पैगम्बर मुहम्मद के बारे में नुपूर शर्मा द्वारा एक टीवी वाकयुद्ध में और नवीन जिंदल द्वारा ट्विटर के जरिये की गयी अपमानजनक टिप्पणियों के खिलाफ विरोध-प्रदर्शनों से बंदूकों, मनमानी गिरफ्तारियों और बुलडोज़रों के ज़रिये निपटा जा रहा है। नुपूर की टिप्पणी के तुरंत बाद उसका विरोध हुआ था परन्तु सरकार ने इस मसले पर तब तक चुप्पी साधे रखी जब तक कि करीब 15 मुस्लिम-बहुल राष्ट्रों ने हमारे राजदूतों को बुलवाकर औपचारिक रूप से और कड़े शब्दों में अपना विरोध व्यक्त नहीं किया। इनमें से अधिकतर इस्लामिक देश हैं जिनका मानवाधिकारों के सन्दर्भ में बहुत अच्छा रिकॉर्ड नहीं है।
भारत, खाड़ी के देशों से मधुर सम्बन्ध बनाये रखना चाहता है। इसके कई कारण हैं। लगभग 80 लाख भारतीय इन देशों में काम करते हैं और वे हर साल अरबों रुपये भारत भेजते हैं। दूसरे, ये देश भारत के कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस की मांग के करीब 40 प्रतिशत हिस्से की पूर्ति करते हैं। तीसरे, वे भारतीय उत्पादों के लिए एक बड़ा बाज़ार उपलब्ध करवाते हैं।
सभी बड़े राजनैतिक दलों का यह कर्तव्य है कि वे आगे आएं और संविधान के प्रावधानों और मंशा के खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन का विरोध करें। उन्हें ‘बुलडोज़र न्याय’ और पुलिस हिरासत में आरोपियों की पिटाई के खिलाफ भी आवाज़ उठानी चाहिए। कहने की आवश्यकता नहीं कि सभी विरोध-प्रदर्शन शांतिपूर्ण होने चाहिए।
खाड़ी के देशों के कड़े रुख के बाद भारत सरकार ने दोषियों पर कार्यवाही करने का प्रहसन किया। सरकार ने सत्ताधारी दल के दोनों वरिष्ठ पदाधिकारियों को फ्रिंज एलिमेंट्स (झक्की या अतिवादी तत्व) बताया। नुपूर भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं और नवीन पार्टी की दिल्ली इकाई के मीडिया प्रमुख हैं। इन दोनों को पार्टी से निकाल दिया गया परन्तु उनके खिलाफ कोई क़ानूनी कार्यवाही नहीं की गयी। नुपूर और नवीन ने क्षमायाचना भी की परन्तु प्रधानमंत्री इस मसले पर चुप्पी साधे रहे
विरोध-प्रदर्शनों के बाद कानपुर में करीब 34 मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया। जब एकतरफ़ा कार्यवाही का आरोप लगा तब कुछ और गिरफ्तारियां हुईं। रांची में 10 जून को हुए विरोध-प्रदर्शन के दौरान दो लड़के मारे गए, सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया गया और कुछ आरोपियों के घर ढहा दिए गए। पुलिस हिरासत में कुछ मुस्लिम लड़कों को बेरहमी से मारते हुए पुलिसकर्मियों का एक वीडियो इन्टरनेट पर उपलब्ध है।
हमारा कानून-व्यवस्था तंत्र कहाँ जा रहा है? क्या पुलिस को आरोपियों के साथ मारपीट करने का हक है? क्या बिना क़ानूनी प्रक्रिया का पालन किए और बिना नोटिस दिए लोगों के घर तोड़े जा सकते हैं? क्या न्यायपालिका की कोई भूमिका ही नहीं रह गयी है? क्या कार्यपालिका का राज कायम हो गया है?
इस संदर्भ में हमें यह भी देखना होगा कि पिछले कुछ वर्षों से अल्पसंख्यकों के साथ किस तरह का व्यवहार हो रहा है। गौरक्षा और बीफ के बहाने लिंचिंग की घटनाएं हुईं और लव जिहाद के नाम पर मुस्लिम युवाओं को निशाना बनाया गया। इस तरह की घटनाओं से पूरा समुदाय थर्रा गया। कोरोना की त्रासदी के दौर में गोदी मीडिया की मदद से महामारी के फैलने के लिए मुसलमानों (तबलीगी जमात) को ज़िम्मेदार बताया गया। कई मुसलमानों को इस आरोप में गिरफ्तार भी किया गया। यह बात अलग है कि अदालतों ने उन्हें निर्दोष करार देते हुए रिहा कर दिया और पुलिस को उन्हें बलि का बकरा बनाने के लिए फटकारा भी।
इसके बाद कुछ रहवासी संघों ने मुस्लिम सब्जी विक्रेताओं पर प्रतिबन्ध लगाए तो कुछ लोगों ने मुस्लिम दुकानदारों और विक्रेताओं का बहिष्कार करने की अपीलें कीं। फिर हिजाब, हलाल मांस, सार्वजनिक स्थानों पर नमाज़ और अज़ान को मुद्दा बनाया गया। ये सभी असहाय मुस्लिम अल्पसंख्यकों को सताने के बहाने थे। धर्मसंसदों ने मुसलमानों के कत्लेआम का आव्हान किया। रामनवमी के जुलूसों के दौरान मुसलमानों को आतंकित करने और उन्हें भड़काने की हर संभव कोशिश की गई। आज एक पूरे समुदाय को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। वे डर के साए में हाशिये पर जीने के लिए मजबूर हैं।
एक नयी बात भी हुई। फ़िल्मी दुनिया ने हालात को और बिगाड़ने की कोशिश की। अर्धसत्य और सफ़ेद झूठ पर आधारित फिल्म कश्मीर फाइल्स का धर्मगुरुओं, आरएसएस के मुखिया और उच्च राजनैतिक पदाधिकारियों ने जमकर प्रचार किया। इस फिल्म ने किस तरह नफरत फैलाई और समाज को साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत किया यह इससे साफ़ है कि फिल्म के अंत में सिनेमा हालों में मुस्लिम-विरोधी नारे गूंजने लगते थे।
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हालात यहाँ तक आ पहुंचे हैं कि जेनोसाइड वाच के ग्रेगोरी स्टेंटन को यह चेतावनी जारी करनी पड़ी कि देश में कत्लेआम का खतरा 1 से 10 के स्केल पर 8 के निशान पर है। जब यह सब हो रहा था तब खाड़ी के देश चुप थे क्योंकि मानवाधिकारों के मामले में उनका रिकॉर्ड बहुत ख़राब है। यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन फॉर इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम की 2022 की वार्षिक रिपोर्ट भारत को आईना दिखती है। ‘भारत में धार्मिक स्वातंत्र्य की स्थितियां बदतर होती जा रही हैं। राष्ट्रीय और विभिन्न राज्य सरकारें धार्मिक अल्पसंख्यकों को सताने और उनके खिलाफ हिंसा की घटनाओं को चुपचाप सहन कर रहीं हैं।’
सभी बड़े राजनैतिक दलों का यह कर्तव्य है कि वे आगे आएं और संविधान के प्रावधानों और मंशा के खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन का विरोध करें। उन्हें ‘बुलडोज़र न्याय’ और पुलिस हिरासत में आरोपियों की पिटाई के खिलाफ भी आवाज़ उठानी चाहिए। कहने की आवश्यकता नहीं कि सभी विरोध-प्रदर्शन शांतिपूर्ण होने चाहिए। राज्य का भी यह कर्तव्य है कि वह किसी भी स्थिति में न्याय की राह से विचलित न हो और विरोध करने वालों से भी सहानुभूति से पेश आए।
नुपूर को जान से मारने की धमकी निंदनीय है। उन पर कानून के अनुसार कार्यवाही की जानी चाहिए और उन्हें धमकी देने वालों से राज्य को निपटना चाहिए। अलकायदा ने जो धमकी दी है, उसकी जितनी निंदा की जाए कम है। टीवी पर होने वाली बहसें वातावरण में नफरत का संचार कर रहीं हैं। इनमें कुछ जाहिल मौलाना और अज्ञानी पंडित एक-दूसरे के धर्मों के खिलाफ विषवमन करते रहते हैं। धर्म, प्रेम और सद्भाव का दूसरा नाम है। धर्म हमें सभी समुदायों से प्यार करना सिखाता है। नफरत कभी किसी धर्म का हिस्सा नहीं हो सकती। वह तो विघटनकारी राजनीति की उपज है।
सभी धर्मों के ग्रंथों को टीवी बहसों से बाहर रखा जाना चाहिए। वे जिन संदर्भों और जिस काल में लिखे गए थे वे वर्तमान से बहुत भिन्न थे। एक-दूसरे की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाने से बचा जाना चाहिए। आराधना स्थलों और उनसे जुड़े अन्य मसलों को राजनीति का विषय नहीं बनाया जा सकता। उन पर देश के कानून के अनुसार निर्णय किया जाना चाहिए। इस तरह के भावनात्मक मुद्दों को उछालने से निरर्थक आरोपों और उनके विरोध का दुष्चक्र शुरू हो जायेगा।
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आज हमें एक-दूसरे के धर्मों का सम्मान करना सीखना होगा। इस सिलसिले में महात्मा गाँधी का यह कथन महत्वपूर्ण है- ‘मैं यह मानता हूँ कि दुनिया के सभी धर्म सत्य हैं। अपनी युवावस्था से ही मेरा यह विनम्र परन्तु अथक प्रयास रहा है कि मैं दुनिया के सभी धर्मों में निहित सत्य को समझूं और उनमें जो भी मैं सर्वश्रेष्ठ पाता हूँ, उसे अपने आचार-विचार और कर्म का हिस्सा बनाऊं। जिस धर्म का पालन मैं करता हूँ वह न केवल मुझे ऐसा करने की इज़ाज़त देता है बल्कि मेरे लिए यह आवश्यक बनाता है कि मैं सबसे अच्छी चीज़ों को ग्रहण करूं, चाहे उनका स्त्रोत जो भी हो।’ (हरिजन, 16-2-1934, पृष्ठ 7). क्या यह सोच हमारी सामाजिक नैतिकता की निर्धारक बन सकती है?
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्माेनी अवार्ड से सम्मानित हैं।
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