हैदराबाद के वरिष्ठ पत्रकार मुबासिर खुर्रम का फोन आया था कि ‘कल क्रांतिकारी तेलगू लोक गीतकार और गायक गदर की अंतिम यात्रा में सियासत उर्दू अखबार के प्रबंध संपादक जहीरुद्दीन अली खान का 63 वर्ष की उम्र में हृदयाघात के कारण निधन हो गया। वह गदर के शव के साथ ही ट्रक में बैठ कर आए थे और श्मशान भूमि के गेट पर ही गिर पड़े। अस्पताल ले जाने पर उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।’
जहीरुद्दीन अली खान का निधन मेरे लिए दुखद है। हाल के दो महीने में मैं आधा दर्जन मृत्यु-लेख लिख चुका हूँ। कल ही गदर की स्मृति में लिखी पोस्ट में मैंने उल्लेख किया था कि ‘मेरी और गदर की भेंट जहीरुद्दीन अली खान के अखबार सियासत के हैदराबाद स्थित दफ्तर में पंद्रह साल पहले हुई थी।’ यह सब कुछ लिखने के बाद मुझे मुबासिर खुर्रम का फोन आया और यह दुखद खबर मिली।
फरवरी के प्रथम सप्ताह में मधु लिमये और प्रोफेसर मधु दंडवतेजी की जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए मैं हैदराबाद गया था। मुझे उन्होंने सियासत में इंटरव्यू देने के लिए विशेष रूप से दोपहर के कार्यक्रम से पिकअप किया और दो घंटों से अधिक समय तक मेरा ऑडियो-वीडियो, इंटरव्यू रेकॉर्ड किया। इस दौरान मैं देख रहा था कि जहीरुद्दीन अली खान पहले जैसे खुशमिजाज, तरो-ताजा नहीं दिखाई दे रहे थे। पूछने पर पता चला कि वह मेरे इंटरव्यू के लिए ही अस्पताल से छुट्टी लेकर आए हुए थे।
यह भी पढ़ें…
सांप्रदायिकता, हिन्दुत्व और बीजेपी का चुनावी तरीका
उन्होनें मुझे टिपिकल हैदराबादी पत्थर-गोस्त और रुमाली रोटी खिलाया। इसके बाद मुबासिर को स्टेशन पर पहुंचाने के लिए कहा। गाड़ी में बैठने के पहले उन्होंने मुझे गले लगाकर कहा- ‘अपनी तबीयत का ख्याल रखिए, अगली मुलाकात और फुर्सत से करेंगे।’ इस बात के साथ मैं विदा हुआ। मुझे कहाँ मालूम था कि यह हमारी आखिरी मुलाकात होगी। जहीरुद्दीन अली खान पूरी तरह से सेक्युलर थे और कम्युनल नेता ओवैसी के खिलाफ थे। गदर जैसे वामपंथी के अंतिम-संस्कार में शामिल होना, इसका बड़ा प्रमाण है।
जहीरुद्दीन से मेरी पहली मुलाकात 2007-08 में सियासत के ऑफिस में आयोजित दो दिवसीय फासिस्ट विरोधी कार्यक्रम में हुई थी। उन्होंने मुझे स्कूल ऑफ जर्नलिज्म के विद्यार्थियों की एक वर्कशॉप लेने की गुजारिश की। यह भी कहा कि ‘आप जब भी हैदराबाद आयें, ‘सियासत’ के जर्नलिस्ट लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए दफ्तर जरूर आयें।’ उन्होंने सियासत के लिए नियमित रूप से लिखने का आग्रह भी किया और कहा कि अब हमारा रिश्ता हमेशा के लिए हो गया है।’ नियमित तो नहीं पर ‘सियासत’ के लिए मैंने काफी कुछ लिखा और उन्होंने उसे छापा भी।
उसके बाद जब भी मैं हैदराबाद गया, उन्हें मिले बगैर मुझे वापस नहीं आने दिया। कुछ वर्षों (संभवतः 2015-16) पहले की बात है, जब मैं पहुंचा तो ईद का समय था। पाकिस्तान की मानवाधिकार कार्यकर्ता, आईएसआई की प्रखर विरोधी और भारत-पाकिस्तान पीपुल्स फोरम की कर्ताधर्ताओं में से एक अस्मा जहाँगीर भी आई हुई थीं। जहीरुद्दीन अली खान ने मुझसे कहा कि आज आपको दावत में आना है। होटल गोलकुंडा में दावत थी, वहाँ मोहतरमा अस्मा जहाँगीर ने मुझसे कहा कि ‘सुरेश भाई भारत को पाकिस्तान मत होने दिजीए।’ इस पर मैंने कहा कि ‘भारत का वर्तमान निज़ाम उसको पाकिस्तान बनाने पर तुला हुआ है। पाकिस्तान वजूद में नहीं होता तो यह राजनैतिक दल पैदा ही नहीं हुआ होता। यह तो पाकिस्तान और मुसलमानों के खिलाफ जहर उगल कर ही फल-फूल रहा है, जैसे नब्बे साल पहले जर्मनी में हिटलर द्वारा यहूदियों के खिलाफ नफ़रत की राजनीति शुरू हुई थी, यह उसी का भारतीय प्रारूप है। यहाँ पर मुस्लिम समुदाय इनके नफरत का पात्र है अन्यथा इनकी कोई औकात नही थी कि भारत जैसे बहुआयामी देश में यह सत्ताधारी बनेंगे।’ जहीरुद्दीन अली खान ने मेरी बात का समर्थन करते हुए कहा कि ‘डॉ. सुरेश खैरनार शत-प्रतिशत बजा फरमा रहे हैं।’
जहीरुद्दीन अली खान खानदानी हैदराबादी परीवार से थे। उनसे मैं जब भी मिला हूँ, तब बहुत ही विनम्र और प्यार से ही बातें करते हुए देखा हूँ। वह बहुत ही नफ़ासत से पेश आते थे और भारत में चल रही सांप्रदायिक राजनीति के घोर विरोधी थे। इसीलिए वह खुद हैदराबाद के होने के बावजूद ओवैसी की राजनीति को कभी भी पसंद नहीं करते थे।
अब हैदराबाद जाने पर हमेशा ही उनकी कमी अखरेगी। सियासत और जहीरुद्दीन अली खान साहब के परिवार के सभी सदस्यों के दुःख में मैं भी शामिल हूँ।
उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि…