सेंट्रल विस्टा की ऊपरी मंजिल पर स्थापित अशोक स्तंभ की प्रतिकृति के अनावरण के बाद से प्रारंभ विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। देश के अनेक जाने-माने इतिहासकार अशोक स्तम्भ के मूल स्वरूप के साथ हुई छेड़छाड़ से आहत हैं। हरबंस मुखिया, राजमोहन गांधी, कुणाल चक्रवर्ती तथा नयनजोत लाहिड़ी आदि अनेक इतिहासकारों के मतानुसार अशोक स्तम्भ की वर्तमान प्रतिकृति में शेरों का स्वरूप मूल अशोक स्तंभ से अलग है और ये मूल अशोक स्तंभ के शेरों की भांति शांति और स्थिरता नहीं दर्शाते।
इन सभी इतिहासकारों का मानना है कि यद्यपि शेरों की प्रकृति आक्रामक होती है किंतु अशोक स्तम्भ के शेरों की मुख मुद्रा ऐसी नहीं है। ऐसा लगता है कि ये हमें संरक्षण दे रहे हैं। इनमें गरिमा, आंतरिक शक्ति एवं आत्मविश्वास परिलक्षित होते हैं। अशोक स्तम्भ के शेर शांति प्रिय, शान्तिकामी और शांति के रक्षक हैं। इनके चेहरे पर दयालुता का भाव है। जबकि नए संसद भवन की छत पर स्थापित प्रतिकृति में शेरों की भाव भंगिमा में गुस्सा है, अशांति है, आक्रामकता है।
प्रतिकृति में दिखने वाले शेरों के दांत अधिक तीखे, बड़े और स्पष्ट हैं। यह हिंसा और आक्रामकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। अशोक स्तंभ इस मायने में अनूठा है कि इसमें शेरों की भावभंगिमा को संयमित और शांत दिखाया गया है जबकि सामान्यतया कलाकारों द्वारा शेरों की पाशविक प्रवृत्ति को आधार बनाकर उन्हें हिंसक, आक्रामक और भयोत्पादक रूप में चित्रित किया जाता है। नए संसद भवन पर स्थापित प्रतिकृति अशोक स्तंभ की इस विलक्षण विशेषता को ही विनष्ट कर देती है। जाने-माने मूर्तिकार अनिल सूतार के अनुसार यह रेप्लिका मूल अशोक स्तंभ से एकदम अलग है।
कहीं ऐसा तो नहीं है कि शेरों की यह गुर्राहट अपनी अकर्मण्यता, अक्षमता और शक्तिहीनता को छिपाने की रणनीति है। शायद अपने पौरुष के छद्म को कायम रखने के लिए नए भारत के ये शेर अपने ही देश के उन निरीह लोगों पर आक्रमण करेंगे, जिन्हें देश की दुरावस्था के लिए उत्तरदायी काल्पनिक शत्रुओं के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
सेंट्रल विस्टा पर स्थापित प्रतिकृति के शेरों के पिचके हुए टेढ़े जबड़े, अधिक खुले हुए मुख, निकले हुए दांत, भयानक नेत्र, हिंसक चेहरा एवं पैरों और नाखूनों की बदली हुई बनावट तथा शेरों के शरीर एवं अयाल में केशों का विन्यास इन्हें एक रौद्र रूप प्रदान करते हैं। अशोक स्तंभ के शेरों की उपस्थिति आश्वासनदायी है जबकि सेंट्रल विस्टा के शेर भयोत्पादक हैं।
अनेक इतिहासकार सेंट्रल विस्टा की ऊपरी मंजिल पर स्थापित प्रतिकृति के तीखे और हिंसक तथा डरावने लगने वाले दांतों को उग्र राष्ट्रवाद से जोड़कर देख रहे हैं। इनका प्रश्न यह है कि क्या अब भारत एक शांतिप्रिय देश से एक आक्रामक और युद्धप्रिय राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है? इन इतिहासकारों का यह भी मानना है कि अशोक स्तम्भ के शेरों की प्रकृति में लाए गए इस परिवर्तन को कलाकार की स्वतंत्रता कहकर महत्वहीन बनाने की कोशिश गलत है क्योंकि यहां तो कलाकार ने शांति का संदेश देने वाले अशोक स्तंभ को हिंसा की हिमायत करने वाले स्मारक में बदल दिया है।
किंतु कुछ इतिहासकार ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि मूल अशोक स्तंभ और सेंट्रल विस्टा पर स्थापित प्रतिकृति के निर्माण काल में 2500 वर्ष का अंतर है, तबसे लेकर अब तक शिल्पकला के स्वरूप एवं कलाकारों की सोच में बहुत बदलाव आ गया है इसलिए मूल एवं प्रतिकृति का एक समान होना न तो संभव है न ही अपेक्षित है। सेंट्रल विस्टा पर स्थापित प्रतिकृति के शेर वास्तविक शेरों के अधिक निकट और जीवंत हैं।
सरकार की ओर से इस मामले पर सफाई केंद्रीय नागरिक उड्डयन राज्यमंत्री हरदीप पुरी के ट्वीट संदेशों के रूप में सामने आई है। श्री पुरी के अनुसार नई संसद हेतु निर्मित अशोक स्तंभ सारनाथ के स्तंभ की हूबहू प्रतिकृति है। दोनों की डिजाइन एवं बनावट समान है। केवल लोगों के देखने के नजरिए में अंतर है। नए संसद भवन पर स्थापित प्रतिकृति (6.5 मीटर) सारनाथ के संग्रहालय में स्थित अशोक स्तम्भ (1.6 मीटर) से काफी बड़ी है। यदि मूल अशोक स्तंभ के आकार वाली प्रतिकृति सेंट्रल विस्टा की छत पर रखी जाती तो यह दिखाई ही नहीं पड़ती। विशेषज्ञ यह क्यों भूल रहे हैं कि सारनाथ का मूल अशोक स्तंभ जमीन के स्तर पर है और नया प्रतीक जमीन से 33 मीटर की ऊंचाई पर है। जब हम मूल और प्रतिकृति की तुलना करते हैं तो कोण, लंबाई और स्केल का ध्यान क्यों नहीं रखते? यदि सेंट्रल विस्टा पर रखे रेप्लिका को छोटा कर दिया जाए तो यह हूबहू मूल अशोक स्तंभ की भांति दिखाई देगा। यदि हम मूल अशोक स्तंभ को नीचे से देखें तो इसके शेर रेप्लिका की भांति ही क्रोधित या शांत लगेंगे।
लगभग यही तर्क इस रेप्लिका के निर्माता द्वय लक्ष्मण व्यास और सुनील देवड़े ने दिए हैं और हरदीप पुरी की ही भांति उन्होंने अंग्रेजी की उस उक्ति का आश्रय लिया है, जिसके अनुसार सौंदर्य देखने वाले की दृष्टि में होता है।
सरकार और प्रतिकृति के निर्माताओं के तर्क तब अर्थहीन लगने लगते हैं जब हम बनारस के उन कलाकारों की राय से अवगत होते हैं जो वर्षों से काष्ठ, पत्थर और कागज-कैनवास पर अशोक स्तंभ की प्रतिकृतियां बनाकर पर्यटकों को बेचते रहे हैं। न ये इतिहास विशेषज्ञ हैं न ही इन्होंने मूर्तिकला की विधिवत शिक्षा पाई है किंतु अशोक स्तंभ इनके जीवन का अविभाज्य हिस्सा है क्योंकि इसकी सैकड़ों प्रतिकृतियां गढ़ते-गढ़ते इन कलाकारों ने अशोक स्तंभ को आत्मसात कर लिया है। यह कलाकार भी प्रथम दृष्टया ही सेंट्रल विस्टा के अशोक स्तम्भ को मूल से भिन्न बताते हैं। इन कलाकारों के संस्कार सैकड़ों बार अशोक स्तम्भ की प्रतिकृतियां गढ़ते समय एक बार भी इन्हें इसके मूल स्वरूप से छेड़छाड़ का दुस्साहस नहीं करने देते।
यह भी पढ़ें…
इतिहासकारों एवं बौद्ध धर्म के जानकारों के अनुसार बुद्ध के अनेक नामों में शाक्य सिंह एवं नरसिंह जैसे नाम भी हैं। सारनाथ भगवान बुद्ध का प्रथम उपदेश स्थल है। इसी स्थान से उन्होंने धर्म चक्र प्रवर्तन का प्रारम्भ किया था और बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का विचार इस विश्व को दिया था। तदुपरांत शांति, सद्भाव और बंधुत्व के संदेश के वैश्विक प्रसार हेतु उन्होंने अपने शिष्यों को चतुर्दिक भ्रमण हेतु प्रेरित किया था। बुद्ध द्वारा परम सत्य का उद्घोष किसी सिंह नाद से कम नहीं। अशोक स्तंभ के चारों सिंह सम्राट अशोक की धम्म विजय की घोषणा का नाद करते प्रतीत होते हैं। अशोक स्तम्भ की यह धार्मिक-ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अशोक स्तंभ के शेरों की सौम्य और शांत मुखमुद्रा का कारण समझने के लिए पर्याप्त है।
इस प्रकार यदि मूल अशोक स्तम्भ के संदेश को सेंट्रल विस्टा पर लगाई गई इसकी प्रतिकृति के माध्यम से उलट देने के आरोप सही हैं तो यह राष्ट्रीय प्रतीक के स्वरूप में परिवर्तन का विषय ही नहीं है अपितु यह बौद्ध धर्म के मर्म और सम्राट अशोक की छवि दोनों को एक भिन्न और संभवतः गलत परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने की चेष्टा भी है।
बुद्ध धर्म और सम्राट अशोक के प्रति हिंदुत्व की विचारधारा के प्रतिपादकों और उनके अनुयायियों की नापसंदगी जगजाहिर है। श्री गोलवलकर का कथन है, “बुद्ध के पश्चात यहां उनके अनुयायी पतित हो गए। उन्होंने इस देश की युगों पुरानी प्राचीन परंपराओं का उन्मूलन प्रारंभ कर दिया। हमारे समाज में पोषित महान सांस्कृतिक सद्गुणों का विनाश किया जाने लगा। अतीत के साथ के संबंध-सूत्रों को भंग कर दिया गया। धर्म की दुर्गति हो गई। संपूर्ण समाज-व्यवस्था छिन्न-विच्छिन्न की जाने लगी। राष्ट्र एवं उसके दाय के प्रति श्रद्धा इतने निम्न तल तक पहुंच गई कि धर्मांध बौद्धों ने बुद्ध धर्म का चेहरा लगाए हुए विदेशी आक्रांताओं को आमंत्रित किया तथा उनकी सहायता की। बौद्ध पंथ अपने मातृ समाज तथा मातृ धर्म के प्रति द्रोही बन गया।” यहां श्री गोलवलकर अप्रत्यक्ष रूप से सम्राट अशोक की ओर ही संकेत करते लगते हैं।
अगोरा प्रकाशन की किताबें Kindle पर भी…
श्री गोलवलकर के अभिमत पर आधारित एक लेख लगभग 6 वर्ष पहले राजस्थान वनवासी कल्याण परिषद (जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का आनुषांगिक संगठन है) द्वारा प्रकाशित बप्पा रावल के मई 2016 के अंक में भारत : कल, आज और कल लेखमाला के अंतर्गत छपा।
इसमें ‘बप्पा रावल’ की संपादिका डॉ. राधिका लढ़ा ने लिखा-
मौर्य साम्राज्य के सम्राट अशोक के कारण ही भारतीय राष्ट्र पर बड़े संकटों के पहाड़ टूटे और यूनानी हमलावर भारत को पदाक्रांत करने आ धमके।… यह भारत का दुर्भाग्य रहा कि जो अशोक भारतीय राष्ट्र की अवनति का कारण बना, उसकी ही हमने ‘अशोक महान’ कहकर पूजा की। अच्छा होता कि राजा अशोक भी भगवान बुद्ध की तरह साम्राज्य त्यागकर, भिक्षु बनकर बौद्ध धर्म के प्रचार में लग जाते।… इसके विपरीत उन्होंने सारे साम्राज्य को ही बौद्ध धर्म प्रचारक विशाल मठ के रूप में बदल दिया। इन वजहों से ही यूरोप से फिर एक बार ग्रीक हमलावर भारत को कुचलने आ धमके।
डॉ. राधिका लढ़ा के अनुसार, अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया, फिर इसे ही राज धर्म बना दिया। विदेशों से जो भी आता, यदि वह बौद्ध होता तो अशोक तुरंत ही उसे अपना मान लेते थे, जो गलत था।… उन्होंने (अशोक ने) इतनी शांति फैलाई कि सीमा पर लगे सैनिक ही हटा दिए। इससे हमले बढ़े और राष्ट्र की उसी वक्त अवनति शुरू हो गई।
अगोरा प्रकाशन की किताबें Kindle पर भी…
संघ के वरिष्ठ सदस्य एवं पाथेय कण पत्रिका के संपादक कन्हैयालाल चतुर्वेदी ने अधिक संयत ढंग से इसी तर्क को आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा- ‘सम्राट अशोक में अच्छाई थी तो दोष भी थे। उनके आने से भारत में शक्ति पूजा समाप्त हो गई। इससे राष्ट्र कमजोर बनता गया और विदेशियों के आक्रमण बढ़ते गए। अकबर और अशोक को महान बताने वाले जो भी इतिहासकार हैं, वे सभी विदेशी हैं, जो भारत को जानते ही नहीं।’
जब डॉ. राधिका लढ़ा के लेख पर विवाद बढ़ा तो संघ ने इसे लेखिका की निजी राय बताकर खुद को इससे अलग कर लिया।
सम्राट अशोक की छवि धूमिल करने का नवीनतम प्रयास भाजपा के सांस्कृतिक मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक एवं आरएसएस की संस्कार भारती से संबद्ध दया प्रकाश सिन्हा द्वारा किया गया। श्री सिन्हा इंडियन काउंसिल फॉर कल्चरल रिलेशन्स के उपाध्यक्ष भी हैं। श्री सिन्हा 2 अप्रैल, 2015 को तत्कालीन संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री डॉ. महेश चन्द्र शर्मा एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल की उपस्थिति में लोकार्पित अपने विवादास्पद नाटक सम्राट अशोक के लिए पहले ही चर्चा में रह चुके हैं। उन्होंने एक दैनिक समाचार पत्र में 8 जनवरी, 2022 को प्रकाशित अपने साक्षात्कार में सम्राट अशोक के विषय में अनेक नकारात्मक और विवादित टिप्पणियां कीं।
श्री सिन्हा ने कहा- ‘श्रीलंका के तीन बौद्ध ग्रंथ दीपवंस, महावंस, अशोकावदान और तिब्बती लेखक तारानाथ के ग्रंथ से यह ज्ञात होता है कि सम्राट अशोक बहुत ही बदसूरत था। उसके चेहरे पर दाग था और वह आरंभिक जीवन में बहुत ही कामुक था। बौद्ध ग्रंथ भी कहते हैं कि अशोक कामाशोक और चंडाशोक था। चंडाशोक यानी कि वह बहुत ही क्रूर था। उसने बौद्ध भिक्षुओं की हत्या करवाई थी।
श्री सिन्हा ने आगे कहा- ‘(मुझे) अशोक और मुगल बादशाह औरंगजेब के चरित्र में बहुत समानता दिखाई दी। दोनों ने अपने प्रारंभिक जीवन में बहुत पाप किए थे और अपने पाप को छिपाने के लिए अतिधार्मिकता का सहारा लिया ताकि जनता का ध्यान धर्म के प्रति प्रेरित हो जाए और उनके पाप पर किसी का ध्यान न जाए। दोनों ने अपने भाई की हत्या की थी और अपने पिता को कारावास में डाल दिया था। अशोक का चरित्र बहुत ही रोचक है। उसने अपनी पत्नी को जला दिया था, क्योंकि उसने एक बौद्ध भिक्षु का अपमान किया था।’
श्री सिन्हा की इन टिप्पणियों के बाद सुप्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह एवं अन्य विद्वानों ने जब जनता के सम्मुख यह सच उजागर किया कि दीपवंस, महावंस और अशोकावदान, दिव्यावदान आदि परवर्ती ग्रंथों में अशोक से संबंधित अनेक मनगढ़ंत और कपोल कल्पित कथाएं हैं जिनका कोई पुरातत्विक आधार नहीं है और इनकी बुनियाद पर अशोक को कुरूप, हीनभावना से ग्रस्त, अपने परिवारजनों और अन्य स्त्रियों का हत्यारा कहना सर्वथा अनुचित है तो श्री सिन्हा इन प्रतिप्रश्नों से बचते नजर आए।
बहरहाल, इस विवाद के परिणामस्वरूप अशोक द्वारा अंतरराष्ट्रीय सहयोग एवं सहकार के क्षेत्र में उठाए गए कदमों, उनके द्वारा आमजन के कल्याण लिए चलाए गए कार्यक्रमों, अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु रहने और उनका सम्मान करने के उनके सिद्धांत, मानवाधिकारों की रक्षा के लिए उनके द्वारा की गई पहलकदमी तथा प्राणिमात्र के संरक्षण की उनकी उदार दृष्टि की जमकर चर्चा हुई और जो नई पीढ़ी अशोक के विषय में अनभिज्ञ थी उसने भी उनकी महानता को जाना।
सेंट्रल विस्टा के शिखर पर विराजमान हिंसक और भयोत्पादक शेरों के साथ मुदित भाव से अकेले खड़े प्रधानमंत्री की तस्वीर आश्वासन कम देती है, चिंता और भय अधिक उत्पन्न करती है। शायद इस तस्वीर में प्रधानमंत्री के साथ विपक्ष का होना उनकी अद्वितीयता को कम कर देता किंतु कम से कम उनके सहयोगियों को तो इस बात का अवसर मिलना था कि वे अपने बौनेपन और असहायता का अनुभव कर सकें। इस दौरान घटित घटनाक्रम बहुत प्रतीकात्मक रहा, लोकसभा अध्यक्ष (जिन्हें वास्तव में अनावरण का यह कार्य सम्पन्न करना था) उपेक्षित से बस उपस्थित थे, उसी वैदिक रीति से पूजा पाठ भी हुआ, जिससे विद्रोह कर बुद्ध धर्म अस्तित्व में आया था। हमारे देश से हिन्दू धर्म के अतिरिक्त अन्य अनेक धर्मों के अनुयायियों का अटूट रिश्ता है, किंतु संसद शायद अब उनसे दूर होती जा रही है।
प्रधानमंत्री के मुख पर व्याप्त संतोष और आनंद की व्याख्या करना कठिन है। क्या यह प्रसन्नता इस बात की है कि हमारी उदार राष्ट्रीय पहचान से जुड़े एक और चिह्न को उन्होंने असमावेशी हिंदुत्व के रंग में रंगने में सफलता अर्जित कर ली है?
क्या उनका आनंद इस बात को लेकर है कि नए कीर्तिमान स्थापित करती महंगाई और बेरोजगारी के बीच जब देश में आर्थिक संकट की आहट स्पष्ट सुनाई दे रही है, उन्होंने अपनी अति महत्वाकांक्षी सेंट्रल विस्टा परियोजना को हठपूर्वक पूर्णता तक पहुंचा ही लिया है?
अगोरा प्रकाशन की किताबें Kindle पर भी…
अभी ही जब आलोचना, समीक्षा और बहस में सहज प्रयुक्त होने वाले अति प्रचलित शब्दों को असंसदीय घोषित करने वाली सूची चर्चा में है तब शायद उनकी खुशी इस बात को लेकर होगी कि सेंट्रल विस्टा के भव्य गलियारों में असहमत स्वरों को गूँजने न देने का एक और रास्ता तलाश कर लिया गया है।
यह भी विचारणीय प्रश्न है कि इन हिंसक शेरों का गुस्सा आखिर किस पर टूटेगा? कर्ज में डूबा, मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने वाले संगठनों के आदेश का अनुपालन करने को लालायित भारत विश्व को अपनी उंगलियों पर नचाने वाले ताकतवर देशों से तो लड़ नहीं सकता। ढीठ चीन के आक्रामक व्यवहार और उकसाने वाले कदमों पर हम कोई ठोस रणनीति बनाने के बजाए देश की जनता को भ्रम में रखने की विधियां तलाश रहे हैं।
कहीं ऐसा तो नहीं है कि शेरों की यह गुर्राहट अपनी अकर्मण्यता, अक्षमता और शक्तिहीनता को छिपाने की रणनीति है। शायद अपने पौरुष के छद्म को कायम रखने के लिए नए भारत के ये शेर अपने ही देश के उन निरीह लोगों पर आक्रमण करेंगे, जिन्हें देश की दुरावस्था के लिए उत्तरदायी काल्पनिक शत्रुओं के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
डॉ. राजू पाण्डेय लेखक हैं और रायगढ़ में रहते हैं।
विचारपरक आलेख। सशक्त।
[…] […]
[…] […]