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जाति जनगणना से किसको खतरा है?

राजनीतिक दल अब बहुजन समुदायों के बढ़ते दबाव की वास्तविकता के प्रति जाग रहे हैं। वे इस बात को लेकर सचेत हो चुके हैं कि सरकार से जाति को जनगणना के लिए एक महत्वपूर्ण मानदंड के रूप में शामिल करने के लिए कहा जाए। आजादी से पहले के दिनों में जनगणना होती थी जिसमें जाति […]

राजनीतिक दल अब बहुजन समुदायों के बढ़ते दबाव की वास्तविकता के प्रति जाग रहे हैं। वे इस बात को लेकर सचेत हो चुके हैं कि सरकार से जाति को जनगणना के लिए एक महत्वपूर्ण मानदंड के रूप में शामिल करने के लिए कहा जाए। आजादी से पहले के दिनों में जनगणना होती थी जिसमें जाति के आंकड़ों की गणना की जाती थी और आज भी विशेषज्ञों द्वारा इसका इस्तेमाल किया जाता है। अभी भी विशेषज्ञ 1936  के आकड़ों के आधार पर सामाजिक, आर्थिक सांस्कृतिक स्थितियों का मूल्यांकन करते हैं। जाति दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी हकीकत है जिससे हम समाज में व्याप्त   धार्मिक, जातीय , सांस्कृतिक और  आर्थिक विषमता का पता लगा सकते हैं। लेकिन जाति की हकीकत को दक्षिण एशिया के सभी शासकों और देशों ने बड़ी चतुराई से अपने डिस्कोर्स से गायब कर दिया ताकि राजनीति और सत्ता पर संपन्न और दबंग जातियों-वर्गों और उनके द्वारा ‘बनाए गए ‘नायकों का कब्जा बना रहे। हालांकि जाति का मूल आधार वर्ण व्यवस्था है, जो मनुवादी संस्कारों से निकली है लेकिन जिसने भी इसकी ‘महत्ता को समझ लिया वह इसका ‘मुरीद हो गया। फिर सत्ता पर हर जगह ऐसे वर्गों-जातियों का कब्जा हो गया जो सामंती संस्कारों से ग्रस्त थीं और हर प्रकार से बदलाव की विरोधी थीं। अगर दक्षिण एशिया में राजनीतिक परिवारों को देखेंगे तो हर जगह यह पायेंगे वे सभी सशक्त परिवारों, वर्गों, जातियों से निकले हैं। वे ही लोग जाति पर विमर्श के खिलाफ़ कमर कसे रहते हैं लेकिन जाति की बहस भारत को छोड़ कर कहीं और नहीं। शायद इसका कारण है भारत में फुले-आंबेडकर-पेरियार वाली धारा के आंदोलनों की मजबूती, जो अब अपना इतिहास स्वयं लिख रही है और इतिहास और ग्रंथों को चुनौती भी दे रही है।

[bs-quote quote=”1941 से पूर्व जनगणना में जाति के तत्वों को शामिल किया गया था लेकिन नई जनगणना में से ये सभी बातें हटाकर धार्मिक पहचान, लिंग आदि को केंद्र बिंदु बना दिया गया। यदि हम संविधान सभा में चर्चा की प्रक्रिया और बाद में बने कानूनों को देखें, तो वे सभी, जो मुसलमान और ईसाई नहीं थे, ‘हिंदू’ बन गए। यह भारतीय कानून के अनुसार हुआ, जिसका न विरोध हुआ और न ही इसपर कोई बहस। इस प्रकार, जनगणना अभ्यास का सबसे बड़ा छलावरण हमारी स्वतंत्रता की शुरुआत से ही शुरू हो गया क्योंकि इसने न केवल धर्म पर आधारित बाइनरी को ‘बनाया’, अपितु उसी आधार पर ‘बहुसंख्यक’ अवधारणा का गठन कर दिया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

इतिहास और संस्कृति हमेशा से ही ताकतवर समूहों के कब्जे में रही है और उन्होंने अपनी राजनैतिक ताकत के लिए इसका इस्तेमाल किया है। विशेषकर जब सत्ता धार्मिक राज्यों, राजशाही अथवा सैन्य तानाशाहों के कज्बे में रही हो। सभी को स्वयं को वैधता प्राप्त करने के लिए, आज के युग में ‘जनगणना एक राजनैतिक हथियार है और सत्ताधारी इसे अपनी सुविधाओं के अनुसार करते हैं। आइये, भारत के सन्दर्भ में इस बात का विश्लेषण करते हैं कि आखिर जनगणना में जाति को लेकर इतनी परेशानी क्यों हो रही है?

1941 के बादभारत ने एक नए चरण में प्रवेश किया। जहां जनगणना के आंकड़ों में धार्मिक पहचान थी लेकिन कोई जाति नहीं थी। यह वही अवधि थी जब भारत में शासन का एक नया दौर शुरू हो रहा था जो प्रजातान्त्रिक था, क्योंकि ब्रिटिश भारत छोड़ने की योजना बना रहे थे। वह भारत में एक नयी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तहत सरकार बनाकर उसको नेतृत्व सौंपकर जाना चाहते थे। 1941 से पूर्व जनगणना में जाति के तत्वों को शामिल किया गया था लेकिन नई जनगणना में से ये सभी बातें हटाकर धार्मिक पहचान, लिंग आदि को केंद्र बिंदु बना दिया गया। यदि हम संविधान सभा में चर्चा की प्रक्रिया और बाद में बने कानूनों को देखेंतो वे सभी, जो मुसलमान और ईसाई नहीं थे, ‘हिंदू‘ बन गए। यह भारतीय कानून के अनुसार हुआ, जिसका न विरोध हुआ और न ही इसपर कोई बहस। इस प्रकारजनगणना अभ्यास का सबसे बड़ा छलावरण हमारी स्वतंत्रता की शुरुआत से ही शुरू हो गया क्योंकि इसने न केवल धर्म पर आधारित बाइनरी को बनाया, अपितु उसी आधार पर ‘बहुसंख्यक अवधारणा का गठन कर दिया। बाद के दौर की पूरी राजनीतिक बहस उसी से प्रभावित हुई और सत्ताधारी इस बाइनरी का मजा लेते रहे। वे ही पक्ष, वे ही विपक्ष, वे ही क्रांतिकारी और वे ही विद्रोही।

जाति की गणना राजनीति करने की कवायद नहीं है। जनगणना में धर्म को जोड़कर जो ‘ज्ञान मिलता है वही ‘जाति को गिन कर भी लिया जा सकता है। धर्म के आधार पर जिन्होंने ‘बहुसंख्यक होने का राजनैतिक और सामाजिक लाभ लिया वे ही जाति के आधार पर गणना के बाद ‘बहुसंख्यक होने के ‘लाभ के खतरे से भयभीत हैं। बहुसंख्यक होने के तिलिस्म के बिखरने के खतरे से उपजी चिंताओं के चलते ही इस पूरे प्रश्न का दुरुपयोग हुआ है जिसके चलते सत्ताधारी इसे नहीं करना चाहते क्योंकि अभी तो ‘बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक केवल हिन्दू मुस्लिम की खेमेबंदी का सवाल है लेकिन यदि यह बहुजन और ब्राह्मणवादी प्रश्न बन गया तो नकली बहुसंख्यकों की राजनीति और चौधराहट को खतरा हो जाएगा। लेकिन हम इस प्रश्न पर अभी बात नहीं करेंगे।

हालाँकि जातिगत जनगणना के विरोध में सत्ताधारियों को यही भय सता रहा है। लेकिन इस बात को एक तरफ रखें तो जनगणना में जाति का प्रश्न सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़े समाज के लोगों के विकास हेतु योजनाएँ बनाने के काम आएगा।  यह समुदायों की स्थितिप्राकृतिक संसाधनों तक उनकी पहुंच के बारे में जानने का अवसर देता है। हालांकि सरकार ने एससी-एसटी की अलग-अलग गणना करना जारी रखा है। यह भारत में सबसे बड़ा संवैधानिक‘ रूपांतरण रहा है क्योंकि इन सभी को अंततः हिंदू के रूप में गिना जाता है। यहां तक कि जब हम सभी जानते हैं कि जाति जनगणना की मांग ज्यादातर ओबीसी वर्ग से हो रही हैलेकिन यह भी महत्वपूर्ण है कि अन्य समुदाय भी इसकी मांग करें ताकि एक वास्तविक तस्वीर सामने आए। वर्तमान सरकार या जनगणना में जाति का विरोध करने वाले अन्य लोगों के साथ समस्या यह है कि वे जनगणना के सवाल पर ईमानदार रवैया नहीं रखते। वे ऐसा शोर कर रहे हैं जैसे कि जनगणना में जाति का प्रश्न आने के बाद वैसे ही जातिवाद बढ़ जाएगा। गोया अभी भारत जाति-मुक्त देश है। वे जोरदार ढंग से यह प्रचारित करते हैं कि मंडल आयोग‘ की सिफारिशों को स्वीकार किए जाने के बाद जाति व्यवस्था उभरी। यानी, ऐसे लोग इतने ‘भोले हैं कि समाज में मंडलीकरण के फलस्वरूप पिछड़ी जातियों में उपजी अस्मिताओं के बोध को ही जातिवाद करार दे दे रहे हैं। जैसे मनुस्मृति ब्राह्मणों की नहीं दलित-पिछड़ों की देन हो?

मंडल के बाद की इस अस्मिताबोध ने ही बाद के वर्षों में सरकारों से जनगणना में जाति को शामिल करने के लिए दबाव बनाया क्योंकि यह समुदायों की स्थिति और उनके कल्याण के लिए जरूरी सरकारी योजनाओं को समझने में सहायक होगा। लेकिन भारतीय शासन की सत्ता संरचना यह अच्छी तरह से जानती है कि जाति जनगणना केवल जातियों की गणना नहीं हैबल्कि यह अंततः एक पैंडोरा बॉक्स खोल देगी जो कि मंडल के रूप में ब्राह्मणवादी आधिपत्य के लिए खतरा होगा। उनके लगातार विरोध और इस मुद्दे को चकमा देने का यही एकमात्र कारण है।

[bs-quote quote=”वर्तमान सरकार या जनगणना में जाति का विरोध करने वाले अन्य लोगों के साथ समस्या यह है कि वे जनगणना के सवाल पर ईमानदार रवैया नहीं रखते। वे ऐसा शोर कर रहे हैं जैसे कि जनगणना में जाति का प्रश्न आने के बाद वैसे ही जातिवाद बढ़ जाएगा। गोया अभी भारत जाति-मुक्त देश है। वे जोरदार ढंग से यह प्रचारित करते हैं कि ‘मंडल आयोग’ की सिफारिशों को स्वीकार किए जाने के बाद ‘जाति व्यवस्था’ उभरी। यानी, ऐसे लोग इतने ‘भोले’ हैं कि समाज में मंडलीकरण के फलस्वरूप पिछड़ी जातियों में उपजी अस्मिताओं के बोध को ही जातिवाद करार दे दे रहे हैं। जैसे मनुस्मृति ब्राह्मणों की नहीं दलित-पिछड़ों की देन हो?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”Apple co” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में 2009 के बाद कांग्रेस पार्टी ने इस सन्दर्भ में कुछ संकेत दिए और ऐसा लगा कि जाति को जनगणना में शामिल करने का प्रश्न सफल हो जाएगा, लेकिन जैसा कि हम सभी जानते हैं कि इस पार्टी में ब्राह्मणवादी विशेषज्ञ इसे विफल करने के लिए तैयार बैठे  थे। इसलिए वे 2011 में सामाजिक-आर्थिक जनगणना के नए विचार‘ के साथ आए ताकि ‘मुख्य प्रश्न’ से ध्यान हट सके। जो परिणाम सामने आये थे  उनके आधार पर एनडीए सरकार ने 2015 में संसद में एक रिपोर्ट पेश की लेकिन इसमें कई त्रुटियां थीं और तथ्य यह है कि यह इस पूरी प्रक्रिया को पटरी से उतारने का प्रयास है। इनमें से कई त्रुटियों को अभी तक ठीक नहीं किया गया है। दरअसल यह सभी को ‘संतुष्ट करने की फर्जी कवायद थी। आज तकसरकार हमें यह नहीं बता सकती कि देश में मैला ढोने वाले समुदाय के लोगों की सही संख्या क्या है? संसद में कितनी बेशर्मी से कहा कि पांच साल में हाथ से मैला ढोने से कोई मौत नहीं हुई। ठीक उसी तरह जैसे दिन के उजाले में यह झूठ बोला गया कि देश में ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई।

नेता क्यों आशंकित हो जाते हैं इसे समझने के लिए एक रिपोर्ट को ही समझना काफी  है। जो लोग राजनीतिक उद्देश्यों के लिए जाति जनगणना के बारे में रो रहे हैंअगर चीजें उनके अनुसार नहीं हुईं तो वे शत्रुतापूर्ण हो जाएंगे। मैं दो उदाहरण देता हूं। मेरा मानना है कि जनगणना के उद्देश्यों से समुदायों की सामजिक-आर्थिक स्थिति को बेहतर करना किसी का भी एजेंडा नहीं है। अधिकांश इस हिसाब से इसे आगे बढ़ा रहे हैं कि इससे पिछड़े वर्ग की जनसंख्या ज्यादा होगी और सवर्णों की अल्प संख्या साफ तौर पर नज़र आ जायेगी और इस प्रकार से उनका राजनैतिक एजेंडा चल जाएगा लेकिन ऐसा सोचना इस प्रश्न को जरूरत से अधिक साधारण समझना है। सत्ता में बैठी शक्तियां इससे ज्यादा शातिर हैं और इस प्रश्न के अन्दर ही बहुत से अन्य प्रश्न खड़े कर छुटकारा पा सकती हैं। मसलन, अति पिछड़ी जातियों को एक अलग केटेगरी में गिनना, अति दलितों को अलग से गिनना आदि। कई ऐसे बेमेल कॉम्बिनेशन भी हो सकते हैंं जो पिछड़ों और दलितों के नेतृत्व वाली पार्टियों के राजनितिक समीकरण को गड़बड़ कर सकते हैं। क्योंकि सभी ताकतवार जातियां और उनकी पार्टियां अपने हिसाब से इन समीकरणों को देख रही हैं। जनगणना में गड़बड़झाले की संभावना है क्योंकि ऐसा कौन-सा डाटा है जो कहता है कि ब्राह्मण उत्तर प्रदेश में 14% हैं? दूसरी बात यह कि जब कोई भी रिपोर्ट हमारी आशाओं के अनुरूप नहीं होती तो हमारे विचार बदलने में समय नहीं लगता।

 उदाहरण के लिए , 2014 में कर्नाटक में सिद्धरमैया सरकार द्वारा विभिन्न जातियों के सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण का आदेश दिया गया था। द न्यूजमिनट की रिपोर्ट के अनुसार:तत्कालीन सरकार ने कहा था कि राज्य सरकार को ओबीसी श्रेणी में आरक्षण और कोटा तय करने में सक्षम बनाने के लिए सर्वेक्षण किया जा रहा था। 127वां संविधान संशोधन विधेयक। यह सर्वेक्षण 2015 के अप्रैल और मई में कथित तौर पर कुल 1.6 लाख कर्मियों द्वारा कर्नाटक में 1.3 करोड़ घरों का सर्वेक्षण किया गया था। सर्वेक्षण करने पर राज्य ने कुल 169 करोड़ रुपये खर्च किए। 

बताया जाता है कि सर्वे रिपोर्ट तैयार‘ हैलेकिन निष्कर्षों ने लिंगायत और वोक्कलिगा जाति के शीर्ष नेताओं के मन में अशांति‘ पैदा कर दी है, क्योंकि इन समुदायों के नेताओं ने यह धारणा पैदा की है कि वे राज्य के बहुसंख्यक‘ समुदाय हैं। लेकिन अब उनकी शक्तिशाली लॉबी अब इसे दबा रही है। न्यूजमिनट रिपोर्ट में कहा गया है कि सर्वेक्षण के अनुसार कर्नाटक में सबसे बड़ा जाति‘ समूह अनुसूचित जाति हैउसके बाद मुस्लिम हैं, जो भाजपाजेडीएस आदि के पूरे एजेंडे को पंचर करते हैंजिनका लिंगायत और वोक्कलिगा मतदाताओं पर एकमात्र एकाधिकार है।

बिहार में 2007 में, नीतीश कुमार ने समुदायों में भूमिहीनता की स्थिति की जांच करने और राज्य सरकार को सिफारिशें देने के लिए डी बंदोपाध्याय के नेतृत्व में एक समिति नियुक्त की ताकि भूमि सुधार हो और ग्रामीण गरीबों को इसका लाभ मिले। समिति को बहुत से विस्तार दिये गये और अंत में 2009 में मुख्यमंत्री को रिपोर्ट सौंपी गई थी। रिपोर्ट को राज्य विधानसभा में बेहद शर्मनाक तरीके से पेश किया गया था। क्योंकि उन दिनों विधायकों को रिपोर्ट की ई-कॉपी सीडीआर के रूप में प्रदान की गई थी। कोई भी इसे पढ़ नहीं पाया और सभी विपक्षी दल और सत्ताधारी दल इस रिपोर्ट को कूड़ेदान में डालने के लिए एकजुट हो गए क्योंकि अगर रिपोर्ट को लागू किया जाता तो अपनी जमीन खोने के डर से बड़ी कृषक जातियाँ जिनमें ओबीसी की भी कुछ एक जातियाँ शामिल हैं, में गहरी नाराजगी पैदा हो जाती। हकीकत यह है कृषक जातियाँ आज के समय में भूमि सुधार और चकबंदी भी नहीं चाहतीं क्योंकि आज भी गाँव में दलितों और अति पिछड़ों की जमीनों पर कब्ज़ा किया गया है और वे अपनी भूमि पर जा भी नहीं सकते। 

राजद नेता तेजस्वी यादव ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा और बाद में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले अन्य राजनीतिक नेताओं के साथ मुलाकात की। परेशान करने वाली बात यह है कि ओबीसी और जनगणना पर पूरी बहस एक ब्राह्मणवादी पैटर्न के इर्द-गिर्द घूमती हैजिससे लगता है कि जाति जनगणना हिंदू समुदाय‘ का आंतरिक मामला है। यह ख़तरनाक है। तथ्य यह है कि हम जनगणना में जाति की बात कर रहे हैं और इसमें वास्तव में सभी धर्मों में मौजूद जातियों की गणना की बात की जानी चाहिए। दूसरेजब गणनाकर्ता और राजनीतिक नेता इसे हिंदू मुद्दा बनाते हैं तो आप मुस्लिमईसाई और सिख समुदायों में ओबीसी को न्याय से वंचित करते हैं जो कि मंडल रिपोर्ट में भी प्रदान किया गया है।सरकार और उसके अधिकारियों ने मुसलमानों और ईसाई समुदायों के लोगों को, विशेष रूप से दलितों तक को, आरक्षण से वंचित करने के लिए अलग-अलग हथकंडे अपनाए हैं क्योंकि उन्हें डर है कि एक बार उन्हें आरक्षण मिल जाएगातो धर्मांतरण की लहर दौड़ जाएगी।

मैं वर्षों से बोल रहा हूं कि दक्षिण एशियाई संवादों को जातिगत पहचान के इर्द-गिर्द घूमने की जरूरत हैदूसरों को अपमानित करने के लिए नहींबल्कि सभी उत्पीड़ित ताकतों में एक बड़ी एकता लाने के लिएक्योंकि धार्मिक दक्षिणपंथी अपने बहुसंख्यक‘ के निर्माण के लिए धार्मिक पहचान पर आधारित जनगणना का उपयोग अल्पसंख्यकों के विरुद्ध नफ़रत का एजेंडा फैला रहे है। जब हम जनगणना में जाति की मांग करते हैंतो हमें मांग करनी चाहिए कि मुसलमानोंईसाइयों और सिखों के लिए भी ऐसा किया जाए ताकि लोगों को सच्चाई का पता चल सके। यह एक समतामूलक समाज के निर्माण में मदद करेगा। जनगणना नकली इतिहास की किताबें लिखने की कवायद नहीं हैबल्कि योजनाकारों को लोगों के मुद्दों को हल करने में मदद करने के लिए है। बेशकआज के समय में यह भी पता चलेगा कि पिछले इतने सालों में हमारी पूंजी और संसाधनों को किसने हड़प लिया। यह चेहरा खोने और बाद में राजनीतिक नतीजों का डर है कि ब्राह्मणवादी अभिजात वर्ग इस मुद्दे में हेर-फेर कर रहा है और उन कथाओं का निर्माण कर रहा है जो उनके अनुरूप हैं। यदि कोई जबरदस्त राजनीतिक दबाव है जिसके तहत वे इसे करने के लिए सहमत हैंतो वे इसे विफल करने या इसे विभिन्न श्रेणियों में रखने के लिए सब कुछ करेंगे। मैं दृढ़ता से कह सकता हूं कि विशेषज्ञ‘ अपनी कड़ी मेहनत कर रहे होंगे कि इस पूरी कवायद का विरोध किए बिना कैसे मुकाबला किया जाए।

अंत मेंहम जैसे लोगों के लिएजाति जनगणना में व्यक्तिगत रूप से सभी जातियां और भूमिसंपत्ति और नौकरियों सहित समाज में उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति शामिल है। इस बीचशोधकर्ता यह पता लगाने के लिए अपना स्वयं का सर्वेक्षण कर सकते हैं कि मुंबई में दलाल स्ट्रीट पर किस जाति का वर्चस्व है? कितने दलितओबीसी आदि मीडिया के साथ-साथ न्यायपालिका या अन्य जगहों पर हैं और इससे हमें इस बात की एक झलक मिलेगी कि हमारे संसाधन कैसे हैं? प्रचार प्रणाली और न्याय प्रणाली पर अभिजात वर्ग का एकाधिकार है। मुझे नहीं लगता कि हमारी सरकार इसे ईमानदारी से  हल करने करने के प्रति ईमानदार है क्योंकि यह केवल उन लोगों को बेनकाब करेगा जिनके पास जातिगत विशेषाधिकारों के कारण आय से अधिक संपत्ति‘ है। अब आप इससे भाग नहीं सकते। यह एक हकीकत है। हमें इसका सामना करना होगा और ईमानदार प्रयास करना होगा ताकि सरकार आबादी की जरूरतों के अनुसार योजनाएं बना सके।प्रत्येक राज्य के पास जनगणना रिपोर्ट के अनुसार विशिष्ट एजेंडा और कार्यक्रम हो सकते हैं और कर्नाटक जैसे राज्य  अपने स्वयं के आदेश दे सकते हैं। लेकिन यदि राजनेता राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इसका इस्तेमाल करना चाहते हैं तो यह उन पर भारी पड़ जाएगा। कोई भी इस तथ्य से इनकार नहीं करता है कि यह मुद्दा राजनीतिक है और इसके नतीजे उन पर भी भारी पड़ सकते हैं।

जातिगत आरक्षण केवल पिछड़े वर्ग का या हिन्दुओं का ही प्रश्न नहीं है। अगर ईमानदारी से जाति को जनगणना में जरूरी घटक बना दिया जाएगा और उसके सही आंकड़े जनता के सामने आयेंगे तो इससे धर्म के आधार पर नफ़रत की राजनीति करने वालो की पोल खुल जायेगी और देश भर में सामाजिक और आर्थिक आधार पर जो विभाजन है उसके शिकार लोग एकजुट होंगे और यह एकता धर्मों की सीमाओं और बाधाओं से परे होगी। जहां पर ब्राह्मण, मुल्ला, पादरी हाशिये पर होंगे और सही मायने में बहुजन समाज एजेंडा देश का एजेंडा निर्धारित करेगा।

इसलिए हमें जनगणना में जाति को शामिल करने की मुहिम का समर्थन करना चाहिए।

विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है। 

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