आनंद स्वरूप वर्मा और सुरेश सलिल दो ऐसे दोस्त हैं जिन्होंने अपने शुरुआती दिनों में दिल्ली में कुछेक नौकरियां करके घर सँभालने की कोशिश जरूर की लेकिन वे शायद इसके लिए नहीं बने थे। दोनों आजीवन विकट और धुरंधर फ्रीलांसर बने रहे। दोनों का काम बहुत बड़ी मात्रा में है। दोनों हिंदी पत्रकारिता और लेखन के एक ऐसे दौर के साक्षी हैं जब राजनीतिक बदलाव और क्रान्ति के सपने बहुत शिद्दत से देखे और उसके लिए जी-जान से उपक्रम किये जाते थे। वह सब एक भोर के सपने की तरह अब कभी-कभार याद आता है। आज आनंद स्वरूप वर्मा अस्सी साल के हो रहे हैं। उन्हें बधाई शुभकामनाएँ देते हुए हम सुरेश सलिल का उनके ऊपर लिखा हुआ यह संस्मरण प्रकाशित कर रहे हैं। यह संस्मरण अब दोस्ती की विलुप्त होती जा परंपरा का जगमगाता हुआ एक चिराग है। बेशक आनंद स्वरूप वर्मा और सुरेश सलिल के बहाने इसमें बहुत कुछ ऐसा भी शामिल है जो अब दुर्लभ लेकिन बहुत मूल्यवान है : मॉडरेटर
आधी सदी लम्बी दोस्ती की कुछ यादें
जीवन-यापन और लिखने पढ़ने की बेहतर संभावनाओं की तलाश में जुलाई 1969 में दिल्ली आया था। महीने-पंद्रह दिनों की भागादौड़ी के बाद तात्कालिक रूप से पहली समस्या का समाधान हो गया और मुद्रा जी (स्व. मुद्राराक्षस) के प्रयासों से दिल्ली प्रेस पत्रिका समूह की पत्रिका चंपक के संपादन विभाग में मेरी नियुक्ति हो गई। वहाँ ब्रजराज तिवारी अधीर, जगदीश चंद्रकिशोर, शोभना बूटानी आदि के अलावा आनंदस्वरूप वर्मा भी काम करते थे। बाकी सब तो समय के प्रवाह में यहाँ-वहाँ होते गए (कई तो, यदा-कदा की यादों के झकोरों के सिवा, अब कहीं नहीं हैं इस धरा-धाम पर), लेकिन आनंद के साथ कोई आधी सदी लम्बी पारी जारी है अब तक। देखें, कब तक नॉट आउट रहती है!
आनंद से पहली मुलाक़ात लखनऊ में हुई थी हजरतगंज कॉफ़ी-हाउस में शायद 1966 में। हम दोनों तब युवा थे, हालांकि मेरा विवाह हो चुका था और एक बेटी का बाप भी बन चुका था।
आनंद गोरखपुर से आये थे एकाध दिन के लिए। उनकी कुछेक कहानियाँ उत्कर्ष आदि पत्रिकाओं में छप चुकी थीं। और मैं कानपुर की जमी-जमाई गृहस्थी को इयाँ-तियाँ करके कई महीने से लखनऊ में आवारागर्दी करता हुआ साठोत्तरी कविता का एक शहसवार बनने के शेख़-चिल्लियाना ख्वाब में गुमगश्ता था। मेरी भी कुछ कवितायें अर्थ, वातायन आदि पत्रिकाओं में आ चुकी थीं।
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हमारी वह पहली मुलाकात बहुत औपचारिक थी। बस्स, कहने भर को। दिल्ली प्रेस में काम करते हुए आनंद को थोड़ा-सा करीब से देखने, जानने-समझने का मौका मिला। अक्सर उसके हाथ में अंग्रेजी की कोई न कोई किताब नज़र आती। अंग्रेजी किताबों का मुझे मुझे आतंक नहीं था – कानपुर में यूनिवर्सल बुकस्टाल में काम करते हुए हजारों ब्रिटिश-अमरीकी साहित्य की किताबें न सिर्फ छू और उलट-पुलट चुका था, बल्कि ढेर सारा यूरोपीय साहित्य पढ़ भी डाला था। लेकिन आनंद के पास अलग तरह की किताबें नज़र आतीं –एजेकियेल म्फालेले की आत्मकथा डाउन सेकंड एवेन्यु, एलेक्स ला गुमा का उपन्यास एण्ड दि थ्री फोल्ड कोर्ड, रिचर्ड राइट का कहानी संग्रह हीरोइक सॉंग, या फिर न्यू लेफ्ट के चिंतकों-विचारकों (फ़ेनन,मार्कुस,रेजी द ब्रे आदि) की नवप्रकाशित पुस्तकें। यह भी देखना कि जब कोई विभागीय काम नहीं है तो वह इंट्रो-कैप्शन वाले कार्डों पर पोशीदा-तौर पर रिचर्ड राइव की किसी कहानी अनुवाद कर रहा है। कई बार लंच ब्रेक में दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद-विरोधी संघर्षों, लातिन अमरीकी देशों की राजनीति, विएतनाम-कम्बोदिया में चल रहे अमरीकी साम्राज्यवाद विरोधी छापामार युद्ध की चर्चा भी आनंद छेड़ देता।
वैचारिक रूप से शून्य मैं नहीं था, लेकिन कानपुर में शील जी के सान्निध्य-संपर्क में जितना–जो कुछ सतही किस्म का था, मिला वह जरूर मेरे जेहन में दर्ज था। हालाँकि शील जी स्वयं अपडेटड नहीं थे। एक समर्पित जनकवि जितना स्वत:स्फूर्त ढंग से जान-समझ सकता था उतनी ही उनकी तैयारी थी। समस्या यह भी थी कि वे सब कुछ को अपनी पार्टी-लाइन से देखते थे, जबकि तब तक तीन-तीन कम्युनिस्ट पार्टियां अस्तित्व में आ चुकी थीं और विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन भी दो फांक हो चुका था। यही वजह थी, कि तत्कालीन विश्व परिदृश्य, मार्क्सवाद और अपने देश की राजनीतिक धाराओं की उथली और आधी-अधूरी समझ ही मुझे थी, बहुत कन्फ्यूज्ड किस्म की।
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वह दिन आज भी मुझे अच्छी तरह याद है जब दफ्तरी काम से फ़ुर्सत पाकर शाम को हम लोग बाहर निकले थे। मैं प्राय: रोज़ ही काम से छूटने के बाद सीधे घर जाया करता था। झंडेवालान के पास ही, राजेंद्रनगर में रहता था। कुछ ही दिन पहले कानपुर से पत्नी और बच्चों ( अब मैं दो संतानों का बाप बन चुका था ) को लाकर किराए के एक कमरे में गृहस्थी जमाई थी और वे सभी अभी दिल्ली के लिए निपट अजनबी थे। लेकिन उस दिन मैंने आनंद से कहा, आज मैं तुम्हारे साथ चलूँगा। देखूं तुम कहाँ-कहाँ मूव करते हो, किन लोगों के साथ उठते-बैठते हो …..और हम दोनों पैदल ही चल पड़े थे मंदिर मार्ग-गोल मार्केट होते हुए कनाटप्लेस की तरफ। रास्ते-भर खूब बातें हुईं थीं। उन बातों का स्वभाव कुछ ऐसा था जैसा किसी स्टडी सर्किल में रिसोर्स पर्सन और न्यू लिटरेट के बीच प्रश्नोत्तर का होता। और आनंद ने बड़ी ही सफलतापूर्वक एक ठोस रिसोर्स पर्सन की भूमिका अदा की थी। यह भी याद है कि गोल मार्केट में हमने एक चाट वाले ठेले पर गोलगप्पे खाए थे ( पैसे शायद आनंद ने ही चुकाए थे), फिर कनाट प्लेस में टी हाउस के बाहर जगन्नाथ पनवाड़ी के यहाँ पान और पैदल बाराखम्भा, मंडी हाउस (तब मंडी हाउस आज जैसा सरसब्ज़ नहीं हुआ करता था ) के रास्ते आई.टी.ओ. की जानिब बढ़े थे।
उस शाम की एक उपलब्धि मंगलेश से मुलाकात भी थी। वह उन दिनों लिंक हाउस से निकलने वाले साप्ताहिक हिंदी पेट्रियट में काम करता था और देर रात तक उसे खटना पड़ता था।
मंगलेश और आनंद, दोनों ही सफदरगंज हवाई अड्डे के पास, अलग-अलग कमरा लेकर रहते थे और दोनों के बीच अच्छा इंटरेक्शन था।
मंगलेश के नाम और काम से मै कानपुर में ही भलीभांति परिचित हो चुका था। उसकी कहानी आया हुआ आदमी तब तक सारिका में छपी थी और लोगों का ध्यान अपनी और खींचा था। उत्कर्ष और आवेश में कुछ कवितायें भी आ चुकी थीं। लेकिन मेरे ख्याल से उसकी पहली असरदार साहितियक पहचान आया हुआ आदमी से ही बनी थी। दिल्ली के शुरू के सालों में उसने दो-एक कहानियाँ और भी लिखीं, फिर वह पूरी तरह कविता की ओर मुड़ गया। काश, वो कहानियाँ लिखना बंद न करता।
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उस दिन आनंद से हुई बातें और मंगलेश से मुलाक़ात दिल्ली में मेरी ज़िन्दगी का क्रुशिएल पॉइंट था। फिर तो ज़िन्दगी जीने, लिखने-पढ़ने का ढर्रा ही बदल गया। जो कुछ था तब तक का ‘अर्जित, जमुना की कछार में छिटका कर नये सिरे से सोचना-देखना शुरू किया। आज सोचता हूँ, वह दिन अगर न आया होता, तो और कुछ भी होता, वह न होता, जो हूँ। आनंद और मंगलेश मेरी ज़िन्दगी को निर्णायक मोड़ देने वाले पहले व्यक्ति हैं। फिर तो त्रिनेत्र जोशी, अजय सिंह, पंकज सिंह, असित चक्रवर्ती, देबू चक्रवर्ती, करुणानिधान (ये चारों अब नहीं हैं) इब्बार रब्बी, विष्णु खरे, विष्णुचंद्र शर्मा, प्रभाती नौटियाल, असगर वजाहत, न जाने कितने हमसफ़र मिलते गए और कारवां बढ़ता गया।
दो-तीन महीने बाद ही मैंने दिल्ली प्रेस की नौकरी छोड़ दी। कुछ दिनों बाद आनंद भी बाहर आ गया। अब तो दिनभर आवारागर्दी – दिन में लिंक हाउस की कैंटीन, शाम को कनाट प्लेस में टी हाउस के आसपास। जल्द ही एक और अड्डा हम लोगों ने खोज लिया। मोहनसिंह प्लेस में इंडियन कॉफ़ी हाउस की एक और शाखा खुल गई थी, जिसे हम लोगों ने मिनी कैफ़े नाम दे रखा था। शाम को कॉफ़ी हाउसी बैठकी के अलावा, मिनी कैफ़े सही मायनों में हम लोगों का एक्सक्लूसिव पनाहगाह था।
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तूफानी थे वे दिन। कितने-कितने काम हम लोगों ने अंजाम दिए! मुक्ति का प्रकाशन, भगतसिंह विचारधारा की पुनर्स्थापना, ऋत्विक घटक के सिनेमा की खोज, अफ़्रीकी-लातिन अमरीकी साहित्य को हिंदी के मुख्य परिदृश्य में लाना, बांग्ला साहित्य की क्रांतिकारी विरासत का पुनरावलोकन, मेरे नाम-तेरे नाम विएतनाम-विएतनाम, वसंत-प्लावन, ’तैयारी’ , ‘सिलसिला’, ‘हिरावल’, ‘नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा’, रैलियाँ-प्रदर्शन-गोष्ठियां और न जाने क्या-क्या! था यह सब कुछ बेशक सामूहिक, लेकिन सच यह भी है कि इन सब में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में आनंद और स्व.असित चक्रवर्ती की पहलकदमी रहती।
आनंद के संपर्क से मुझे व्यक्तिगत रूप से साहित्यिक लाभ भी मिला। पीछे अफ़्रीकी राजनीति और साहित्य में उसकी पैठ का उल्लेख हुआ है। अफ़्रीकी कहानियों का वह अनुवाद करता था, अफ्रो-एशियन राइटर्स कांफ्रेंस के सिलसिले में जब दक्षिण अफ़्रीकी साहित्यकार एलेक्स ला गुमा दिल्ली आये तो उंनसे भेंटवार्ता की ज़िम्मेदारी दिनमान ने आनंद पर डाली। आलोचना में अफ़्रीकी कथा-साहित्य पर उसका एक गंभीर लेख प्रकाशित हुआ। आगे चलकर उसने प्रसिद्ध केन्याई कथाकार-विचारक न्गूगी वा थ्योंगों के वैचारिक गद्य की एक बहुत महत्वपूर्ण कृति साहित्य, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता अनूदित की, लेकिन अफ्रीकी कविता के अनुवाद का काम उससे मैंने झटक लिया। उसके पास अफ्रीकी कविता के कई संकलन थे। उनमें से पेंगुइन सीरिज में प्रकाशित मॉडर्न पोएट्री फ्रॉम अफ्रीका (गेरल्ड मूर-यूली बीअर संपादित ) की प्रति मैंने उससे ले ली ( जो अब तक खस्ता हालत में मेरे पास है ) और कुछेक कवियों के अनुवाद सर्वनाम, आलोचना, कृति परिचय आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित कराये। काव्यानुवाद की दिशा में यह मेरा पहला कदम था। आज तो मेरा अनुवादक रूप मेरे कवि-रूप पर सवारी गाँठ चुका है। इसकी भी काफी कुछ जिम्मेदारी आनंद के हिस्से जाती है।
लेकिन आनंद का कथाकार शनैः शनैः पीछे छूटता गया। कहानियों के अनुवाद का सिलसिला भी धीमा होता गया। ऐसा नहीं होना चाहिए था। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि आनंद बहुत प्रैक्टिकल आदमी है – हम सबमें सबसे ज्यादा। पहले वह अकेला था, कोई जिम्मेदारी-कोई दबाव नहीं थे आगे-पीछे विवाह हुआ तो जिम्मेदारी बढ़ी, बच्चे हुए तो और भी जिम्मेदारी बढ़ी। इन नई चुनौतियों का सामना उसने किया और बेहतर तरीके से किया। उसने मैकमिलन, ग्रंथशिल्पी आदि के लिए बल्क में आनुवाद कार्य किया। इस व्यावहारिक संलिप्तता के बीच भी कुछेक महत्वपूर्ण काम कर गया। मसलन रजनी पामदत्त की कालजयी कृति इंडिया टुडे (आज का भारत नाम से) का अनुवाद, ई.एम.एस.नम्बूरीपाद के इतिहास ग्रन्थ भारत का स्वाधीनता संग्राम का अनुवाद। बीच-बीच में छोटे-छोटे पार्ट टाइम जॉब किये। एक बार प्रकाशन की दिशा में जाने का मन भी बनाया–प्रासंगिक प्रकाशन नाम से। कुछेक महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित की, लेकिन वह प्रयोग उससे सध नहीं पाया। विशुद्ध व्यवसायी बनकर जीना उसके स्वभाव में नहीं है।
आनंद में एक व्यवस्थित पत्रकार के रूप में स्वयं को विकसित देखने की महत्वकांक्षा शुरू से ही लक्ष्य की जाती रही है। इसकी प्रथम अभिव्यक्ति 1980-81 के दरमियान समकालीन तीसरी दुनिया के रूप में हुई। लेकिन एक-दो साल बाद उसका प्रकाशन रुक गया। शायद वजह यह भी रही हो कि इस बीच लखनऊ से सहारा ग्रुप के साप्ताहिक शाने-सहारा के सम्पादन का प्रस्ताव उसे मिला था। तीन-चार साल बाद वह अखबार बंद हो गया, तो उसे दिल्ली लौटना पड़ा। फिर नये सिरे से शुरुआत। फिर वही फ्री-लांसिंग-एक्टिविज्म का सिलसिला चल निकला। अब सेंटर कनाट प्लेस से खिसक कर हेली रोड-मंडी-हाउस हो गया। एक बार फिर हम सब एकजुट होने लगे, नई योजनायें बनने लगीं।
आनंद के व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण पक्ष और भी है –विपरीतताओं के सम्मुख हथियार न डालना, कमजोर न पड़ना। जब आनंद टेगौर गार्डन से नोयेडा शिफ्ट हुआ तो रोज़मर्रा की कई समस्यायों से उसे दो-चार होना पड़ा। उनमें सबसे अहम् समस्या थी पीने के पानी की। (नोयेडा का पानी तब खारा और भारी हुआ करता था) उस दौरान आनंद रोज़ शाम पीने के पानी का एक भारी केन हैली रोड से थ्री व्हीलर द्वारा नोयेडा ले जाता था। तब बोतल बंद पानी का धंधा शुरू नहीं हुआ था। उसी दौरान उसके छोटे बेटे पर डीप्थिरिया का आक्रमण हुआ और उसी से उसकी मृत्यु हुई। बेटे के इलाज के सिलसिले में एम्स-किंग्सवे कैम्प-हिंदूराव के बीच उसके पूरे परिवार को कितना अस्त-व्यस्त रहना पड़ा, कितने मानसिक-आर्थिक तनाव झेलने पड़े, तब भी आनंद के चेहरे पर धैर्य और साहस की जो छाप थी, उसके गवाह एकाध निकट मित्र ही रहे ही होंगे।
इन सबसे उबरने के बाद फिर वही धुन! तीसरी दुनिया के पुनर्प्रकाशन का दृढ़ निश्चय। नेपाल की जन-क्रांति के समर्थन में धरना-प्रदर्शन-विचार-गोष्ठियां, गरज कि वही सारा सिलसिला!
आनंद ने समकालीन तीसरी दुनिया की दुबारा शुरुआत 1996 के आसपास की। कुछेक साल के बाद फिर विराम आया। 2002 से तीसरी बार उसका प्रकाशन शुरू हुआ, जो डेढ़ दशक से लगातार जारी है। हाँ, उसकी अड्डेबाजी में जरूर विराम आया है। बंगाली मार्केट की जलेबी, आलू टिक्की, मंडी हाउस चौक की ऑरेंज आइसकैंडी, फिरोजशाह रोड की पान की दुकान की माज़ा-लिम्का के दौर भी थम गये हैं और अब आनंद अपने घर पर ही ग्राउंड फ्लोर पर बाकायदे ऑफिस बना कर बैठता है। कंप्यूटर पर काम करता है। डिक्टेशन देता है। ई-मेल-इन्टरनेट करता है और पत्नी की व अपनी शारीरिक व्याधियों से गंभीरतापूर्वक जूझता हुआ भी जिंदादिली के साथ घोषणा करता है : ‘अरे, यार, यह सब तो चलता रहता है।’
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