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ग्राउंड रिपोर्ट

बाघों के पुनर्वास का पाखंड करने वाली सरकार अडानी के लिए कर रही है हज़ारों हाथियों को बेघर

छत्तीसगढ़। देश भर में हसदेव अरण्य को उजाड़े जाने के खिलाफ लगातार प्रदर्शन और आंदोलन चल रहे हैं। वहाँ निवास करने वाले आदिवासियों द्वारा जल, जंगल, जमीन को बचाने की मुहिम के बावजूद सरकार अडानी को कोयले की खदानें देने के लिए पूरा सहयोग कर आदिवासियों की आवाज को अनसुना कर रही है। इंसान तो […]

छत्तीसगढ़। देश भर में हसदेव अरण्य को उजाड़े जाने के खिलाफ लगातार प्रदर्शन और आंदोलन चल रहे हैं। वहाँ निवास करने वाले आदिवासियों द्वारा जल, जंगल, जमीन को बचाने की मुहिम के बावजूद सरकार अडानी को कोयले की खदानें देने के लिए पूरा सहयोग कर आदिवासियों की आवाज को अनसुना कर रही है। इंसान तो फिर भी प्रदर्शन कर विरोध कर रहे हैं लेकिन हसदेव अरण्य में रहने वाले जीव-जन्तु बेघर हो चुके हैं और इसलिए वे गाँव और शहर की तरफ आवास और भोजन की तलाश में भटक रहे हैं।

एक तरफ नामीबिया से अच्छी नस्ल के बाघ-चीता लाकर उनका संरक्षण कर पुनर्वास पर करोड़ों रूपए  खर्च कर चीता पुनर्वास परियोजना  चलाई जा रही है तो दूसरी तरफ सबसे अधिक जैवविविधता वाले जंगल हसदेव अरण्य में कोयला खनन के नाम पर हजारों पेड़ों की कटाई कर वहाँ रहने वाले हजारों-लाखों जीव-जंतुओं और जानवरों का विनाश कर दरबदर भटकने के छोड़ दिया जा रहा है। सरकार का यह रवैय्या सवाल खड़ा करती है कि आखिर वे किसके हित में काम कर रही है।

अभी हसदेव अरण्य की कटाई के समय भालू के दो छोटे बच्चों की फोटो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुई थी। बच्चे अपनी माँ से बिछुड़ गए थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वन्य जीवों के समाप्त होने का खतरा अपने चरम पर है। यह तो ऐसे जानवर हैं, जिन्हें हम पहचानते हैं लेकिन सैकड़ों- हजारों में ऐसे छोटे-छोटे और सूक्ष्म कीट-पतंगे होंगे, औषधीय पेड़-पौधे हैं, जो जैवविविधता के संतुलन के लिए आवश्यक हैं।

हसदेव अरण्य को लेकर भारतीय वन्य जीव संस्थान के 227 पेज की रिपोर्ट में यह स्पष्ट कहा गया है कि यदि यहाँ कोयला खनन को लेकर प्रकृति से छेड़छाड़ की जाती है तो यह क्षेत्र प्रकृति के आस-पास रहने वाले जीव-जंतुओं नुकसान पहुंचाएगा। इससे वे मनुष्य के खिलाफ संघर्ष की स्थिति में आ जाएंगे। जानवरों और मनुष्यों के बीच होने वाले संघर्ष को संभालना कठिन ही नहीं नामुमकिन हो जाएगा। भारतीय वन्य जीव संस्थान ने हसदेव अरण्य क्षेत्र को मनुष्यों के लिए ‘नो गो क्षेत्र’ घोषित कर कहा है कि किसी भी तरह की कोयला खदान को मंजूरी नहीं देना चाहिए।

हाथियों का गाँव पर हमला और आतंक, पिछले 15-20 वर्षों से लगातार बढ़े हैं लेकिन इधर बीच इनके हमलों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हुई है। हाथियों के आतंक से बचने के लिए रोज ही नए अपडेट के साथ सूचनायें रेडियो से प्रसारित की जाती हैं।

भारतीय वन्य जीव संस्थान के अध्ययन का दावा है कि छत्तीसगढ़ में पूरे देश के एक प्रतिशत हाथी हैं, लेकिन इधर हाथी-मानव संघर्ष में 15 प्रतिशत तक इजाफा भी हुआ है। मतलब हर वर्ष 60 लोगों की जान हाथियों के हमले से हो रही है। इन इलाकों मे आज से 20-25 वर्ष पहले तक कभी हाथियों का आतंक नहीं रहा, लेकिन कोयला खदान आने से हाथी और अन्य जानवर  प्रभावित हुए हैं। वे लगातार अपने लिए सुरक्षित जगह की तलाश में भटक रहे हैं।

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विकास के नाम पर जंगल काटे जा रहे हैं, जिसकी वजह से अपने जगह से विस्थापित होकर हाथी और अन्य जानवर मनुष्यों के इलाके में प्रवेश कर नुकसान पहुंचा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में कोल इंडिया की कोयला खदान के अतिरिक्त 23 कोयला खदानें हैं। इस कारण हाथियों के निवास के साथ उनके आवागमन के रास्ते भी प्रभावित हुए हैं। हाथी अब गाँव की तरफ जाने-आने लगे। इसके अलावा हाथियों का समूह गाँव में प्रवेश कर खड़ी फसलों और ग्रामीणों के घरों को तबाह करते हैं। ग्रामीणों के कच्चे घरों को तोड़ना हाथियों के लिए बहुत आसान है।

जन चेतना (रायगढ़) की सामाजिक कार्यकर्ता सविता रथ, जो आदिवासियों के बीच जल, जंगल और भूमि अधिग्रहण को लेकर लगातार काम कर रही हैं, ने हाथियों के हमले और किए जा नुकसान पर बताया कि विकास के नाम पर रेलवे लाइन, कारखाने, कोयला खदानों की वजह से प्राकृतिक जैव विविधता की शृंखला खत्म हो रही है। कोयला खदान की शुरुआत होने से पहले सरकार को जैव विविधता को बचाने के लिए क्या तैयारी होनी चाहिए, उस पर काम करना चाहिए, जो कभी नहीं होता।

उन्होंने कहा कि अंधाधुंध तरीके से कोयला खदानों की खुदाई वहाँ रहने वाले लोगों को विस्थापित कर रहे हैं। खासकर, सघन आरक्षित वनों में कर रहे हैं। छतीसगढ़ के जिन जिलों में हाथी हैं, वहाँ सरकार को हाथी कॉरीडोर बनाना चाहिए और सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार उस 20 किलोमीटर के रेडियस में किसी भी तरह के कोई बड़ी परियोजना की शुरुआत नहीं करनी चाहिए। कोयला खदानों के कारण जंगलों में पाए जाने वाले छोटे-छोटे जलस्रोत और उनका खाना खत्म हो गया है, ऐसे में हाथियों का विचलित होना और गाँव-शहरों की तरफ भागना स्वाभाविक है। गर्मी के दिनों लगातार पानी के अभाव में हाथी के बच्चों के मरने की संख्या बढ़ी है।

वन्य जीव विशेषज्ञ और वाइल्ड लाइफ बोर्ड की सदस्य रहीं मीतू गुप्ता कहती हैं कि हाथियों के सामने उनके खाने, पानी और रहने का संकट बढ़ गया है। मानव-हाथियों के संघर्ष में सबसे बड़ा कारण कोयला खदानें हैं, क्योंकि खनन परियोजना में जंगल और जंगले में रहने वाले जानवरों की परवाह नहीं की गई। छत्तीसगढ़ राज्य में सरगुजा, कोरबा, रायगढ़ और जशपुर इलाकों में हाथियों का नुवस था और इन्हीं जगहों पर कोयला खनन किया जा रहा है। इसके कारण हाथियों का रहवास छीन लिया गया, उनके आवागमन के रास्ते भी खत्म कर दिए गए।

जनचेतना के राजेश त्रिपाठी ने बताया कि छतीसगढ़ में 6009432 मिलियन टन कोयला है और सभी कोयला खदानें घने जंगलों के नीचे हैं और इसी के आसपास आदिवासियों के रहवास हैं। जब भी खनन का का काम होता है तो इन सबका विस्थापन होता है। छोटे जीव-जन्तु तो वहीं खत्म हो जाते हैं लेकिन विशालकाय हाथी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए नए रास्ते की तलाश करता है और इसी वजह से गांवों और शहरों की तरफ भागता है, तब मानव-हाथी के बीच संघर्ष शुरू होता है। किसी भी जगह खनन होने पर जल, जंगल, जमीन, जीव-जन्तु और जानवर प्रभावित होते हैं। इसलिए यह लड़ाई जल, जंगल, जमीन की नहीं बल्कि जल, जंगल, जमीन, जीव-जन्तु और जानवर को बचाने की होनी चाहिए।

हसदेव अरण्य पर भारतीय वन्य जीव संस्थान ने  रिपोर्ट में क्या कहती है 

आज से नौ साल पहले 2014 में एनजीटी ने अपनी रिपोर्ट में यह स्पष्ट रूप से बताया था कि हसदेव अरण्य में विलुप्तप्राय और संकटग्रस्त जीव निवास करते हैं, इस वजह से इसका संरक्षण अनिवार्य है। अपनी रिपोर्ट में एनजीटी ने की बिंदुओं पर प्रकाश डाला था –

  1. कोयला खदान परसा, केते क्षेत्र में नौ स्तनपायी जीवों की प्रजातियाँ हाथी, लकड़बग्घा, भेड़िया, तेंदुआ, भालू मौजूद हैं, जिन्हें अनुसूची-1 में शामिल किया गया है। इसका मतलब है कि इन्हें विशेष संरक्षण की जरूरत है।
  2. संकटग्रस्त चिड़ियों की 82 प्रजातियाँ यहाँ मौजूद है, जिनमें से 6, अनुसूची-1 मे शामिल हैं, जिनमें वजर्ड, ब्लैक सोल्जर्स काइट हैं। इसके अलावा तितलियाँ और सांपों की कई प्रजाति शामिल हैं।
  3. जीव-जंतुओं के साथ इस क्षेत्र में 167 से ज्यादा प्रजातियों के पेड़-पौधे हैं, जिनमें से 18 प्रजातियाँ बहुत ही संवेदनशील और संकटग्रस्त हैं।
  4. यहाँ रहने वाले आदिवासी समुदाय की 60 से 70 प्रतिशत आय का हिस्सा इन्हीं जंगलों से मिलता है, इस वजह से यहाँ रहने वाले समुदाय इसके संरक्षण को लेकर खड़े हैं और इसकी कटाई और कोयला खनन का लगातार विरोध कार रहे हैं। इस तरह की गतिविधियों को जल, जंगल और जमीन के लिए खतरा मानते हैं।
  5. भारतीय वन्य जीव संस्थान ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि हसदेव अरण्य में परसा, ईस्ट, केते, बासन कोयला खदानों से में खनन पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएगीं। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि अडानी द्वारा संचालित कोयला खदान के लिए जो संरक्षण योजना तैयार की गई है वह अपर्याप्त है। इससे पर्यावरण और जैव विविधता को होने वाले नुकसान से निपटा नहीं जा सकता।
  6. रिपोर्ट में इस बात की सिफारिश के गई है कि यदि किसी नई कोयला खदान यदि नहीं भी खोली जाए तब भी पहले से संचालित हो रही परसा ईस्ट केते बासन कोयला खदान को बहुत ही सावधानी के साथ सवेंदनशील तरीके से संचालित करना होगा।

छत्तीसगढ़ में जिन जिलों में कोल माइन्स हैं, वहाँ अडानी ने पूरी तरह अपनी पैठ बना ली है और यह सरकार के बिना संभव नहीं है मतलब सरकार ने अडानी के आर्थिक हितों को ध्यान में रखा। सत्ता में किसी की भी सरकार रही हो, उसने अडानी के आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए निर्णय लिए।

भारतीय वन्य जीव संस्थान ने अपनी रिपोर्ट में कोयला खदानों से होने वाले प्राकृतिक नुकसान का विस्तार से उल्लेख किया है, लेकिन राज्य सरकार ने इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया। जबकि यह रिपोर्ट देश के हर नागरिक और राज्य के लिए महत्त्वपूर्ण थी, जिसे सार्वजनिक नहीं किया जाना एक तरह से जनता के हितों को दरकिनार करना है।

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