Friday, March 29, 2024
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झूठे देवत्व को फेंककर मनुष्यता का अधिकार लेना ही पिछड़ा साहित्य का आधार होगा !

मुझे बहुत सी चीजें विचलित करती हैं । इधर बीच जब पिछड़ों के साहित्य की सोच आगे बढ़ी तो रेशमा-चूहरमल की कहानी ने विचलित करना शुरू किया। इस कहानी का स्रोत कथाकार-इतिहासकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा द्वारा सम्पादित लोकरंग-2 है । इस कहानी को लोक-साहित्य के विलक्षण जिज्ञासु अश्विनी कुमार आलोक ने दर्ज किया है। वे […]

मुझे बहुत सी चीजें विचलित करती हैं । इधर बीच जब पिछड़ों के साहित्य की सोच आगे बढ़ी तो रेशमा-चूहरमल की कहानी ने विचलित करना शुरू किया। इस कहानी का स्रोत कथाकार-इतिहासकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा द्वारा सम्पादित लोकरंग-2 है । इस कहानी को लोक-साहित्य के विलक्षण जिज्ञासु अश्विनी कुमार आलोक ने दर्ज किया है। वे लिखते हैं –‘बिहार की लोकगाथाओं में ‘रेशमा’ अत्यंत प्रसिद्ध है। यह प्राचीन जनपद मगध और अंग की सीमा पर अवस्थित ‘मगध’ से सम्बंधित है। मगध की लोकभाषा मगही है। परन्तु आश्चर्य है कि इस लोकगाथा को मगही की लोकगाथा न कहेंगे। वस्तुतः जिस क्षेत्र से इस लोकगाथा का उद्भव माना जाता है, वह भूमिहार बहुल क्षेत्र है। रेशमा भूमिहार जाति से थी। स्थानीय लोग रेशमा की चर्चा तक वर्जित मानते हैं। एक दूसरी मान्यता यहाँ यह भी है कि इस गाथा के गायन से गाँव की बेटियाँ सम्मोहित हो जाती हैं और उनके चरित्र-स्खलन की आशंका रहती है। दूसरी ओर, इसी गाथा के नायक चूहर को दुसाध जाति द्वारा देवत्व प्राप्त है। उनका जन्मोत्सव राजनीतिक रूप से मनाया जाता है। कुछ बड़ी पार्टियों के वैसे लोग जो दुसाध जाति से आते हैं , इस जन्मोत्सव में भाग लेते हैं और इसका राजनीतिक लाभ लेने का भरपूर प्रयास करते हैं।’

जैसा कि आपने पढ़ा कि जहाँ की यह कहानी है वहां की भाषा में नहीं कही या गाई जाती क्योंकि नायिका भूमिहार और नायक दुसाध जाति का है। जाति व्यवस्था में भूमिहार उच्चतम सोपान पर है और दुसाध की हैसियत निम्नतर है। ऐसे में कौन खतरा मोल लेगा। इसलिए लोकगाथा गायकों ने इसे दूसरी भाषा में कहा जो उस इलाके में नहीं बोली जाती। वस्तुतः यह जाति-वर्चस्व में एक प्रेम कहानी का प्रक्षेप है। उच्चता के हित में प्रेम की बलि चढ़ा दी गई है। कायदे से तो यह सामाजिक संघर्ष की एक महान गाथा होनी चाहिए थी लेकिन इसकी विडम्बना यह है उत्पीड़ित दुसाध जाति के अभिजनों के लिए यह गाथा और इसका नायक वोट की राजनीति का एक महत्वपूर्ण घटक बन गए है। मैं इसे ही लेकर विचलित हूँ। क्या इसे पिछड़ों के साहित्य के विरूपीकरण के रूप में देखा जाना चाहिए ?

अपने इलाके में छोड़कर हर इलाके में गाई जाने वाली गाथा, जिसका नेरेटिव उलट दिया गया है

अब जरा आइये, इसकी मूलकथा पर नज़र दौड़ाई जाय। आलोक जी लिखते हैं –‘ रानी रेशमा और चूहरमल को सोमनाथ द्वारा पूर्वजन्म में मिले शाप के कारण पटना के मोकामा में जन्म लेना पड़ता है । दोनों उस जन्म में ब्राह्मण जाति से थे और रिश्ते में पति-पत्नी थे। मोकामा में चूहर ने अंजनी नामक दुसाध के बेटे के रूप में जन्म लिया , जबकि उसकी पत्नी का जन्म मोकामा के राम जी सिंह भूमिहार की बेटी के रूप में हुआ। बड़ा होने पर चूहर जिस पाठशाला में पढ़ता था , वहीं रेशमा का भाई अजब सिंह पढ़ता था. चूहर और अजब में गहरी दोस्ती थी. एक दिन जब अजब को खोजता चूहर उसके घर गया , तो वहां उसे रेशमा ने देखा। चूहर की सुन्दर देहयष्टि पर मोहित होकर रेशमा ने उससे प्रणय निवेदन किया। परन्तु अपने गुरुभाई की बहन रेशमा को चूहर भी अपनी बहन की तरह मानता था। कई प्रकार से रेशमा प्रयास करती है , उसे झूठे आरोपों में लांछित करती है , परन्तु चूहर का ब्रह्मचर्य नहीं डोलता है। सभी आरोपों से स्वयं को निकालकर चूहर समाधि ले लेता है और रेशमा भी उसी समाधि पर प्राणोत्सर्ग कर देती है। चूहर देवत्व को प्राप्त करता है  भोजपुरी लोकगाथा में उसके अग्निकुंड में परीक्षा देने की बात कही गई है , जिस कारण उसके प्रति श्रद्धा इतनी बढ़ गई कि उसे राह बाबा के नाम से अलग से लोकदेवता की आस्था दे दी गई।’

इससे पहले कि इस पर कुछ और बात की जाय मुझे लगता है कि इसके कुछ और प्रसंग साझा किये जाएँ। मसलन –‘देवी मंदिर से आवाज आई – तुम उच्च कुलवंश भूमिहार की राजपुत्री हो , चूहर निम्न कुल का युवक . रेशमा ! यह मिलन असंभव है. …. चूहर ने कहा – तोहरो जे भाई रेशमा मोर गुरु भैया जी /पिता तोहार चाचा लागे हमार जी / कइसे के करबो तोहरे संग दुनियादरिया जी/ तुहूँ लगबू बहिनी हमार जी / तोहरो जे संग रेशमा करबो जे भोगवा जी/ धर्म नष्ट होई जाई हमार जी …. चूहर रेशमा के प्रणय निवेदन को ठुकरा कर चला गया । क्रोध और उदासी से लौटी रेशमा चूहर से प्रतिशोध लेने की सोचने लगी । उसे मालूम हुआ कि चूहर मोकामा ढाल पर रोज सुबह गाय चराने अपने भांजे बुधुआ के साथ आता है । उसने रामजीत गड़ेरी और मूंदे खान पैठान की पहरेदारी लगवा दी – चूहर जब गायें चराने मोकामा ढाल पर आये , तो उसकी गर्दन उतार लाओ ।’ बाद की  कहानी तो कत्लो-गारत की दास्ताँ है। चूहर बहादुर युवक है। दोनों हत्यारे उसके हाथों मौत के घाट उतारे जाते हैं। अजब सिंह और राम जी सिंह भूमिहार चूहर के माँ-बाप और रिश्तेदारों को मार डालते हैं । उसके घर में आग लगा देते हैं । और धोखे से चूहर को गिरफ्तार कर लेते हैं । अजब सिंह उसे कोड़े मारता है ।

[bs-quote quote=”जैसा कि आपने पढ़ा कि जहाँ की यह कहानी है वहां की भाषा में नहीं कही या गाई जाती क्योंकि नायिका भूमिहार और नायक दुसाध जाति का है।  जाति व्यवस्था में भूमिहार उच्चतम सोपान पर है और दुसाध की हैसियत निम्नतर है। ऐसे में कौन खतरा मोल लेगा। इसलिए लोकगाथा गायकों ने इसे दूसरी भाषा में कहा जो उस इलाके में नहीं बोली जाती। वस्तुतः यह जाति-वर्चस्व में एक प्रेम कहानी का प्रक्षेप है। उच्चता के हित में प्रेम की बलि चढ़ा दी गई है। कायदे से तो यह सामाजिक संघर्ष की एक महान गाथा होनी चाहिए थी लेकिन इसकी विडम्बना यह है उत्पीड़ित दुसाध जाति के अभिजनों के लिए यह गाथा और इसका नायक वोट की राजनीति का एक महत्वपूर्ण घटक बन गए है। मैं इसे ही लेकर विचलित हूँ। क्या इसे पिछड़ों के साहित्य के विरूपीकरण के रूप में देखा जाना चाहिए ?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

गौर किया जाय। कहानी क्या है? क्या क्षेपक है? वास्तविकता क्या है? निहितार्थ क्या हैं? और किसके खिलाफ क्या इस्तेमाल किया गया है? और दुसाध जाति उसका क्या उपयोग कर रही है ? वास्तव में तो तो यह एक प्रेम कहानी है जो एक पिछड़े युवक और अगड़ी युवती की है। और इंसानियत का मेयार यही होता कि दोनों का प्रेम फलीभूत होता और दोनों साथ जीवन गुजारते । लेकिन वर्चस्वशाली भूमिहार कैसे बर्दाश्त करते कि उनकी लड़की किसी दुसाध की पत्नी हो जाय। जाहिर है भूमिहार समाज उसको सहज ही स्वीकारने वाला नहीं है। और वह भी सौ-डेढ़ सौ साल तो यह असंभव है. इसका अर्थ है कि प्रेम के शत्रुओं ने प्रेमकथा के नायक और नायिका की ‘ऑनर कीलिंग’ कर दी। दोनों को जलाकर मार डाला गया था। लोकगाथा में कहा ही गया है कि जिस अग्निकुंड चूहर जला उसी में रेशमा ने भी अपनी जान दी।

मुख्य बात यह है कि वास्तव में दोनों को जलाकर ही मारा गया था और उनसे नफरत का आलम यह था कि जिस इलाके में वे जलाकर मारे गए वहां बोली जानेवाली भाषा में उनका ज़िक्र तक नहीं है । जीवन ही नहीं मिटाया गया बल्कि किम्वदंतियां भी जन्म न ले सकें इसके लिए भाषा को भी प्रतिबंधित कर दिया गया। अब आप सोचिये कि अपना मुँह बचाने के लिए लोकगायकों ने उनको पूर्व जन्म का ब्राह्मण और रिश्ते में पति-पत्नी बता दिया। इसमें क्या शक कि इसे ब्राह्मणों और भूमिहारों ने ही प्रचलित किया हो। लेकिन सवाल तो यह है कि वे लोग तो ईश्वर और जन्म-पुनर्जन्म , स्वर्ग नरक में विश्वास करते हैं फिर उनको पति-पत्नी को मिलने देने में क्या परेशानी थी ? यह तो ईश्वरीय विधान के एकदम खिलाफ बात है। तो फिर आखिर भूमिहार मानते किसको हैं ?

और एक छोटा सा सवाल यह भी है क्या नायिका पिछड़ी होती और नायक अगड़ा होता तो क्या यही कहानी होती? भले ही नायिका को अंत में कौआहंकनी बनना पड़ता लेकिन तब यह कहानी प्रेम से ज्यादा ‘भूमिहारी पौरुष’ की महागाथा बनाकर पेश की गई होती । लेकिन नायक चूँकि पिछड़ा था इसलिए उसे न केवल जलाकर मारा गया बल्कि उसकी स्मृतियों को भी देशनिकाला दे दिया गया। प्रेम कहानी को विकृत कर दिया गया।

और दुसाधों ने क्या किया ? अन्याय के शिकार अपने एक बहादुर पूर्वज को वोट की राजनीति का माध्यम बना डाला। उन्होंने इस बात पर कान तक न दिया कि उनका एक पूर्वज अन्याय का शिकार हुआ था। षड्यंत्र करके न केवल उसको मार डाला गया बल्कि इतिहास से भी उसको मिटा डाला गया। यही नहीं , लोक में भी उसे विकृत कर दिया गया। लोक में न जाने कितने ऐसे नायक होंगे जिनकी स्मृतियाँ तक विध्वंस का शिकार हो गई होंगी। क्योंकि ग़ालिब कहते हैं कि – सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं/ ख़ाक में वो सूरतें होंगी जो पिन्हाँ हो गईं!’

तो अपने पूर्वजों तक जाओ पिछड़ो ! लोक में तुम्हारी कहानियां बिखरी पड़ी हैं। लोक में तुम्हारे साथ हुए अन्याय के सबूत मिलेंगे और लोक में ही तुम्हारे नायक भी तुम्हारी तरह भटक रहे हैं !

 

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1 COMMENT

  1. , सही बात है कि पिछड़ों के नायक लोक में बिखरे पड़े हुए हैं और यह जैसा कि लोककथा में कहानी में दी गई है यह समाज चुहड़ और रेशमा के प्रेम संबंध को न तब स्ववीका किया था और अब स्रवीका करने को तैया है। प्रेम के शत्रुओं के द्वारा प्रेम कथा के नायक और नायिका की ऑनर किलिंग सदियों से ऐसे ही से होती रही है।
    बहुत शानदार लेख सर।

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