दूसरा और अंतिम भाग
भारत में जनगणना के शुरुआती दिनों में जितना जोर जाति और धर्म लिखाने को लेकर था, उतना व्यवसाय को लेकर नहीं था। जबकि जातियां व्यवसाय के साथ बंधी हुई थीं। डा.आंबेडकर के शब्दों में यहां सिर्फ श्रम विभाजन ही नहीं था, श्रमिकों का भी विभाजन था। 1960 के दशक में ही जाकर इस दिशा में काम हुआ और शिल्प से जुड़े व्यवसायों को चिन्हित करने का काम शुरू हो सका। 1964 में उत्तर प्रदेश में विभिन्न शिल्पों में काम कर रहे लोगों को चिन्हित करने और उनके प्रति नीति बनाने की ओर ठोस तरीके से बढ़ा गया।
उस समय आजमगढ़ में 7492 लोग मिट्टी के बर्तन आदि बना रहे थे। इनमें से 10 ही लोग मिट्टी की मूर्तियां आदि गढ़ रहे थे। 35 लोग मिट्टी के खिलौने आदि बना रहे थे। सभी अपने घरों में रहते हुए घरों में शिल्प का काम कर रहे थे। बाद के समय में थोड़ी और ठोस रिपोर्टें आईं, जिनमें बार-बार यही चिन्हित हुआ कि कुम्हार समुदाय मुख्यतः परम्परागत कार्यों में लगा हुआ है।
जमीन बंदोबस्ती और नई हदबंदियों के साथ भूमि सुधार के सारे कार्यक्रमों में कुम्हारों के लिए मिट्टी की आपूर्ति का मसला बना रहा। यह स्थिति, कम से कम उत्तर प्रदेश में सभी शिल्पकार समूहों के लिए बनी रही। पोखर, बंजर जमीनों पर कब्जेदारी और पट्टेदारी पर दबंगों का प्रभाव बना रहा।
1990 के दशक में, जब भूमि सुधार को एक किनारे कर दिया गया और नई उदारवादी नीतियों ने शिल्पकारों के सामने जीवन-मरण का सवाल खड़ा कर दिया, तब शिल्पकारों के विकास की चिंता सामने आई। यह चिंता शिल्पकारों के समूह से अधिक इसकी कला को बचाने को लेकर अधिक थी। निजामाबाद में राजेंद्र प्रसाद प्रजापति के प्रयासों की वजह से तालाब का पट्टा कुम्हारों के हिस्से आया और इससे जुड़ी जमीन से मिट्टी की आपूर्ति संभव हो सकी।
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निजामाबाद के काले मृद्भांड : समय की मार से पिछड़ता हुआ एक हुनर और उसके उपेक्षित शिल्पकार
रामजतन प्रजापति बताते हैं कि ‘आज उतनी समस्या नहीं रह गई है। जब यह जगह आबंटित की गई तब मिट्टी की आपूर्ति की जगह भी दी गई। इस पेशे में मिट्टी बनाना एक बड़ा काम है। मिट्टी रख देने से भी समस्या होती है, लेकिन ताजी मिट्टी को हासिल करना भी इतना आसान नहीं रहता। प्रशासन से दी गई सुविधा से पोखरी से मिट्टी हासिल हो जाती है। अब लोग मिट्टी बेचने भी लगे हैं। ढाई हज़ार रुपये प्रति ट्रॉली मिट्टी मिल जाती है। हालांकि बर्तन बनाने के लिए चिकनी और लसदार मिट्टी ज्यादा उपयुक्त होती है। ऐसा न होने पर उस मिट्टी पर काफी काम करना होता है।
सबसे बड़ी समस्या मिट्टी को रखने को लेकर होती है। गर्मी में मिट्टी फट जाती है जबकि बरसात में दूसरी दिक्कत रहती है। इस पर घास उगने और खासकर उसमें फूल और बीज के झड़ जाने से मिट्टी को छानने में बड़ी दिक्कत आती है। बर्तन बनाने के लिए गोबर का कंडा जरूरी है। यह पूरी तरह से सूखा होना चाहिए। नमी रहने पर यह बर्तन को खराब कर देता है।
बर्तन बनाने के लिए पुआल की जरूरत होती है। इसे आंवा में रखा जाता है। बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को साफ करना और माड़ना जरूरी है। इस सबके लिए पर्याप्त जगह की जरूरत होती है। खुद के रहने के लिए, मिट्टी बनाने, ईंधन रखने, आवां बनाने, बर्तनों को कच्चा बनाने और सुखाने और अंत में बर्तनों की पालिश करने जैसी प्रक्रिया को पूरा करने के लिए जितनी जगह की जरूरत होती है, वह हमारे पास नहीं होता है। पूरा परिवार इसी उद्यम का हिस्सा बनकर उन्हीं जगहों पर जिंदगी बिताता है। इन कुम्हार परिवारों के पास इस उद्यम के सिवा और कुछ नहीं है। इनके पास खेती की कोई जमीन नहीं है।’
निजामाबाद का काला चमकदार मृदभांड बनाने वाला प्रजापतियों का यह समूह गुजरात से आया है। इस बारे में कई कथाएं हैं। जेन पेरिमैन अपनी पुस्तक ‘भारत का परम्परागत मृदभांड’ में लिखती हैं कि ‘यहां के कुम्हार औरंगजेब के दौर के अंतिम समय में निजामाबाद पर हुए हमलों के दौरान साथ लाये गये।’ यहां के कुम्हारों को लाने वाले एक काजी साहब थे, जो निश्चित ही जज थे और वह गुजरात से आये थे।
राहुल सांस्कृत्यायन ‘मेरी जीवन यात्रा’ में लिखते हैं ‘निजामाबाद में हम उन कुम्हारों के घर में भी गये जो खिलजी शासन के समय में देवगिरि से आकर यहां बस गये। उनके बनाये गये मिट्टी के बर्तन दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। स्थानीय कुम्हारों के साथ इनका रिश्ता-नाता है, मगर वे अपनी कला को दूसरे कुम्हार कुल में स्थान नहीं देना चाहते, इसीलिए वे अपनी लड़कियों तक को अपनी कला नहीं सिखाते। लड़ाई से पहले उनके बनाए लाखों रुपये के बर्तन-चाय का सेट, गुलदस्ता आदि विदेश जाया करते थे, किन्तु आज अवस्था अच्छी नहीं है। अब इन झिनकारी वाले कुम्हार घरों की संख्या दर्जन भर से ज्यादा नहीं रह गई है।’ यह बात वह अप्रैल, 1943 में लिख रहे थे।
रामजतन प्रजापति बताते हैं कि ‘कई सौ साल पहले काजी साहब के साथ दो लोग आये थे। वही यहां के लिए हमारे पूर्वज थे। आज भी हमारे गांव की जमीन का मालिकाना में हमारे नाम के साथ काजी साहब का नाम शामिल रहता है।’
वह बताते हैं कि ‘शादी ब्याह में कोई समस्या नहीं है। लेकिन, यहां के लोग और हम लोग अलग हैं, इसकी चर्चा तो कई बार बातों-बातों में आ ही जाता है।’ वह बताते हैं कि ‘गांव के एक बुजुर्ग ने हमें याद दिलाया कि यह हमी लोग थे जिसकी वजह से तुम लोगों का शादी-ब्याह हुआ।’ रामजतन प्रजापति सफाई भी देते हैं कि ये बातें उन पुरानी स्थितियों की यादें ही हैं। बाकी कोई समस्या नहीं है।
वह यह भी बताते हैं कि अब लड़कियों को सिखाने में कोई दिक्कत नहीं है। मेरी बेटी तो बहुत अच्छी कलाकार थी। शादी के बाद वह इसे जारी नहीं रख सकी। उसकी कमी खलती है। कई बार रूढ़ियां टूट जाती हैं लेकिन रूढ़ियों के कथानक बने रह जाते हैं और कई पीढ़ियों तक चलते चले जाते हैं।
लेकिन सच्चाई तो यही है कि एक जाति के भीतर ही कई जातियां हैं। कुम्हारों की भी कई उपजातियां हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में मिट्टी पर काम करने वाली विभिन्न जातियों की अपनी कार्यशैली भी है। जिस समय गुजरात से आने वाले कुम्हार यहां निजामाबाद में बसे, उस समय निश्चित ही यह इस जिले का केंद्र था। वर्तमान आजमगढ़़ शहर मुख्यतः 1750 के बाद ही अस्तित्व में आया। खासकर 1880 में अंग्रेजों ने यहां कब्जा जमाया और प्रशासनिक केंद्र को विकसित किया।
इसके पहले के समय में इसका मुख्य केंद्र निजामाबाद, रानी की सराय के आसपास था। मध्यकाल के उत्तरवर्ती दौर में थोड़े समय के लिए इसका केंद्र मेहनगर की ओर गया। ऐसे में यह अनुमान उपयुक्त लगता है कि काला मृदभांड बनाने वाले कुम्हारों का आगमन सल्तनत काल में ही हुआ होगा। उस समय यहां बाजार की उपस्थिति ने यहां के कुम्हारों को न सिर्फ समृद्ध किया होगा, बल्कि उनकी प्रसिद्धि दूर तक फैली होगी। शहर का केंद्र बदलने के साथ इनकी स्थिति बदतर होती गई।
आजमगढ़ शहर बीसवीं सदी के शुरुआत में ही रेलवे से जुड़ गया। यह बनारस, जौनपुर, गाजीपुर और गोरखपुर के बीच बसा हुआ शहर है। इसके बावजूद यह शहर न तो एक प्रशासनिक शहर बनकर उभरा और न ही व्यवसायिक, औद्योगिक शहर बना। यह महज एक ग्रामीण अवस्था में रह गया। छोटे और गरीब किसान पलायन के लिए मजबूर हुए, वहीं बड़े किसानों ने बनारस और इलाहाबाद शहर को चुना। मध्यवर्ग यहां नदारद ही रहा। यहां न्यूनतम आर्थिक गतिविधियों ने समृद्धि को बढ़ने से रोक दिया।
ऐसे में आजमगढ़ के शिल्पकारों के लिए कला और जीवन को बचाये रखना एक चुनौती भरा काम बन गया। 1980 के बाद के दौर ने सिर्फ निजामाबाद के कुम्हारों की जिंदगी को ही प्रभावित नहीं किया। उस समय इस शहर के हिस्सा रहे मऊनाथ भंजन के कस्बों, गांवों के जुलाहों को भी बर्बादी की ओर ले गया। इन बर्बादियों के बीच में निजामाबाद के कुम्हारों ने न सिर्फ अपनी सामाजिक जिंदगी को बचाकर रखा, साथ ही कला को आगे बढ़ाने में भी लगे रहे।
काला चमकदार मृदभांड कैसे बनता है
आमतौर पर किसी शिल्प की कला का आधारभूत पक्ष गोपनीय रखा जाता है। निजामाबाद की कला में ऐसी कोई बात नहीं दिखती। जेन पेरिमैन अपनी पुस्तक ‘भारत का परम्परागत मृदभांड’ में इसके बारे में काफी विस्तार से लिखती हैं। वह अपनी पुस्तक में अन्य शिल्पों के बारे में भी उतनी ही बारिकी से बताती हैं।
चूंकि वह खुद भी मिट्टी के बर्तनों पर काम करती हैं, इसलिए उनका वर्णन उन बारिकीयों से गुजरता है। मिट्टी का चुनाव, मिट्टी बनाना, उसमें अड़छी डालकर फेंटना, बर्तन बनाना और सुखाना, उसे आवां में डालना और उसके बाद बर्तनों की पॉलिश करना वे प्रक्रियाएं हैं जिनसे गुजरकर काला चमकदार बर्तन तैयार होता है।
रामजतन प्रजापति इस प्रक्रिया के बारे में बताते हैं कि ‘मिट्टी बनाना अब थोड़ा कठिन हो गया है। अब मिट्टी हम कहीं से भी ले आते हैं। मिट्टी का क्वालिटी जरूर देखते हैं। मिट्टी लाकर छानना जरूरी होता है।’ वह बताते हैं कि ‘मान लिजिए उसमें पौधों का बीज रह गया। हम आवां में डाल कर जैसे ही आग देंगे, मिट्टी के अंदर रह गये बीच जलेंगे। ऐसे में बर्तनों में छेद हो जाएगा। बर्तन खराब होगा और उसकी क्वालिटी अच्छी नहीं होगी। इसीलिए इसे ढंग से छानना होता है।
इस मिट्टी में हम काबिज डालते हैं। यह आम के पेड़ की छाल, अड़ुस की पत्ती, बांस की पत्ती, लाल रंग की अड़िछी मिट्टी और सोडा से तैयार होता है। इन सभी को एक साथ मिलाकर पेस्ट बनाते हैं और सुखा दिया जाता है। सूखाने के बाद इसे ओखली में कूटा जाता है। यही काबिज कहलाता है। इससे मिट्टी में चिकनाई और लस पैदा होता है। बर्तन बनाने लिए यह जरूरी है। बर्तन बनने के बाद इसकी घिसाई, छिलाई होती है और सुखाने का काम भी चलता रहता है।’
सबसे जरूरी पक्ष है आवां बनाना। यहां के कुम्हार लोग लकड़ी का कोयला या खदान कोयले का प्रयोग नहीं करते। यहां सूखी लकड़ी का भी प्रयोग नहीं किया जाता। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण ईंधन में जमा पानी होता है। गोबर का कंडा और पुआल इसके लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है। संभवतः इस तरह के ईंधन के प्रयोग के पीछे का सबसे बड़ा कारण ताप की सुनिश्चितता और नियंत्रण है। काला बर्तन के लिए 800 डिग्री सेल्सियस की जरूरत होती है। 900 पर जाने पर बर्तन का रंग लाल और 700 से नीचे जाने पर यह भूरे रंग में बदल जाता है।
रामजतन प्रजापति बर्तन पकाने का आवां दिखाते हैं। वह बताते हैं कि ‘यह आवां लोहे की गोल जाली पर मिट्टी, का लेप चढ़ाकर बनाया जाता है। यह इस तरह से बना होता है जिसमें एक बार आग देने के बाद से इसमें ऑक्सीज़न का प्रवेश नहीं होता। आग बर्तनों को एक खास ताप पर ले जाकर उसे मजबूती और रंग प्रदान करती है। हम आवां के ठंडा होने का इंतजार करते हैं। इसके बाद बर्तनों को निकालकर उन पर पारा और शीशा के एक मिश्रण से घिसाई की जाती है। यह घिसाई ही उस पर बने चित्रों और रेखाओं को उभारता है और बर्तन का काला रंग उभरकर आने लगता है।
मृदभांड कला और प्रजापति समुदाय का भविष्य
आज भारत का गांव न तो जजमानी प्रथा में रहा और न ही इसने अपने निवासियों में जमीन का हिस्सा बांटा। उत्तर-प्रदेश में आज आये दिन प्रशासन का बुलडोजर ‘अवैध कब्जों’ को मुक्त करने में लगा है। वह पोखरों का भविष्य तय कर रहा है और बंजर जमीनों पर काबिज लोगों को वहां से खदेड़ रहा है। भारत में भूमि एक ऐसी जगह रही है जहां राजाओं और प्रशासकों ने सबसे अधिक अपनी सत्ता का प्रदर्शन किया। अंग्रेजों ने भी इसी भूमि पर कर की वसूली के लिए जमीन बंदोबस्ती का पूरा खांचा खींचा।
यह क्रम 1947 के बाद भी जारी है। जमीन का मालिकाना तय करते समय खेती करने वालों की श्रेणी तय की गई। उस समय भारतीय समाज की उन सच्चाइयों को दरकिनार कर दिया गया जो खेती नहीं करते थे, लेकिन गांव की समाज और अर्थव्यवस्था के अनिवार्य हिस्से थे। यही स्थिति कस्बों की भी थी। शिल्पकार जातियों को दरकिनार कर दिया गया। यही कारण रहा कि शिल्प से जुड़ी जातियां 1990 के अंतिम दौर तक जजमानी के खत्म हो जाने के बाद भी उस प्रथा का पालन करती रहीं। सभी शिल्पकार जातियां तबाही और बर्बादी को झेलते हुए नये रास्तों की तलाश करती रही हैं।
रामजतन प्रजापित बताते हैं कि ‘आजमगढ़ से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने वाले राम नरेश यादव ने 1977-78 में एक राजकीय शिल्प विकास केंद्र शुरू किया। चूंकि यह लखनऊ में बना इसलिए जिसकी वजह से यहां के लोगों को कोई फायदा नहीं हुआ। उस समय तक निजामाबाद में इतनी दूर तक पढ़ाई की सुविधा नहीं थी।’ वह आगे बताते हैं कि ‘बच्चे फाईन आर्ट से कुछ सीख जाते हैं और इसका फायदा तो होता है लेकिन इस तरह स्कूलों, कालेजों में एडमिशन नहीं हो पाता है। आईटीआई करने से भी कोई खास लाभ नहीं होता।’
परम्परागत ज्ञान, आधुनिक तकनीक और ज्ञान के बीच का संवाद ही शिल्प को एक नई ऊंचाई दे सकता है। कुम्हारों की जिंदगी थोड़ी आय और अधिक खर्च के बीच फंसी हुई है। वे उत्पादन की स्थिति में आ तो रहे हैं लेकिन उसके लिए जिस बाजार की जरूरत है, वह उन्हें नहीं मिल रहा है। सरकार इस स्थिति में सीधे हस्तक्षेप की बजाय बिचौलिये समुदाय को खड़ा करने में लगी हुई है।
इस विश्वप्रसिद्ध कला के लिए निजामाबाद में प्रशिक्षण के लिए कोई संस्थान नहीं है। यह कार्यभार परिवारों के कंधे पर है। काले बर्तनों की एक ऐतिहासिक पृष्टिभूमि है। यह मौर्य काल से लेकर आज तक देश के विभिन्न दौर में विकसित होता हुआ यहाँ तक आया है। यह कला चीन से लेकर अन्य देशों में फैली है। इस ऐतिहासिक और वर्तमान संदर्भ का सीधा संबंध इस कला से जुड़े शिल्पकारों से है।
इसे विकसित करने के लिए पहली शर्त है कि इस कला के उत्पादन से जुड़े लोगों को न सिर्फ इन ऐतिहासिक संदर्भों से जोड़ा जाये, बल्कि वर्तमान के साथ संवाद की स्थिति बनाई जाये बल्कि इससे भी अधिक उन्हें इससे जुड़ी तकनीक का प्रशिक्षण दिया जाए। उन्हें इसके लिए उपयुक्त सहयोग और सुविधाएं दी जाएं। इसे उद्योग की तरह देखने के साथ-साथ इसे उसी तरह की सुविधाएं भी प्रदान की जाएं।
मैं जब इस विषय पर तैयारी कर रहा था, उस समय एक तथ्य से गुजरा जो वस्तुतः इसके और इस तरह की अन्य कलाओं के भविष्य के लिए चुनौती है। आपातकाल के दौरान जब दिल्ली में शहर की सफाई के नाम पर लोगों को उजाड़ा जा रहा था उस समय सबसे अधिक उजड़ने वाले लोगों में कुम्हार समुदाय के लोग थे। एक बड़ी संख्या उत्तम नगर में बसाई गई। इसका एक हिस्सा मंगोलपुरी में बसाया गया। ये उस समय शहर से दूर के इलाके थे और जो जगहें दी गईं वे बर्तन के शिल्प के लिए उपयुक्त नहीं थीं।
यहां यह उदाहरण देने के पीछे मुख्य कारण शासन और प्रशासन द्वारा इस देश के शिल्प और कला तथा उसे जिंदगी बख्शने वाले लोगों को न समझने की विडंबना को दर्शाना था। इस देश की सरकारों ने न तो ग्रामीण समाज के साथ न्याय किया, न आदिवासी समुदाय के प्रति समझदारी का रूख अपनाया और न ही वह शिल्पकारों के साथ खड़ी हुई। जमींदारी और पूंजी की बैसाखियों पर टिकी सरकारें कभी मुड़कर यह देखने की ज़हमत ही नहीं उठातीं बैसाखियां किनकी पीठ पर टिकी हुई हैं। जिस समाज में कला का सम्मान हो लेकिन कलाकार का नहीं वहां जल्द ही कला मरती है। जहां दोनों का सम्मान न बचे वहां सिर्फ विरानी ही बची रह जाएगी।
भारतीय समाज इन खतरों के बावजूद अपने शिल्प, कला और कलाकारों के साथ जिंदा है। निजामाबाद में अब भी खूबसूरत काले चमकदार मृदभांड बन रहे हैं और निश्चित ही इस पर कोई भी नाज कर सकता है। इतना भविष्य तो जरूर ही बचा हुआ है।
(समाप्त)