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Lok Sabha Election : शिक्षा और उससे जुड़े मुद्दे क्यों नहीं बन रहे हैं जरूरी सवाल?

पिछले दस वर्षों में शिक्षा का स्तर जितना गिरा है उतना पहले कभी नही। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सभी संस्थानों में विज्ञान और तर्क को दरकिनार कर धर्म को केंद्र में रखा गया। 2024 के लोकसभा चुनाव में शिक्षा जैसा महत्त्वपूर्ण मुद्दा जनता की नजर में क्यों नहीं है?

मनुष्य में सामाजिकता का सलीका शिक्षा के माध्यम से आता है। यदि वह शिक्षित नहीं होगा तो उसमें और जानवर में कोई भेद नहीं रह जाएगा। जैसे एक मदारी एक बंदर और बंदरिया से करतब कराकर पैसा कमाता है तथा इसके बदले में उन्हें भोजन खिलाता है। उन्हें यह एहसास भी नहीं होने देता है कि उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व भी है। भाजपा भी इसी नीति के तहत काम कर रही है।

लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा के पास कोई भी मुद्दा नहीं है, जिसे लेकर वह जनता के बीच जाकर बात करे। वह जनता के मुद्दे शिक्षा, रोजगार और महंगाई से दूर जाकर उसके स्वतंत्र अस्तित्व को धर्म और देशभक्ति के सहारे कैद करने की कोशिश कर रही है।। कैद में जकड़ा हुआ आदमी जानवर के समान होता है। जैसा उसका मालिक कहेगा वैसा ही वह करेगा। अन्यथा वह बंदर और बंदरिया की ही भांति पीटा जाएगा।

इस सरकार ने अपने दस साल के कार्यकाल (2014 से 2024 तक का शासनकाल) में प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च  स्तरीय शिक्षा को तरह से बर्बाद कर दिया है। एक तरफ स्कूल-कालेजों में शिक्षकों का अभाव है, किसी तरह की कोई नियुक्ति नहीं हुई है। शिक्षकविहीन संस्थानों में बच्चों का भविष्य अंधकारमय है। पिछले एक दशक में न केवल विश्वविद्यालयों में लोकतन्त्र और शिक्षा की नाकाबंदी की गई है बल्कि वे आरएसएस की प्रयोगशाला बना दिये गए हैं।

क्या कहती हैं रिपोर्ट 

महँगी शिक्षा गरीब परिवारों की पहुँच से बाहर हो रही है। सरकारी आँकड़े यानी एनएसएसओ के 75वें चक्र के सर्वेक्षण ‘हाउस होल्ड सोशल कंजम्पशन ऑफ़ एजुकेशन इन इंडिया’ (2017-2018) की रिपोर्ट देखें तो साफ़ दिखता है कि माध्यमिक से आगे की पढ़ाई-लिखाई आम गरीब, वर्किंग क्लास और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की पहुँच से बाहर होती जा रही है। उच्च शिक्षा पहले ही इन वर्गों की पहुँच के बाहर हो चुकी है। यहाँ तक कि प्राथमिक शिक्षा का खर्च उठा पाना भी अधिकांश गरीब और वर्किंग क्लास परिवारों को भारी पड़ रहा है।

महँगी होती शिक्षा देश में बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी के साथ-साथ सामाजिक गैर-बराबरी को और अधिक गहरा कर रही है। अखबार बिजनेस लाइन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जून 2014 से जून 2018 के बीच प्राइमरी और उच्च प्राइमरी शिक्षा की फीस आदि खर्चों पर क्रमश: 3 0.7% और 27.5% की भारी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। इसी तरह माध्यमिक कक्षाओं की फीस आदि खर्चों पर भी 21% की भारी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। स्नातक (ग्रेजुएशन) की शिक्षा के खर्चों में 5.8% और स्नातकोत्तर (पीजी) की शिक्षा के खर्चों में 13% की बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन इंजीनियरिंग से लेकर मेडिकल और दूसरे प्रोफेशनल कोर्सेज की पढ़ाई का खर्च आम मध्यवर्गीय परिवारों की हैसियत से पूरी तरह बाहर हो गया है।

शिक्षा की महंगाई पर प्रकाश डालते हुए नवनीश कुमार लिखते हैं कि ‘बाकी घरेलू खर्चों के मुकाबले शिक्षा के क्षेत्र में महंगाई दो गुनी गति से बढ़ रही है। एक अनुमान के मुताबिक, हर साल शिक्षा के क्षेत्र में लगभग 10 से 12 फीसदी महंगाई बढ़ती जा रही है। यह बात इस तरह समझी जा सकती है कि 2013 में आईआईएम बैंगलुरू के दो वर्ष के MBA कोर्स के लिए 13 लाख रुपए खर्च करने पड़ते थे लेकिन अब 2023 में इसी कोर्स की फीस 23 लाख हो गई है।’ इस तरह हम देखते हैं कि भाजपा  जिस महंगाई को ख़त्म करने का वादा कर 2014 में सत्ता में आई, उसने अपने दस साल के कार्यकाल में महंगाई को कई गुना बढ़ाया और आम जानता अपनी आधारभूत जरूरतों को पूरा करने में भी नाकामयाब है।

अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से एक ख़बर सामने आयी थी कि लखनऊ के 89 प्राइमरी स्कूलों में  सिर्फ एक-एक शिक्षक हैं। इस खबर की जाँच-पड़ताल करने पर पता चला कि अब इनमें से 48 शिक्षक सेवानिवृत्त हो गए हैं। अर्थात लखनऊ के 48 प्राइमरी स्कूलों में एक भी स्थायी शिक्षक कार्यरत नहीं है। जब यह हाल उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का है तो प्रदेश के अन्य जिलों के स्कूलों का क्या हाल होगा, आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है।

अमर उजाला के अनुसार, उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के 51 परिषदीय स्कूलों में एक भी नियमित शिक्षक अब नहीं हैं, 150 से अधिक शिक्षक सेवानिवृत्त हो गए हैं। इनके स्थान पर एवं अन्य खाली पदों पर स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति नहीं की गई है।

यूडीआईएसई (UDISE) की साल 2018-19 की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 50 हजार से अधिक सरकारी स्कूल बंद हो गए हैं। रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी स्कूलों की संख्या 2018-19 में 10,83,678 से गिरकर 2019-20 में 10,32,570 हो गई है। यानी देश भर में 51,108 सरकारी स्कूल बंद हो गए हैं।

एक सरकारी स्कूल में कितने बच्चे पढ़ते हैं? 51,108 सरकारी स्कूलों में कितने बच्चे पढ़ सकते थे? इनमें कितनों को  सरकारी नौकरी मिल सकते थी? इनमें कितने लोग अध्यापक-अध्यापिका, चपरासी, गार्ड, माली आदि पदों पर चयनित हो सकते थे? इन सभी के पेट पर लात भाजपा की मोदी सरकार ने धर्म की आड़ में मारी है।

इसीलिए धर्म को शिक्षा का दुश्मन कहा जाता है। जहाँ धर्म का शासन होगा वहाँ शिक्षा का विनाश होगा। जहाँ धर्म का प्रचार होगा वहाँ सरकारी नौकरी का संहार होगा क्योंकि धर्म सरकारी नौकरी देने का हियामती नहीं रहा है। वह एक विशेष जाति को ही धर्म की सारी मलाई सदियों से खिलाता रहा है। इसीलिए वह विशेष जाति सदियों से धर्म की आड़ में समाज व देश को गुमराह करते आ रही है।

इसी रिपोर्ट के मुताबिक, जनसंख्या और लोकसभा की सीटों की संख्या के अनुसार देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सरकारी स्कूलों की संख्या सितंबर 2018 में 1,63,142 थी जो सितंबर 2020 में घटकर 1,37,068 ही रह जाती है। यानी उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार ने 26,074 सरकारी स्कूलों को बंद कर दिया है। आखिर क्यों उत्तर प्रदेश का नागरिक व जागरूक समाज शिक्षा-व्यवस्था की इस बर्बादी पर खामोश है?

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ज्ञानप्रकाश यादव
ज्ञानप्रकाश यादव
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं और सम-सामयिक, साहित्यिक एवं राजनीतिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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