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घर सँवारने में ही नहीं आर्थिक जिम्मेदारियाँ निभाने में भी योगदान देती हैं महिलाएँ

बीज बोने से लेकर फसल कटाई के बीच की अवधि में फसल का पूरा ध्यान महिलाएं रखती हैं। वह उन्हें खरपतवार और कीट पतंगों के प्रकोप से बचाने के लिए उसका ध्यान रखती हैं। वह फसल को अपने बच्चों की तरह पालती हैं। भागुली देवी पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती हैं कि भले समाज कृषि के क्षेत्र में महिलाओं के योगदान को सम्मानित नहीं करता हो, लेकिन समाज को यह बखूबी पता है कि हम महिलाओं के बिना कृषि का काम अधूरा है।

चौरसों (उत्तराखंड)। देश में महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए कई स्तरों पर काम किए जाते हैं। इसके लिए केंद्र से लेकर सभी राज्य सरकार विभिन्न योजनाएं भी संचालित कर रही हैं। लेकिन हमारे देश में कृषि एक ऐसा सेक्टर है जहां महिला सशक्तीकरण सबसे अधिक देखी जाती है। बल्कि यह कहना गलत नहीं होगा कि हमारे देश की कृषि व्यवस्था पुरुषों से कहीं अधिक महिलाओं के कंधे पर है, जिसे उन्होंने कामयाबी के साथ संभाल रखा है। पुरुष जहां अधिकतर केवल हल चलाने और खाद बीज पटाने का कार्य करते हैं तो वहीं महिलाएं निराई गुराई से लेकर फसल पकने तक उसकी देखभाल का जिम्मा निभाती है। यानी वह फसल तैयार होने तक उसकी एक बच्चे की तरह देखभाल करती हैं। इस दौरान वह उसी प्रकार प्रतिदिन घर के सभी कामकाज को भी बखूबी पूरा करती हैं। लेकिन इसके बावजूद उनके इस काम को समाज में कभी भी सम्मानित नहीं किया गया है। अक्सर महिला किसानों को पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी दी जाती है।

उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्र चौरसों की महिला किसान भी महिला सशक्तीकरण की बेजोड़ मिसाल हैं। राज्य के बागेश्वर जिला स्थित गरुड़ ब्लॉक के इस गाँव की अधिकतर महिलाएं घर के साथ-साथ कृषि संबंधी कार्यों को भी बखूबी अंजाम देती हैं। इस संबंध में एक 30 वर्षीय महिला किसान संगीता देवी कहती हैं कि उनके परिवार की पूरी आमदनी कृषि पर निर्भर है। इसीलिए परिवार की महिलाएं पुरुषों के साथ मिलकर कृषि संबंधी कार्यों को निपटाती हैं। वह बताती हैं कि हम महिलाएं फसल पकने तक उसकी जरूरी देखभाल करती हैं। इसके लिए सुबह सवेरे उठकर घर के सभी जरूरी कामों को निपटाती हैं और फिर दिनभर खेतों में रहकर उसकी निराई करती हैं और फिर शाम में वापस घर आकर खाना बनाती हैं। वह बताती हैं कि इस प्रकार सामूहिक काम से फसल अच्छी होती है और हमें साल भर का अनाज मिल जाता है।

वहीं 48 वर्षीय भागा देवी पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती हैं कि हम महिलाएं आत्मनिर्भर हैं। हम किसी के ऊपर निर्भर नहीं हैं। समाज सोचता है कि महिलाएं कुछ नहीं कर सकती हैं उन्हें हमारा काम देखना चाहिए। हम कृषि से जुड़े सभी काम स्वयं करती हैं। जिससे हमारी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी है। हमें कभी भी बाजार से सब्जी या अनाज खरीदने की जरूरत नहीं होती है। वह बताती हैं कि गाँव की लगभग सभी महिलाएं खेती के कामों से जुड़ी हुई हैं। पुरुष जहां केवल अनाज उगाने का काम करते हैं वहीं महिलाएं अनाज के साथ साथ सब्ज़ी उगाने का जिम्मा भी संभालती हैं।

वह बताती हैं कि हम महिलाएं घर के सभी काम निपटा कर और दोपहर का भोजन बना कर खेतों में जाती हैं और फिर वापस आकर रात का खाना भी बनाती हैं। हालांकि भागा देवी महिलाओं के प्रति समाज के दोहरे रवैये पर अफसोस जताते हुए कहती हैं कि हम ग्रामीण महिलाएं कृषि में पुरुषों से अधिक भूमिकाएं निभाती हैं लेकिन फिर भी हमारे काम को पुरुषों की तुलना में अधिक महत्व नहीं दिया जाता है। यदि महिलाएं कृषि काम से बिल्कुल विमुख हो जाएँ तो यह कार्य ठप्प हो जाएंगे। यह कृषि में हमारी भूमिका को दर्शाता है लेकिन फिर भी समाज की नजर में हमारा काम महत्वपूर्ण नहीं है।

भागा देवी की बातों को आगे बढ़ाते हुए 40 वर्षीय जानकी देवी कहती हैं कि हम महिलाएं जितना योगदान घर को सँवारने में देती हैं उतना ही योगदान कृषि के क्षेत्र में भी होता है। हम सुबह उठकर न केवल घर का काम निपटाती हैं बल्कि जानवरों के चारा का भी बंदोबस्त कर खेतों में जाती हैं। कई बार खराब मौसम के बावजूद हमें खेतों में जाना होता है क्योंकि यदि ऐसा नहीं करेंगे तो खेतों में पड़े खर-पतवार के कारण फसल पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है और फसल खराब होने का खतरा हो सकता है। यही कारण है कि हम महिलाएं किसी भी परिस्थिती में कृषि संबंधी कार्यों को छोड़ नहीं सकती हैं।

जानकी देवी के साथ बैठी 38 वर्षीय भागुली देवी कहती हैं कि भले ही समाज हम महिलाओं के काम को नहीं समझता है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम कृषि कार्य से विमुख हो जाएँ क्योंकि यह हमारी आजीविका का सबसे बड़ा साधन है। हम गरीब हैं, हमारी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि हम बाजार से अनाज खरीद कर खाएं। केवल इतनी ही जमीन है जिस पर अनाज या सब्ज़ी उगा कर वर्ष भर खाने की व्यवस्था करते हैं। वह बताती हैं कि गाँव के अधिकतर पुरुष पैसा कमाने के लिए खेती के साथ साथ अन्य रोजगार भी करते हैं। ऐसे में वह कृषि पर पूरा ध्यान नहीं दे सकते हैं। पुरुष केवल खेतों में हल जोतने और फसल कटाई में अपनी भूमिका निभाते हैं।

बीज बोने से लेकर फसल कटाई के बीच की अवधि में फसल का पूरा ध्यान महिलाएं रखती हैं। वह उन्हें खरपतवार और कीट पतंगों के प्रकोप से बचाने के लिए उसका ध्यान रखती हैं। वह फसल को अपने बच्चों की तरह पालती हैं। भागुली देवी पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती हैं कि भले समाज कृषि के क्षेत्र में महिलाओं के योगदान को सम्मानित नहीं करता हो, लेकिन समाज को यह बखूबी पता है कि हम महिलाओं के बिना कृषि का काम अधूरा है। महिलाएं यदि इस काम को छोड़ दें तो कृषि व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा जाएगी। फसलें खराब हो जाएंगी क्योंकि पुरुष भले ही हल चलाना जानते हों लेकिन खर पतवार से फसलों की रक्षा केवल महिलाएं ही कर सकती हैं और करती आ रही हैं।

वास्तव में, कृषि क्षेत्र में महिलाएं जिस प्रकार का योगदान देती हैं वह अद्भुत है। भले समाज उनके कामों को बहुत बड़ा नहीं समझता है लेकिन यह तय है कि वह कृषि की असली मेरुदंड हैं। वह न केवल कृषि को बढ़ावा देने का काम करती हैं बल्कि इस बात का भी संदेश देती हैं कि इस क्षेत्र में ग्रामीण महिलाएं बहुत सशक्त हैं। जरूरत इस बात की है कि समाज उनके सशक्तिकरण को स्वीकार करे और उन्हें भी पुरुषों के बराबर श्रम का भुगतान करे।

(सौजन्य से चरखा फीचर)

 

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