, कैसे जीते हैं और कैसे जीना चाहिए उस सबको ये आलेख प्रत्यक्ष करते हैं। इनमें किसी विशेष विचारधारा का पक्ष नहीं है, जो है सामान्य जनबोध का लेखकीय जनबोध व पक्ष है। लोक चेतना में स्वाधीनता की लय खोजने का उपक्रम है। इस पुस्तक में आज़ाद भारत के लोकजीवन के विविध पक्षों और प्रश्नों पर विचार किया गया है  इसलिए यह लेख ‘लोक चेतना में स्वाधीनता की लय’ प्रथम स्थान पर रखा गया है। इसमें पराधीनता के कारण, संघर्ष की भीषणता और स्वाधीन भारत के सपनों व आशाओं का उल्लेख है।

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लेखिका का मानना है कि इतिहास लोकमानस में पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है और आज़ादी एक विस्तृत अवधारणा है जिसमें न सिर्फ़ राष्ट् बल्कि व्यक्ति की भी स्वाधीनता का समान महत्व है जो राजनैतिक दमन और आर्थिक शोषण से मुक्ति दिलाने के साथ नवोन्मेषकारी है। ऐतिहासिक घटनाओं के क्रम के साथ किंवदंतियों में समाए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का चित्रण भावोद्वेलित करता है। लेखिका आकांक्षा यादव की निबंध शैली विशिष्ट है। इसमें भाषा का कसाव और प्रवाह है जो विवरणों की शुष्कता को समाप्त कर उन्हें मर्मपूर्ण और पठनीय बनाता है। सूचनाओं के साथ संवेदनाओं का विस्तार विषय को एक विचार-पूर्णता और आवश्यक जीवन-संदेश तक पहुँचाता है। यह शैलीगत विशिष्टता लेखिका की अपनी है इसलिए लेखिका के हर लेख में मिलती है।

ज़ाहिर है शेष पन्द्रह आलेख स्वतंत्र भारत में जीवन-स्थितियों और परिस्थितियों के संदर्भ में होंगे, जिनमें हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी, हमारी शिक्षा, हमारा घर-परिवार, हमारा पर्यावरण, हमारे त्योहार, हमारी जीवन शैली, हमारी तकनीकी और हमारे विमर्श जो चाहे स्त्री को लेकर हो या प्रकृति या संस्कृति को लेकर, समाहित हैं। ये सारे आलेख एक साथ मिलकर एक ऐसी वैचारिकी रचते हैं, जिसमें हमारी पूरी भारतीय परम्परा, राष्ट्रीय जीवन और व्यक्ति की स्वायत्तता का यथार्थपरक चिंतन उभरता है। सृष्टि का संवाह करने वाली नारी की अस्मिता पर यथार्थपूर्ण और आवेशहीन बहुआयामी विमर्श समावेशी और गहरी चिंतन दृष्टि का परिचायक है तथापि प्रखरता और तेजस्विता कहीं से कम नहीं है। विवरणों और आंकड़ों से भरे ये आलेख छूटने का कहीं से मौक़ा नहीं देते। मिथक से, इतिहास से, लोक से, शास्त्र से, परम्परा से जुटाए गए साक्ष्य, आँकड़े और विवरण इन आलेखों को दस्तावेज़ी बनाते हैं और लेखकीय विवेचनाएँ न्याय-अन्याय और सच-झूठ का स्वरूप सामने रखती हैं। सहज, सरल, प्रवाहमयी, भावपूर्ण भाषा संवेदित करती चलती है और पाठकीय बोझिलता से बचाती है।

इस पुस्तक में लोक चेतना में स्वाधीनता की लय, भूमंडलीकरण के दौर में भाषाओं पर बढ़ता खतरा, भारतीय संस्कृति की पहचान है हिन्दी, प्रकाश-स्तम्भ की भांति हैं शिक्षक, भविष्य संवारने के लिए सहेजें बचपन, मानव और पर्यावरण : सतत विकास और चुनौतियाँ, लौट आओ नन्ही गौरैया, विभिन्न संस्कृतियों में नव वर्ष, प्रेम, वसंत और वैलेंटाइन, मानव जीवन को लीलती तंबाकू की विषबेल, माँ : एक अनमोल रिश्ता, समकालीन परिवेश में नारी विमर्श, आजादी के आंदोलन में भी अग्रणी रही नारी, सोशल मीडिया और आधी आबादी की मुखर अभिव्यक्ति, शिक्षा, साहित्य और स्त्री, ‘नारी शक्ति वंद गढ़ेगी राजनीति में महिलाओं की नई इबारत सहित स्त्री पक्ष पर छह, प्रकृति पक्ष से दो और शेष संस्कृति पक्ष पर आलेख हैं। ‘प्रेम, वसंत और वैलेंटाइन’ एक ऐसा आलेख है जिसमें तीनों पक्ष हैं। इस पुस्तक को पढ़ते हुए हम एक विचार यात्रा पर निकलते हैं जिसके पन्द्रह पड़ाव हैं और आख़िरी एक मंज़िल है जहाँ स्वतंत्र भारत की स्वतंत्र नारी एक नई इबारत लिखने जा रही है जो नारी शक्ति वंदन के रूप में राजनीतिक है और राजनीति से आगे भी। वे डॉ. अम्बेडकर जी को उद्धृत करती हैं, जो कहते हैं कि मैं किसी भी समाज की प्रगति उस समाज में महिलाओं द्वारा हासिल की गई प्रगति से नापता हूँ।

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स्वतंत्रता संग्राम से आज के समय तक राष्ट्रीय, सामाजिक, पर्यावरणीय, नागरिक स्थितियों और परिस्थितियों में स्त्री, संस्कृति और प्रकृति के प्रश्नों पर एक द्रष्टा और भोक्ता के अनुभवों और अध्ययनों द्वारा सृजित ये आलेख हमें सूचना सम्पन्न करने के साथ हमारे संवेदनात्मक ज्ञान में वृद्धि करते हैं और समाज और राष्ट्र के लिए कुछ करने की प्रेरणा भी प्रदान करते हैं। लेखन की यह सार्थकता है कि वह हमें विवेक और दृष्टि-सम्पन्न बनाए। आकांक्षा यादव जी के आलेखों में यह ताक़त और क्षमता है। संग्रहीत आलेख युगीन विषयों के संकटों और प्रश्नों से टकराते हैं। चाहे वह हिन्दी भाषा हो, नारी, बालक, युवा हों, प्रकृति हो या संस्कृति हो या टेक्नोलॉजी या तम्बाकू। लेकिन इनका स्वर टकराहट का नहीं है बल्कि संवेदना और समाधान का है। इसलिए ये विमर्शात्मक होते हुए भी सरस हैं और इनमें दृष्टि की समरसता है।

इन विमर्शात्मक आलेखों के बीच एक सृजनात्मक आलेख भी है जिसे हम ललित निबंध भी कह सकते हैं। यह निबंध है- प्रेम, वसंत और वैलेंटाइन। इसमें काव्यात्मक आत्मोद्गार का दर्शन और कविताओं के सुन्दर उद्धरण हैं। इसमें खलील जिब्रान, अज्ञेय, कबीर और किंवदंती बन चुके प्रेमियों की सूची के साथ वेद की ऋचाओं की झंकृति है। यहाँ लेखिका एक सधी और सुधी विमर्शकार के साथ एक बेहतरीन ललित निबंधकार भी दिखाई पड़ती हैं।

सौभाग्य प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित सुश्री आकांक्षा यादव के इस संग्रह में समाहित आलेख हमें सूचना-सम्पन्न करने के साथ हमारी ज्ञानात्मक संवेदना में भी वृद्धि करते हैं इसलिए इनके महत्व का दायरा बड़ा है। भाषा, नारी, समाज और पर्यावरण विमर्श के लिए आवश्यक आंकड़ों और ब्योरों की यहाँ उपलब्धता है। आलेख लेखन की विशिष्ठ शैली और पठनीयता है। विचारों का भावाकुल प्रसार है। इसमें वह सब कुछ है जो एक विद्वान को भी रुचेगा और एक विद्यार्थी के लिए तो इसे विमर्श-गीता ही समझिए! इसकी सुन्दर और सम्यक भूमिका प्रसिद्ध शिक्षाविद, साहित्यकार पूर्व कुलपति प्रो. राम मोहन पाठक ने लिखी है। निश्चित ही प्रस्तुत कृति पठनीय, रोचक, ज्ञानवर्धक व संग्रहणीय है। आशा की जानी चाहिए कि यह कृति हिंदी के अनुरागियों एवं नारी, प्रकृति और संस्कृति के विविध आयामों पर शोधार्थियों में अपना स्‍थाई स्‍थान सुनिर्मित करने में सफल होगी।

कृतिः प्रकृति, संस्कृति और स्त्री

लेखिका: आकांक्षा यादव, पृष्‍ठः 128 मूल्‍यः ₹250/- संस्‍करणः 2023

प्रकाशकः सौभाग्य प्रकाशन, नई दिल्ली

 

 

 

केशव शरण
केशव शरण
लेखक जाने-माने कवि हैं और वाराणसी में रहते हैं।

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