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बुनकरी के काम में महिलाओं को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिल पाती

बुनकर को जो मजदूरी मिलती है उसी में घर की स्त्री की मेहनत का मूल्य भी होता है लेकिन वह उसे कभी अलग से नहीं मिलता। अमूर्त रूप से उसका मूल्य उसके भोजन में मिला होता है। अगर बुनकर के जीवन में परिश्रम और गरीबी को देखें तो यह निस्संदेह सहानुभूति पैदा करने वाला काम है जो अर्थव्यवस्था के नकारात्मक विस्तार के कारण दयनीयता और लाचारी के चरम पर है लेकिन स्त्री इस हालत में भी पुरुषसत्ता का शिकार है।

बनारसी साड़ी के काम में लगे तंत्र में आमतौर पर पुरुषों का ही बोलबाला दिखता है। महिलाओं के काम का कोई चर्चा ही नहीं होता। जबकि उनका श्रम बहुत बुनियादी होता है। बुनाई के शुरुआती कामों में महिलाओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है लेकिन उन्हें उसका कोई मेहनताना नहीं मिलता। उनका काम घरेलू श्रेणी में गिना जाता है। घरेलू काम सब लोग मिलकर निपटाते हैं। एक रेज़ा पुजने (साड़ी तैयार होने) पर बुनकर को जो मजदूरी मिलती है उसी में घर की स्त्री की मेहनत का मूल्य भी होता है लेकिन वह उसे कभी अलग से नहीं मिलता। अमूर्त रूप से उसका मूल्य उसके भोजन में मिला होता है। अगर बुनकर के जीवन में परिश्रम और गरीबी को देखें तो यह निस्संदेह सहानुभूति पैदा करने वाला काम है जो अर्थव्यवस्था के नकारात्मक विस्तार के कारण दयनीयता और लाचारी के चरम पर है लेकिन स्त्री इस हालत में भी पुरुषसत्ता का शिकार है। पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर खटने के बदले उसे केवल पेट भरने की सहूलियत है। यह प्रारम्भ से ही चला आ रहा है।

सीजेपी द्वारा किए गए अध्ययन करघों की खामोशी में भी अलग-अलग अनुभव दर्ज़ किए गए हैं। इस अध्ययन- सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वाले उत्तर प्रदेश के 4 जिलों के कुल 204 लोगों में 24 प्रतिशत महिलाएँ थीं और 76  प्रतिशत पुरुष। बुनाई उद्योग में महिलाओं की अहम भूमिका है। महिलाएं बुनाई प्रक्रिया में अपने पतियों को नरी भरकर, धागा कटाई और साड़ी की सजावट का काम करके मदद करती हैं।

‘बनारस में महिलाएं बुनाई नहीं करती हैं लेकिन वे बुनाई  से जुड़े दूसरे काम करती हैं। महिलाएं ज्यादातर बुनाई  काम के लिए तैयारी के काम और बुनाई के बाद के कामों  को करती हैं। इन कामों में नरी भरना, सजावट के लिए टिकली, गोटा, मोती, सितारा लगाना, फिनिशिंग करना, सिलाई करना, चुनरी पर काम करना आदि है। यह दुर्भाग्य है कि महिलाओं को नरी भरने के काम के लिए कोई पैसा नहीं मिलता है क्योंकि इसे घरेलू काम समझा जाता है। करघे के काम में महिलाओं की बड़ी भूमिका है क्योंकि ये उनका परंपरागत काम रहा है। यह श्रम का पारंपरिक विभाजन है जिसमें महिलाओं को बगैर भुगतान के काम करना पड़ता है।’

करघे पर काम करती महिलाएं        

बनारस में महिलाएँ करघे पर नहीं बैठतीं। बुनकरों पर अध्ययन करनेवाली प्रसिद्ध समाजशास्त्री डॉ मुनीजा रफीक खान कहती हैं कि ‘बनारस में मान्यता है कि महिला अगर करघे पर बैठ जाएगी तो बरक्कत नहीं होगी।’ इसी तरह की मान्यता झारखंड के आदिवासियों में भी है कि अगर स्त्री ने हल थाम लिया तो घर बर्बाद हो जाएगा। बेशक करघा और हल पुरुषसत्ता का प्रतीक बना दिया गया है। लेकिन अब ये मान्यताएँ टूट रही हैं। मंगलपुर गाँव की महरुन्निसा तो बाकायदा करघा चलाती थी और अब पावरलूम भी चलाती है।

डॉ मुनीजा बताती हैं ‘हमने महिलाओं को मऊ और आजमगढ़ में बुनाई का काम करते हुए पाया। मऊ जिले के घोसी और आजमगढ़ के मुबारकपुर में महिलाएं वर्षों से अपने घरों में हथकरघा और पावरलूम पर बुनाई का काम करती आ रही हैं।  सच्चाई यह है कि महिलाएं लूम चलाती हैं, घर संभालती  हैं और पुरुष लूम की मरम्मत करने और बुनाई सामग्री खरीदने का काम करते हैं।’

सीजेपी द्वारा किए गए अध्ययन करघों की खामोशी के अनुसार ‘मऊ और आजमगढ़ में महिलाएं करघों पर साड़ी, ड्रेस, कफन के कपड़े, लहंगा और दुपट्टा बुनती हैं और परिवार की आमदनी बढ़ाती हैं। इनमे कई महिलाएं परिवार की  रोटी चलाने वाली हैं।’

बहुत सी औरतें जरी का काम करती हैं। बहुत से गद्दीदार उनके यहाँ काम की सामग्री दे जाते हैं और काम होने पर मजदूरी देते हैं। पुरुषों के मुक़ाबले उनकी मजदूरी कम होती है। वे ज्यादा तकझक नहीं करती हैं। बारीक काम भी पूरी कुशलता से करती हैं। बनारस के जानकार शायर अलकबीर कहते हैं कि ‘औरतें शरीर से भले कमजोर होती हैं लेकिन काम करने में कतई कमज़ोर नहीं होतीं।’

फोटो- मुनीजा खान

बहुस्तरीय वंचना की शिकार कारीगर महिलाएं

महिलाओं के सामाजिक संघर्ष में लैंगिक पहलुओं पर विशेष रूप से ध्यान देने की भी सख्त जरूरत है कि वे इस मोर्चे पर वास्तव में क्या चुनौतियाँ झेल रही हैं। अल्पसंख्यक, मुसलमान और दलित महिला/लड़कियों को तीन-स्तरीय भेद-भाव और वंचना का सामना करना पड़ता है। पहला, उन्हें वंचित समाज से होने के कारण आर्थिक भेद-भाव का सामना करना पड़ता है। दूसरा, उन्हें सामुदायिक पहचान के कारण से भेद-भाव का सामना करना पड़ता है। तीसरा, लेकिन महत्वपूर्ण कारण है कि उन्हें महिला/लड़की होने के कारण परिवार और समुदाय की पितृसत्ता द्वारा कुचल दिया जाता है।

इस रिपोर्ट में हमने बुनाई के काम में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए बुनकरों की स्थिति को  लैंगिक संवेदनशीलता के लेंस से पड़ताल करने की कोशिश की है। बुनाई के काम में महिला कारीगर और मजदूर सतह पर नहीं दिखती हैं जबकि ‘उस्ताद बुनकर’ और इससे जुड़ी दुनिया में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है।’

डॉ मुनीज़ा रफ़ीक़ खान महिलाओं पर काम करने के दौरान हुये अपने अनुभव साझा करते हुये बताती हैं ‘इस बात को ध्यान में रखते हुए हमने सर्वे के लिए महिलाओं का चयन किया ताकि उनके सरोकारों को  प्रतिनिधित्व मिल सके। वे इसकी हकदार हैं। हमारे सर्वे  के सेंपल में 24 प्रतिशत महिलाएं और लड़कियां हैं।  उनकी दास्तान में कुपोषण और उससे जुड़ी स्वास्थ्य समस्या के अलावा आर्थिक बदहाली, भूख और अनियंत्रित घरेलू अत्याचार का दुखद वर्णन है।

फोटो- अपर्णा

‘हमारे अध्ययन में राहुल सांस्कृत्यायन और कैफी आज़मी का जन्म स्थल आजमगढ़ शामिल है। सर्वे के आंकड़ों के अनुसार इस जिले में 60 प्रतिशत महिलाएं और 52 प्रतिशत बच्चे एनीमिया के शिकार हैं। लॉकडाउन के विशेष प्रभाव के कारण लड़कियों के स्कूल और पढ़ाई छोड़ने की घटनाएं बढ़ी हैं। इसके अतिरिक्त महिला और लड़कियों को घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है। बुनाई के काम में नरी भरने, इंब्रायडरी, मोती-सितारा लगाने और साड़ी या कपड़े की कटिंग करके फिनिशिंग करने जैसे जरूरी काम करने के बावजूद महिला बुनकर का अस्तित्व शायद कल्पना में भी नहीं आता है। वास्तव  में बहुत सारी महिलाएं करघे पर भी काम करती हैं।’

डॉ मुनीज़ा बताती हैं कि ‘जांच के दौरान हमारी टीम को घोसी (मऊ) और मुबारकपुर (आजमगढ़) में महिलाओं द्वारा घर पर हथकरघे और पावरलूम पर बुनाई का काम करने के बारे में पता चला। महिलाएं लुंगी, कंबल, कफन बनाने से लेकर साड़ी बुनने, उसकी पॉलिशिंग और फिनिशिंग का काम करने में माहिर हैं। हकीकत में महिलाएं बुनाई के काम के साथ घर संभालती हैं और पुरुष करघा मरम्मत करने और बुनाई के लिए जरूरी सामान खरीदने का काम करते हैं। बनारस में महिलाएं सीधे तौर पर बुनाई का काम नहीं करती हैं लेकिन बुनाई के काम के लिए तैयारी करने के काम जैसे नरी भरने और बुनाई के बाद के काम जैसे सजावट के लिए टिकली लगाना, मोती-सितारा का काम, पॉलिशिंग, फिनिशिंग जैसे सभी जरूरी काम करती हैं। इनमें अधिकांश काम को काम के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है और इन कामों के बदले महिलाओं को पैसा भी नहीं दिया जाता है। अन्य कई तरह के कामों की तरह  बुनाई में भी महिलाएं जरूरी काम बगैर भुगतान के करती  हैं।

फोटो – मुनीजा खान

 

बुनाई और जरदोज़ी काम में महिलाओं की भूमिका और इसकी मजदूरी 

साड़ी पर पत्थरों की नक्काशी के काम में भी  ‘भारी’ और ‘हल्का’ काम होता है। दोनों का रेट साड़ी पर निर्भर है। एक हल्की साड़ी पर नक्काशी का काम 4  घंटे में पूरा हो जाता है और इसके एवज में लोगों को 10  रुपए मजदूरी दी जाती है। भारी साड़ी पर यह काम पूरा करने में 10-12 घंटे लगते हैं और इसकी मजदूरी 25-30  रुपए है। साड़ी, पत्थर, गोंद आदि सामग्री मालिक मुहैया करता है।

फिनिशिंग के काम में भी महिलाओं की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बनारसी साड़ी की अंतिम प्रक्रिया कटाई  करना है। यह काम महिलाएं घर में करती हैं। इसमे कपड़े के उल्टे हिस्से में छूटे छोटे धागों को हाथ से काटना पड़ता है। इसके बाद साड़ी को तह लगाकर पैक किया जाता है। एक साड़ी के फिनिशिंग के काम में 20-25 मिनट समय लगता है और इसकी मजदूरी 5 रुपया है। सिर्फ हथकरघे पर बुनी गई साड़ी में फिनिशिंग काम जरूरी होता है। हथकरघे की संख्या लगातार कम होने  के कारण अब फिनिशिंग काम की मांग लगभग नहीं के  बराबर रह गई है।

 

चुनरी-दुपट्टा में गोटा लगाने का काम महिलाएं करती हैं। एक दिन में एक महिला 4-5 चुनरी-दुपट्टा का काम पूरा करती हैं। एक चुनरी-दुपट्टा के काम  के लिए उन्हें सिर्फ 3 रुपए मिलते हैं। एक चुनरी-दुपट्टा का काम पूरा करने में 20-25 मिनट समय लगता है।  गोटा, धागा, दुपट्टा, सुई मालिक मुहैया करता है।

दुपट्टा और साड़ी पर जालदार झालर टाँकने का काम भी महिलाएं करती हैं। एक साड़ी पर जालदार झालर लगाने के काम में एक से डेढ़ घंटे लगता है। इस काम के लिए 10-12 रुपए मिलते हैं। उसी तरह दुपट्टे पर यह काम करने में ढेड़ से दो घंटे लगते हैं और इसके एवज में महिला को 15-18 रुपए  मिलते हैं। यह काम नियमित रूप से नहीं मिलता। महिलाओं  को यह काम त्योहार और शादी के समय मिलता है।

महिलाएं घर पर नरी भरने का काम करती हैं। अब यह काम मशीन से होने लगा है। गोरखपुर की  युवा महिलाओं की पीढ़ी ने इस काम में बहुत कम मजदूरी मिलने के कारण यह काम करना छोड़ दिया है। इस काम  में 10 घंटे से ज्यादा काम करने के लिए सिर्फ 60-70  रुपए मजदूरी मिलती है। ये महिलाएं अब बैग सिलाई का काम करने लगी हैं। उन्हें एक बैग सिलने के लिए 1 रुपया मिलता है। वे एक दिन में 100 बैग सिलती हैं और 100  रुपए कमाती हैं।

फोटो – मुनीजा खान

बुनकर परिवारों की महिलाएं आम तौर पर सवेरे 5 बजे  से दोपहर 12 बजे तक लगातार काम करने की बात करती हैं। इस बीच वे आराम नहीं करती हैं। लॉकडाउन से पहले वे करघे पर बुनाई, नरी भरना, चुनरी पर गोटा लगाना, टिकली लगाना, फिनिशिंग काम और आरी का काम करती थीं। इस काम की कोई समय सीमा नहीं थी क्योंकि इन कामों के बीच वे घर के सभी काम जैसे खाना बनाना, सफाई करना, बच्चों की देखभाल करना, पानी  लाना जैसे सभी काम करती थीं।

महिलाएं बुनाई और उससे जुड़े काम कितने घंटे करती हैं यह बता पाना मुश्किल है। महिलाओं के लिए दो तरह के  काम हैं। उनके घर में हथकरघा या पावरलूम है तो वे घर के सभी कामों के साथ बुनाई और नरी भरने का काम करती हैं। इन कामों के लिए उन्हें कभी पैसा नहीं दिया जाता है क्योंकि इन कामों को घरेलू काम का हिस्सा माना जाता है।

दूसरा,महिलाएं घर के बाहर पैसे के एवज में आरी, गोटा लगाने, टिकली लगाने, पत्थर लगाने, फिनिशिंग, बैग बनाने जैसे काम करती हैं। सर्वे में हिस्सा लेने वालों ने बताया ‘लॉकडाउन से सब काम खत्म हो गया। पहले साड़ी पर स्टोन लगाने का, चुनरी का काम मिलता था। अब लूम बंद हो गया है। बुनकरी का काम नहीं चल रहा है तो हम लोगों को भी काम नहीं मिल रहा है। काम नहीं है, खाली बैठे हैं।’

न्यूनतम से भी कम मजदूरी में चलते जीवन की त्रासदियाँ

बुनकरी, जरदोज़ी आदि के काम में लगी महिलाओं की जिंदगी इतनी कठिन है कि यदि आप ज़रा सा भी संवेदनशील होंगे तो दर्द से भर उठेंगे। इनको न्यूनतम से भी कम मजदूरी मिलती है जो बुनियादी जरूरतों के लिए भी कम पड़ती है। घर में दरिद्रता और अभाव जड़ जमाये बैठे हैं। कारीगरी का कोई मूल्य नहीं है इसलिए पेट की आग बुझाने के लिए बिलकुल नाकाफी होने के बावजूद मजदूरी कर रहे हैं। आमतौर पर हम जहां जाते हैं वहाँ लोगों से यही पूछते हैं कि आपको कौन-कौन सी सुविधाएँ मिल रही हैं? असल में अब तक लोगों के मन में यह धारणा बन चुकी है कि सबको मुफ्त राशन मिल रहा है। लेकिन इसकी सच्चाई कुछ और है। खासतौर से मुस्लिम आबादी में यह संदिग्ध परियोजना है जो धार्मिक विद्वेष और भेदभाव के साथ चल रही है। वाराणसी के ग्रामीण इलाके मंगलपुर में भेड़ के ऊन से सूत बनाने वाली जमीला को एक किलो ऊन की मजदूरी पंद्रह रुपए मिलती है और एक दिन में मुश्किल से तीन-चार किलो ऊन बन पाता है। जब मैंने जमीला से वही रटा-रटाया सवाल पूछा तो उन्होंने लगभग रुआंसे होकर कहा – ‘का कहीं?’

उन्होंने बताया कि अब राशन मिलना बंद हो गया है। वह चाहती हैं कि उनकी न्यूनतम मजदूरी बढ़नी चाहिए। कम से कम दो सौ रुपए रोज काम काम हो जाता घर चला लेती। जमीला का घर ईंट का बना है लेकिन आम बुनकर घरों की तरह इसमें भी पलस्तर नहीं हुआ है। आर्थिक अभाव लगातार घुटन पैदा करता है। घर की दीवारों के बीच भूख को दबाकर रह जाना यहाँ कोई बड़ी बात नहीं है। इसके बरक्स शहर के भीतर और भी भयावह स्थिति है। जरी, गोटा, जरदोज़ी का काम करने वाली महिलाओं की जिंदगी अभाव और अंधेरे की भेंट चढ़ रही है। मंगलपुर गाँव में जमीला घर से निकल कर आसमान की ओर ताक सकती हैं लेकिन गोलगड्डा इलाके की सँकरी गलियों में बने मकानों के तंग कमरों में रहकर काम करनेवाली महिलाओं के लिए आकाश आसानी से मयस्सर नहीं है।

फोटो- अपर्णा

एक ऐसे ही कमरे में महिला कारीगरों से मैं मिला। पहली मंजिल पर बने कमरे में पहुँचने के लिए अंधेरे की अभ्यस्त आँखों की जरूरत पड़ती है। बिजली का  मूल्य बढ़ने से सीढ़ियों पर अमूमन बल्ब नहीं जलाया जाता। जगह की तंगी के कारण सीढ़ियाँ एक-एक फुट ऊँची बनी हैं। ऊपर दस बाई दस के कमरे में तीन महिलाएं काम करती हैं। और महीने में साढ़े सात हज़ार तक कमा लेती हैं। यानी तीन महिलाएं मिलकर ढाई सौ रुपया रोज अर्थात एक महिला तिरासी रुपए प्रतिदिन।

वे रोटी तो खा लेती हैं लेकिन बाकी जरूरतों की बात अनसुनी कर देती हैं। मसलन उनमें से एक ने कहा कई महीने से नए चश्मे की जरूरत पड़ रही है लेकिन घर के दूसरे खर्च के आगे चश्मा पीछे रह जा रहा है!

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।
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