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होममेरा गाँवगाँव में जब मुझे खटोला में बिठाकर स्कूल ले जाया गया..

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

गाँव में जब मुझे खटोला में बिठाकर स्कूल ले जाया गया..

'मेरा गाँव' कॉलम में उन लोगों की कहानी होती है, जिन्होंने गाँव को जिया ही नहीं बल्कि भरपूर जिया है। इस में आज तेजपाल सिंह 'तेज' अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए यह बता रहे हैं कि उनका गाँव, अलाबास बातरी, बुलंदशहर (उप्र) बचपन में कैसा था? अपने गाँव को याद करते हुए कैसे लगता है और उन्हें गाँव ने कैसे तैयार किया?

आज जब मैं (तेजपाल सिंह) जीवन की अस्सीवीं सीढ़ी पार करने को हूँ तो अपने गाँव की कहानी (अलाबास बातरी, बुलंदशहर उत्तर प्रदेश) लिखते समय कई प्रश्नों ने मुझे घेरा। सबसे बड़ प्रश्न तो यह था कि मैं अपने बचपन और शिक्षाकाल के गाँव के इतिहास वर्णन करूँ या फिर वर्तमान के विकसित गांव का। इस अवस्था में यही उचित होगा कि मैं अपने बचपन के गाँव के इतिहास और वर्तमान के गाँव को एक साथ लेकर चलूँ। किसी एक का वर्णन करके मैं शायद कहीं न कहीं अपनी मानसिक सिकुड़न का प्रमाण ही प्रस्तुत करूँगा। इसलिए मैं कल और आज के गाँव एक साथ लेकर चलूँगा। वैसे भी आज मैं बड़े ही असमंजस में हूँ, क्या याद करूँ क्या भूल जाऊँ?

इसे पढ़ते हुए मेरी पीढ़ी के बहुत से लोग जो ग्रामीण पृष्ठ्भूमि से आते हैं, सभी मेरे जीवन के इस सच से कभी न कभी गुजरे होंगे।

विदित हो कि मेरा गांव मेरा कोई  पुश्तैनी गाँव नहीं है। ‘कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुवती ने कुनबा जोड़ा’ वाली तर्ज पर बसे इस गाँव में आजादी से लगभग 10-12 साल पूर्व, एक दूसरे के दूरदराज़ के रिश्तेदार आकर बसे थे। खानदानी कतई नहीं थे किंतु सगे से भी ज्यादा मिल-जुलकर रहते थे। एक दूसरे के दुख-दर्द में एक साथ खड़े होना उनकी प्रवृत्ति में शामिल था। गाँव के सब लोग अनपढ़ जरूर थे किंतु उनकी समझ का कोई तोड़ नहीं था। आपस में लाख लड़ाई-झगड़े हों किंतु मजाल कि कोई बाहर का आदमी गाँव में आकर किसी प्रकार का हस्तक्षेप करने का साहस कर पाए।

जगराम, केसरी, महराज और प्रहलाद चार भाई थे जिनके बारे में सुना था कि उनके जन्म के अवसर पर खाने का इतना टोटा था कि उनकी माँ को उनके जन्म के अवसर पर जच्चा को मिलने वाला खाना भी ठीक से नहीं मिलता था। केवल गाजर खा-खाकर अपने बच्चों को पाला-पोसा था। उनके बच्चे बड़े होकर इतने बलशाली बने कि वे जब एक साथ होते थे, तो उनके सामने किसी का इतना साहस नहीं होता था कि ऊँची आवाज में बोल सके। इनके बाद मेरे दूर के मामा के बेटे–चिरंजी और हरीसिंह और मेरे सगे भाए डालचन्द के नाम भी इस सूची में दर्ज थे, उनके हाथों में हमेशा तेल से तर लाठियाँ हुआ करती थीं। यही शारीरिक शक्ति उनकी असली ताकत हुआ करती थी। यहाँ दिवंगत काले तथा तोताराम का नाम लेना भी गैरवाजिब नहीं होगा।

शरीर से बलिष्ठ लम्बा कद, स्याम रंग के मामा हारी राम (दिवंगत) बहुत ही  मृदुभाषी थे। वे ज्यादातर किसी प्रकार के पचड़े में नहीं पड़ते थे, बस अपने काम से काम रखते थे। सादगी और सज्जनता के नाम पर तो मोमराज और समेय सिंह का नाम लिया जा सकता है। जैसा कि मैंने कहा कि मेरे समय के सारे लोग अनपढ़ जरूर थे किंतु थे हरफनमौला।

मेरे गाँव में कुल 40-45 घर थे। जाटवों के घर अब कुछ ज्यादा हैं..परिवारों का निरंतर विकास जो हो रहा है। 1969 में जब मैंने गाँव छोड़ा था कुल चार-पाँच मकानों को छोड़कर बाकी सब मकान मिट्टी व छ्प्पर के बने थे, अब पक्के मकानों की संख्या कुछ ज्यादा है। मेरे समय में आँगन और मकान की दीवारों को गोबर में पीली मिट्टी मिलाकर लीपा-पोता जाता था। बारिश से पहले मकानों की कच्ची छतों को भुस की रैनी (भूसे का बारीक रेशा) और गोबर को चिकनी मिट्टी में मिलाकर वाटर-प्रूफ किया जाता था। आपको यह जानकर हैरत होगी कि मेरा पूरा का पूरा गाँव अनपढ़ों का था। केवल बादाम सिंह और टूकीराम नौवीं कक्षा तक पढ़े थे। उनको नौकरी मिली नहीं, या फिर उन्होंने प्रयास ही नहीं किया, मुझे पता नहीं। लेकिन उनकी नाकामयाबी के चलते उनके घर वालों ने उनकी जल्दी ही शादी कर दी जिससे वो गाँव के ही हो कर रह गए। उनकी  इस नाकामयाबी का गाँव के बाकी बच्चों पर ऐसा कुप्रभाव पड़ा, पढ़ने के प्रति सबका रुझान कम हो गया।

 गाँव के पूरब में चित्सोना और दक्षिण में मंडोना जाट बाहुल्य गाँव हैं तथा उत्तर में केशोपुर सठला और पश्चिम में बी. बी. नगर अवस्थित हैं। ये दोनों ही कस्बे ब्राहम्ण व वैश्य बाहुल्य कस्बे हैं। आमतौर पर सभी जातियों के लोग आपस में मिलजुल कर रहते थे।  कभी-कभार किसी अप्रिय घटना का होना अपवाद ही कहा जाएगा। मेरी याद में, जातीय दंगों के नाम पर कभी कोई तकरार नहीं हुई। एक दूसरे के यहाँ ब्याह-शादी में भी आना जाना भी होता था।

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आज तेजपाल सिंह’तेज’ का गाँव अलाबास बातरी

विदित हो कि मैं घर में सबसे छोटा हूँ। बताया जाता था कि मेरे मां-बाप की चार औलादें थीं। सबसे बड़ा भाई, दो बहनें और मैं। तीनों मुझसे बड़े थे। पूरा परिवार शाकाहारी था। मेरे जन्म के समय मेरे माता-पिता की उम्र पक चुकी थी। यानी मैं बुढ़ापे की औलाद हूँ। शायद इसीलिए भाभी अक्सर मुझे ‘बुढ़ापे की औलाद’ कहकर चिढ़ाती थी। तब मैं इस बात का अर्थ नहीं जानता था। बड़ा हुआ तो जाना।

भाभी ने बताया था कि मेरे जन्म के समय गाँव में हमारा अपना कोई घर नहीं था, मेरा जन्म मेरे दूर के मामा के बेटे– अमर सिंह के घर हुआ था। काफी अरसे उनके घर पर ही हमारा परिवार रहा।  कब अपना घर बना, मालूम नहीं।

जबकि मैं अपने बचपन को ढूँढने के प्रयास में हूँ, तो माँ और बाप के जाने के बाद मुझे लग रहा है कि ज़िंदगी ने मेरे बचपन के पल जो समय ने मुझसे असमय ही छीन लिए थे। आज भी लगता है कि मेरे बचपन के पल सामने मुंह चिढ़ाए खड़े हैं।

स्कूली प्रमाण के आधार पर मेरा जन्म बुलन्दशहर (उ.प्र.) जिले के एक छोटे से गाँव ‘अला बास बातरी’  में सन 1949 के अगस्त माह में हुआ।

भाभी ने बताया था कि जब मैं लगभग डेढ़ वर्ष का था, तब मेरे बाबा (पिता) हरिसिंह, जिन्हे गांव में ‘हरिया’ के नाम से पुकारता था, का देहांत हुआ था। उस धुंधली यादों में आज भी मुझे ऐसा लगता है कि बाबा यानी मेरे पिता के देहांत के समय घर के आस पड़ोस के लोग-लुगाई हमारे घर आते, मेरी ओर भीगी आँखों से देखते, शायद मेरे बचपन में ही अनाथ होने की चिंता पर मन ही मन आहें भरते, आँसू गिराते होंगे। कई मेरे सिर पर हाथ रखकर दुख जताते और चले जाते।

बचपन की सबसे बड़ी विरासत तो यही होती है की उन दिनों न किसी दुख का, न किसी सुख का अहसास होता। न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर, न कोई अपना, न कोई पराया। बच्चे का दुनिया से अनजानापन ही उसे दुनियावी होने से बचाता है।  इसीलिए तो उसके चेहरे पर हमेशा हंसी तारी रहती है।

प्राथमिक शिक्षा हेतु स्कूल की राह पर…

दीन-दुनिया से बेखबर, खेलते-कूदते न जाने कब मैं  8-9 साल का हो गया। गाँव में बच्चों के साथ समय बिताने के लिए गिल्ली-डंडा खेलना, भैंस की कमर पर बैठकर गाँव से सटी पोखर में नहाना, कंचे खेलना और न जाने कितने ही ऊट-पटांग खेल ही हमारे मजोरंजन के साधन होते थे। घर वालों में से किसी को भी मेर्र पढ़ाई-लिखाई के बारे में कोई चिंता न थी। स्कूल में दाखिला तक नहीं हुआ था। माँ घर के काम-काज और डांगरों (पशुओं) की देख-रेख में इतनी व्यस्त रहती थी कि उसे कुछ और सोचने की फुरसत ही नहीं होती थी।

आखिर एक दिन भाभी ने उनसे मेरी पढ़ाई के बारे में कुछ-खरी-खोटी बातें की तो भाई साहब अगले दिन ही मुझे गाँव के नजदीक वाले कस्बे ‘केशोपुर सठला’ के प्राथमिक स्कूल में ले गए और स्कूल में मेरे दाखिले की बात की। जन्म-प्रमाण तो उस समय हुआ ही नहीं करते थे सो मास्टर जी ने अपने हिसाब से मुझे पाँच वर्ष का बनाकर मेरी जन्म-तिथि 08.08.1949 लिखी और मेरा पहली कक्षा में दाखिला कर दिया। किंतु मुझे घर और स्कूल में कोई अंतर नहीं लग रहा था। मंद-बुद्धि जो था। किसी प्रकार की चंचलता मेरे आस-पास तक न थी। स्कूल में दो-चार दिन आने के बाद पता चला कि गाँव के और तीन-चार  बच्चे पहली कक्षा में पढ़ते हैं और मुझे जोड़कर अब एक ही गांव के पाँच छात्र हो गए थे। स्कूल गांव से लगभग एक किलोमीटर ही होगा सो अब हम चारों का रोजाना साथ-साथ पैदल ही स्कूल आना-जाना हुआ करता था। किंतु पढ़ाई-लिखाई के प्रति मेरा कोई खास रुझान नहीं था। घर से किताब और तख्ती-किताबों का झोला (बस्ता)  स्कूल ले जाना और वैसे ही स्कूल से घर आ जाता था। घर पर कोई कोई पूछताछ तो करता ही नहीं था। बाकी सब लड़के पढ़ने में मुझसे अच्छे थे।

जब स्कूल ही जाना बंद कर दिया….

स्कूल आते-जाते दो साल ही गुजरे होंगे। मुझसे बड़ी बहन अपनी बेटी की बीमारी का इलाज करवाने हमारे घर पर ही आई हुई थी। बच्ची साल-डेढ़ साल की होगी। एक दिन मैं और मेरे जीजाजी उसे डॉक्टर के पास, नजदीक के कस्बे भवन बहादुर नगर साइकिल पर लेकर जा रहे थे। मैं बच्ची को गोद में लेकर साइकिल की पिछली सीट पर बैठा था। गाँव से थोड़ी दूर जाने पर मैंने पाया कि बच्ची का हिलना-डुलना बन्द हो गया है। मैंने साइकिल रुकवाई और जीजा जी से बच्ची को देखने के लिए कहा। उन्होंने बच्ची को देखा और बिना कुछ कहे साइकिल गाँव की ओर मोड़ ली और भारी मन से बोले ‘गई’। मैं बच्ची को लेकर फिर साइकिल पर बैठ गया। घर पहुँचे तो रोआ-राट मच गया। यह जानते देर न लगी कि बच्ची मर गई है। मुझे वह बहुत प्यारी थी। मैं भी फफक कर रो पड़ा। मुझे उस दिन कुछ-कुछ यूँ लगा कि दुनिया के प्रति मेरी बचपन की बेहोशी जैसे छंटने लगी है और दुनियावी सोच के पंखों ने फड़फड़ाना शुरू कर दिया हैं। खैर! हुआ यूँ कि मैंने बचपनी भावना में बहकर स्कूल जाना ही बंद कर दिया।

खेलकूद में लगभग एक सप्ताह गुजर गया, मैं स्कूल नहीं गया। इस पर एक दिन स्कूल में मुझे पढ़ाने वाले अध्यापक  मा. हरपाल सिंह जी अचानक घर आ धमके। उस दिन संयोगवश मैं भी घर पर ही था। खेलने-कूदने कहीं नहीं गया था। घर वालों ने मास्टर जी को आदर सहित खाट पर बिठाया। मास्टर जी ने इधर-उधर देखा और मेरी ओर हाथ का इशारा करके मुझे अपने पास बुलाया। बोले – स्कूल क्यों नहीं आ रहा आजकल तू.? मैं जड़ बना सुनता रहा। उनके दोबारा पूछने पर मैंने सिर झुकाए हुए ही कहा कि मुझे नहीं पढ़ना है। इतना सुनकर मास्टर जी का चेहरा-मोहरा बदल गया और उन्होंने घर वालों  भाई व भाभी से सवाल कर डाला,  सुना तुमने… ये क्या कह रहा है? क्या तुम भी नहीं चाहते कि ये पढ़े? भाई व भाभी ने मेरे स्कूल न जाने के प्रति अनभिज्ञता जताई और बड़े ही हल्के मन से कहा कि हम तो चाहते हैं कि ये पढ़े। इसीलिए तो स्कूल में नाम लिखाया है.. इसका। इतना सुनकर मास्टर जी बोले – ठीक है तुम क्या चाहते हो क्या नहीं, तुम जानो किंतु मैं इतना जानता हूँ कि इसे पढ़ना है। इसका झोला (बस्ता) लाओ। इसे आज से ही स्कूल जाना है। भाभी मेरा झोला ले आई। लाकर मेरे कंधे पर टांग दिया। मास्टर जी के हाथ में कमची लगी थी जिसे देखकर मेरी हवा खराब हो रही थी। मास्टर जी ने कमची हिलाते हुए मेरा हाथ पकड़ा और मुझे साथ लेकर चल पड़े स्कूल की ओर। धीरे-धीरे मैं और मेरे अन्य साथी भी पाँचवी कक्षा में आ गए।

alabaas batri bulandshahr tejpal singh
गाँव में अंबेडकर की मूर्ति

स्कूल में दो ही अध्यापक होते थे। एक हरपाल सिंह मास्टर और दूसरे – रघुनंदन शरण शर्मा मास्टर। रघुनंदन शरण जी बुजुर्ग और स्कूल के प्रधानाध्यापक थे। चौथी व पांचवी कक्षाओं को पढ़ाया करते थे। वे पांचवी कक्षा के सभी  बच्चों को बिना किसी जातिगत भेदभाव के सर्दी के मौसम में अपने घर पर रोजाना रात को बिना कोई पैसा लिए ट्यूशन पढ़ाया करते थे। उन्होंने ट्यूशन पढ़ने के बाद बच्चों के सोने के लिए एक बड़े से कमरे में ईख की पताई (गन्ने के सुखे हुए पत्ते) डलवाकर उस पर जाजम बिछवा दी थी।

खटोले पर परीक्षा..

उस समय पांचवी की परीक्षा बोर्ड की होती थी। परीक्षा से पहले कुछ दिन की छुट्टी हुआ करती थी। फरवरी-मार्च के महीने में सर्दियां कुछ कम हो ही जाती हैं। खेलकूद में छुट्टियां न जाने कब खत्म हो जाती थीं, कुछ पता ही नहीं पड़ता था। इस दौरान मेरे साथ एक दुखद घटना ये घटी कि खेलकूद में मेरे दाईं टांग के घुटने में गहरी चोट लग गई। उधर परीक्षा सिर पर आ गई। चोट पक गई और घुटने में मवाद पड़ गई थी। ऐसे में कैसी पढ़ाई, कैसी लिखाई। घुटने में दर्द के कारण वैसे ही पढ़ने में कौन सा मन था। परीक्षा नजदीक के दूसरे कस्बे भवन बहादुर नगर (बी.बी.नगर) में होनी थी। अब मेरे सामने सबसे बड़ा सवाल था कि परीक्षा देने कैसे जाया जाएगा। घरवालों का भी इस ओर कोई ध्यान नहीं था। खैर! परीक्षा से पहले मेरी चोट के बारे में मा. हरपाल सिंह जी को पता लग गया था। वे परीक्षा से एक दिन पहले घर आ पहुंचे। मेरा हाल जाना और दुख जताते हुए मेरे भाई से मालूम किया कि घर पर कोई खटोला है कि नहीं। (छोटी खाट को गावों में आज भी खटोला ही कहते हैं। यदि नहीं तो आस-पडोस से मांगकर ले आवें। खटोले का इंतजाम तो कर दिया गया किंतु मास्टर जी को छोड़कर सबके दिमाग में एक ही प्रश्न था कि आखिर इस खटोले का होगा क्या। मास्टर जी से यह सब पूछने की हिम्मत भी किसी ने नहीं जुटाई। मास्टर जी ने मुझसे कहा कि कल परीक्षा देने चलना है – समझ गया कि नहीं। सुबह तैयार रहना। इतना कहकर मास्टर जी चले गए।

देहातों में कैसी तैयारी? दिन निकला, हाथ-मुंह धोए, कमीज पजामा पहना और हो गए तैयार। अगले दिन सूरज थोड़ा ही चढ़ा था कि मास्टर जी अपने साथ छ:-सात बच्चे लेकर घर आ गए। मुझे खटोले पर डाला, बच्चों ने खटोला उठाया और चल पड़े परीक्षा केन्द्र की ओर। परीक्षा समाप्त होने पर बच्चे ही मुझे खटोले पर डालकर घर पर छोड़ गए। परीक्षा के समाप्त होने तक यही सिलसिला चलता रहा। मैं भी पांचवी कक्षा में पास हो गया।

विषय की पढ़ाई के लिए मेरा मार्ग भी प्रशस्त हो गया। यदि आज मैं ये कहूँ कि यदि मास्टर हरपाल सिंह जी न होते तो आज का तेजपाल सिंह ‘तेज’ देहात ही में ‘तेजू’ बनकर रह जाता। इधर-उधर चाकरी में लगा होता।

इस तरह मैं सातवीं कक्षा में आ गया। कालिज में सातवीं कक्षा के तीन सेक्शन होते थे। प्रत्येक सेक्शन में लगभग पैंतालीस-पैतालीस छात्र होते थे। स्कूल में साल में तीन परीक्षाएं हुआ करती थीं- तिमाही, छमाही और सालाना। तिमाही परीक्षा का परिणाम आया तो जाना कि मेरा एक साथी तीनों सेक्शनों में पांचवे नम्बर पर आया। मुझे इसकी खुशी तो थी किंतु पता नहीं क्यों, मुझे अचानक इस बात का दुख भी सताने लगा था कि मेरा कोई नम्बर क्यों नहीं। साथी छात्रों के संसर्ग में रहकर मेरी सोच का पंछी जैसे किसी खाई से निकलकर मैदान में आने को आतुर होने लगा था। अब सोते-जगते यही सवाल मेरे ज़हन में घूमता रहता। फलत: किताबों से कुश्ती करना शुरू कर दिया। इसके बाद पढ़ाई के प्रति मेरी रुचि इस कदर बढ़ी कि मुझे पढ़ाई के अलावा कुछ और भाता ही नहीं था।

मेरी इस हालत को देखकर,  मेरी भाभी कभी-कभी सोचने लगती कि पता नहीं इसे क्या हो गया है। अब न तो ये खेलने जाता है और घर पर भी चुप-चुप ही रहता है। भाभी ने ये बात माँ से भी शिकायती लहजे में कही होगी। माँ ने मुझसे कुछ कहा तो नहीं किंतु मुझ पर नज़र रखने लगी। दुकड़िया में मुझे देखने आती और मुझको पढ़ता हुआ देखकर वापिस हो जाती, फिर सारा किस्सा भाभी को सुनाती थी। जब कहीं मेरे ना खेलने और हमेशा चुप-चुप रहने का मामला उनके दिमाग से उठ गया था। पढ़ाई के प्रति बढ़ते रुझान के चलते, छमाही की परिक्षा में मुझे अप्रत्याशित सफलता मिली। इस बार मैं लगभग 135 बच्चों यानी पूरी कक्षा में दसवें-ग्यारहवें पायदान पर पहुँच गया। सीधे-सादे और सामान्य दर्जे के छात्र का अचानक छलांग लगाना, मेरे कुछ साथी छात्रों को खला भी, जो स्वाभाविक ही था। मेरे ही गाँव का साथी अमरनाथ तो मुझसे ऐसे ख़फा-ख़फा सा रहने लगा जैसे मैंने उसका नम्बर ही छीन लिया हो। अब सालाना परीक्षा की बारी थी। मैं और मन लगा कर पढ़ने लगा। सालाना परीक्षा सिर पर थी। कई बार तो सर्दियों के मौसम में रात को पढ़ते-पढ़ते मैं सो जाया करता था और मिट्टी के तेल का दीया (डिबिया) जलता ही रह जाता था। उसे माँ या भाभी में से कौन, कब बंद करता होगा, नहीं मालूम। पढ़ाई के लिए और तो कोई खास सुविधा थी नहीं, ना घड़ी, ना मेज।

खैर! सातवीं की सालाना परीक्षा भी समाप्त हो गई। रिजल्ट आया तो जाना कि पूरी कक्षा में इस बार मेरी सातवीं पोजीशन थी। मैं बेहद खुश हुआ। टीचर्स भी मेरी निरंतर बढ़त को देखकर मुझे प्यार की नज़र से देखने लगे थे। अचानक इतना बड़ा परिवर्तन किसी और को तो क्या आज मुझे भी नहीं पच रहा है। ये सब कैसे हुआ? मैं खुद नहीं जानता कि आखिर मुझे हो क्या गया था कि पढ़ाई के अलावा मुझे कुछ और सूझता ही नहीं था। यदि मैं ये कहूँ कि सातवीं कक्षा का वह वर्ष ही पढ़ाई के मामले में मेरे लिए एक सकारात्मक ‘टर्निंग पाइंट’ था तो अनुचित न होगा।

अब मैं आठवीं कक्षा में था। पढ़ाई का सिलसिला पहले जैसा ही चलता रहा और मैं दिनोंदिन पढ़ाई से जुड़ता चला गया। अध्यापकों और तरक्की पसंद साथियों का भरपूर सहयोग मिल रहा था। जब भी चाहूँ कोई भी परामर्श लेने की छूट, मुझे सभी अध्यापकों से मिल गई थी।  मेरे लिए अब वो समय था जब मैं अच्छे और बुरे की समझ से रुबरू हो रहा था। हकीकत ये है कि छोटेपन में मुझे छोटे-बड़े के सम्मान का कोई ख़याल नहीं था। सबको ‘तू’ कहकर ही संबोधित किया करता था किंतु अब सबके प्रति सम्मान का भाव स्वत: ही पनपने लगा था। मैं बचपन की भूल-भुलैया से जैसे बाहर आने लगा था। किंतु अचानक माँ का स्वास्थ्य गिरने लगा और वो इस कदर बीमार हो गई कि खाट पकड़कर रह गई। अब घर का सारा काम भाभी के कंधों पर आ गया था। माँ की सेहत निरंतर गिरती चली गई। एक दिन माँ ने मुझे इशारे से अपने पास बुलाया और मुझे सौ का एक नोट देकर सिर पर हाथ फेरते हुए धीरे से बोली – ले इसे अपने पास रख ले। मैंने नोट लिया और उसे पैसे रखने वाले मटके में ही रख आया। थोड़ी देर बाद पता चला कि माँ इस दुनिया को छोड़ चुकी है।

अब मेरे बचपनी महल की बुनियादें जैसे बुरी तरह हिल गईं। अब केवल भाई और भाभी का ही आसरा शेष रह गया था। माँ के गुजरने के बाद बस्ती वालों से एक खिताब जो मुझे मिला, वह था ‘बेचारा अभागा’, शायद इसमें उनका मेरे प्रति प्यार और मेरे भविष्य के प्रति चिंता का भाव निहित था। किंतु माँ के गुजरने के बाद भी मेरे प्रति भाई-भाभी के व्यवहार में कोई अंतर नहीं आया था इसलिए कुछ ही दिनों में माँ-बाप की बिदाई जैसे मेरे दिमाग में भी धुंधली पड़ने लगी थी। और धीरे-धीरे एक समय ऐसा आया कि मुझे लगने लगा कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। फलत: पढ़ाई के प्रति मेरा रुझान जस का तस बना रहा। आठवीं कक्षा में भी मैं अच्‍छे अंक लेकर पास हुआ। इस बार भी मेरी पांचवी-छटी पोजीशन ही रही। कहने की जरूरत नहीं कि मेरे बचपन का यही अंतिम पड़ाव भी था।

मेरी शिक्षा और मेरी कद-काठी की चौपाल पर चर्चा

जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूँ कि सातवीं कक्षा में आने से पूर्व मेरा पढ़ने-लिखने में कम ही मन लगता था। बस! खेलना-कूदना साथियों के साथ मार-पीट करना प्रत्येक शर्त पर अपनी बात को ही मनवाना, जाने क्या-क्या मेरी शरारतों में शामिल था। पूरा गाँव परेशान रहता था मेरी शरारतों से। सबकी नज़र रहती थी मुझ पर। सबकी जुबान पर बस एक ही सवाल रहता था, पता नहीं पढ़-लिखकर क्या करेगा ये छोरा। इसका कद भी तो इतना छोटा है कि ये पुलिस में भी तो भर्ती नहीं हो सकता अभी तक तो इस गाँव में कोई कुछ बनना तो क्या ठीक से पढ़ा-लिखा भी नहीं है। बादाम को देखो, टूक्की को देखो, दसवीं भी पास नहीं कर पाए। शादी करके गाँव के ही होकर रह गए। फिर ये ही क्या कर लेगा, पाँच फुटा तो वैसे ही है। डाकू-बदमाश भी तो नहीं बन सकता। कुछ कहते कि अरे! ये सब इसकी बचपनी शारारतें हैं, अभी नादान है, कुछ समझ नहीं है अभी इसे। समय शायद इसे ठीक रास्ते पर ले आए। इसने ये सब शरारतें छोड़ दीं तो कुछ आशा की जा सकती है पर ऐसा लगता तो है नहीं। ऊपर से न बाप है और न माँ, भाई है पता नहीं आगे पढ़ाए न पढ़ाए।

मेरे बारे में जाने क्या-क्या सोचते रहते थे मेरे गाँव वाले। एक बात साफ कर दूँ कि वे ये सब बातें मेरे पीछे नहीं, मेरे सामने ही किया करते थे। कुछ मुझे चिढ़ाने के भाव से तो कुछ मुझे समझाने के आशय से। जाहिर है कि इस प्रकार की बातें किसी को भी अच्छी नहीं लगेंगी, मुझे भी अच्छी नहीं लगती थीं। तब मैं इतना समझदार भी कहाँ था, सब कुछ सुनता रहता औ बचपनी हंसी में उड़ा देता। उनकी बातें सुनकर कभी-कभी तो मुझे भी उनकी बातों में दम लगता था और मैं अन्दर ही अन्दर भविष्य के प्रति निराशा ओढ़कर मौन अवस्था में चला जाता था। आज जब मैं ये सत्य लिख रहा हूँ, मेरे वो अपने शेष नहीं रहे हैं किन्तु उन सबकी सूरतें आज भी रह रह कर आँखों से टकराती रहती हैं। सब के सब अंतर्यामी हो गए है अब जब मैं अस्सी साला होने वाला हूँ तो मुझे अपने उन बुजुर्गों की बातों का ख़याल आता है तो मुझे खुली आँखों सपने से दिखने लगते हैं। सपने भी कमाल होते हैं ना? खुली आँखों देखे जाते है और नींद में भी।

शिक्षा हेतु संघर्ष

यहाँ यह खुलासा कर दूँ कि मेरे बड़े भाई मां के देहांत से पहले जमीन से पानी निकालने वाले नल लगाया करते थे। लेकिन माँ के गुजरने के बाद मेरे बड़े  भाई में जो बड़ा एक परिवर्तन आया, वह बड़ा ही विनाशकारी सिद्ध हुआ। अब भाई ने शारीरिक श्रम करना यानी नल लगाने का काम बंद कर दिया। माँ की भारी-भरकम जमा-पूंजी (जो बाद में लगभग पैंतालीस हजार रुपए बताई गई थी) जो मां ने किसी के जरिए डाकखाने में जमा कराई थी, ऐसा मैंने सुना भर था। और भैंसों को बेचने से अर्जित धन को एक के बाद दूसरा कारोबार करने में बरबाद कर दिया। इधर मैंने दसवीं कक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली थी।

किंतु दसवीं करने के बाद भाई ने मुझे आगे पढ़ाने से मना कर दिया। पर  मैं पढ़ना चाहता था। भाभी के कहने का भी भाई पर कोई असर नहीं हुआ। इस पर मैं निराश रहने लगा। कहीं कोई आशा की किरण नहीं दिखाई दे रही थी। अब मुझे लगने लगा था कि माँ के मरने पर बस्ती वालों द्वारा दिया गया खिताब ‘बेचारा अभागा’ जैसे अब साकार होने की दिशा में था। मुझे अपने चारों ओर खालीपन के अलावा कुछ और दिखाई नहीं दे रहा था। अब माँ का अभाव सताने लगा था। कई बार अकेले में मेरी आँखे नम हो जाती थीं और मैं देर तक रोता रहता था। पढ़ाई के क्षेत्र में आए सकारात्मक ‘टर्निंग पाइंट’ के बाद माँ का देहांत, एक ऐसा नकारात्मक ‘टर्निंग पाइंट’ था जो शेष जीवन के लिए एक चुनौती बन गया था। अब जीवन में संघर्ष के अलावा कुछ भी शेष नहीं रह गया था। ऐसे में मैं कभी नौकरी तलाशने की बात सोचता तो कभी कुछ काम-धाम करके आगे पढ़ने की। मैं जैसे जीवन के प्रवेश द्वार ही पर ही उलझ गया था। सच तो ये है कि मैं कुछ भी ठीक से नहीं सोच पा रहा था। मुझे लगा कि अब खुद को, जिन्दगी को और दुनिया की हकीकत से रूबरू होने का समय आ गया है। इसी सोच और फिक्र में गर्मी की छुट्टियां खत्म होने को आ गईं।

समय को पकड़ कर रख पाना किसी के हाथ में नहीं होता। अब क्या करूँ ये प्रश्न मुझे खाए जा रहा था। हारकर मैंने आगे पढ़ने का मन बना लिया और जैसे-तैसे स्वतंत्र भारत इंटर कॉलेज में ही कक्षा ग्यारहवीं (विज्ञान) में दाखिला ले लिया। नल लगाना तो मैं सीख ही गया था क्योंकि घरेलू काम था। कॉलेज की छुट्टी वाले दिनों में मैंने नल लगाने का काम शुरु कर दिया। कभी-कभार स्कूल से बंक मारके भी नल लगाने चला जाता था। महीने में कुछेक नल लगाकर किताबों और थोड़ा-बहुत फीस का काम चल जाया करता था। खाना और कपड़े तो घर से मिल ही जाते थे।

उल्लेखनीय है कि कॉलेज में मुझे ही नहीं किसी को भी कभी कोई जातीय दुराव देखने को नहीं मिला जबकि मेरे कॉलेज में तीन-चार अध्यापकों को छोड़कर शेष सभी अध्यापक ब्राहम्ण थे लेकिन उनमें जातिभेद से इतर गरीब परिवारों के बच्चों की पढ़ाई के प्रति एक अजीव सी सद्भावना थी कि वे उनकी हर संभव मदद किया करते थे। सभी  छात्र भी जातिभेद की भावना से परे एक साथ मिलकर रहते थे।

हाँ! केवल और केवल संस्कृत के अध्यापक जिन्हें सब गुरुजी कहकर पुकारा करते थे ऐड़ी तक का लम्बा धवल कुर्ता और धोती उनके पहनावे में शामिल थी पर थे बड़े ही खड़ूस माथे पर न जाने कितनी सिलवटें भौएं चढ़ी हुई, यह उनकी खास पहचान थी। किसी से भी सीधे मुँह बात नहीं करते थे वे।

वह स्कूल जहां, लेखक ने प्राथमिक स्कूल की पढ़ाई की थी

आपको यह जानकर हैरत होगी कि स्वतंत्र भारत इंटर कालेज, बी.बी. नगर (बुलंद्शहर) में समूचा स्टाफ ब्राहम्ण वर्ग से ही था केवल एक-दो अध्यापकों को छोड़कर याद पड़ रहा है कि एक थे एहसान अली सर और दूसरे थे सिरोही सर, ऐसे में सोचा जा सकता है कि गरीब तबके से आने वाले छात्रों की शिक्षा का क्या आलम होगा किंतु वैसा कतई नहीं था जैसा आप सोच रहे होंगे। गरीब तबकों से आने वाली छात्रों की शिक्षा का ही नहीं अपितु उनकी रोजमर्रा की जरूरतों का भी सामाजिक और व्यक्तिगत रूप से पूरा ध्यान रखा जाता था।

संदर्भ के चलते याद आया कि कालेज के प्रधानाचार्य माननीय रामाश्रय शर्मा प्रार्थना से पहले ही कालेज के मुख्य द्वार पर आ खड़े होते थे। हाथ में अंग्रेजों वाला छोटा सा रूल ऐसे झूलता था जैसे कितने क्रूर होंगे किंतु मैंने कभी अपने शिक्षाकाल में उस रूल का प्रयोग कभी-कभार ही करते देखा था। हाँ! तो होता यूँ था कि जो बच्चे प्रार्थना के बाद यानी कि कॉलेज देर से आते थे, उनमें से गरीब तबकों से आने वाले छात्रों को वो कॉलेज के मुख्य द्वार पर ही रोककर मुर्गा बनाकर खड़ा कर देते थे और उनके चूतड़ों पर कभी रूल तो कभी घूँसा मारकर उनकी खबर लिया करते थे।

एक बार मैं भी इस जाल में फंस गया, मुर्गा बनना पड़ा किंतु मुझे हैरत हुई कि वो हमें सजा देते थे या फिर सीख वो अक्सर कहा करते थे, ‘सोरे तुम्हारी माँ-बहनों के घास खोदते-खोदते पेटीकोट फट जाते हैं, जब कहीं तुम्हें स्कूल भेज पाती हैं और सोरे! तुम स्कूल भी समय से नहीं आ सकते, पढ़ना तो दूर की बात ये तो अमीर घरों  के बालक हैं, ये पढ़ें न पढ़ें, इन पर कोई फरक नहीं पड़ने का ये तो अमीर घरों के हैं। दुकान पर बैठकर डंडी मारकर कमा लेंगे तुम क्या करोगे? तुम्हारी तो मैं खाल छील दूंगा, देखता हूँ तुम कैसे नहीं पढ़ते हो।‘ उनके इन उदगारों को रखने के बाद मुझे नहीं लगता कि मेरे कॉलेज के ब्राहमण अध्यापकों के बारे में कुछ और कहना शेष रह जाता है। ग्यारहवीं-बारहवीं कक्षा में मेरी तो फीस भी प्रधानाचार्य माननीय रामाश्रय शर्मा ही देते थे। जब कभी दलित-छात्रों को मिलने वाली छात्रवृत्ति मिलती थी तो कभी-कभी लौटा भी दी जाती, कभी नहीं भी।  वो इस प्रकार के खर्चे अक्सर अपनी जेब से ही वहन किया करते थे।

उल्लेखनीय है कि 1968 में होने वाले इम्तहान सिर पर थे किंतु मैं जनवरी के महीने में बहुत ज्यादा बीमार हो गया। बुखार निमोनिया में बदल गया। और मैं शरीर से एक मानसिक खाका बनकर रह गया था। बीमारी के कारण मैं 1968 में परीक्षा नहीं पाया और 1969 में बारहवीं पास करने के बाद मैं अपने एक रिश्तेदार के साथ दिल्ली चला आया। कहानियां तो और भी बहुत है किंतु सबको  यहाँ समेटना विषयांतर हो जाएगा।

इस दौरान, बहुत से साथी मुझ बीमार से मिलने आया करते थे। लेकिन हर बार  आने वाले छात्र-दोस्तों में से ज्यादातर को यह शिकायत रहती थी कि  हमें मिलने वाले वजीफे में से कालेज दो रुपये महीने के हिसाब से कटौती कर लेता है, जो कटौती नाजायज थी। उनकी बात सुनकर मैं भी ये कह देता था कि भई! ये तो सबकी अपनी-अपनी मर्जी का मामला है, जिसको कटवाना है कटवाओ, नहीं कटवाना तो मत कटवाओ जरूरी थोड़े ही है। पता चला  कि उनमें से किसी ने भी उस वर्ष भवन निर्माण के नाम पर वसूला जाने वाला चन्दा, यह कहकर  नहीं कटवाया  कि तेजपाल ने मना कर दिया है।

विदित है कि 1968 में बीमारी के कारण मैं बारहवीं कक्षा के परीक्षा में नहीं बैठ पाया था। जाहिर है बारहवीं की पढ़ाई जारी रखने के लिए पुन: दाखिले की आवश्यकता थी। कॉलेज खुलने पर मैं प्रधानाचार्य महोदय से मिला। आदेश हुआ, तुम्हें क्या परेशानी है कल आ जाना, दाखिला हो जाएगा। मैं फिर अगले दिन आ गया, दाखिला नहीं हुआ। फिर अगले दिन कालेज आया तो प्रधानाचार्य महोदय ने बड़े ही सहज भाव में कहा कि बेटे! कालेज के हैडक्लर्क है ना बचेश्वर जी, उनका कहना है पिछ्ले वर्ष तुमने कालेज को कुछ आर्थिक हानि पहुँचाई थी। छात्रवृत्ति पाने वाले बच्चों में से किसी ने भी छात्रवृत्ति में से भवन-निर्माण हेतु वसूली जाने वाली राशि नहीं कटवाई।

उन बच्चों का कहना है कि उन्होंने ऐसा तुम्हारे इशारे पर किया था। मैं गुमसुम यह सुनता गया। इसके अलावा कोई चारा भी न था। मुझे शांत देखकर प्रधानाचार्य महोदय बोले लेकिन तुम चिंता मत करो, तुम्हारा दाखिला तो होना ही है। ठीक है, देखते हैं, तुम कल आ जाना। उनकी बात सुनकर उन्हें मैंने बताया कि मगर गुरूजी!  मैंने तो वजीफा लेते समय दो रुपये महीने के हिसाब से बड़े बाबू को चन्दा देने की पेशकश की थी। यद्यपि मैं बीमारी की हालत में ही बैलगाड़ी में डालकर वजीफा लेने के लिए लाया गया था, उन्होंने ही वह राशि मुझसे नहीं ली। और मुँह बनाकर कहा कि जब किसी ने भी चन्दा नहीं दिया तो तुम ही क्यों देते हो। उन्होंने मेरी बात सुनी और कहा, कोई बात नहीं, अब घर जाओ, कल आ जाना। इसके बाद मैं अपने कलाध्यापक माननीय लोकमान्य शर्मा जी के पास कलाकक्ष में चला गया। उनके चरण स्पर्श किए,  मेरा लटका हुआ चेहरा देखकर बोले, क्यों क्या हुआ?  मुँह क्यों लटका हुआ है? (गौरतलब है कि लोकमान्य शर्मा जी कुछ नाक से बोला करते थे।) बोले- दाखिला हुआ कि नहीं? मैंने सारी कहानी उनके हवाले कर दी। उन दिनों वे चीफ प्रोक्टर हुआ करते थे। सारी कहानी सुनकर बोले- अच्छा ऐसा है,  तू अब घर जा, कल आना। मैं घर लौट गया।

अगले दिन सुबह ही कालेज का सफाई कर्मचारी ‘स्वामी’  हमारे घर आया..बोला – बड़े गुरुजी ने दाखिला देने के लिए बुलाया है कॉलेज, चलो। मैं उसका मुँह देखता रह गया, मुझे उसकी बात पर यकीन ही नहीं हो रहा था। खैर! मैं उसके साथ ही कॉलेज को चल पड़ा, उसने रास्ते में बताया, तुझे पता है कल कालेज में क्या हुआ? हुआ यूँ कि कल लोकमान्य जी ने सभी दाखिलों पर रोक लगा दी और प्रिंसिपल साहब के कहने पर टीचर्स की एक बैठक बुलाई गई। मैं भी उस बैठक में चाय-पानी पिलाने के लिए हाजिर था, तेरे दाखिले की बात उठी तो लोकमान्य सर ने बचेश्वर सर से कहा कि वो तुझ पर लगाए गए इलजाम को लिखकर दें। बस! फिर क्या था,  बचेश्वर सर से कुछ कहते नहीं बना, ना ही कुछ लिखकर देने को तैयार हुए। उलटे प्रिन्सिपल सर से माफी और माँगनी पड़ी। समझे आज तुम्हारा दाखिला हो जाएगा, ठीक है। और इस तरह मेरा बारहवीं कक्षा में पुन: दाखिला हो गया। शायद यथोक्त दो घटनाओं के कारण मेरे स्वभाव में संघर्ष की भावना ने घर कर लिया वह आज तक मेरे ज़हन में बरकरार है।

खैर! 1969 में बारहवीं करने बाद मैं दिल्ली चला आया और तीन-चार साल के संघर्ष के बाद नौकरी लगने के बाद ही गाँव गया था। गाँव आने-जाने का सिलसिला कुछेक साल ही चला था कि बड़े भाई ने घर और घेर दोनों बेच दिए जिससे गाँव का आना-जाना जैसे बंद ही हो गया।

प्राचार्य रामाश्रय शर्मा जी जैसा मैंने देखा

खैर! मैंने नल लगा-लगाकर और कालिज के अध्यापकों, खासकर प्रधानाचार्य रामाश्रय शर्मा द्वारा प्रदत्त मासिक फीस व अन्य आर्थिक  मदद से जैसे-तैसे 1969 में  बारहवीं (विज्ञान) कक्षा भी प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर ली थी। कभी-कभी तो रामाश्रय शर्मा जी से घर के खर्च के लिए भी पैसे ले लिया करता था। एक बार तो ऐसा हुआ कि मैंने किसी शनिवार को निजी खर्च के लिए कुछ पैसे मांगे तो रामाश्रय शर्मा जी ने अगले दिन कॉलेज में आकर पैसे ले जाने के लिए कहा किंतु अगले दिन इतवार का दिन था। मैंने कहा कि कल तो इतवार है, गुरुजी कोई बात नहीं मैं कालिज आ जाऊंगा तुम पैसे लेने आ जाना। संयोग की बात है कि उस इतवार को घनी बारिश हो रही थी तो मेरे कभी तो कालिज जाने का मन बने और कभी नहीं। आखिर को इस सोच के तहत कि मैं अपने काम के लिए भी यदि  कालिज न गया और गुरु जी आ गए तो मेरे बारे में क्या सोचेंगे, सो मैं बोरी का घोंसला सिर पर डालकर कालेज जा पहुंचा तो देखा कि शर्मा जी अपने आफिस के गेट पर खड़े होकर मेरे आने का इंतजार कर रहे थे। शायद उन्हें भी बारिश के कारण ये लगने लगा था कि वो अब नहीं आएगा। खैर! अच्छा ही हुआ कि मैं कालिज चला गया था, वर्ना शर्मा जी की नजर में शायद मैं गिर जाता। अंतत: मैं पैसे लेकर भीगता हुआ अपने घर आ गया। दरअसल पैसों की जरूरत तो मेरे भाई को थी। मैंने कहा भी था कि मैं कहाँ से लाऊँ। भाई साहब तपाक से बोले अपने प्रिंसिपल साहेब से ले आ… तेरे को मना थोड़े ही  करेंगे। भाई के दवाब में आखिर ये सब करना पड़ा,  रहना तो घर में ही था न।

मुझे यह खुलासा करते हुए खुशी हो रही है कि अपने समय हम तीन ही जने थे जो कालिज पढ़ने जाया करते थे। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि प्यारेलाल हम सब में सीनियर थे, फिर मैं और फिर संतराम। हुआ यूँ कि तीनों ही दसवीं कक्षा प्रथम श्रेणी में पास हुए।  गाँव के लिए यह एक खबर बन गई थी।  प्राचार्य रामाश्रय शर्मा जी ने अपने स्टाफ को ये मौखिक आदेश पारित कर दिया कि अला बास बातरी गाँव का कोई भी बच्चा दाखिले के आता है तो उसके दाखिले में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए।

माँ :  बनिया भी, कूटनितिज्ञ भी

अपने गाँव की चर्चा करते समय यदि मैं अपने घर-परिवार की बात न करूँ तो शायद ये उनके साथ नाइंसाफी होगी। जैसा की ऊपर बताया जा चुका है कि गाँव में चार-पाँच परिवार ही ऐसे थे जिनके पास खेती की जमीन नहीं थी। उनमें से एक घर हमारा भी था। पिता के देहांत के बाद घर में बड़े भाई ही अकेले कमाऊ व्यक्ति रह गए थे। पिता जी खेती-बाड़ी में मजदूरी करते थे तो बड़े भाई उस समय जमीन से पानी निकालने वाला हैंड-पम्प लगाया करते थे।

भाई जो भी पैसे कमाकर लाते, माँ को सौंप देते थे। यहां यह बताना अतार्किक नहीं होगा कि मेरी माँ अनपढ़ होने के बावजूद पैसे के रख-रखाव के साथ-साथ ज़हनी तौर पर एक राजनेता के जैसी थी। कौन सा काम कब करना है, कैसे करना है, पैसा कब, कहाँ और कितना खर्च करना है, कितनी बचत करनी है, उसे वह बखूबी अंजाम देना जानती थी। माँ के गोरे-चिट्ठे छरेरे बदन और ठिगने कद को देखकर माँ की इस कैफियत के विषय में आसानी से कुछ जान लेना, किसी के लिए भी आसान नहीं था।

गाँव में ही नहीं अपितु पड़ोसी कस्बे के जानकार भी माँ को फूफी या बहन के रिश्ते में देखते थे। सबसे अच्छे रसूख रखना उसे बहुत भाता था। एक खेती विहीन मजदूर की पत्नी होने के बावजूद घर में पाँच-छ्ह भैंस रखती थी। पड़ोसी कस्बे सठला के एक जमींदार की पंद्रह-बीस बीघा खेतीहर जमीन को लगान पर अथवा बटाई पर हमेशा लेकर काश्त करती थी।

माँ के समय में हमारे घर की आर्थिक स्थिति गाँव के हिसाब से ठीक-ठाक ही थी। उन दिनों घरों में अलमारी आदि जैसी कोई चीज नहीं होती थी। घर में अनाज रखने के किए कुठला/कोठी या फिर बड़े-बड़े घड़ों का प्रयोग किया जाता था। पैसे रखने के लिए भी यही साधन उत्तम समझे जाते थे। लेकिन माँ पैसे रखने के लिए अक्सर अनाज अथवा दालों से भरे हुए मटकों का प्रयोग किया करती थी। जब मुझे कुछ-कुछ समझ आने लगी तो माँ अक्सर मुझसे ही पैसे रखवाने का काम करवाती थी। पैसे-धेले के मामले में घर में जहाँ मां का साम्राज्य था, वहीं घर की रसोई और घर की देखरेख का जिम्मा भाभी का था। बच्चों की देखभाल का जिम्मा भी भाभी का ही था। देखा तो यह भी गया कि अच्छे-अच्छे बड़े घरवाले लोग भी माँ के पास अनाज व उधार पैसे माँगने के लिए आया करते थे। माँ थी कि कोई माँगता पाँच सेर, तो देती थी तीन सेर। ऐसे ही पैसे के लेन देन के मामले में देखने को मिलता था। शादी-ब्याह के मौकों पर कई लोग माँ से पैसे उधार मांगा करते थे। यह भी कि माँ गाँव भर जवान लोगों के लिए ‘फूफी’ तो उमरदराज लोगों के लिए ‘बहन’ थी।

ऐसे मौके तो बहुत ही कम देखने को मिले जब माँ से किसी को पैसे देने के लिए मना न किया हो। नकारा लोग तो माँ के पास फटकते ही नहीं थे। होता यूँ था कि पैसे तो घर पर रखे होते थे किंतु वह मांगने वाले से हमेशा यही कहती थी कि अच्छा ठीक है भैया, लाला के पास जाऊंगी, पैसे मिल गए तो तुम्हें दे दूंगी। लाला के पास जाती तो सर्दी-गर्मी में मुझे साथ ले जाती थी। इस प्रकार माँ ने कभी भी किसी को न तो पूरे पैसे दिए और न ही शादी-ब्याह के समय से ज्यादा पहले। यह सब देखकर अनजाने में मुझे बड़ी हैरत होती थी। एक दिन मैंने माँ से उसके इस बर्ताव के विषय में पूछ ही लिया कि वह ऐसा किस लिए करती है। माँ ने कहा तू अभी बालक है, अभी नहीं समझेगा तू। सुन–अनाज माँगने वाले को यदि एक बार में ही मुंह-माँगा अनाज मिल जाएगा तो वो फिर दोबारा जल्दी थोड़े ही आएगा, समझा कि नहीं। और यदि पैसे माँगने वाले को मुंह-माँगे पैसे और वह भी काम के समय से ज्यादा पहले मिल जाएं तो वह फिजूल-खर्ची कर बैठेगा। इस तरह वह पैसे की फिजूल-खर्ची का हमेशा ध्यान रखती थी। इस माने में माँ न केवल एक बनिया थी अपितु सबके बुरे-भले का पूरा ख़याल रखती थी, यह कहना ग़लत न होगा।

तकरार भी ममता भी

एक घटना और याद आ रही है। मैं चौथी या पांचवीं कक्षा में रहा हूंगा कि एक दिन भाभी और माँ के बीच किसी बात को लेकर कुछ कहा सुनी हो गई। कहा सुनी इतनी बढ़ गई कि भाभी भाई पर ऐसी बिफरी कि भाई के पास भाभी का साथ देने के अलावा शायद कोई और रास्ता नहीं रह गया था। माँ को यह सब गवारा न हुआ। आखिर थी तो वह भी औरत उतर आई जमीन पर। गुस्से में भाई से बोली – ठीक है जोरू के गुलाम,  तू मेरे से मर गया और मैं तेरे से। अपनी घरवाली को साथ लेकर इसी टैम निकल जा घर से बाहर। कहीं भी जा…बस! इसी टैम चला जा…इतना सुनकर भाई ने भाभी का हाथ पकड़ा और बढ़ने लगे दरवाजे की ओर…तू-तू मैं-मैं में कुछ और समय गुजर गया। यह सब देखकर मुझसे और कुछ तो बना नहीं, मैं जोर-जोर से रोने लगा और माँ की टांगों से चिपट गया। पर ये क्या, माँ ने मुझसे बड़े ही धीरे से कहा – मुझको छोड़.. भैया को पकड़। मैंने रोते हुए माँ के मुंह की ओर देखा और भाई को छोड़कर भाभी की टांगों जा चिपका और जोर-जोर से रोने लगा। कुछ देर रोता रहा। कभी माँ की ओर देखता तो कभी भाभी की ओर। आखिर भाभी टूट गई और मुझे बाहों में भरकर वह भी सुबकने लगी। हाथ में लगा सामान तुरंत नीचे रख दिया और मुझे लेकर अंदर कोठे (कमरे) में जा बैठी। इस प्रकार माँ और भाभी के बीच की रार अंजाम को पहुंच गई। तूफान के बाद वाली शांति घर भर में पसर गई। आज जब मैं माँ के इस व्यवहार के बारे में सोचता हूँ तो केवल सोचता ही रह जाता हूँ। माँ बच्चों से कितनी ही भी खफा हो जाए किंतु उसके मन में ममता का जो सागर होता है, वह कभी सूख नहीं पाता।

भाभी माँ

आज जब मेरे संगी-साथी इस सत्य को जान गए हैं कि मेरे पिता का देहांत मेरे बचपन में ही हो गया था। माँ थी कि उसका ध्यान बस भैंसों और खेतीबाड़ी पर ज्यादा रहता था। चौधड़ात उसके डीएनए में थी। गाँव के झगड़े निपटाने में उसका समय बीतता था। भाई अपने काम-धाम के बाद ग्राम-प्रधान होने के कारण प्रधानी के काम में लगे रहते थे।

इसलिए किंतु मैं यह भी सोचता हूँ कि कोई न कोई तो इस प्रश्न के केन्द्र में होता ही है, जिसकी चर्चा करना ही चाहिए। तो वो थी मेरी भाभी..उसके एहसान अदायगी का मुझे इससे अच्छा कोई माध्यम नजर नहीं आ रहा है कि मैं उसके मेरे प्रति लगाव को एक दो उदाहरण देकर आप सबके सामने रखूँ…मेरे इस लिखे का भाभी को तो कोई खबर नहीं होगी किन्तु इसे पढ़कर शायद मेरे मनत्व से आप परिचित हो जाएंगे।

इस बीच मुझे अजीब से सपने आना शुरू हो गए।..अक्सर ही ऐसा होता था कि थोड़ी-बहुत पढ़ाई करके जैसे ही नींद में घिरता… यानी सोता तो छोटे-बड़े सपनों का आना एक सहज अवस्था होती थी।

मैं घर के अगले भाग में बनी दुकड़िया में अक्सर अकेला ही सोता था। भाई-भाभी और उनके बच्चे अन्दर वाले कोठों (कमरों) में सोते थे। अब मैं जैसे-तैसे बारहवीं कक्षा में आ गया था। रात को देर तक पढ़ना   मेरा नित्य कर्म बन गया था। कई बार पढ़ते-पढ़ते आँखों में नींद भर आती तो दीया बन्द करता और सो जाता। कुछ घरों में दीए की जगह लालटेन ने ले ली थी किंतु मेरे पास अभी भी दीया ही था। एक दिन की बात है कि मैं पढ़ते-पढ़ते थक-हारकर दुकड़िया का दरवाजा बन्द किए बगैर ही सो गया, दीया भी जलता ही रह गया। सोया ही थी कि मैं स्वप्न की चपेट में आ गया। स्वप्न में एक धवल-वस्त्रा रूपसी उम्र में मुझसे काफी बड़ी, मेरे सिरहाने ऐसे आकर खड़ी हो गई कि जैसे मेरी और उसकी बहुत पुरानी दोस्ती हो। उसका बर्ताव प्रौढ़ अवस्था वाला ही लग रहा था, सिरहाने से झुक कर उसने सहसा मेरा माथा चूम लिया और कहा, ‘अब तुझे मेरे साथ चलना होगा।’ इतना कहकर वो अचानक गायब हो गई, मेरी नींद भी टूट गई। खाट में पड़ा– पड़ा जाने क्या-क्या सोचता रहा। कभी-कभी इधर-उधर ताक-झाँक करके जैसे उसकी तलाश करता, फिर न जाने कब नींद आ गई और मैं सूरज के उगने पर ही उठा।

ये ग्यारह जनवरी 1968 का दिन था। जब सवेरे उठा तो पाया कि मुझे बड़े जोरों का बुखार चढ़ा हुआ था शायद सपने से घबरा कर। अचानक भाभी दुकड़िया में आई और बोली आज उठना नहीं क्या। मैंने भाभी की ओर मुँह घुमाते हुए उसे देखा…वो मेरा चढ़ा हुआ चेहरा देखकर सकते में आ गई। उसने मेरे माथे पर हाथ रखा और सन्न रह गई। तेज गर्म माथा देखकर..घबरा गई और भरी हुई आँखें लेकर मुझे डांटने लगी, ‘तूने मुझे बताया क्यूँ नहीं  मेरी तबियत खराब है।’ वो मुझे डांटे ही जा रही थी और मैं मूक बना उसका चेहरा देखकर खुद घबरा रहा था। कहता भी तो क्या कहता, मुझे खुद ही कुछ पता नहीं था। भाभी ने मुझे हाथ पकड़कर बिठाया और मेरे पास ही बैठकर जाने क्या-क्या विलाप किए जा रही थी।

दरअसल भाभी मेरी कुछ ज्यादा ही चिंता किया करती थी। वो मेरी भाभी कम और माँ ज्यादा थी। भाभी के मुझसे पांच-छह महीने बड़ी एक लड़की थी। मुझे बताया गया कि जब मैं बहुत छोटा था तो माँ की एवज भाभी ही मुझे स्तनपान करा दिया करती थी। इस पर किसी को कोई एतराज भी नहीं होता था। मेरे स्कूल आने-जाने का ख़याल न तो भाई को और न ही माँ को रहता था, यह काम भी भाभी का ही होता था। भाभी के कोई लड़का नहीं था। वह मुझे ही बेटे के जैसा प्यार देती थी। माँ जब भैंस का दूध निकालती थी तो मुझे रोजाना भैंस के पास बिठाकर ताजा निकाला गया कच्चा दूध पिलाया करती थी।

मेरे हक में जो बात रही वो थी कि भाभी ने ये सारी कहानी बड़े भाई को पूरा दिन गुजर जाने के बाद दी। वैसे वो उन्हें समय से बता भी देती तो उन पर कोई फरक नहीं पड़ने वाला था। उन्हें ताश खेलने और नेतागीरी करने के अलावा किसी से कोई मतलब नहीं था।

खैर! देखते-देखते भाभी ने तमान टोने-टोटके कर डाले…मेरी अवस्था बिगड़ती जा रही थी। जैसे मूर्छित अवस्था में था। प्रशिक्षित चिकित्सक तो गाँवों में उस समय होते ही नहीं थे…टोने-टोटके और बाबाओं की दुआओं के बल पर ही गाँव जिन्दा रहा करते थे। सो भाभी ने भी तमाम देवी-देवताओं के नाम की मिट्टी के भेलियाँ (प्रतीक) बनाकर मेरी खाट के सिरहाने पर तैनात कर दीं…कुछ नीम की पत्ते वाली टेहनियाँ भी मेरे सिरहाने रखदीं। यह सब कुछ मैंने होश आने पर देखा…किंतु पता नहीं क्यों ये टोने-टोटके मुझे जन्म से ही पसंद नहीं आए? स्वत: ही मेरी मानसिकता बनी हुई थी…किसी सोच के तहत नहीं। ऐसे ही एक-दो दिन निकल गए। मैं अक्सर देवी-देवताओं के नाम की मिट्टी की उन भेलियों को ही देखता रहता,  भाभी कुछ पूछती तो इधर-उधर गर्दन हिला देता और ‘कुछ नहीं’ कहकर भाभी से पीछा छुडाता। एक दिन मौका पाकर मैंने सभी देवी-देवताओं की भेलियाँ बारी-बारी से दुकड़िया के आगे वाली गंदी नाली में फेंक दीं।

ऐसा करने पर भाभी को मेरी इस हरकत से आग-बबूला हो जाती और न जाने क्या-क्या कहकर खुद को ही कोसती रहती। कोसती भी क्यों न मैं जैसे उसका बड़ा बेटा था। मुझे बताया गया था कि जब मैं नवजात शिशु था तो वो मुझे अपने स्तनों से दूध पिलाया करती थी। यहाँ गौरतलब है कि भाभी की बड़ी बेटी लगभग मुझसे केवल छ: माह बड़ी थी। सो इस दूध स्तनपान कराने की बात पर भरोसा किया जा सकता है। वो मुझे खोना नहीं चाहती थी  खैर! दो-तीन माह की बीमारी के बाद मैं ठीक हो गया। मौत के मुँह से तो निकल आया किंतु ग्यारह मई 1968 तक बिस्तर पर रहने के कारण मैं 1968 में बारहवीं की परीक्षा भी नहीं दे पाया।

 मुझे मुझे अलग तरह के सपने आने शुरू हो गए। एक रात मैंने सपने में शौंच की। शौंच को खुलकर आई किंतु पेशाब की चन्द बूंद ही आईं कि झटके से नींद टूट गई, थोड़ी देर में पुन: सो गया। सुबह उठा तो खबर मिली कि गाँव के ही फलाँ राम का निधन हो गया है। इसे एक संयोग मानकर मैं शांत रहा और किसी को भी अपने सपने के बारे में कुछ भी नहीं बताया। कुछ दिनों बाद फिर ठीक पहले जैसा ही सपना फिर आया। सुबह उठने पर खबर मिली कि आज फलाँ राम का निधन हो गया। मैंने सपने की कहानी फिर भी किसी को नहीं बताई और मन ही मन परेशान और मौन रहने लगा। किसी से कोई बात करने का मन ही नहीं करता था।

कुछ दिन तो यूँही गुजर गए किंतु मेरा मौन भाभी को खटकने लगा, उसे लगा कि मुझे कुछ परेशानी है। वे मुझसे अक्सर मेरी परेशानी का सबब पूछने लगी, क्या हो गया है तुझे? बताता क्यों नहीं… जब चुप रहने को कहा जाता था तो चुप नहीं रहता था और अब जब किसी ने कुछ कहा भी नहीं तो चुप रहने लगा है. क्यों? मैं शांत ही रहा कुछ भी तो नहीं कहा गया मुझसे इस सिलसिले के चलते शाम हो गई। नौ-दस बजे होंगे कि भाभी अपने कमरे में सोने चली गई और मैं दुकड़िया में चुप्पी ओढ़कर ही सो गया। सोया ही था कि वही पुराने वाला सपना फिर दिखा कि मैं भन्नाकर जग गया और बिना कुछ सोचे-समझे भाभी के पास जा पहुँचा…..ठीक-ठीक समय तो पता नहीं, हाँ! प्रात: के लगभग चार–पाँच बजे होंगे। गौरतलब है कि उन दिनों घड़ी तो कुछ ही नामचीन लोगों के पास हुआ करती थी, हमारे पास नहीं थी। उन दिनों आसमान के तारों को देखकर ही समय का अन्दाजा लगाया जाता था।

भाभी को ऐसे झकझोरा कि जैसे कोई भूचाल आ गया हो। वह बड़ी मुश्किल से उठी। मुझे अपने सामने देखकर जैसे घबरा गई। आब देखा न ताव मुझे अपनी बाहों में भर लिया। मैं अवाक था भाभी को किसी अनहोनी का भान हुआ और उसकी आँखे भर आईं। रुआँसे स्वर में बोली..आ..अब बता क्या हो गया है तुझे..पता नहीं ..क्या हो गया है मेरे लाल कू..। इतना होने पर मैंने सोचा कि अब मुझे सब कुछ बता देना चाहिए। मैं अचानक भावावेश में कह उठा, ‘गाँव में कोई और मरने वाला है आज। इतना सुनकर भाभी ने मुझे एक जोरदार चांटा रसीद कर दिया और फिर दुखी मन से बोली, ‘पढ़ता-लिखता तो है नहीं..पता नहीं फालतू की बातें कहाँ से लाया है.. इतना कहकर उसने पुन: एक और चांटा मारा। और मुझे सीने से लगाकर फफककर रोने लगी। मैं रोता हुआ दुकड़िया की ओर बढ़ा और सो गया।

भाभी अपने कमरे में ही सो गई। जैसे ही दिन निकला खबर उड़ी कि आज फलाँ-फलाँ राम मर गया। भाभी ने ज्यूँ ही खबर सुनी।  भागी-भागी दुकड़िया में आई और झटके से मुझे जगाया। मेरा हाथ पकड़कर मुझे खींचकर अन्दर वाले कमरे में ले गई।

कहा-सुना कुछ भी नहीं..उसने मुझे जोर का झटका देकर खाट पर बिठा दिया, कहा, ‘चुपचाप यहीं बैठा रह…बाहर बिल्कुल मत निकलना…बाहर निकला तो इतना मारूँगी कि रोना भूल जाएगा। मैं कुछ भी नहीं समझ पा रहा था.. भाभी ने मुझे कुछ बताया भी नहीं। मैं चुपचाप खाट पर लेट गया। मैंने देखा कि भाभी के चेहरे पर मेरे प्रति गुस्से की एवज चिंता का भाव ज्यादा था। कहा,’आज घर पर ही रहना, स्कूल मत जाना।‘ जब मुझे पता चला कि आज गाँव में कोई मर गया है तो मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि भाभी की चिंता का कारण क्या है।

कुछ ही दिन गुजरे थे कि मैंने भाभी को फिर किसी और के मरने की बात कही, वह भी भोर हुए। यह सुनकर उसने पहले मुझे ताका और तपाक से एक चांटा जड़ दिया और न जाने अनाप-शनाप क्या-क्या न कहा मुझे। इसके बाद वो मुझे अपनी बाहों में भरकर फफक-फफक कर रोने लगी। पढ़ी-लिखी नहीं थी..अनपढ़ थी। ‘क्या हो गया है मेरे लाल कू’ यह उसका जुमला बन चुका था। अब भाभी को किसी के मरने-जीने का दुख नहीं रह गया था। उसे दुख था तो महज इस बात का कि कहीं कोई भूत-प्रेत तो मेरे सिर नहीं चढ़ बैठा है। आज उसने मुझे न डांटा और न फटकारा.. मुझे अब तक यह भी पता नहीं था कि भाभी ने भाई को भी मेरे बारे में कुछ बताया है कि नहीं। खाना बनाया, खिलाया और रुआँसी सी चुपचाप एक कौने में बैठ गई मगर उसकी नजरें घर के दरवाजे पर टिकी थीं। देखा कि भाई के साथ एक तथाकथित भगत’ (बाबा) घर में प्रवेश कर गए..। उसे देखकर मैं भाई से पूछ बैठा, ‘किसलिए लाए हो इसे?’

और मैंने भगत को भाग जाने को जैसे ही कहा कि भाई ने मुझे डांट दिया, ‘एकदम चुप रह।‘ किंतु मैं चुप न रह सका। और इस तरह भगत खुद ही घर से चला गया।  बदले में भाई ने एक जोर का चांटा रसीद कर दिया। भाई का यह पहला चांटा था। भाभी तो जाने कितने चांटे मार चुकी थी आज तक मुझे, किंतु भाभी के चांटे और भाई के चांटे में जमीन और आसमान का अंतर था। भाई के चांटे ने मेरा मुँह मोड़ दिया…. किंतु भाभी का चांटा इतना स्नेह भरा होता था कि मुझे हरबार कुछ न कुछ सोचने को मजबूर करता था। भाभी के चांटे में अपनापन होता था। वह चांटा मार तो देती थी, बदले में चुपके-चुपके खुद ज्यादा रोती थी जैसे उसके द्वारा मारा चांटा उसको ही लग गया हो।

सपना मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था। जब भी मैं वैसा सपना देखता, किसी न किसी के मरने की खबर जरूर मिलती.. बेशक ये एक संयोग भर ही होगा। जो नित्यप्रति होने वाली घटनाओं से मेल भर खा रहा था, ऐसा कुछ भी न था कि मेरे सिर कोई भूत-प्रेत आ गया हो किंतु भाभी को कौन समझाए। उसकी तो चिंता निरंतर बढ़ती चली जा रही थी। तरह-तरह के टोटके व बाबाओं के चक्कर में पड़ी रहने लगी। मेरा अंतर्मन भी डोलने लगा था.. तंग आ गया था इस सबसे मैं आखिर एक दिन मैंने सपने वाला भेद भाभी को बता ही दिया। फिर क्या था कि न तो कभी वो सपना ही मुझे आया…और न किसी के मरने का पूर्वाभास ही, जिसे मैं उस सपने की देन मान चुका था। सदैव की भाँति मरना-जीना चलता रहा…किंतु अब मैं और भाभी दोनों सामान्य जीवन की ओर मुड़ आए थे। ठीक होने के बाद मैंने कालिज जाना शुरू कर दिया। अब आप ही बताएं कि ऐसी भाभी को भाभी-माँ न कहूँ तो और क्या  कहूँ।

इतना ही नहीं जब क्भी गाँव कोई आदमी मुझसे मिलने गाँव आता हे तो गाँव की बात करते हुए सारी रात आँखों में ही गुजर जाती थी या यूँ कहूँ कि-

गाँव जब-जब भी शहर आवे है,/ रात आँखों में गुजर जावे ।रंग धरती का, रहट का मंजर,/सहज आँखों में उतर आवे है। मार अम्मा की/ प्यार भाभी काआके चौखट पे ठहर जावे है/ महक सरसों की, गंध गोबर कीजैसे आँगन में पसर जावे है। ‘तेज’ जानो तो गाँव में हरसू,/ साँझ हँसती है, सहर गावे है।

तेजपाल सिंह 'तेज'
तेजपाल सिंह 'तेज'
लेखक हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार तथा साहित्यकार सम्मान से सम्मानित हैं और 2009 में स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त हो स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

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