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ग्राउंड रिपोर्ट

जेल में बंद विचाराधीन कैदियों की रिहाई कैसे होगी?

देश की कानून व्यवस्था पर सवाल उठना जरूरी है। वर्ष 2021 के अंत तक देश की जेल में अब तक लगभग साढ़े पाँच लाख कैदी बंद हैं, जिनमें से 77.1 प्रतिशत विचाराधीन कैदी थे और 22.2 प्रतिशत कैदियों को ही दोषी घोषित किया गया था। इन विचाराधीन कैदियों को बिना किसी सबूत और तहकीकात के पुलिस ने जेल में डाल दिया। जबकि जेलों में जो दोषी हैं, उन्हें ही रखने की इजाजत है। सवाल यह उठता है कि विचाराधीन कैदियों की जेल में बीत रही ज़िंदगी के लिए कौन जिम्मेदार है?

आँकड़े बताते है कि भारत में हर दस कैदियों में से केवल दो को ही वास्तव में किसी अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है। विचाराधीन कैदियों की संख्या हर साल बढ़ रही है और मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे कैदी – जिनमें से एक बड़ा हिस्सा हाशिए के समुदायों से आता है, जेलों में लंबे समय से रह रहे हैं।

भारत में दुनिया की प्री-ट्रायल बंदियों की छठी सबसे बड़ी हिस्सेदारी है। 2021 के अंत में, जेल में बंद सभी लोगों में से 77.1 प्रतिशत अंडर-ट्रायल थे| हर साल अंडर-ट्रायल्स की संख्या बढ़ने के साथ, ट्रायल का इंतज़ार कर रहे लोगों को जेल में लंबा समय बिताना पड़ रहा है। 2021 के अंत में, सभी अंडर-ट्रायल्स में से 29.1 प्रतिशत बंदी एक साल से ज़्यादा समय से जेल में थे। धार्मिक अल्पसंख्यकों  विशेष रूप से मुस्लिम और सिखों – का जेल के कैदियों में वर्षों से अधिक प्रतिनिधित्व रहा है, लेकिन पिछले दशक में इसमें कुछ बदलाव हुए हैं। भारत के कैदियों में दलित और आदिवासी समुदायों की हिस्सेदारी लगातार उच्च रही है।ओबीसी समुदायों से संबंधित लोगों की हिस्सेदारी भी बढ़ रही है। विचाराधीन कैदी को लम्बे समय तक हिरासत में रखने से स्वतंत्रता और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन हो सकता है, जिससे न्याय प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

2021 के अंत तक भारत की भीड़भाड़ वाली जेलों में पाँच लाख से ज़्यादा कैदी बंद थे, जिनमें से ज़्यादातर ऐसे थे जिन पर कथित तौर पर किए गए अपराधों के लिए मुकदमा चल रहा था। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो  एनसीआरबी) के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत की जेलों में बंद 5,54,034 कैदियों में से 77.1 प्रतिशत विचाराधीन थे और 22.2 प्रतिशत ऐसे थे जिन्हें अदालत ने दोषी ठहराया था। इसके लिए कौन जिम्मेदार है।  विचाराधीन कैदियों की यह बड़ी संख्या कोई नई बात नहीं है, बल्कि यह दशकों से चली आ रही है। 1979 की विधि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि 1 जनवरी, 1975 तक विचाराधीन कैदियों की संख्या 57.6 प्रतिशत थी और आयोग ने इस बात पर अफसोस जताया कि ‘जेलों का मुख्य उद्देश्य दोषियों को रखना होना चाहिए, न कि विचाराधीन कैदियों को रखना।‘

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2021 के अंत में जेलों में बंद लोगों में से एक बड़ा हिस्सा पुरुषों (95.8 प्रतिशत) का था , जिनमें वे लोग थे जो बहुत कम या बिल्कुल भी शिक्षित नहीं थे। 2021 के अंत में जेलों में बंद सभी लोगों में से एक चौथाई (25.2 प्रतिशत) निरक्षर थे। अन्य 40.2 प्रतिशत ने दसवीं कक्षा से आगे की पढ़ाई नहीं की थी। और जो लोग अल्पसंख्यक धार्मिक और जातिगत समुदायों से आते हैं, उनका जेलों में प्रतिनिधित्व अधिक है। जबकि दोषियों और विचाराधीन कैदियों में हिंदुओं की हिस्सेदारी उनकी जनसंख्या की तुलना में कम है, वहीं दोनों प्रकार के कैदियों में सिखों और मुसलमानों का प्रतिनिधित्व अधिक है। विचाराधीन कैदियों और दोषी करार दिए गए कैदियों के बीच धार्मिक संरचना में अंतर है। मुसलमान एकमात्र धार्मिक समूह है जिसकी हिस्सेदारी विचाराधीन कैदियों में दोषियों की तुलना में अधिक है, जबकि अन्य समूहों के लिए प्रवृत्ति विपरीत है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति समुदायों की हिस्सेदारी लगातार उच्च रही है तथा ओबीसी समुदायों की हिस्सेदारी बढ़ रही है। धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ-साथ, हाशिए पर पड़े जाति और जनजातीय समुदायों के लोगों की संख्या भारत की जेलों में आश्चर्यजनक रूप से अधिक है।

हाशिए पर पड़े समुदायों के लोगों के लिए कानूनी व्यवस्था में आगे बढ़ना खास तौरपर चुनौतीपूर्ण होता है। जागरूकता की कमी, कानूनी अज्ञानता और सही कानूनी सहायता के साथ संसाधनों तक पहुँच की कमी का मतलब यह हो सकता है कि एक बार जेल जाने के बाद, उन्हें लंबे समय तक जेल में रहना पड़ सकता है, अक्सर उनके द्वारा कथित तौर पर किए गए अपराधों के लिए निर्धारित दंड से ज़्यादा। हमारे न्यायालयों के सामने इस तरह के लंबित मामलों और बोझ के साथ, विचाराधीन कैदियों की बढ़ती संख्या हमारी न्याय प्रणाली के लिए आने वाले कुछ समय तक एक बड़ी चुनौती बनी रह सकती है। मुकदमे की प्रक्रिया को तेज़ करने के अलावा, सुव्यवस्थित जमानत प्रक्रिया भी मदद कर सकती है, जिसका आह्वान हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने किया है।

जिम्मेदार कौन

इस बात की जानकारी के आधार पर यह सवाल का उठना जायज है कि जेलों में बंद निर्दोष यानी तथाकथित दोषियों को  गलत सजा दिये जाने के लिए कौन जिम्मेदार है?  उदाहरणार्थ झारखंड हाई कोर्ट ने हेमंत सोरेन को जमानत दे दी है। कारण यह है कि ईडी के पास यह साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं था कि हेमंत सोरेन किसी भी तरह के मनी लॉन्ड्रिंग या भ्रष्टाचार में शामिल थे।  इसके बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। लेकिन अब सवाल यह है कि जब ED ने एक मुख्यमंत्री को गिरफ़्तार किया, तो क्या उसके पास पुख्ता सबूत नहीं थे? और अगर उसके पास पुख्ता सबूत थे, तो कोर्ट ने उसकी बात क्यों नहीं सुनी?  और कोर्ट ने जो तर्क दिया, वो वाकई चिंताजनक है क्योंकि जिस तरह से ED ने अपना पक्ष रखा और कोर्ट ने कहा कि आपके पास कोई सबूत नहीं है, तो फिर आप किस आधार पर किसी को गिरफ़्तार कर सकते हैं? इससे कई बातें सामने आती हैं। सबसे पहले तो ये कि जांच एजेंसियों की जवाबदेही क्या है? क्योंकि अगर जांच एजेंसियों के अधिकारियों की जवाबदेही नहीं होगी, तो वो शक के दायरे में किसी को भी जेल में डालनया, सही होता है?

 बाद में अगर ये पता चले कि ये सिर्फ़ एक शक था और इसके पीछे कोई आधार नहीं था, तो जाहिर जेल में डाले गए व्यक्ति का सामाजिक, मानसिक और पारिवारिक नुकसान होगा। उनके काम और उससे जुड़े लोग पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। तब उनके काम में हुए नुकसान का ज़िम्मेदार किसे माना जाएगा?

भारत में लोग पुलिस या इंस्पेक्टर से क्यों डरते हैं? क्या किसी ने/आपने कभी इस बारे में सोचा है? इसका कारण बहुत सरल है कि कानून में ऐसे अतार्किक प्रावधान हैं, जिनके कारण वे किसी भी व्यक्ति को दोषी घोषित कर सकते हैं। उस पर मुकदमा चला सकते हैं। उसको सजा दे सकते हैं, उसका धंधा बंद कर सकते हैं, लेकिन अगर ये बातें झूठी पाई जाती हैं, तो ऐसे इंस्पेक्टरों और अफसरों पर कोई कार्रवाई नहीं होती। उन्हें जेल में नहीं डाला जाता। किसी अधिकारी को किसी दूसरे व्यक्ति को गलत तरीके से जेल में डालने की कोशिश करने के लिए जेल में नहीं डाला जा सकता क्या यह सही है? यही कारण है कि भारत में भ्रष्टाचार निर्बाध गति से बढ़ता ही जा रहा है। भ्रष्टाचार कम होने के जितने भी दावे किए जाते हैं वो सब के सब थोथे हैं।

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इस प्रकार के सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, अगर आप कोई रेस्टोरेंट या फ़ूड कंपनी चलाते हैं, तो एक फ़ूड इंस्पेक्टर आपके पास आता है। और वह कहता है कि आपने अपना लाइसेंस रिन्यू नहीं कराया है। आपने कहा है कि मैंने अपना लाइसेंस रिन्यू करा लिया है। आपको भौतिक निरीक्षण करना है और इस लाइसेंस को धारकों को देना है। भौतिक जांच करने वाला इंस्पेक्टर, भले ही सरकारी फीस 250 रुपये है, लेकिन वह 50,000 रुपये मांगता है। और अगर फूड कंपनी का मालिक इंस्पेक्टर को 50,000 रुपये नहीं देता है तो वो उसे नोटिस दे सकता है। अब कौन तय करेगा कि इस मामले गलती किसकी थी?

इंस्पेक्टर ऐसा करता है, तो वो पकड़ा जाता है या पहली बात तो ये कि उसके खिलाफ कोई शिकायत ही नहीं करता। शिकायत करें भी तो किससे? अबे का अबा खराब है। यदि कोई  उनके खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी शिकायत दर्ज करवाते भी हैं। तो उसे कैसे पता चलेगा कि उसकी  शिकायत दर्ज हो गई है? क्या कोई पारदर्शी सिस्टम है? मान लीजिए कि शिकायत दर्ज हो गई है और कोई उसे ईमेल से भेजता है। इसकी क्या गारंटी है कि वहां के अधिकारियों ने शिकायत स्वीकार कर ली है? शिकायतकर्ता को कौन बताएगा कि उसकी शिकायत पर जांच हुई है या नहीं? और मजे की बात यह है कि जांच करने वाले भी उसी विभाग के हैं। वही विभाग उसकी जांच करेगा। और विभाग कभी नहीं चाहेगा कि उसके अधिकारी या इंस्पेक्टर के खिलाफ कोई अपराध साबित हो क्योंकि इससे साफ पता चलता है कि विभाग भ्रष्ट है।  दूसरी तरफ, इस प्रक्रिया में दिक्कत यह है कि आम आदमी को पता ही नहीं होता कि शिकायत कैसे दर्ज करानी है।यह आम आदमी का मामला है।

कहने का मतलब यह है कि अगर भारत से भ्रष्टाचार को खत्म करना है तो एक ही रास्ता है। अगर कोई इंस्पेक्टर या अधिकारी गलत तरीके से जांच करता है या किसी नागरिक को परेशान करता है तो उसे गलत केस दर्ज करने के लिए कानून के हिसाब से ही सजा मिलनी चाहिए।

अगर हमारे देश में लोग सही तरीके से जांच नहीं कर सकते तो देश का क्या दोष है? नागरिकों का क्या दोष है? तो सवाल यह है कि जब तक हम अधिकारियों से उनके गलत बयानों की जांच करते हैं, तब तक उन्हें सजा नहीं दी जानी चाहिए, अगर किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है, जेल भेजा जाता है, अगर कोई सामाजिक, आर्थिक, मानसिक या शारीरिक क्षति होती है, तो गलत बयानी करने वाले अधिकारियों को सजा मिलनी चाहिए।

अगर कोई गलत तरीके से किसी को 6 महीने जेल में रखता हैं तो ऐसे गलत अधिकारियों को एक साल की सजा होगी। मुझे लगता है कि यह पहला सुझाव होना चाहिए। यदि आर्थिक दंड है तो उसे भी उस विभाग और संबंधित अधिकारियों को दोहरा दंड देना चाहिए। तीसरा,  ऐसे अधिकारियों को जांच से हटा दिया जाना चाहिए। नए अधिकारी और कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। और पांचवीं और सबसे बड़ी बात, सभी जांच अधिकारियों की सारी जानकारी, क्या ऐप के माध्यम से विभाग में स्टोर नहीं होना चाहिए? उसने वहाँ क्या देखा? उसका फोटो अपलोड नहीं करना चाहिए? किन लोगों के लिए लाइसेंस अपलोड नहीं होना चाहिए?

ये सारी चीजें तब तक कम नहीं होंगी जब तक कि इनका दस्तावेजीकरण डिजिटल रूप में न हो जाए। अगर भारत से भ्रष्टाचार को खत्म करना है, चाहे वो फील्ड डिपार्टमेंट हो, जांच हो, अगर आप गुप्त तरीके से काम करेंगे तो विभागों का राजनीतिक दुरुपयोग होगा ही और भ्रष्टाचार भी बना रहेगा। तो क्या इसके लिए विपक्षी दल शामिल होंगे? क्या विपक्षी दल इसके लिए प्राइवेट मेंबर बिल लाएंगे? और अगर सरकार मना करती है तो सरकार की पोल खुल जाएगी और अगर सरकार बिल लाती है और विपक्ष उसका विरोध करता है तो विपक्ष की पोल खुल जाएगी। क्योंकि पारदर्शिता के बिना भ्रष्टाचार को खत्म नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार से सत्ता द्वारा सरकारी जाँच एजिंसियों का केवल और केवल विपक्ष को दबाने के लिए किया जा रहा तो क्या भारत में भ्रष्ट अधिकारियों को दंडित नहीं किया जाना जरूरी है। सवाल यह उठता है कि देश की तंत्र में अपराधी बाहर घूम रहे हैं और निरपराधी बरसों से जेल में  बंद हैं।

तेजपाल सिंह 'तेज'
तेजपाल सिंह 'तेज'
लेखक हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार तथा साहित्यकार सम्मान से सम्मानित हैं और 2009 में स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त हो स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

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