Saturday, July 27, 2024
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घाट-घाट पूछते चल रहे हैं कि ई नदिया गन्दी कैसे भई?

नदी एवं पर्यावरण संचेतना विषय पर वरुणा नदी किनारे से चार बार पैदल यात्रा करने के बाद अब दिमाग में हमेशा वरुणा नदी ही घूमती रहती है। चार बार में मैं गांव के लोग सोशल एंड एजुकेशन ट्रस्ट की टीम के साथ वरुणा नदी के दोनों किनारे की तरफ से लगभग सात-आठ गाँवों की यात्रा […]

नदी एवं पर्यावरण संचेतना विषय पर वरुणा नदी किनारे से चार बार पैदल यात्रा करने के बाद अब दिमाग में हमेशा वरुणा नदी ही घूमती रहती है। चार बार में मैं गांव के लोग सोशल एंड एजुकेशन ट्रस्ट की टीम के साथ वरुणा नदी के दोनों किनारे की तरफ से लगभग सात-आठ गाँवों की यात्रा कर चुका हूँ। पांचवा गांव खेवली पांडेपुर होगा, जहां मैं पिछले 4 वर्षों से अध्यापन का कार्य कर रहा हूँ। मेरे पास वरुणा नदी को लेकर अब एक विशाल अनुभव है। बनारस में रहकर गंगा नदी के  किनारे विभिन्न घाटों पर मैं हमेशा घूमता रहता था, जहाँ आगंतुकों की हमेशा भीड़ लगी रहती है लेकिन वरुणा नदी उससे कुछ अलग है। यह नदी गाँवों के खेतों से होकर गुजरती है। इसकी धारा इस समय भले ही स्थिर हो किंतु नदी के दोनों किनारों पर खेतों की हरियाली और लहराती फसलों को देखकर मन की धारा चंचल गति से जरूर प्रवाहित होने लगती है। इस नदी के किनारे चलते हुए मन में ख्याल आता है कि यदि गंगा नदी की तरह वरुणा नदी की भी साफ-सफाई पर थोड़ा ध्यान दिया जाता, तो यह नदी भी खूबसूरत होती, लेकिन इसके किनारों पर गंदगी, कचरे, मल मूत्र और जगह-जगह से नालों और सीवर का पानी गिरने से यह ठीक स्थिति में नहीं है। इस देखकर बहुत दुख होता है।

गाँव के लोग सोशल एण्ड एजुकेशन ट्रस्ट द्वारा दिनांक 3 जुलाई रविवार को नदी एवं पर्यावरण संचेतना यात्रा का चौथा आयोजन हुआ। यह यात्रा पिसौर पुल से आरंभ होकर दानियालपुर घाट पहुंची। फिर वहाँ से बांस का पुल पार करते हुए दूसरी तरफ से वापस होते हुए पिसौर पुल पर समाप्त हुई। उस दिन सुबह मैं वरुणा नदी यात्रा का ही सपना देख रहा था। अचानक नींद खुली तो ज्ञात हुआ कि मैं बिस्तर पर ही हूँ। मोबाइल में समय देखा तो पाँच बजकर दो मिनट हो चुका था। जल्दी-जल्दी आवश्यक काम निपटाकर मैं तैयार हो गया। दीपिका ने मेरे हाथ में चाय का गिलास थमा दिया। मैंने चाय पीने से इनकार किया लेकिन उसकी जिद के आगे मेरी एक न चली। चाय गरम थी और मुझे जल्दी थी। बिना उसको पता चले चाय में थोड़ा पानी मिलाकर मैंने झट से गिलास खाली कर दिया तो वह बोली ‘चहिया जरत ना रहल का?’

एक जगह मुझे हरा-भरा ऊंचा-नीचा पहाड़ जैसा स्थान दिखाई दिया। उस पर उगी हुई घास बहुत सुंदर लग रही थी। मैंने अपना मोबाइल अमन जी को देते हुए कहा – ‘अमन जी जरा एक मेरा फोटो लीजिए। पीछे वाला बैकग्राउंड भी पूरा आना चाहिए। उन्होंने कैमरा रेडी किया तो मैंने कहा- ‘ऐसा लग रहा जैसे हम लोग बनारस से कहीं दूर पिकनिक पर आये हुए हैं?’

मैंने कहा – ‘एक एक घूँट फूँक फूँक पिये बदे हमरे पास समय ना रहल, त जरते पी गइली।’

मैंने स्कूटी निकाली और रोज की अपेक्षा थोड़ा तेज गाड़ी चलाया। तरना के पास पेट्रोल पंप पर पहुंचा ही था कि रामजी सर का फोन आया -‘दीपक कहाँ हो?’

‘तरना पेट्रोल पंप पर सर!’

‘अच्छा आ जाओ! मैं शिवपुर फाटक पर हूंँ।’

मैंने स्कूटी में पेट्रोल भरवाया फिर शिवपुर रेलवे फाटक पर पहुंच गया।  वहां मेरे परिचय का कोई नहीं था। जेब से मोबाइल निकालकर सर को फोन करने जा रहा था कि पीछे से अमन विश्वकर्मा और किसान नेता रामजनम जी एक ही बाइक पर आ गए। अमन जी बोले- ‘दीपक जी चलिए, यहां क्यों खड़े हैं?’

वरुणा नदी के किनारे टीम

 ‘रामजी सर का इंतजार कर रहा हूँ।’

‘अरे महाराज सवा छ: बज गया है। वह पहुँच गए होंगे।चलिए तब हम लोग भी चलते हैं।’

अमन जी आगे और मैं उनके पीछे चलने लगा पिसौर पुल पर जैसे ही पहुँचा रामजी सर, गोकुल दलित, मनोज यादव,  सतीश सिंह अर्थात् पूरी की पूरी टीम वहां पहुंच चुकी थी। मेरे जेब में मोबाइल की घंटी बज रही थी। तभी रामजी सर ने मुझे देख लिया और बोले – ‘दीपक, मैं ही फोन कर रहा था। जरा शिवपुर पर फाटक चले आओ, वहां श्यामजी खड़े हैं, उन्हें लेते आओ।’

मैं गाड़ी घुमा कर पुनः शिवपुर फाटक पहुंच गया। वहां श्यामजी सड़क के दूसरी तरफ खड़े होकर मेरा इंतजार कर रहे थे। मैं उन्हें अपनी स्कूटी पर बैठाकर पिसौर पुल के पास आया, तब देखा कि वहां गांव के लोग टीम में से कोई नहीं था। आसपास के लोगों से पूछने पर पता चला कि बैनर-पोस्टर लेकर पुल के नीचे से यात्रा रवाना हो चुकी है। श्यामजी बोले -‘घबरा जिन दीपक! वो लोग केतनौ दूर गये होंगे, चला हम लोग गांव में से चलके ऊ लोग के आगे घेरल जाय।’

फिर उनके साथ मैं गांव में घुस गया। कुछ दूर चलने पर उन्होंने एक जन से पूछा- ‘ई पैड़वा नदिया के तीरवां चल जाई?’

‘हां एकदम आराम से चल जइबा।’

फिर हम पगडंडियों का रास्ता पकड़कर खेतों के बीच से नदी किनारे पहुंच गए। पीछे टीम के लोग बैनर हाथ में लेकर आते हुए दिखाई दिए। वहां से हम दोनों भी टीम के साथ हो गये। रास्ता ऊबड़-खाबड़ था किंतु मौसम अनुकूल और वातावरण सुहाना था। खेतों और आसपास के इलाकों में हरियाली थी। खेत में भिंडी, तुरई, मिर्च, बैगन, पालक, नेनुआ, बोड़ा और कद्दू आदि के पौधे लहलहा रहे थे। किसानों से बात करते हुए अपर्णा मैम बोलीं – ‘आप के खेतों की सब्जी देखकर मुझे लालच आ रहा है। एक लूँ क्या?’ एक किसान ने कहा कि ‘तोड़ लीजिए, खाने भर का तोड़ लीजिए मैम।’

खेत से तोड़कर रखी सब्जियां

‘नहीं मुझे खाने के लिए नहीं, बस टेस्टिंग के लिए एक ले रही हूँ।’

इस दौरान सोशल वर्कर मनोज यादव फेसबुक लाइव में नदी एवं पर्यावरण के दृश्य को कवर करते हुए लोगों से अलग-अलग बातें कर रहे थे। उनके कवरेज को मैं ध्यान से देख और सुन रहा था। सबसे पहले रामजी सर ने अपनी टीम के लोगों का परिचय कराया, फिर अपर्णा मैम ने इस यात्रा अभियान के बारे में विस्तार से जानकारी दी। किसान नेता रामजनम जी, नदियों से सभ्यता का विकास कैसे हुआ, इस तथ्य को विस्तार से समझा रहे थे। फिर मैंने नदी की तरफ ध्यान से देखा तो पहली तीन यात्राओं की अपेक्षा इस बार का जल कुछ हद तक साफ था। इसके कारण का अनुमान लगाया तो समझ में आया कि इधर बीच बारिश हुई है जिससे उसकी गंदगी का पता ज्यादा नहीं चल पा रहा है

मनोज यादव का फेसबुक लाइव बंद हुआ तो मैंने उनसे पूछा – ‘भैया आप किस चैनल पर हैं? वे बोले ‘मैं किसी चैनल-वैनल से नहीं हूं। मेरा नाम मनोज यादव है। मैं सोशल वर्कर हूं।’

‘अच्छा, मुझे लगा कि आप इस यात्रा पर खबर बना रहे हैं।’  दरअसल इससे पहले मनोज जी से मेरा परिचय नहीं था इसलिए मुझे लगा कि यह किसी मीडिया से होंगे। 

खेतों में काम करने वाले किसान बहुत ध्यान से हम लोगों को देख रहे थे। तभी कमर सीधा करते हुए सुमित नाम के व्यक्ति ने पूछा- ‘भैया, ये क्या हो रहा है?’

‘वरुणा नदी यात्रा हैं। नदी के साफ सुथरा रखने के लिए हम लोग जागरूकता अभियान चला रहे हैं। आइए, आप भी शामिल हो जाइए।’ नंदलाल मास्टर ने समझाया।

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‘ये तो बड़ा बढ़िया काम है। हम लोग भी चाहते है कि  नदिया  बच जाए।’

‘तब कइसे बची?’

 ‘ बचावे क काम सरकार क ह न कि हमहने के बचउले से बची।’

इस बात पर रामजनम जी ने कहा – ‘इस सरकार से उम्मीद करना अब छोड़ दीजिए। एके हमहने के ही बचावे के पड़ी।’

खेत में से चलते हुए सुरेश पटेल से मैंने पूछा – ‘यह कौन सा गांव है भैया?’

‘दनियालपुर!’

‘कितना बड़ा दानियालपुर है? कब से चले हैं अभी दानियालपुर में ही हैं?’

‘बहुत बड़हर गांव है न!’

आगे बढ़ने पर एक बूढ़ी औरत खेत में काम करती हुई मिलीं। नाम था जगपत्ती देवी। उनसे किसी ने पूछा – ‘दादी ई नदियां गंदा कैसे भइल?’

तो वे बोलीं -‘तू ही लोग त गंदा कइला ह।’

‘एकर पानी भी केंव पीएलाs?’

‘इहै पानी हव, एके पिया चाहे कमा।’

यात्रा आगे चली तो जगपत्ती देवी के अंतिम वाक्य पर चर्चा होने लगी। अनजाने में ही सही, किंतु उन्होंने पूंजीवाद पर करारा प्रहार किया था। आगे चलने पर खेत में बोड़ा तोड़ते हुए एक महिला से अपर्णा मैम ने पूछा- ‘माताजी नदी का पानी कैसे गंदा हुआ? आप कुछ बता सकती हैं?’

‘जनसंख्या जवन इतना बढ़ गयल। पहिले जनसंख्या कम रहल त एम्मे गंदगी करें वाला भी कम लोग रहलनs।  जनसंख्या बढ़ गयल त ज्यादा लोग गंदगी करे लगें।’

‘हाँ ई बात त ठीके कहत हऊ।’

एक जगह मुझे हरा-भरा ऊंचा-नीचा पहाड़ जैसा स्थान दिखाई दिया। उस पर उगी हुई घास बहुत सुंदर लग रही थी। मैंने अपना मोबाइल अमन जी को देते हुए कहा – ‘अमन जी जरा एक मेरा फोटो लीजिए। पीछे वाला बैकग्राउंड भी पूरा आना चाहिए। उन्होंने कैमरा रेडी किया तो मैंने कहा- ‘ऐसा लग रहा जैसे हम लोग बनारस से कहीं दूर पिकनिक पर आये हुए हैं?’

‘एकदम मनाली जैसा है।’ कहते हुए वे हंस पड़े – ‘लोग झूठ मूठ का उतना दूर घूमने जाते हैं। ई कउनो मनाली से कम हौ का?’ फिर हँस पड़े हम लोग।

भैंस चराते हैं प्रभु यादव से इसके बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि ई पहाड़ी ना हौ, यहां पंडित जी लोग माटी खंनवा के सब ऊंचा-नीचा बना दिए हैं।’

‘अच्छा यह बात है, पंडित जी लोग यहां भी अपना वर्चस्व बना के रखे हैं।’

‘नाहीं। ई बहुत पहले का बात ह, अब ऊ सब का कउनो वर्चस्व ना हव।’

तभी एक खाई जैसी जगह दिखी, तो लोग खेत की ओर से घूम कर नीचे उतरने लगे। मैंने कहा – ‘हम सब तो यहां से कूद ही सकते हैं।’

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‘इधर से रास्ता है। घूम के जाओ।’  अपर्णा मैम मुझे डांटते हुए बोलीं।

मैम को नीचे उतरने में कहीं-कही दिक्कत हो रही थी तो अमन जी उनका एक हाथ पकड़कर सहारा दे देते। फिर हम लोग नदी के बिल्कुल किनारे समतल जगह पर चलने लगे। हरे-भरे वातावरण का फोटो खींचते हुए मैम बोलीं-  ‘यह जगह मुझे बहुत अच्छी लग रही है।’

आगे रास्ता बाधित होने के कारण हम लोग एक बँसवारी और बगीचे से होते हुए गांव में चले गए। गांव भी बहुत सुंदर लग रहा था। महिलाएं खेतों में धान रोप रही थीं। बेहन उखाड़ते हुए एक व्यक्ति से मैम ने पूछा -‘धान का इतना छोटा पौधा क्यों उखाड़ रहे हैं आप लोग?’

‘इसे उपारकर कर दूसरे खेत में लगाया जाता है मैम। ये बेहन है, बेहन !’

‘अच्छा!’

तभी एक औरत को धान रोपते हुए देखकर मैंने पूछा- ‘आप क्या कर रही हैं?’

‘धान रोपत हई।’

‘अच्छा! तो हम आपका एक फोटो खींच लें ?’

वह साड़ी का पल्लू सही करते हुए बिल्कुल सीधा खड़ी हो गयी – ‘खींच ला बहिनी।

‘धनवा लगइबु तब न खिंचाई।’ दूर खड़े किसी व्यक्ति ने जोर से कहा था।

खेत में काम करती महिला

इस बीच काफिला आगे बढ़ गया। मैं और मैम अपनी टीम से काफी पीछे रह गए। हम लोग गाँव के अन्य क्रियाकलापों को भी देख रहे थे। कहीं वॉलीबॉल खेलते हुए बच्चे, तो कहीं घर के सामने बर्तन माँजती हुई औरतें। कहीं हैंडपंप से पानी ले जाती हुई लड़कियां तो कहीं जानवरों की नाद में चारा डालते हुए बुजुर्ग लोग दिखाई दिए।

‘लगता है वो लोग बहुत दूर निकल गए हैं।’ मैंने कहा।

‘कहीं भी निकल गए हों, हमारा इंतजार किए बिना वे आगे जाएंगे ही नहीं।’

तभी देखा कि अमन जी एक मोटरसाइकिल पर खड़े विनोद साहनी नामक व्यक्ति से कुछ बात करते हुए दिखाई दिए और उसके कुछ दूरी पर सब लोग खड़े होकर हमारा इंतजार कर रहे थे। अब हम सब लोग साथ चलने लगे तो मैंने रामजी सर से पूछा- ‘सर ये कौन सा गांव है?’

इस पार यह दनियालपुर और उस पार लहरतारा!’

वहीं पर प्यारेलाल नाम के व्यक्ति ने कहा कि ‘आगे लोहता से नाले और सीवर का पानी बड़ी मात्रा में आकर नदी में गिरता है।’

हम लोगों के हाथ में बैनर देखकर एक औरत बोली- ‘भैया इहां पुल बनी का?’

‘नहीं, हम लोग नदी यात्रा पर निकले हैं। नदी जो समाप्त होने के कगार पर है, इसे बचाने की मुहिम है।’

‘पहले एप्पर एगो फुल बनवावा लोगन त बाद में आउर कुछ करा। हमहन बाँसे पर चढ़-चढ़के ओ पार जाइला।’

आगे बढ़े तो सचमुच बाँस का बहुत पतला का पुल था। संतोष जी ने कहा – ‘इसपे बारी बारी से चलो, वरना सब साथ में आओगे तो बीच में टूट भी सकता है। फिर तो हो जाएगी यात्रा।’

‘टूट जाई त पउँड़ भी न पाई केहू।’  मैंने कहा। फिर ठहाके गूँज उठे।

इसके बाद बांस के फूल पर ही कई तस्वीरें हुई और उसके सहारे धीरे-धीरे हम लोग नदी के दूसरी तरफ आ गए। उस पार सचमुच बहुत गंदा नाला बहता हुआ नदी में गिर रहा था। जिसकी दुर्गंध बहुत दूर-दूर तक फैली हुई थी। नाक पर गमछा, रुमाल और हथेली लगाना पड़ रहा था। उसी नाले में एक व्यक्ति दस-बारह की संख्या में भैंस हाँककर प्रसन्न दिखाई दे रहे थे। भैंसें मड़िया मारते हुए नाले को पार कर गईं।

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वहां से हम लोग सीधे सड़क पर आ गए। एक गुमटी में ताजा पकौड़ी छनते देखकर लालच आ गया। पकौड़ी लिए बिना रहा न गया। हम नंदलाल मास्टर के साथ पीछे रह गए थे। आगे श्यामजी भी एक पान की गुमटी पर खड़े हुए मिले। हमारे साथ श्याम जी भी हो गए। इसी बीच उन्होंने कहा- ‘दीपक हमारी जानकारी में अस्सी कोई नदी नहीं है। नदी वह होती है जिसका कोई उद्गम स्थल होता है और वह कई नदियों से जुड़ी हुई होती है। वरुणा और अन्य नदियों में यह विशेषता पाई जाती है, लेकिन अस्सी में ऐसी कोई विशेषता नहीं है। आप मेरे इस बात को गोष्ठी में सबके सम्मुख जरूर रखिएगा।’

‘हां! इस बात की तो चर्चा होनी चाहिए और मैं चर्चा जरूर करूंगा।’

रास्ते चलते हुए एक जगह बात कबीर पर छिड़ गई तो गोकुल दलित ने कहा – ‘ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर सबसे पहले प्रहार करने वाले कवियों में कबीर थे।’

इस बात पर मैंने कहा – ‘कबीर से पहले गुरु नानक, सरहपा, कनहपा यानि सिद्धों और नाथों पूरी परंपरा रही। शायद इसी कारण से आचार्य रामचंद्र शुक्ल कबीर को कवि नहीं मानते थे।’

इस बीच में एक बार फिर श्याम जी के साथ समूह अलग हो गया था। तब श्याम जी ने मुझसे कहा- ‘हमार भैया आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर बड़ा मोटहर किताब लिखले हउंअन।’

‘हां, मैंने उनकी संपादित की हुई वो पुस्तक उनकी लाइब्रेरी में देखा है, किंतु पढ़ा नहीं है।’

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हम लोग थक चुके थे किंतु पिसौर पुल पर वापस लौटना ही था। फिर सड़क से उतरकर हम लोग पुनः नदी किनारे-किनारे चलने लगे। इस बार नदी के दूसरी तरफ थे। एक बगीचे में पहुंचे तो मोर और चिड़ियों की मीठी मीठी आवाज सुनकर मन स्नेहिल हुआ जा रहा था। थोड़ी देर विश्राम करने की इच्छा हुई लेकिन विश्राम का समय नहीं था। मैं और अपर्णा मैम अपनी टीम से एक बार फिर पीछे रह गए। एक मंदिर के पास रुक कर वहां के लोगों से अनुमति लेकर मैम मीठी नीम की पत्तियां तोड़ने लगीं। उनके साथ मैं भी रुक गया। चलने लगा तभी मंदिर से पन्नालाल नामक एक व्यक्ति जोर से पूछा – ‘ये क्या हो रहा है? कुछ हमको भी जानकारी दीजिए!’

‘वरुणा नदी यात्रा है।’ मैंने कहा।

‘किस लिए ?’

‘नदी जो गंदी हो चुकी है, समाप्त होने के कगार पर है। उसी को बचाने की मुहिम है।’ मैम ने विस्तार से समझाया।

हम लोगों को पीछे देखकर अमन भी रुककर दूर से आवाज लगाते हुए बुला रहे थे क्योंकि और लोग दूर निकल गए थे। मैम ने कहा- ‘ये लोग भी न गजब हैं। जब तक वहां रुके थे तब तक कुछ नहीं पूछे। चलने लगे तो जग गए।’

इस प्रकार नदी किनारे खेतों से होते हुए हम लोग भरथरा ग्राम पहुंच गए। उसके आगे बढ़े तो संतोष पटेल कई लोगों को इकट्ठा करके हमारा इंतजार करते हुए मिले। उनके साथ उनके परिवार से अन्य सदस्य भी वहां मौजूद थे। महिलाएं थीं जिनका नाम रूपाली, कलावती देवी, आरती, अनीता देवी आदि बताया। उन लोगों ने नदियों और पर्यावरण की स्थिति पर अपनी चिंता और दुख जताते हुए विस्तार से अपनी बात कहीं तथा नदी के साथ अपने अनुभव को भी साझा किया। आगे सामाजिक कार्यकर्ता अनूप श्रमिक और जागृति राही जी मिले। वे लोग पहले नदी के उस पार से जा रहे थे। फिर पिसौर पुल लौटकर पुनः दूसरी तरफ आते हुए मिले। इस तरह से वे लोगों से अलग यात्रा करते हुए हमारी यात्रा में मिल गये। अब एक मुकम्मल यात्रा के साथ हम लोग पुनः पिसौर पुल पर पहुंच गए। इस प्रकार हमारी यात्रा संपन्न हुई। इस यात्रा में ग्रामीणों से बात करते हुए निष्कर्ष निकला कि यह नदी 25-30 वर्ष पहले बहुत साफ-सुथरी थी। इस नदी का पानी पीने, खाना बनाने, नहाने-धोने एवं तमाम प्रकार के घरेलू कामों के उपयोग में लाया जाता था। किंतु वर्तमान में विभिन्न नालों, मल-मूत्र, कचरों की वजह से नदी इतनी गंदी हो चुकी है कि यह पानी जानवरों के पीने लायक भी नहीं है। नदी की दुर्दशा से सभी दुखी एवं चिंतित दिखाई दे रहे थे।

पिसौर पुल के पश्चिम तरफ एक डीह बाबा के मंदिर के चबूतरे पर हम लोग इत्मीनान से बैठ गये। फिर एक विचार गोष्ठी हुई। इस गोष्ठी में विद्वानों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए। सबसे पहले सामाजिक कार्यकर्ता सतीश सिंह ने कहा कि ‘यात्रा के दौरान समझ में आया कि नदी में पानी से अधिक नाले बचे हुए हैं। वरुणा गंगा की सहायक नदी है।नालों से युक्त वरुणा का पानी सीधे गंगा में गिरता है। इस प्रकार भारत सरकार की नमामि गंगे का मुहिम कैसे पूरा होगा। इसलिए मैं अपील करता हूं कि सब लोग नदी के साथ सफाई पर ध्यान दें ताकि नदी का पानी पीने एव़ सिंचाई करने योग्य हो सके।’

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पर्वत की चिट्ठी तू ले जाना सागर की ओर!

जागृति राही ने कहा कि ‘शिवपुर के पश्चिम में ग्रामीण क्षेत्र है जो कि प्राकृतिक रूप से काफी सुंदर है। इधर कुछ हद तक पानी साफ है। इसके बाद शहरी इलाका शुरू हो जाता है, जिसमें वरुणा नदी पहचान में ही नहीं आती है। यह बिल्कुल नाले में तब्दील हो जाती है। हम भी शहर में वरुणा नदी के पास रहते हैं। हम लोग वरुणा कॉरिडोर और वाटर रेस के नाम पर सवाल उठा चुके हैं किंतु स्मार्ट सिटी की योजनाएं नदी को नुकसान पहुंचा रही है। इसलिए हम लोग चाहते हैं कि गाँव के लोगों और उनके जीवन को नदी एवं पर्यावरण से पुनः जोड़ा जाए। यात्रा है तो जीवन है, जीवन है तो प्रवाह है।’

अनूप श्रमिक ने कहा कि ‘नदियों के सुंदरीकरण से नदियों की स्थिति नहीं बदलती है। नदियों के लिए सरकार को जनता के साथ मिलकर ग्रामीण इलाकों में देखना होगा कि क्या समस्याएं आ रही हैं? सरकार को अपने प्रोजेक्ट के अलावा संगठनों को आपस में साझा करके कुछ बड़ा रोल करना होगा ताकि नदियां फिर से जीवित हो सकें। नदियों को बांधने से यहां की भी स्थिति उत्तराखंड और जम्मू कश्मीर जैसी हो सकती है।’

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सोशल वर्कर मनोज यादव ने कहा कि ‘नदियों में बहुत से नाले व विषैले केमिकल हैं जिससे नदियों का पानी बहुत गंदा हो चुका है जिसके कारण नदी में मछलियां व जलीय जीव मर रहे हैं। पशु-पक्षी इसका पानी पीने से बीमार हो रहे हैं। सभी लोगों से अपील करता हूं कि नदियों को बचाने के लिए आगे आएं ताकि जल व पर्यावरण को सुरक्षित किया जा सके।

दीपक शर्मा ने कहा कि ‘स्वच्छता अभियान सफल न होने के कारण ही भारत विश्व पर्यावरण प्रदूषण सूचकांक में 180वें स्थान पर पहुंच गया है। इस पर सरकार और आम जनता को व्यापक पैमाने पर काम करना होगा।’

इनके अलावा इस नदी यात्रा एवं कार्यक्रम में अमन विश्वकर्मा, श्यामजी यादव, लालजी यादव, संतोष कुमार, किसान नेता रामजनम, गोकुल दलित और अन्य लोग भी जुड़े रहे।  कार्यक्रम का संचालन गाँव के लोग पत्रिका के संपादक रामजी यादव और धन्यवाद ज्ञापन अपर्णा जी ने किया।

गाँव के लोग
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