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इंटरव्यू बोर्ड में अनिवार्य हो सामाजिक और लैंगिक विविधता

भर्तियों में साक्षात्कार की व्यवस्था काबिल प्रार्थियों तक के लिए आतंक का विषय रही है। कारण, इसे लेकर एक आम धारणा है कि इसके जरिये भर्तियों में धांधली होती है तथा अपात्रों को ज्यादा नंबर देकर परीक्षा उत्तीर्ण करवा दिया जाता है। आरोप यह भी लगते रहे हैं कि नौकरियों के लिए साक्षात्कार के अंकों […]

भर्तियों में साक्षात्कार की व्यवस्था काबिल प्रार्थियों तक के लिए आतंक का विषय रही है। कारण, इसे लेकर एक आम धारणा है कि इसके जरिये भर्तियों में धांधली होती है तथा अपात्रों को ज्यादा नंबर देकर परीक्षा उत्तीर्ण करवा दिया जाता है। आरोप यह भी लगते रहे हैं कि नौकरियों के लिए साक्षात्कार के अंकों में हेरफेर किया जाता और इसकी एवज में बड़ी रकम दी जाती है। इसे लेकर सबसे अधिक शिकायत दलित-बहुजनों की ओर से उठती रही है। इन वर्गों के मन में यह बात गहराई तक समाई हुई है कि साक्षात्कार में उनके साथ भेदभाव किया जाता है। कई चर्चित दलित अधिकारियों ने लिखा है कि यदि साक्षात्कार में उनके साथ भेदभाव नहीं किया गया होता तो वे टॉप करते। चर्चित पत्रकार दिलीप मंडल के शब्दों में, ‘सवर्णों का रिजल्ट ओबीसी से ख़राब है। सिर्फ रिटेन की बात करें तो सवर्णों का रिजल्ट एससी और एसटी से भी ख़राब है। इन कम मेरिट वालों को इंटरव्यू में ज्यादा नंबर देकर जबरदस्ती आईएएस और आईपीएस बनाया जाता है।’ साक्षात्कार के जरिये दलितों को भेदभाव का शिकार बनाया जाता है, यह सामाजिक न्याय मंत्रालय के दिशा-निर्देश पर किये गए हाल ही के एक अध्ययन में सामने आया है। साक्षात्कार के वक्त दलितों को उपनाम के कारण भेदभाव का शिकार पड़ता है, इस बात को ध्यान में रखते हुए सरकार के निर्देश पर सिविल सेवा में दलितों की भागीदारी बढ़ाने के लिए दलित इंडियन चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ने जो एक रिपोर्ट तैयार की है, उससे इस बात पर मोहर लगती है। रिपोर्ट के शोध विभाग से जुड़े पीएसएन मूर्ति ने बताया है कि ‘देश में 90 प्रतिशत उपनाम ऐसे हैं, जिनसे जाति उजागर हो जाती है। इसलिए पूरी प्रक्रिया के दौरान इसे गोपनीय रखा जाना चाहिए। ऐसा इसलिए कि शोध में पता चला है कि यूपीएससी परीक्षाओं में जिन्होंने जाति-धर्म छिपा रखी थी, वे ज्यादा सफल हुए।’ तो यह अप्रिय सचाई है कि साक्षात्कार में दलित-बहुजनों के साथ भेदभाव होता रहा है, इसलिए वे साक्षात्कार के विरुद्ध हैं। लेकिन सिर्फ बहुजन ही नहीं, साक्षात्कार के कारण नौकरियों/ परीक्षाओं का परिणाम आने में बिलम्ब होता है जैसे एकाधिक कारणों से, अन्य वर्गों की ओर से भी लम्बे समय इसके खात्मे की मांग उठती रही है।

[bs-quote quote=”वर्ण-व्यवस्था ईश्वर सृष्ट रूप में प्रचारित रही इसलिए उच्चमान के इन पेशों का भोग अपना अदैविक अधिकार समझते हैं। हिन्दू धर्मशास्त्रों द्वारा निर्मित सोच ने डॉ. आंबेडकर के शब्दों में सवर्णों में सामाजिक विवेक का पूरी तरह खात्मा कर दिया है: उनका जो भी विवेक है वह स्व-जाति/ वर्ण के प्रति है। इसलिए वे गैर-सवर्णों के अधिकार के विरुद्ध कुछ करना अपना धर्म समझते हैं। यही कारण है सवर्ण सलित-बहुजनों के अधिकारों के विरुद्ध सब समय सक्रीय रहते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

संभवतः इस मांग का अनुमान लगाकर ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 में लाल किले से परीक्षाओं से इंटरव्यू हटाने और लिखित परीक्षा के आधार पर ही नौकरी दिए जाने की बात कही थी। पीएम की उस सलाह पर कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने संज्ञान लेते हुए तीन महीने में केंद्र सरकार की भर्तियों से साक्षात्कार की व्यवस्था हटाने की प्रक्रिया पूरी कर ली। इसे एक जनवरी, 2016 को लागू कर दिया गया। संसद में 2020 के अक्टूबर में केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह द्वारा दी गयी एक जानकारी के मुताबिक देश के 28 में से 23 राज्यों और नवगठित जम्मू-कश्मीर और लद्दाख समेत सभी आठ केंद्र शासित प्रदेशों में सरकारी नौकरियों में इंटरव्यू की व्यवस्था खत्म कर दी गई। इस कड़ी में ताजी घटना उत्तराखंड की है, जहाँ गत 2 मार्च को उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने एक जनसभा के मध्य तकनीकि पदों समेत ग्रुप ‘सी’ की सभी परीक्षाओं साक्षात्कार की व्यवस्था तत्काल समाप्त करने तथा पीसीएस या अन्य उच्च पदों पर साक्षात्कार का प्रतिशत कुल अंकों के 10 प्रतिशत से ज्यादा न रखने की घोषणा की है। उन्होंने कहा कि ‘ग्रुप सी की कोई परीक्षा, चाहे वह लोक सेवा आयोग से बाहर की हो लोक सेवा द्वारा कराई जा रही हो, सभी परीक्षाओं में साक्षात्कार की व्यवस्था तत्काल प्रभाव से समाप्त कर दी जाएगी। इसमें तकनीकी पद भी सम्मिलित होंगे अर्थात जेई जैसे तकनीकी पदों में भी साक्षात्कार की व्यवस्था पूर्ण रूप से समाप्त कर दी जाएगी।’ उन्होंने साक्षात्कार की आवश्यकता वाले सिविल सेवा तथा अन्य उच्च पदों में भी साक्षात्कार का प्रतिशत कुल अंकों के दस प्रतिशत से ज्यादा न रखे जाने की घोषणा करते हुए कहा कि ‘साक्षात्कार में किसी भी अभ्यर्थी को यदि 40 प्रतिशत से कम और 70 प्रतिशत से ज्यादा अंक दिए जाते हैं तो साक्षात्कार लेने वाले व्यक्ति या बोर्ड को इसका स्पष्ट कारण बताना होगा। मुख्यमंत्री ने कहा कि कड़ी मेहनत के दम पर परीक्षा देने वाले नौजवानों के हक़ पर कोई डाका न डाल सके, इसके लिए सरकार कड़े कानून बना रही है। बहरहाल, साक्षात्कार के खात्मे का दो दर्जन से अधिक राज्य सरकारों द्वारा निर्णय लिए जाने के बावजूद यूपीएससी सहित कुछ अन्य उच्च पदों के लिए साक्षात्कार आज भी पूर्व की भांति जारी हैं, जिसके जरिये कड़ी मेहनत करने वाले वंचित वर्गों के अधिकारों पर डाका डाला जा रहा है, इसका एक नया दृष्टान्त सामने आया है, जिसे लेकर दलित बहुजनों में उच्च पदों की भर्तियों में साक्षात्कार ख़त्म करने की मांग एक बार फिर उठ रही है।

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इस घटना की जानकारी देते हुए मेरे फेसबुक पर एक मित्र ने किसी का पोस्ट शेयर किया है, जिसमे लिखा है,- यह बहन बाजना जिला रतलाम की हैं, जो पिछले 8 वर्ष से तैयारी कर रही हैं। आदिवासी वर्ग से सिविल जज एस्पिरेंट महिमा को थ्योरी में 180 मार्क्स चाहिए थे, इनके 192 हैं।इंटरव्यू में 20 नंबर चाहिए थे, इन्हें 18.5 अंक ही मिले और चयन से वंचित रह गईं। कुल 114 पद स्वीकृत थे, मात्र 5 ने क्वालीफाई किया: 109 पद खली रह गए। लगातार 3 साल तक यदि योग्य उम्मेदवार नहीं मिले तो ये पद सामान्य वर्ग से भर दिए जायेंगे। एसटी के लिए न्यूनतम मार्क्स का क्राइटेरिया 45% है। इस हिसाब से 450 में 210 मार्क्स में चयन हो जाना चाहिए था। लेकिन इंटरव्यू में अलग से 59 में से 20 नंबर लाना अनिवार्य था, इसलिए महिमा चयन से वंचित रह गईं।’ इस घटना को लेकर ढेरों लोगों पोस्ट डाले हैं, जिनमें एक पोस्ट दलित लेखक संघ के पदाधिकारी रमेश भंगी का है। भंगी जी ने लिखा है, ‘साक्षात्कार पास करने की नहीं फेल करने की साजिश है। उनके इस पोस्ट को 41 लोगों ने शेयर, जबकि 460 लोगों लाइक किया है, जबकि 44 ने इस पर कमेन्ट आया है। इस पर एक लेखक सदन राम का कमेन्ट है, ‘भारतीय जाति व्यवस्था और द्रोणाचार्यों के रहते सभी प्रकार की परीक्षाओं में इंटरव्यू समाप्त कर दिया जाय।’ चर्चित लेखक नरेंद्र तोमर का कमेन्ट है, ‘बड़े तौर पर दलितों को जबरन फेल करने और सवर्णों को पास कराने का जरिया है… तोमर साहब के नीचे जिस व्यक्ति का कमेन्ट है, उसका कहना है, ‘इंटरव्यू बामनों का ब्रह्मास्त्र है, जिससे एकलव्यों के टैलेंट की हत्या की जाती है।’ मशहूर दलित साहित्यकार मुसाफिर बैठा का कमेन्ट है, ‘पास करने (मेरिटधारी वर्ग को) की साजिश भी है, बाय डिफॉल्ट!’ विद्वान मित्र महेंद्र सिंह का कमेन्ट है, ‘सर, इसका एक बड़ा शिकार मैं भी हुआ हूँ। 2002 के साक्षात्कार में जब मात्र 179 सीट थी और हमने ऑप्शनल व निबंध में बहुत अच्छा किया था 300 में मात्र 60 अंक मिले जबकि 2004 में 300 में मात्र 90 मिले, जबकि ऑप्शनल व निबंध में बहुत अच्छे नंबर थे। अगर हमें 40 प्रतिशत भी नंबर मिल जाते तो मैं आईएएस हो जाता।’ साक्षात्कार का बुरी तरह शिकार बने मेरे स्नेहपात्र डॉ. आकाश गौतम का कमेन्ट रहा, ‘जब भारत सरकार क्लास चार और तीन के जॉब्स में, उत्तर प्रदेश में क्लास तीन और चार की जॉब्स में, आंध्र प्रदेश में लोक सेवा आयोग सहित सभी प्रकार के जॉब्स इंटरव्यू ख़त्म हो सकता है तो फिर देश में संघ लोक सेवा आयोग, सभी राज्यों की राज्य लोक सेवा आयोग की जॉब्स में, यूनिवर्सिटीज और इंस्टीटयूट की भर्ती में भी इंटरव्यू ख़त्म हो सकता है इंट्री लेवल पर, किन्तु यह सरकार की मंशा पर निर्भर करता है!’

बहरहाल, सरकार की मंशा देश में संघ लोक सेवा आयोग, सभी राज्यों की राज्य लोक सेवा आयोग की जॉब्स में ही नहीं, यूनिवर्सिटीज और इंस्टीटयूट की भर्ती में भी इंटरव्यू ख़त्म करने की नहीं है; इसे आगे भी जारी रहना है यह मानते हुए रमेश भंगी के पोस्ट पर मेरा कमेन्ट रहा, ‘जिस तरह हर मानव सृष्ट समस्या का समाधान डाइवर्सिटी में है, उसी तरह इसका भी है। आप साक्षात्कार प्रणाली को ख़त्म नहीं कर सकते।ऐसे में इसको निर्दोषपूर्ण करने का एक ही उपाय है: इंटरव्यू बोर्ड सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन! यह बात यह लेखक प्रायः एक दशक से रट रहा है, पर..!’

सिविल जज एस्पिरेंट आदिवासी युवती के आघातजनक परिणाम पर केन्द्रित रमेश भंगी के पोस्ट पर जो जो कमेंट्स आये हैं, उससे साफ़ दिख रहा हैं उच्च पदों की भर्तियों में साक्षात्कार लेकर वंचित वर्गों के बुद्धिजीवियों में भारी आक्रोश है और सभी चाहते हैं कि यह ख़त्म हो। लेकिन सरकार की मंशा ऐसा करने की नहीं है। इसका एक अन्यतम कारण यह भी हो सकता है कुछ पद ऐसे हैं, जिनमें प्रार्थी के व्यक्तित्व और संवाद कौशल का परखना जरुरी है। ऐसे में साक्षात्कार व्यवस्था बनी रहेगी, ऐसा मानकर वंचितों को रणनीति बनानी चाहिए। हाँ! ऐसा हो सकता कि इससे आक्रांत वर्गों के दबाव में आकर सरकारें भविष्य में अधिक से अधिक उत्तराखंड के मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के कथन का अनुसरण करते हुए साक्षात्कार का अंक प्रतिशत कुल अंकों के दस प्रतिशत से ज्यादा न रखने पर विचार करें। लेकिन यह दस प्रतिशत भी वंचितों की सफलता में एवरेस्ट बनकर खड़ा हो सकता है। कारण, इंटरव्यू बोर्ड में आज की भांति सवर्णों की प्रधानता बनी रहेगी और वे हिन्दू धर्म का प्राणाधार वर्ण-व्यवस्था जनित अपनी सोच के कारण इसमें भी वंचित करने का अवसर निकालने के लिए विविवश रहेंगे।

वीडियो के लिए यहाँ क्लिक करें….

स्मरण रहे जिस वर्ण-व्यवस्था के तहत हजारों साल से हिन्दू समाज का परिचालन होता रहा है, वह बेसिकली एक वितरण-व्यवस्था है, जिसमें अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, राज्य व सैन्य-संचालन, व्यवसाय-वाणिज्य से जुड़े सारे अवसर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के लिए जन्मसूत्र से पीढ़ी-दर पीढ़ी निर्दिष्ट रहे। इन पेशों में शुद्रातिशुद्रों का प्रवेश अधर्म व निषिद्ध घोषित रहा। चूँकि वर्ण-व्यवस्था ईश्वर सृष्ट रूप में प्रचारित रही इसलिए उच्चमान के इन पेशों का भोग अपना अदैविक अधिकार समझते हैं। हिन्दू धर्मशास्त्रों द्वारा निर्मित सोच ने डॉ. आंबेडकर के शब्दों में सवर्णों में सामाजिक विवेक का पूरी तरह खात्मा कर दिया है: उनका जो भी विवेक है वह स्व-जाति/ वर्ण के प्रति है। इसलिए वे गैर-सवर्णों के अधिकार के विरुद्ध कुछ करना अपना धर्म समझते हैं। यही कारण है सवर्ण सलित-बहुजनों के अधिकारों के विरुद्ध सब समय सक्रीय रहते हैं। इनके लिए किसी गैर-सवर्ण का आइएएस, पीसीएस, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर, न्यायाधीश बनाना बिलकुल ही असहनीय है, इसलिए वे महिमाओं को हर हाल में रोकने का प्रयास करते हैं। जबतक हिन्दू धर्म का धारा पर वजूद है: हिन्दुओं उर्फ़ सवर्णों की इस सोच में परिवर्तन आना असंभव है, इसलिए कुछ ऐसा उपाय करना पड़ेगा जिससे वे कड़ी मेहनत करके सफलता के द्वार पर पहुंचे दलित-आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यकों और महिलाओं वंचित न कर सकें। इसके लिए बेहतर होगा साक्षात्कार के खात्मे की लड़ाई छोड़कर वंचित वर्गों के लोग इंटरव्यू बोर्ड में सामाजिक और लैंगिक विवधता लागू करवाने की लड़ाई लड़ें। मसलन अगर इंटरव्यू बोर्ड पांच लोगों को लेकर गठित होता है तो उसमें सवर्ण एक ही रहे: बाकी दलित, आदिवासी, ओबीसी और अल्पसंख्यक रहे। कोशिश यह भी हो कि पांच लोगों के बोर्ड में कमसे कम दो महिलाएं भी हो। बिना ऐसा किये गैर-सवर्णों, विशेषकर दलितों को उनकी कड़ी मेहनत का सुफल देना कठिन होगा: सवर्ण उनकी कड़ी मेहनत पर पानी फेरते रहेंगे!

लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

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