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गीता का लेखक कौन था और उसकी जरूरत क्या थी

शूद्रों को गुमराह करने के लिए गीता का आधार थोड़ा व्यापक बनाया गया है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इसे भगवान श्रीकृष्ण के मुख से निकला हुआ धर्म ग्रंथ बताते हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी गीता को श्रीकृष्ण के वंशजों को पढ़ने की बात दूर रही, छूने तक का अधिकार नहीं था।

गीता किसने लिखी होगी? और इसके पीछे क्या कारण रहा होगा? आखिर इस किताब से किसका हित सधता है? क्या गीता कोई धार्मिक किताब है? वह कौन-सा धर्म है और उसका नेता कौन था? ये सब प्रश्न मेरे मन में लगातार उठते रहे हैं।

जिस प्रकार से अछूत की शिकायत नामक कविता के लेखक हीरा डोम की कविताओं को पढ़ते समय यह आभास होता है कि यह वर्ण व्यवस्था को मजबूत करने के उद्देश्य से किसी ब्राह्मण के द्वारा लिखी गई है। सबसे मुख्य बात यह है कि कवि अपने समाज के ऊपर हो रहे अमानवीय हिन्दू वर्ण व्यवस्था के अत्याचारों का, अपनी नियति समझकर दिल को झकझोर देनेवाला वर्णन तो जरूर करता है। लेकिन उस दुःख से निकलने की छटपटाहट उसमें कहीं नजर नहीं आती है, ब्राह्मणवाद को जिंदा रखने का षड्यंत्रकारी साहित्य ही ब्राह्मणों का सबसे बड़ा हथियार है।

आइए इसी कड़ी में गीता के रचयिता और उसमें कहे गए कुछ संदर्भों का जायजा लेते हैं और सीरियस होकर, मंथन करते हैं कि ऐसे श्लोक धर्म पुस्तक में क्यों लिखे गए? लिखने वाले का मकसद क्या था?, इससे किसको फायदा पहुंचने वाला था? स्वाभाविक है कि सवाल उठे, किसको नुकसान पहुंचाने का इरादा था? फिर अंतिम सवाल कि लिखने वाला कौन हो सकता है? वह भगवान था या इनसान कि शैतान था?

यही नहीं, जिस समय इसे लिखा गया, क्या उस समय कलम-दवात, कागज़-पन्ना, किसी की बात को सुनकर लिखने वाला (Stenographer) या आडियो रिकॉर्डर की सुविधा थी। क्या कोई ऐसा भी इन्सान लिख सकता है जो पढ़ने-लिखने की उम्र में शिक्षा के लिए स्कूल न जाकर गाय चराने जाता हो?

इस मनुवादी षड्यंत्र को समझने की कोशिश करो। कल्पना करो कि इसी विश्व में कुछ ऐसे भी इंसान हैं जिन्होंने मानवता और इंसानियत को बरकरार रखने के लिए 18वीं सदी से ही अंधे और गूंगे-बहरे लोगों को शिक्षा देने की छटपटाहट में एक नई भाषा की खोज तक कर डाली।

 भोर भयो गैयन के पीछे मधुवन मोहि पठायो, शाम भयो घर आयो।

मैं कब माखन खायो। मैं कब पढ़ाई कियो।

प्रमाण के लिए यहां मैं गीता के सिर्फ 4-5 श्लोकों का उद्धरण कर रहा हूं, निष्कर्ष आपको निकालना है। निर्णय आपको करना है कि सचाई क्या रहा होगा? हां, एक बात और है कि ज्यादा पढ़े-लिखे, स्वघोषित धार्मिक विद्वान अंधभक्तों से क्षमा चाहता हूं। मुझे गाली दे देना, मंजूर है, लेकिन अपने बच्चों के भविष्य के लिए, एक बार धार्मिक भावनाओं से मुक्त होकर दिलो-दिमाग से कहीं हुई बातों पर तर्क जरूर कर लेना।

1)- चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:। तस्य कर्तामपि मां विध्ययकतारमन्ययम।।

[गीता, श्लोक क्रमांक 4(13)]

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भावार्थ-

मैंने स्वयं उस व्यवस्था की रचना की है, जिसे चातुर्वर्ण कहा जाता है, (अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चारों वर्णों में विभाजन और इसके साथ ही और उनकी भौतिक कार्य क्षमता के अनुसार उनके व्यवसाय भी निश्चित किए हैं। चातुर्वर्ण का रचयिता मैं ही हूं।

2)- श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितातत्। स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।।

[गीता, श्लोक क्रमांक 3(35)]

भावार्थ-

भाइयो, दूसरे वर्ण का व्यवसाय करना आसान हो, फिर भी अपने स्वयं के व्यवसाय का अनुसरण करना उचित है, चाहे कोई व्यक्ति उसको कुशलतापूर्वक न कर सके तब भी। स्वयं का व्यवसाय करने में सुख है, चाहे उसे करते समय मृत्यु भी क्यों न हो जाए। परंतु दूसरे वर्ण का व्यवसाय करने से धर्म पर खतरा हो सकता है।

3)- न बुद्धि भेदं जनपदेज्ञानां कर्मसहंगिनाम्। जोसयेत्सर्वक माणिक विद्यान्युक्त: समाचरने।।

[गीता, श्लोक क्रमांक, 3(26)]

4)-  प्रकृतेगुणसम्पदा: सज्जन्ते गुणकर्मशु। तानकृत्स्नविदो मंदाकृत्स्मविन्न विचालयेत्।।

[गीता श्लोक क्रमांक, 3(29)]

भावार्थ-

शिक्षित लोगों को, उन अशिक्षित लोगों के विश्वास को भंग नहीं करना चाहिए। अपने स्वयं के व्यवसाय का अनुसरण करना उचित है। वह भी स्वयं अपने व्यवसाय का पालन करें और तदनुसार दूसरों को भी अपने वर्णों के व्यवसाय का पालन करने के लिए बाध्य करें। शायद, शिक्षित मनुष्य अपने व्यवसाय के साथ जुड़े न रह सकें, लेकिन ध्यान रहे, जो अशिक्षित तथा मंदबुद्धि के लोग अपने व्यवसाय के साथ जुड़े हैं, शिक्षित मनुष्यों को अपना व्यवसाय छोड़कर उन्हें गलत रास्ते पर चलने के लिए धर्मभ्रष्ट नहीं करना चाहिए।

5)- यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानम्धर्मस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम।।

परित्राणाय साधुनां बिनाशाप च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।

[गीता श्लोक क्रमांक, 4(7-8)]

भावार्थ-

हे अर्जुन! जब-जब कर्तव्य तथा व्यवसाय के इस धर्म की हानि (चातुर्वर्ण के धर्म का पतन) होगा, तब-तब मैं स्वयं जन्म धारण करूंगा और उन लोगों पर, जो इस पतन के जिम्मेदार हैं, शासन करूंगा और इस धर्म की पुनः पूर्ण स्थापना करूंगा।

साथियो, गौर करने से पता चलता है कि मनुस्मृति दिखाई देने वाला एक तीखा ज़हर है, लेकिन गीता न दिखाई देने वाला मीठा ज़हर है। यह ऐसा फाँस है जिसको काट पाना असंभव की हद तक मुश्किल है क्योंकि इसको आपकी भावनाओं में लपेट दिया गया है लेकिन आप विचार कीजिये कि क्या इसकी आपको ज़रुरत है? मनुस्मृति का असर तो अब समाज पर कम दिखाई देता है, लेकिन गीता का असर सब जगह दिखाई देता है।

यदि ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि संविधान लागू होने के 70 सालों बाद भी जाति-व्यवस्था बनी हुई है। पंडित का लड़का पंडिताई, चमार का मोची, लोहार का लोहारी, कोहार का कोहारी, धोबी का धोबियाई और अहीर का लड़का अधिकतर दूध या खोवा बेचेगा? रोजगार भी दुग्ध उत्पादन का और नौकरी भी ऐसी ही।

मैंने खुद सर्वे किया है। मुम्बई में 90% अहीर लोग ही भैंस के तबेलों में रहते हैं। नींचे भैंस ऊपर मचान पर बिना ढंग के कपड़े पहने, चौबीसों घंटे, परिवार से दूर, अपमानित, गोबर भरी नारकीय जिन्दगी जीने को मजबूर हैं।

मैंने एक बार 1988 में कान्दिवली में यादव संघ, मुम्बई के मंच से यहां तक कह दिया था कि यदि तबेला मालिक आपकी और आपके परिवार की खुशहाली के बारे में नहीं सोचता है तो ऐसी नारकीय और अपमानित जिन्दगी जीने से बेहतर है, दे दो जहर इन भैंसों को। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। वहां मौजूद कुछ तबेला मालिकों ने हंगामा खड़ा कर दिया था। पक्ष-विपक्ष में बहुत गरमी-गरमा के बाद मामला शांत हुआ। तबेला के हालात में आज भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।

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शूद्रों को गुमराह करने के लिए गीता का आधार थोड़ा व्यापक बनाया गया है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इसे भगवान श्रीकृष्ण के मुख से निकला हुआ धर्म ग्रंथ बताते हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी गीता को श्रीकृष्ण के वंशजों को पढ़ने की बात दूर रही, छूने तक का अधिकार नहीं था।

आज भी यह षड्यंत्र चालू है। संसद में यदि मुसलमानों के अहित की बात होगी तो उस विषय पर चमचे मुसलमानों से ही वक्तव्य दिलाया जाता है। इसी तरह शूद्रों के अहित की बात पर चमचे शूद्रों से ही वक्तव्य दिलाया जाता है।

शूद्र साथियो, इस मनुवादी षड्यंत्र को समझने की कोशिश करो। कल्पना करो कि इसी विश्व में कुछ ऐसे भी इंसान हैं जिन्होंने मानवता और इंसानियत को बरकरार रखने के लिए 18वीं सदी से ही अंधे और गूंगे-बहरे लोगों को शिक्षा देने की छटपटाहट में एक नई भाषा की खोज तक कर डाली। वहीं यहां के तथाकथित कुछ मूर्ख इन्सान किसी अच्छे इनसान को शिक्षित करना भी अधर्म और पाप समझते हैं।

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क्या आप आज ऐसे श्लोकों का समर्थन करने वाले लोगों को इन्सान समझते हैं? कत्तई मत समझिए। ऐसे लोग मानवता के लिए कलंक हैं। इसलिए मैं आज से इस पाप में भागीदारी से बचने हेतु, प्रतिज्ञा करता हूं कि, ऐसे लोगों से, चाहे वह कितना भी ऊंचे ओहदे पर हो, कितना भी नजदीकी रिश्तेदार हो, दोस्त, मित्र या सहकर्मी आदि हो सभी से हर तरह से अपने सम्बन्धों को खत्म करता हूं। जो मुझसे सहमत नहीं हैं, उनसे मैं क्षमा प्रार्थी हूं।

लेखक शूद्र एकता मंच के संयोजक हैं और मुम्बई में रहते हैं।

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