वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश आज के समय के लिहाज से महत्वपूर्ण पत्रकार हैं। वे सोशल मीडिया पर खासे लोकप्रिय हैं। उम्र के हिसाब से भी देखें तो उनकी सक्रियता देख खुद को ऊर्जा मिलती है। कुछ मुद्दों पर उनकी बेबाकी प्रेरित भी करती है कि चीजों को दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाय। हालांकि हर बार उनके दृष्टिकोण से सहमत कम से कम मैं तो नहीं होता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मेरे मन में उनके प्रति सम्मान में कोई कमी आती है। मैं तो वैचारिक स्वतंत्रता का पक्षधर रहा हूं। यहां तक कि विषम विचारवालों की वैचारिक स्वतंत्रता का भी।
आज उर्मिलेश की चर्चा इसलिए कि कल उन्हाेंने फेसबुक पर एक विचारणीय पोस्ट किया। उनका पोस्ट है–’भारतीय जनता पार्टी एक ‘राष्ट्रवादी’ पार्टी है [और] इसलिए वह अपने राष्ट्र के लोगों से न डरती है और न घबराती है. लेकिन परदेसियों से वह डरती है. उनकी प्रतिकूल प्रतिक्रिया के दबाव में आकर वह कभी-कभी ‘कोर्स करेक्शन’ के लिए भी तैयार हो जाती है. सांप्रदायिक सौहार्द्र की बातें भी करने लगती है।’
नुपुर शर्मा और नवीन [जिंदल] जैसे उसके प्रवक्ताओं ने कई दिनों पहले जहरीली बयानबाजी की थी। देश भर में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई. शर्मा के खिलाफ कई प्रदेशों में एफआईआर तक [दर्ज] हुए. लेकिन सरकार और भाजपा पर कोई असर नहीं पड़ा।
[bs-quote quote=”दुनिया के कई देशों में भारतीय पूंजीपतियों के माल या भारत-उत्पादित सामानों का बहिष्कार होने लगा तो मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी अब सांप्रदायिक सौहार्द्र में अपनी प्रतिबद्धता का ऐलान करने लगी हैं। कतर और कुवैत सहित कुछ देशों ने तो भारतीय जनता पार्टी के ऐसे प्रवक्ताओं के जहरीले बयानों के संदर्भ में सफाई के लिए भारतीय राजदूत को तलब तक किया। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
इस मामले को लेकर जब दुनिया के कई देशों में भारतीय पूंजीपतियों के माल या भारत-उत्पादित सामानों का बहिष्कार होने लगा तो मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी अब सांप्रदायिक सौहार्द्र में अपनी प्रतिबद्धता का ऐलान करने लगी हैं। कतर और कुवैत सहित कुछ देशों ने तो भारतीय जनता पार्टी के ऐसे प्रवक्ताओं के जहरीले बयानों के संदर्भ में सफाई के लिए भारतीय राजदूत को तलब तक किया।
एशिया और यूरोप के कुछ देशों की प्रतिक्रिया के बाद भाजपा अब शर्मा और जिंदल के खिलाफ कार्रवाई के लिए मजबूर हुई।
इससे पहले, पार्टी के अनेक नेता अपने जहरीले बयान के लिए राजनीतिक रूप से पुरस्कृत होते रहे हैं। देश में उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग उठने के बावजूद उनमें कुछ को तो मंत्री तक बना दिया गया. इसे कहते हैं वक्त वक्त की बात !
इसका यह भी मतलब निकलता है कि ‘मौजूदा सरकार और सत्ताधारी पार्टी को अपने देशवासियों की प्रतिक्रिया या नाराज़गी की ज्यादा परवाह नहीं। उसके हठ को कभी-कभी वैश्विक प्रतिक्रिया ही हिलाने में सक्षम नज़र आती है।’
उर्मिलेश की इस टिप्पणी से सहमत हुआ जा सकता है कि भाजपा नेतृत्व ने शर्मा और जिंदल के खिलाफ वैश्विक प्रतिक्रिया के दबाव में लिया है। इस बात पर भी कोई असहमति नहीं है कि ‘इस मामले को लेकर जब दुनिया के कई देशों में भारतीय पूंजीपतियों के माल या भारत-उत्पादित सामानों का बहिष्कार होने लगा तो मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी अब सांप्रदायिक सौहार्द्र में अपनी प्रतिबद्धता का ऐलान करने लगी हैं।’
लेकिन मुझे लगता है कि कुछ चीजें छूट रही हैं। मैं यह सोच रहा हूं कि उन मुल्कों ने ही आपत्ति व्यक्त क्यों किया, जहां इस्लाम केंद्रीय धर्म है? अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी और चीन जैसे देशों ने क्यों विरोध नहीं किया? इन देशों को छोड़ते हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ के बारे में सोचते हैं। वर्ष 2014 के बाद ऐसे अनेक मौके आए जब मुझे लगा कि संयुक्त राष्टसंघ अपनी आपत्ति व्यक्त करेगा। एक-दो बार संघ के कुछेक संगठनों के प्रतिनिधियों ने कुछ कहा भी, लेकिन उनका कहा अंग्रेजी अखबारों तक सिमटकर रह गया। यहां तक कि कुछेक भारतीय अंग्रेजी अखबारों ने भी कान देना जरूरी नहीं समझा। हालांकि सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली हॅजॅन लूंग ने इसी साल 15 फरवरी को अपने देश की संसद में महत्वपूर्ण टिप्पणी अवश्य की थी कि अब भारत नेहरू का भारत नहीं रहा। लेकिन भारत में सत्तासीन आरएसएस के लिए यह कोई खास महत्व नहीं रखता था।
[bs-quote quote=”आरएसएस के दो हिस्से हैं। एक हिस्सा है ब्राह्मण वर्ग और दूसरा है बनिया वर्ग। ब्राह्मण वर्ग सभी को नाराज कर सकता है क्योंकि वह अपने आपको श्रेष्ठ मानता है। लेकिन उसके लिए बनिया सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, जो उसे धन मुहैया कराता है। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दरअसल, उर्मिलेश जिस भाजपा और सरकार, को अलग-अलग आंक रहे हैं, मेरी नजर में वह एक ही है और वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस)। अब इस देश में जहां हम रहते हैं, आरएसएस ही है। नरेंद्र मोदी महज मुखौटा हैं। आप ध्यान से देखें तो संघ ने अपना तंत्र विकसित कर लिया है।
मैं तो जनसत्ता जैसे अखबार को देख रहा हूं कि कैसे यह अखबार आरएसएस का मुखपत्र बन चुका है। दिल्ली से प्रकाशित आज के अंक में इस अखबार ने एक विशेष पृष्ठ धर्मदीक्षा शीर्षक एक पृष्ठ प्रकाशित किया है। यह पृष्ठ संपादकीय पृष्ठ के ठीक बाद है। मैं तो अखबार का आदमी हूं और अब इतनी समझ तो हो ही चुकी है कि पृष्ठों के स्थान के पीछे की मानसिकता क्या होती है। जैसे बिहार के प्रकाशित अखबार प्रभातखबर की बात करूं तो यह अखबार पहले दो पन्ने नीतीश कुमार की स्तुति में खर्च करता है। हालांकि अंदर के पन्नों में भी यह स्तुति ही करता है, लेकिन इसमें कुछ खबरें भी होती हैं। मसलन, राज्य में घटनेवाली आपराधिक खबरें एकदम अंदर के पन्नों में स्थानांतरित कर दी जाती हैं।
खैर, प्रभातखबर तो वैसे भी खास जाति समूह का अखबार है और बिहार में यह जाति समूह स्वयं को भूमिहारों के समतुल्य बनाना चाहता है। ब्राह्मणों से इस समूह की कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। तो जनसत्ता ने अपने संपादकीय पन्ने के ठीक अगले पन्ने में धर्म की बातों को जगह दिया है। आप गौर करें कि आज दिन सोमवार है। काम करने के लिहाज से सप्ताह का पहला दिन। अब आप ब्राह्मणा वर्ग की चालाकी समझ सकते हैं कि वह इस देश को कैसे संचालित कर रहा है। यह वर्ग इस देश के मस्तिष्कों को हाईजैक कर चुका है। आज ही इस अखबार ने एक विशेष आलेख प्रकाशित किया है– ‘वैज्ञानिक निष्कर्ष : जीवन के लिए औषधि है आस्था।’
बहरहाल, जनसत्ता की इस ब्राह्मणवादी साजिश को यहीं छोड़ते हैं। मूल सवाल की तरफ लौटते हैं कि आखिर आरएसएस को फर्क किससे पड़ता है? मेरे लिहाज से उसे न तो अपने देश के लोगों की निंदा की परवाह है (और है भी तो उसके पास यूएपीए और देशद्रोह जैसे काले कानून हैं) और ना ही परदेसियों की निंदा की। दरअसल, आरएसएस के दो हिस्से हैं। एक हिस्सा है ब्राह्मण वर्ग और दूसरा है बनिया वर्ग। ब्राह्मण वर्ग सभी को नाराज कर सकता है क्योंकि वह अपने आपको श्रेष्ठ मानता है। लेकिन उसके लिए बनिया सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, जो उसे धन मुहैया कराता है।
शर्मा और जिंदल के जहरीले बयानों के मामले में भी यही हुआ है। जब अरब के अमीरों ने विरोध व्यक्त किया तो फर्क आरएसएस के दूसरे धड़े के उपर पड़ा। उसने पहले धड़े (ब्राह्मण वर्ग) को लाठी मारी या फिर कहिए कि उसके कान उमेठे और डांट लगाई।
तो कुल मिलाकर यही है कुल माजरा। मैं तो गालिब को पढ़ रहा हूं–
एक शरर दिल में है, उससे कोई घबराएगा क्या,
आग मतलूब है हमको, जो हवा कहते हैं।
इसके पहले गालिब ने लिखा है–
की वफा हमने, तो गैर उसको जफा कहते हैं,
होती आई है, कि अच्छों को बुरा कहते हैं।
सनद रहे कि अच्छा मेरे लिए वही है जो मानवता का पक्षधर हो। बाकी मुझसे अगर जफा करना चाहें तो बेशक करें।
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
डंसना बनाम डंक मारना (डायरी 5 जून, 2022)