Sunday, May 19, 2024
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Lok Sabha Election : क्या राजपूतों का विरोध भाजपा के लिए भारी पड़ सकता है

बरसों तक सामंती तुर्रे में जी रहे राजपूतों को यह समझ में आ गया कि राजनैतिक रूप से उनकी कोई सामाजिक हैसियत नहीं रह गई है। राजस्थान से लेकर उत्तर प्रदेश तक राजपूत संगठनों ने सम्मेलन किए और वर्तमान भाजपा सरकार के प्रति अपने असंतोष को जाहिर किया। उन्होंने इस चुनाव में वर्तमान भाजपा सरकार को सत्ता से दूर करने की कसम खा ली। यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि उनकी कसम का क्या राजनैतिक प्रभाव पड़ता है? लेकिन उन्होंने जिस तरह से बहुजन समाज के प्रति जिस तरह से अपनी पक्षधरता जाहिर की है, उसके संकेत सकारात्मक है

आम चुनाव 2024 की शुरुआत 19 अप्रेल से हो चुकी है और पहले ही दौर के मतदान ने विशेषज्ञों को यह कहने पर मजबूर कर दिया कि यह मुद्दाविहीन और उत्साहहीन चुनाव है।

हालांकि दरबारी मीडिया और सरकारी विशेषज्ञों ने भाजपा को भारी बहुमत दिखाने के लिए पूरी मशक्कत शुरू कर दी थी लेकिन पहले दौर के मतदान से राजस्थान, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश से भाजपा के लिए कोई बहुत खुश कर देने वाली खबरें नहीं हैं। भाजपा ने राजपूतों के विरोध को हल्के में लिया और नतीजा यह हुआ कि गुजरात में, पुरुषोत्तम रुपाला के बयान से चाहे कुछ हुआ हो या नहीं, लेकिन उत्तर प्रदेश में भाजपा से राजपूतों की खुली बगावत पार्टी के सपनों पर पानी फेर सकती है।

असल में यह बगावत केवल राजपूतों में ही नहीं है बल्कि जाट, त्यागी और अन्य कई समाजों से भी भाजपा को लेकर ऐसी ही खबरें आ रही हैं। नतीजा यह हुआ कि मेरठ से भाजपा प्रत्याशी अरुण गोविल, जो रामायण धारावाहिक में राम का पात्र बने थे और भगवान राम की तस्वीर लगाये प्रचार कर रहे थे, आखिर में यह बात भी कह गए कि उनकी पत्नी ‘ठकुराइन’ है। सोशल मीडिया पर राजपूतों के असंतोष को लेकर व्यापक खबरें आ रही हैं। विपक्षी दल भी इस घटनाक्रम को गंभीरता से देख रहे हैं और बहुत सी पार्टियों के ट्विटर हैन्डल लगातार उनके नेताओ के बयान दिखा रहे हैं।

अभी भी राजपूत नेताओ का एक बहुत बड़ा वर्ग भाजपा से इसलिए नाराज दिख रहा है क्योंकि बहुत से बड़े नेताओ के टिकट कट गए। ऐसा लग रहा है कि राजपूत विरोध केवल भाजपा का अंदरूनी मामला हो गया है। नेता कह रहे हैं कि वे शुरू से ही भाजपा के साथ हैं और चाहते हैं कि भाजपा का हाई कमांड’ उनकी ‘बात’ सुने। बहुत से नेता यह भी कह रहे हैं कि राजनाथ सिंह और योगी आदित्यनाथ का पार्टी के अंदर सम्मान नहीं हो रहा है और इसलिए वह भाजपा का विरोध कर रहे हैं।

अंदर अंदर ये भी नारे लग रहे हैं कि ‘मोदी तेरी खैर नहीं योगी तुझसे बैर नहीं’। इन सबके बीच जनरल वी के सिंह, जो पिछली लोकसभा में गाजियाबाद से जीते थे और जीत का अंतर प्रधानमंत्री के क्षेत्र वाराणसी से अधिक था, का टिकट भाजपा ने काट दिया। कुछ दिन पूर्व ही जनरल सिंह को उत्तराखंड भेजा गया था जहाँ पूर्व सैनिकों ने उनसे मिलने का प्रयास किया और रोके जाने पर जमकर विरोध भी किया था। जनरल सिंह ने अपमान के घूँट को चुपचाप पी लिया और राजनीति से ही अलग होने की घोषणा कर दी।

लेकिन भाजपा ने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया। उसका कारण है गुजरात में राजपूत समुदाय को राजनीतिक तौर पर पूर्णतः हाशिए पर चला जाना। राजपूतों की न केवल जमीनें गईं अपितु नई उभरती हुई शक्तियों — पटेल, जैन, मारवाड़ी, ब्राह्मण और बनियों के पास आर्थिक शक्ति बढ़ गई।  हिन्दुत्व के उभार ने पटेलों की राजनीतिक शक्ति को असीमित तौर पर बढ़ाया। हालांकि कुछ समय के लिए पटेल भजपा से अलग हुए लेकिन पुनः भाजपा की ओर चले गए। गुजरात में राजपूतों को भाजपा में रहने के अलावा कुछ नहीं सूझा क्योंकि माधव सिंह सोलंकी ने 1980 जो खाम (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम) बनाया था उसे गुजरात की ब्राह्मण-बनिया लॉबी ने पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया, क्योंकि खाम केवल जातियों का राजनैतिक गठबंधन था और सामाजिक तथा सांस्कृतिक तौर पर इन सभी समुदायों को साथ लाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। इसलिए सभी मज़बूत जातियों को हिन्दुत्व का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पसंद आ गया क्योंकि उसमें मुख्य खलनायक मुसलमान थे। इन जातियों को क्या पता कि बाद में यही हिन्दुत्व उनकी अपनी राजनीति खत्म कर देगा। आज राजपूत सड़क पर हैं। उनकी महिलायें चिल्ला रही हैं, लेकिन भाजपा चुपचाप है।

यह गुजरात में गैर राजपूतों को और पैसे के दम पर अपनी शक्ति दिखा रही है। गुजरात मॉडल  पूंजीपति बनियों का मॉडल है जो हमारे लोकतंत्र को पैसे के दम पर ठेंगा दिखा रहा है। सूरत से भाजपा प्रत्याशी की निर्विरोध जीत यह दर्शाता है कि गुजरात में पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद ने हिन्दुत्व को एक ‘नया मॉडल’ दिया है जिसने अन्य समुदायों के नेतृत्व को या तो पूरी तरह उन पर आश्रित कर दिया है या उन्हें हाशिये पर खदेड़ दिया है।

क्या भाजपा से राजपूतों का मोह भंग हो गया है या वे अभी भी ‘उम्मीद’ लगाये बैठे हैं

गुजरात में केन्द्रीय मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला के बयान के बाद राजपूत समाज अभी भी सड़कों पर है हालांकि रुपाला ने माफी मांग ली है लेकिन राजपूतों मे आक्रोश व्याप्त है और वे रूपला का टिकट काटने की माँग कर रहे हैं जिसे अभी तक भाजपा ने खारिज कर दिया है। गुजरात के राजकोट मे 14 अप्रेल को हुई विशाल रैली में राजपूत समाज ने अपनी ताकत दिखाई और इसके बाद से ही उनके असंतोष को अन्य दलों द्वारा नोटिस किया गया। ऐसा कहा जा रहा है कि इस रैली में पाँच लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया। अभी गुजरात में एक मित्र से बात हो रही थी। वह बता रहा था कि भाजपा की कम से कम 4 से 5 सीटें फंस चुकी हैं और कुछ स्थानों पर पार्टी ने उम्मीदवार भी बदले हैं। हालांकि गुजरात के राजपूतों का मुख्य गुस्सा पुरुषोत्तम रुपाला पर है, लेकिन अभी भी अधिकांशतः भाजपा से ही इस समस्या का समाधान चाहते हैं। मतलब यह कि यदि रुपाला का टिकट काट दिया जाए तो पार्टी को राजपूत वोट मिल जाएगा। इसके चलते समुदाय की हालत ‘राजनीतिक’ रूप से असहाय दिखाई दे रही है क्योंकि भाजपा नेताओं को मैनेज करने में जुट गई है।

इस संदर्भ में राजस्थान की उपमुख्यमंत्री दीया सिंह से भी लगातार बयान दिलाए जा रहे हैं। साफ है कि गुजरात के राजपूत अभी भी अपनी दिशा तय नहीं कर पाए हैं। राजपूत नेतृत्व की अक्षमता के कारण वे गुजरात में हिन्दुत्व की प्रयोगशाला के हिस्सा बन गए और उन्होंने दूसरी खेती वाली जातियों का भरोसा खो दिया जिसे माधव सिंह सोलंकी ने बड़ी मजबूती से बनाया था। साफ है सोलंकी के खाम ( क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुसलमान) वाले मजबूत आंदोलन को ब्राह्मण-बनिया जैन-पाटीदार समुदायों ने मिलकर ऐसा खत्म कर दिया कि दूर-दूर तक उसका नाम लेने वाला कोई नहीं है। ऊपर से हिन्दुत्व के एजेंडे ने बहुत सावधानी से दलित-पिछड़ों को बिना नाराज किए उनके आरक्षण को समाप्त कर दिया।

गुजरात और राजस्थान के ठीक अलग, उत्तर प्रदेश में राजपूत नेताओ ने अपनी पंचायत करके भाजपा नेताओ को वोट न देने का सीधे ऐलान कर दिया। सहारनपुर, कैराना, बिजनौर और मुजफ्फरनगर से उन्होंने विपक्षी उम्मीदवारों का समर्थन कर दिया। उसके नेताओं ने कहा है कि वे सभी उत्तर प्रदेश के दूसरे इलाकों में भी जाएंगे और समाज को भाजपा के खिलाफ वोट करने को कहेंगे। उत्तर प्रदेश में भाजपा ने पिछले चुनावों में बहुत से राजपूत नेताओं को टिकट दिए थे और वे सभी चुनावों में जीत भी गए थे। भाजपा ने ब्राह्मण, बनिए और राजपूतों को खूब टिकट बांटे। सभी नेता आग उगल-उगल कर बातें कर रहे थे। अब जनरल वी के सिंह हों या योगी आदित्यनाथ, उन्होंने राजपूतों के लिए क्या किया ये पता नहीं लेकिन आज भी अधिकांश राजपूतों का ‘दुख’ इस बात को लेकर है कि भाजपा उनके बड़े’ नेताओं का सम्मान नहीं करती या राजपूत नेताओं को पार्टी में  किनारे किया जा रहा है। सहारनपुर से कांग्रेस उम्मीदवार इमरान मसूद, कैराना से समाजवादी पार्टी की इकरा हसन और मुजफ्फरनगर से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार हरेन्द्र मलिक को राजपूतों ने सीधे समर्थन देकर अपनी ताकत का एहसास करवा दिया। नतीजे चाहे जो भी हों लेकिन प्रथम चरण के मतदान के बाद भाजपा का नेतृत्व अब संघ के साथ हरकत में है।

राजपूत मुस्लिम समीकरण भाजपा और हिन्दुत्व के लिए भविष्य में भी बहुत बड़ा खतरा हो सकता है और इसलिए उसे तोड़ने के लिए ही अलग-अलग तरीके से मुस्लिम विरोधी बयान लगातार आने शुरू हुए हैं और कोशिश की जा रही है कि चुनाव दोबारा से हिन्दू-मुसलमान के फ्रेम में हो ताकि भाजपा उसका लाभ ले सके। अलीगढ़ में चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने योगी आदित्यनाथ कि भूरि- भूरि प्रशंसा की और कहा कि उनके नेतृत्व में उत्तर प्रदेश दिन दूनी रात चौगूनी प्रगति कर रहा है। उन्होंने योगी को बुलडोज़र से जोड़ने की आलोचना की और कहा कि उत्तर प्रदेश में बहुत अधिक काम हुआ है। नरेंद्र मोदी के हृदय परिवर्तन का कारण और कुछ नही अपितु उनके लॉयल वोट बैंक को वापस लाने के लिए है। राजपूतों में यह बात जा चुकी है कि मोदी-शाह की गुजराती जोड़ी उनके सभी बड़े नेताओ का राजनैतिक करियर खत्म कर देना चाहती है ताकि उन्हें कोई चुनौती ही न रहे।

 उत्तर प्रदेश के एक चुनाव क्षेत्र में मोदी द्वारा योगी आदित्यनाथ का अपमान सभी ने देखा और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। जब पूर्वाञ्चल एक्प्रेस वे पर भारतीय वायुसेना के विमानों की लैन्डिंग का एक कार्यक्रम हुआ तो मोदी ने योगी को अपने साथ गाड़ी में नहीं बैठाया। लोगों ने देखा कि मोदी अपने लाव-लश्कर के साथ जनता का अभिवादन कर रहे थे और योगी उनसे पचास मीटर पीछे पैदल चल रहे थे। देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री के अपमान को सभी देख रहे थे। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह की पार्टी में आज क्या स्थिति है यह सब जानते हैं।

क्या राजपूतों के ‘विद्रोह’ का कुछ असर पड़ेगा

भाजपा के कई नेता यह बताना चाह रहे थे कि राजपूतों के संख्या बहुत कम है इसलिए उनके विरोध का असर नहीं होगा। हालांकि गुजरात में राजपूत नेतृत्व पहले ही बिखर चुका था लेकिन दूसरे राज्यों में वे पहले से ही अलर्ट हो गए। असल में उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ पर अक्सर ठाकुरवादी होने के आरोप लगे लेकिन ये सभी नेरेटिव बनाने की कवायद होती है। जब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे तो उनपर भी ऐसे ही आरोप लगे थे। बस बनियों और ब्राह्मणों पर ऐसे आरोप नहीं लगते। अभी उत्तर प्रदेश में ही देवरिया, गोरखपुर, बस्ती, संत कबीरनगर और अन्य स्थानों पर भाजपा ने केवल ब्राह्मणों को टिकट दिया है लेकिन किसी ने एक शब्द नहीं कहा। गाज़ियाबाद में काँग्रेस ने एक ब्राह्मण और भाजपा ने एक बनिया को टिकट दिया है। इस सीट पर राजपूतों की संख्या 5 लाख से अधिक है। राजनाथ सिंह भी किसी समय यहाँ से चुनाव लड़े थे लेकिन अब उनका चुनाव क्षेत्र लखनऊ है जहाँ शहरी क्षेत्र में उन्हें अपने राजपूत होने से बहुत लाभ नहीं मिलता इसलिए अब वह समाज की चिंताओ को दूर से ही नमस्कार कर देते हैं। इस बार लखनऊ से राजनाथ की राह आसान नही होगी। उत्तर प्रदेश में राजपूत समाज अपने आप को दलित और पिछड़े वर्ग के साथ जोड़ रहा है। वैसे राजस्थान और मध्य प्रदेश मे राजपूतों का एक बहुत बड़ा राजनैतिक वर्ग बामसेफ के साथ जुड़ा है और न केवल क्षात्र धर्म की बात हो रही है बल्कि बुद्ध धर्म का रास्ता भी सोचा जा रहा है। राजपूतों की समझ में आ चुका है कि उनका इस्तेमाल किया गया।

यही बात आज हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाट समाज भी कह रहा है। ये सभी बिरदारियाँ केवल अपने आप तक सीमित नहीं हैं बल्कि एक दूसरे के साथ सहयोग भी कर रही हैं। सहारनपुर के  ननौता इलाके में हुई पंचायत के बाद ही इमरान मसूद, इकरा हसन, हरेन्द्र मालिक को समर्थन देने की बात हुई। आज ऐसी पंचायतें पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हो रही हैं जिनका इंडिया गठबंधन को लाभ मिलेगा। कई स्थानों पर बसपा को भी लाभ हो सकता है क्योंकि टिकट वितरण के मामले में  मायावती ने अधिक राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया है लेकिन बसपा नेरटिव की लड़ाई में  पीछे रह गई लगती है। फिर भी, उसका कैडर उसकी सबसे बड़ी ताकत है। राजपूतों के प्रभाव क्षेत्र में  बुंदेलखंड और मध्य प्रदेश के बहुत से क्षेत्र आते हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्वाञ्चल के कुछ क्षेत्रों में उनका प्रभाव है। यह समुदाय पिछले कुछ चुनावों से भाजपा के साथ जुड़ गया था लेकिन अगर उसने विद्रोह किया है तो भाजपा को इसका नुकसान झेलना पड़ेगा। राजपूत अब हर जिले में स्थानीयता के अनुसार अपनी रणनीति बना रहे हैं और उसे अनुसार वोट करेंगे।

कांग्रेस से कैसे दूर हुए राजपूत

असल में राजपूतों के लिए कांग्रेस सबसे महत्वपूर्ण पार्टी थी और उनके बड़े नेता हमेशा सामाजिक न्याय और समाजवादी विचारधारा से जुड़े रहे। जनता पार्टी की असफलता के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस जब पुनः केंद्र की सत्ता में आई तो इंदिरा गांधी ने एक नया प्रयोग किया। उत्तर प्रदेश में विश्वनाथ प्रताप सिंह, बिहार मे चंद्रशेखर सिंह, मध्य प्रदेश मे अर्जुन सिंह, हिमाचल में वीरभद्र सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया। इधर गुजरात में माधव सिंह सोलंकी, जो कोली समाज से थे, उन्हें मुख्यमंत्री बनाया। माधव सिंह सोलंकी ने खाम ( क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम) अलायंस बनाया जिसमे कांग्रेस को गुजरात में अभूतपूर्व बहुमत मिला था। पार्टी का वोट प्रतिशत 55% से ऊपर था और कुल 182 सीटों में से पार्टी को 149 सीटें मिलीं। श्रीमती गांधी ने वही खाम प्रयोग उत्तर भारत में भी किया लेकिन बिना कोई शोर किये। राजनीति में समीकरण सफल होते हैं लेकिन बहुत समय तक वही टिक पाएंगे जिनका वैचारिक आधार मजबूत होगा।

चुनावों के बाद ही गुजरात में आरक्षण विरोधी आंदोलन शुरू हो गया और यहीं से गुजरात की ब्राह्मण-बनिया-जैन-पाटीदार आदि जातियों ने खाम के खात्मे की तैयारी भी कर ली लेकिन उसके लिए अभी भी पिछड़े वर्ग और दलित आदिवासियों को तोड़ना जरूरी था। नरेंद्र मोदी का गुजरात मॉडल मात्र बिजनस मॉडल नहीं था। यह वह मॉडल भी है जिसने जातियों के अंतर्विरोध को समझा और खाम जैसे ताकतवर आंदोलन को ध्वस्त कर दिया। खाम के खात्मे के बाद मोदी ने पटेल समाज की सत्ता पर चोट की, लेकिन सभी बातें आसानी से नहीं हो सकतीं और इसलिए पटेल लोग अन्ततः  भाजपा के पास आ गए। आरक्षण विरोधी शक्तियों को अब दलित पिछड़े आदिवासियों की आवश्यकता थी इसलिए अब चुनावी हिन्दू बनाकर उनके गुस्से को मुसलमान विरोधी आंदोलन का हिस्सा बना दिया। आज गुजरात में खाम का नामलेवा भी नहीं है और इसका कारण है कि कोई बिना किसी वैचारिक और सांस्कृतिक मिलन के ऐसी सफलताएँ मात्र राजनीतिक तिकड़मबाजी ही रह जाती हैं। जब भी लोगों को सांस्कृतिक विकल्प दिखता है वे उस तरफ दौड़ पड़ते हैं।

हिन्दुत्व की लड़ाई में परम्पराओं की महानता का वर्णन है और राजनीति में भगवान और धर्म की एंट्री है इसलिए वह आसान नजर आती है क्योंकि जब आप बिना काम किये पूरी बेशर्मी के साथ चुनाव जीत सकते हैं तो आपको लोगों का काम करने की आवश्यकता नहीं है। जब नेता और भगवान आपकी सफलता की गारंटी हैं तो लोगों को जनता के सवाल उठाने की फुरसत कहाँ।

दूसरी ओर, उत्तर भारत में राजपूत कांग्रेस से तब अलग होना शुरू हुए जब वी पी सिंह, जो राजीव सरकार में वित्तमंत्री थे, के खिलाफ कांग्रेस ने एक्शन लिया। वी पी सिंह अपनी ईमानदारी और वैचारिक निष्ठा के लिए जाने जाते थे और कांग्रेस उस दौर में अंबानी की पार्टी नजर आ रही थी। वी पी सिंह के उठाए प्रश्नों पर पार्टी ने उनका बहुत अपमान किया। जनता ने वह सब देखा। यह भी हकीकत है कि वी पी सिंह ने अपने को कभी राजपूत या क्षत्रिय नेता नहीं कहा, क्योंकि उनके समर्थन में जाति से बाहर ही अधिकांश लोग थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह को कांग्रेस ने 1987 में पार्टी से निष्काषित कर दिया। कांग्रेस से जो भी लोग बाहर निकले थे या निकाले गए थे वे कभी कामयाब नहीं हुए लेकिन वी पी सिंह अकेले ऐसे नेता थे जिन्होंने बिना कहे कांग्रेस के अहंकारी नेतृत्व की पोल खोल दी। यह दुर्भाग्य था कि कांग्रेस वी पी सिंह को नहीं समझ पाई। उसके बाद राष्ट्रीय मोर्चा सरकार बनने पर वी पी सिंह ने मण्डल रिपोर्ट को लागू करने का फैसला किया तो संसद में राजीव गांधी ने उसके विरुद्ध बहुत लंबा भाषण दिया और उनके विरुद्ध चंद्रशेखर को समर्थन दे दिया। वह फैसला कांग्रेस के लिए बेहद नुकसानदायक हुआ। वी पी सिंह की सरकार तो गिर गई लेकिन कांग्रेस से हाशिए के समुदाय अलग होते चले गए और बाबरी मस्जिद के बाद पी वी नरसिंहराव के आते आते कांग्रेस पर ब्राह्मणों को कब्जा हो चुका था। पार्टी से दलित, मुसलमान, पिछड़ा अलग हो चुका था।

एक और हकीकत यह थी कि राजपूत भी कांग्रेस से अलग हो चुके थे लेकिन उन्हें किसी ने यह कह कर महत्व नहीं दिया कि इनकी संख्या बहुत कम है। कांग्रेस में अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह जैसे लोग थे जो संविधान और जातियों के समावेशीकारण की बात कहते थे, लेकिन कांग्रेस के हाईकमान  को अर्जुन सिंह बहुत ‘महत्वाकांक्षी’ लगे। जिस व्यक्ति ने पंजाब में शांति और राजनैतिक प्रक्रिया को शुरू करने में राजीव गांधी के आगे करने लिए सफलतापूर्वक काम किया उसे भी कांग्रेस की ब्राह्मण लॉबी बदनाम करने पर तुली हुई थी। अर्जुन सिंह ने हायर एजुकेशन में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की सुविधा प्रदान की लेकिन उनके सेक्यूलर चरित्र से कांग्रेस में बहुतों को परेशानी थी। यूपीए की सरकारों के समय कांग्रेस ने पूरी बेशर्मी से ब्राह्मण नेताओं को सोनिया गांधी की किचन कैबिनेट का हिस्सा बनाया। धीरे-धीरे कांग्रेस ऐसे लोगों की जमात बन गई जो सड़क पर संघर्ष करने को तैयार नहीं थी और जिसमें वे लोग निर्णय ले रहे थे जिनका जनता के बीच कोई वजूद नहीं था। अर्जुन सिंह जैसे नेता किनारे हो गए और प्रणब मुखर्जी जैसे बिना बेस के लोग नेता बन गए। वी पी सिंह, अर्जुन सिंह से लेकर दिग्विजय सिंह ने कभी आरएसएस से समझौता नहीं किया जबकि प्रणब मुखर्जी बंगाल में पार्टी को कुछ दे नहीं पाए और बाद के दिनों में मोदी भक्ति में लीन हो गए और आरएसएस से भी मिल गए। उनका परिवार किस तरीके से गांधी परिवार को बदनाम कर रहा है यह   सब जानते हैं। आज कांग्रेस को कमजोर करने में ऐसे चालाक नेताओं का हाथ है और आज वे सभी धीरे-धीरे भाजपा की ओर जा चुके हैं या जा रहे हैं। पार्टी ने भी आज तक राजपूत नेताओं की तरफ कोई हाथ नहीं बढ़ाया।

राजपूतों के समक्ष क्या विकल्प है

राजपूतों के पास क्या विकल्प है? भाजपा को सुधारने का विकल्प तो उनका नहीं है क्योंकि यह उनकी पार्टी कभी थी ही नहीं। भाजपा शुद्ध रूप से पूंजीपरस्त और पुरोहितवादी पार्टी है जिसे ग्राउन्ड पर मजबूत करने के लिए बाकी किसान मजदूर जातियों की जरूरत पड़ी और उनका उसने ताश के पत्तों के तरह इस्तेमाल किया और उसके बाद फेंक दिया। राजपूतों का नैसर्गिक मेल केवल बहुजन समाज से ही हो सकता है और उसका कारण साफ है। राजपूत एक किसान जाति है और उसके अलावा उसकी उपस्थिति सेना और अर्धसैनिक बलों में रही है। भारत के अंदर कृषक जातियों का ऐसा ही हाल है। खेत में किसान सीमा पर जवान। सरकारी नौकरियों, न्याय पालिका, मीडिया, अकदेमिया, प्राइवेट सेक्टर में उनका प्रतिनिधित्व बेहद कम है और इसके लिए जातिगत जनगणना के लिए उन्हें  दलित, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के साथ खड़े दिखना चाहिए। सांप्रदायिक शक्तियों के लिए खड़े होकर राजपूतों को सिवाय गालियों और अपमान के बाकी कुछ नहीं मिलने वाला। जिन शक्तियों के साथ वे खड़े हैं आज संपत्ति और संसाधनों को सत्ता सहयोग से अपने नियंत्रण में कर चुके हैं। किसानों को भूमिहीन कर अंबानी-अदानी को करोड़ों एकड़ जमीन देने को जमींदारी नहीं कहा जा रहा। धर्मस्थलों के नाम पर पुरोहितों के पास इकट्ठा लाखों एकड़ जमीनें, गौ शालाओं के नाम पर हड़पी हजारों एकड़ जमीन के मालिक जमींदार नहीं हैं, क्योंकि वे तो धर्म-कर्म का काम कर रहे हैं। इसलिए जातिगत जनगणना और जिस एक्स रे की बात राहुल गांधी कर रहे हैं उससे राजपूतों/क्षत्रियों को कोई अब्जेक्शन नहीं होना चाहिए।

बहुजन आंदोलन के साथ ही राजपूतों का भविष्य है 

जरूरी है कि क्षत्रिय/राजपूत समाज अब बहुजन आंदोलन से जुड़े। पुरोहितवादी संस्कृति में उसे कमेरा समाज से दूर हटाया गया। बुद्ध के मानववादी सिद्धांत को मानकर यदि वे आगे बढ़ेंगे तो आगे भविष्य में देश के दूसरे मेहनतकश लोगों के साथ आगे बढ़ेंगे। बहुजन समाज में बाबा साहब के आंदोलन से जुड़ने पर वे अपने पूर्वजों के सपनों से जुड़ेंगे। याद रखिए, विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने को सामाजिक न्याय की शक्तियों के साथ जोड़ा तो उन्हें बहुत बदनामी मिली। उनका मज़ाक बनाया गया। उनको गालियां पड़ीं लेकिन वह अपने बोले और किये पर कायम रहे। आज राजपूतों की समझ में जो आ रहा है कि उनके साथ अन्याय हुआ है वह इस बात को पुष्ट करता है कि वी पी सिंह ने जो किया वह कितना सही था। राजपूतों का हिस्सा दलित, पिछड़ों और आदिवासियों ने नहीं खाया। इस बात को वे समझ लेंगे तो अच्छा रहेगा। वे अपने आंदोलन को सामाजिक न्याय से जोड़ें और जातिगत हिंसा और वैमनस्य का प्रतिकार करें। सबको साथ लेकर चलने में ही समाज की भलाई है। इस समय अपने अपने क्षेत्रों में चुनावों का बहिष्कार न करें बल्कि अपने वोट का इस्तेमाल देश में बदलाव की खातिर करें।

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