Tuesday, July 1, 2025
Tuesday, July 1, 2025




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमसंस्कृतिरणनीतिक कौशल के रूप में खंडन मंडन की शैली का उपयोग

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

रणनीतिक कौशल के रूप में खंडन मंडन की शैली का उपयोग

विगत 26 फरवरी 2023 को समय संज्ञान फाउंडेशन द्वारा आयोजित ईश कुमार गंगानिया के आत्‍मवृत्त मैं और मेरा गिरेबां का लोकार्पण व परिचर्चा का आयोजन गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में किया गया। जिसमें मुख्य वक्ता डॉ. रजनी दिसोदिया,  डॉ. अनुज कुमार और श्री शंकर थे। आयोजन की अध्यक्षता प्रो. अब्‍दुल बिस्मिल्लाह  और विषय प्रस्तावना प्रो. रामचन्द्र […]

विगत 26 फरवरी 2023 को समय संज्ञान फाउंडेशन द्वारा आयोजित ईश कुमार गंगानिया के आत्‍मवृत्त मैं और मेरा गिरेबां का लोकार्पण व परिचर्चा का आयोजन गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में किया गया। जिसमें मुख्य वक्ता डॉ. रजनी दिसोदिया,  डॉ. अनुज कुमार और श्री शंकर थे। आयोजन की अध्यक्षता प्रो. अब्‍दुल बिस्मिल्लाह  और विषय प्रस्तावना प्रो. रामचन्द्र ने की। मंच संचालन का दायित्व डॉ. राजेश कुमार ने निभाया। कार्यक्रम की वीडियो रिकॉर्डिंग को शिव नाथ शीलबोधि ने शिद्दत से अंजाम दिया। कर्मशील भारती ने सभी अतिथियों और श्रोताओं का आभार प्रकट किया।

आयोजन की एक खूबी यह भी रही कि सभी वक्‍ताओं के व्याख्यान ईश कुमार गंगानिया के आत्‍मवृत्त मैं और मेरा गिरेबां पर ही केंद्रित रहा, उनका अध्ययन और चिंतन टेक्स्ट आधारित और व्यापक था। वक्‍ताओं के साथ-साथ अध्यक्ष महोदय ने भी पुस्तक के एक-एक वाक्य और एक-एक शब्द के गुण-दोषों पर विस्तार से उल्लेख किया,  अन्यथा लोकार्पण और पुस्तक परिचर्चा संबंधी आयोजनों को लेकर श्रोताओं को आशंका रहती है कि कहीं वक्‍ताओं के अलावा पुस्तक लेखक भी यह न कह दे कि मुझे पुस्तक पढ़ने का अवसर तो नहीं मिला, अभी आते-आते रास्ते में सरसरी तौर पर देखी है,यह एक कालजयी कृति है। आयोजन की सार्थकता इस बात में रही कि परिचर्चा ईश कुमार गंगानिया के आत्‍मवृत्त मैं और मेरा गिरेबां पर केंद्रित भी रही।  और दलित साहित्य (विशेष रूप से आत्मकथाओं) की परंपरा का पुनर्मूल्‍यांकन भी संभव हुआ। प्रो. राम चन्द्र ने विषय प्रस्तावना में आत्मकथाओं के इतिहास का अवलोकन (मराठी साहित्य से हिंदी साहित्य तक) करते हुए ईश कुमार गंगानिया की आत्मकथा ‘मैं और मेरा गिरेबां’ का विशेष परिचय दिया। उन्होंने ओम प्रकाश वाल्मीकि की प्रशंसा करते हुए कहा कि ‘जूठन’ जातीय उत्पीड़न और दलित समाज के अनुभवों का मार्मिक दस्तावेज है। प्रो. राम चन्द्र ने ‘जूठन’ से “मैं और मेरा गिरेबां’ तक हिंदी दलित आत्मकथाओं के इतिहास का सारगर्भित परिचय दिया।

अपने लेखकीय वक्तव्य में ईश कुमार गंगानिया ने कहा-‘मुझे न कुछ पा लेने की लालसा है, न कुछ खो जाने का डर। मगर हां, जिम्मेदारियों से पलायन मुझे कभी मंजूर नहीं है। इसलिए मौजूदा हालात में बिन मांगे जो मिल रहा है, उससे बेहद सुकून में हूं।’ अर्थात लेखक लोभ और भय से मुक्त होकर साहित्य में सामाजिक यथार्थ और व्यक्ति सत्य को चित्रित कर सकते हैं अन्यथा लोभ और भयग्रस्त लेखक ‘चारण’ भी होते हैं।

[bs-quote quote=”दलित लेखन में गांधी की नकारात्मक छवि को लेकर डॉ. अनुज कुमार ने खिन्नता प्रकट की कि दलित लेखक गांधी और आर. एस. एस. की विचारधारा में अंतर नहीं करते। गांधी को कोसने वाले नेता भी आर. एस. एस. की झंडाबरदारी में संकोच नहीं करते।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

अपने रचना कर्म के संदर्भ में गंगानिया जी ने कहा, ‘मैं वो लिखता हूं, जो मुझे सैटिस्फैक्शन देता है। मुझे नहीं मालूम, इस प्रक्रिया में मैं साहित्य के अनुशासन व मानदंडों का हित कर रहा हूं या अहित, यह तय करना विद्वानों का काम है, जो मैं नहीं हूं और उस दौड़ में भी नहीं हूं।’ इस प्रकार गंगानिया जी ने न तो किसी साहित्य सेवा का दावा किया है और न ही अपने रचना कर्म को क्रांति का अग्रदूत कहा। उन्होंने यह दावा अवश्य किया कि उनके लेखन के केंद्र में ग्‍लोबल सिटीजन है-‘ मेरे लेखन के केंद्र में व्यक्ति है, समाज है, राष्ट्र है, पूरी मानवता है।’ यह ग्‍लोबल सिटीजन धर्म और जाति की हदों में सीमित नहीं हैं। इसलिए लेखक को जाति का विक्टिम कार्ड खेलने की जरूरत नहीं है। यद्यपि लेखक ने यह भी स्वीकार किया, ‘बहुसंख्‍यकवाद के चलते धार्मिक आतंक है। बहुसंख्यक के अंदर अल्पसंख्यक का जातिवादी तांडव है, शोषण है, उत्पीड़न है।’ जिसके विरुद्ध लड़ने का लेखक का तरीका विक्टिम कार्ड से बिल्कुल अलग है। यह तरीका डॉ. आंबेडकर और बराकओबामा से प्रेरित है कि अपने संसाधनों का उपयोग कर ऊपर उठने को प्राथमिकता देने की जरूरत है। अपने लेखकीय वक्तव्य के आरंभ में गंगानिया जी ने विनम्र भाव से कहा कि वे आज भी एक विद्यार्थी हैं, एक लर्नर हैं। उन्होंने स्वयं को एक्सपेरिमेंटल मोड पर रखा है। अपने वक्तव्य के अंत में भी उन्होंने विनम्र भाव से कहा कि उनके पास छिपाने को कुछ नहीं है। अपने जीवन के खिड़की दरवाजे सब खोल दिए हैं-“Now the ball in the court of Experts to deal the way find appropriate.”

बुनकरी के काम में महिलाओं को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिल पाती

एक्सपर्ट्स के पाले में गेंद आने के बाद डॉ. रजनी दिसोदिया ने आत्मकथा के गुण-दोषों का विवेचन करते हुए कृति के पक्ष में भी कई बातें कहीं और इस पर कुछ प्रश्न भी उठाए। लेकिन उनके एक कथन की अनुगूंज आयोजन संपन्न होने के बाद भी निरंतर सुनाई देती है-“लेखक आत्मकथा लेखन में अतिरिक्त रूप से सतर्क है, चौकन्ना है।” डॉ. अनुज कुमार की असहमति ने डॉ. रजनी दिसोदिया के इस कथन की अनुगूंज को और गहन कर दिया। जबकि डॉ. रजनी दिसोदिया ने अपने वक्तव्य की शुरुआत लेखक की आत्मकथा संबंधी अवधारणा को समझने समझाने के क्रम से की थी कि लेखक ने यह आत्मकथा किस समझ के साथ लिखी है। गंगानिया जी कहते हैं कि उन्होंने अभी तक कोई ऐसा तीर नहीं मार लिया है, जिसके लिए आत्मकथा लिखी जाए उनके जीवन में स्‍टारडम जैसा कुछ नहीं है और न ही उनके जीवन में ऐसा कोई शोषण-उत्पीड़न रहा कि वे उसका बखान करने के लिए अपना आत्‍मवृत्त लिखें जैसा कि मराठी के दलित साहित्यकारों ने लिखा है। मराठी की तर्ज पर ही हिंदी के अधिकांश आत्‍मवृत्त लिखे गए हैं या लिखे जा रहे हैं।इन दोनों श्रेणियों के बाहर भी जनसाधारण के लिए ऐसा बहुत कुछ है , जिससे सीखा जा सकता है , उन्हीं अनुभवों के अन्वेषण के क्रम यह आत्मकथा लिखी गई है।

डॉ. रजनी दिसोदिया के कथन से असहमत होने के उपरांत डॉ. अनुज कुमार ने अपना वक्तव्य लेखक की उन टिप्पणियों पर केंद्रित कर दिया, जो गांधी के विषय में थीं। दलित लेखन में गांधी की नकारात्मक छवि को लेकर डॉ. अनुज कुमार ने खिन्नता प्रकट की कि दलित लेखक गांधी और आर. एस. एस. की विचारधारा में अंतर नहीं करते। गांधी को कोसने वाले नेता भी आर. एस. एस. की झंडाबरदारी में संकोच नहीं करते। गांधी के प्रति लेखक की अनुदारता को छोड़ दिया जाए तो डॉ. अनुज कुमार ने इस आत्मकथा को आत्मीयता और प्रशंसा भाव से स्वीकार किया। उन्होंने इस आत्मकथा को अन्य दलित आत्मकथाओं से आगे की रचना मानते हुए कहा कि वे लेखक की जाति नहीं जानते। यदि पाठक को लेखक की जाति पता न हो तो इस आत्मकथा को पढ़ते हुए पता नहीं लगता कि यह दलित आत्मकथा है। अर्थात यह आत्मकथा जाति की हदों से आगे की रचना है।

[bs-quote quote=”‘जामिया में किसी तरह का जाति भेद या धार्मिक भेदभाव नहीं है।’ लेखक के इस कथन पर बिस्मिल्लाह जी मुग्ध थे। उन्होंने आत्मकथा का विवेचन विमर्शों के आईने में भी किया। गंगानिया जी के जाति विषयक अनुभव अन्य दलित लेखकों से अलग हैं, इसके दो प्रमुख कारण बिस्मिल्लाह जी ने बताए-एक तो यह कि उनके पिता आर्य समाजी थे और लेखक को शिक्षा का अवसर मिला। शिक्षित और समर्थ दलित जाति की समस्या से ऊपर उठ जाता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

परिकथा के संपादक श्री शंकर ने विमर्शों के आईने में ‘मैं और मेरा गिरेबां’ का विवेचन किया। उन्होंने आत्मकथा और आत्‍मवृत्त में सूक्ष्म अंतर करते आत्‍मवृत्त की विशद व्याख्या की। दलित आत्मवृतों के यथार्थ को बिना किसी किंतु परंतु के स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, ‘यदि लेखक को जातीय अपमान और उत्पीड़न के अनुभव नहीं हुए तो इसका अर्थ यह नहीं कि समाज में जाति की समस्या नहीं है, समाज जाति मुक्त हो गया है।’ श्री शंकर जी की बात की पुष्टि प्रो. अब्‍दुल बिस्मिल्लाह ने भी की। उन्होंने आत्मकथा से ही लेखक के प्रेम और विवाह का उदाहरण प्रस्तुत किया कि लेखक और उनकी होने वाली पत्नी दोनों ही दलित समाज से हैं, फिर भी जाति उनके विवाह में बाधा बनकर खड़ी हो जाती है। श्री शंकर ने साहित्य में सामाजिक यथार्थ पर बल देते हुए यह भी कहा कि यदि दलित लेखकों की रचनाओं में जाति की समस्या आती है तो यह उनका सच है और गंगानिया जी ने अपना सच लिखा है।

इस पर संचालक महोदय राजेश चौहान ने श्री शंकर की कहानी विषयक रुचि पर टिप्पणी की, ‘अब समझ आया कि शंकर जी को फूल-पत्तियों की कहानियां क्यों पसंद नहीं हैं, जब हम विसंगतियों और विद्रूपताओं से घिरे हों तो प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने की फुर्सत कहां है!’

गाँव का नाम बदल गया है लेकिन हालात उतने ही बुरे हैं

प्रो. अब्‍दुल बिस्मिल्लाह ने अध्यक्षीय वक्तव्य की शुरुआत बड़े रोचक ढंग से की। वह सतत विद्यार्थी की भूमिका में रहने वाले लेखक ईश कुमार गंगानिया को अपना विद्यार्थी कहने का लोभ संवरण नहीं कर पाए। बिस्मिल्लाह जी ने जामिया में अध्यापन किया और गंगानिया जी वहां कुछ समय तक विद्यार्थी रहे, गुरु शिष्य के संबंध के लिए इतना आधार पर्याप्त माना गया। इसी कारण बिस्मिल्लाह जी आत्मकथा में यह भी खोजते रहे कि लेखक ने जामिया के विषय में क्या लिखा है। ‘जामिया में किसी तरह का जाति भेद या धार्मिक भेदभाव नहीं है।’ लेखक के इस कथन पर बिस्मिल्लाह जी मुग्ध थे। उन्होंने आत्मकथा का विवेचन विमर्शों के आईने में भी किया। गंगानिया जी के जाति विषयक अनुभव अन्य दलित लेखकों से अलग हैं, इसके दो प्रमुख कारण बिस्मिल्लाह जी ने बताए-एक तो यह कि उनके पिता आर्य समाजी थे और लेखक को शिक्षा का अवसर मिला। शिक्षित और समर्थ दलित जाति की समस्या से ऊपर उठ जाता है। दूसरा कारण भौगोलिक बताया कि लेखक दिल्ली से जुड़े सोनीपत इलाके से आते हैं, जहां जाति की समस्या ठीक वैसी नहीं है जैसी कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में है।

बिस्मिल्लाह जी ने भाषा व्याकरण संबंधी त्रुटियों को आत्मकथा की कमजोरी के रूप में रेखांकित किया, इस मामले में वह लेखक को कोई छूट नहीं देते। यद्यपि उन्होंने लेखक के अंदाजे बयां को इस मायने में विशिष्ट बताया कि खंडन मंडन की शैली का उपयोग रणनीतिक कौशल के रूप में किया गया है। लेखक ने दूसरों की  भर्त्सना करके यह भी जोड़ दिया है कि हो शायद वह स्वयं ही गलत हों और दूसरा ठीक हो। अर्थात दूसरों को गलत सिद्ध करने के इरादे से उन्होंने किसी प्रसंग का उल्लेख नहीं किया है।

एक धूसरित होता शहर बरहज

पुस्तक परिचर्चा का पटाक्षेप करते हुए राजेश चौहान ने कहा, लेखक ने शायद बे-इरादा लिखा है। बात शुरू हुई थी चौकन्नेपन (सतर्कतापूर्वक लेखन) से और तान टूटी है गैर इरादतन लेखन पर। डॉ. रजनी दिसोदिया ने जिसे अतिरिक्त सतर्कता से लिखी गई आत्मकथा कहा, प्रो. अब्‍दुल बिस्मिल्लाह ने उसे परिहास में गैर-इरादतन लेखन कहा।

कार्यक्रम के अंत में कर्मशील भारती ने औपचारिक धन्यवाद ज्ञापन किया।

डा. राजेश चौहान अध्यापक हैं और दिल्ली में रहते हैं।

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Bollywood Lifestyle and Entertainment