यह रिपोर्ट बनारस की समाजशास्त्री डॉ. मुनीज़ा रफ़ीक़ ख़ान के साथ बनारस के अनेक बुद्धिजीवियों द्वारा लॉकडाउन के बाद पूर्वांचल में किए गए एक सर्वेक्षण पर आधारित है। इसमें कुल दो सौ चार लोगों से मुलाक़ात की गई थी। इसलिए बातचीत में संख्या और प्रतिशत का संदर्भ इसी हिसाब से शामिल है। इस सर्वेक्षण का प्रकाशन सिटिज़न फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) cjp.org.in द्वारा ‘पूर्वांचल : करघों की खामोशी (कोविड- 19 के लॉकडाउन का पारंपरिक बुनाई उद्योग पर पड़ने वाले प्रभाव पर एक अध्ययन) शीर्षक से किया था। बनारस के सरैया, नक्खी घाट, जलालीपुरा, लल्लापुरा, बड़ी बाजार, बजरडीहा, मदनपुरा, शिवाला, कोयला बाजार, चौहट्टा और लोहता व सरायमोहना से सटे इलाकों में लोगों से बातचीत की गई थी। इन जगहों से कुल 200 सैम्पल जुटाये गए थे। इसके लिए हम सीजेपी के आभारी हैं। – संपादक
वाराणसी। बनारसी साड़ी की कीमत उस पर होने वाले काम के अनुसार तय होती है। हथकरघे के काम में एक कुशल कारीगर होता है और उसके साथ उसका एक सहायक होता है। आपके पास हथकरघा है तो आपको अलग-अलग काम के अनुसार अलग-अलग मजदूरी मिलेगी। एक सामान्य साड़ी 12-15 दिन रोजाना 10-12 घंटा काम करके पूरा किया जाता है। इतने काम के लिए 18 सौ से 2 हजार रुपये मिलते हैं। इसी तरह से जिस साड़ी में बारीक और ज्यादा काम रहता है, वह 18-20 दिनों में पूरी होती है। इस काम के एवज में 4 हजार से 45 सौ रूपये मिलते हैं।
पावरलूम पर काम करने वाले मजदूरों के लिए काम के प्रकार के अनुसार दर तय की जाती है। पावरलूम के काम में बहुत भिन्नता है, लेकिन मजदूरी की दर लगभग एक जैसी ही है। उदाहरण के लिए तांचोई, जरी बूटी, एपएन, आधा और ब्राइट साड़ी की दर 75-90 रुपये है। इसी दर पर रोजाना 10-12 घंटे कार्य करना होता है। इसी तरह से जार्जेट, लक्षा बार्डर, तसर, बट्टर, काटन जैसी साड़ी की मजदूरी 110-150 रुपये प्रतिदिन है।
जरदोज़ी काम में मजदूरी
जरदोज़ी का काम अब सिर्फ मजदूरी का काम बन गया है। लोग इस काम के अंतिम रूप को देखते हैं और अक्सर इसमें लगी मेहनत और कौशल को देख नहीं पाते। लॉकडाउन के पहले रोजाना 12 घंटे का काम मिलता था। अब रोजाना 8 घंटे का काम मिलता है। कई सारे कारखाने बंद हो रहे हैं। मंदी की हालत में लोगों को जैसा भी काम मिल रहा है, वही करने लगे हैं। उदाहरण के लिए साड़ी, सूट, कुर्ती, कुर्ता, शेरवानी, बैज, मुकुट या पर्स आदि के काम का रेट डिज़ाइन के आधार पर तय होता है। लोगों को 12 घंटे काम के लिए 2 सौ रुपये मजदूरी मिलती है।
आजमगढ़, मऊ और गोरखपुर में मजदूरी
गोरखपुर में बुनकर चादर और सूटिंग-शर्टिंग सामग्री बुनते हैं। उन्हें पावरलूम पर 8-10 घंटे काम करने के एवज में 150-200 रुपये मिलते हैं। प्रति मीटर काम के लिए 3 रुपए की दर मिलती है।
मऊ में बुनकर पावरलूम पर कफन के कपड़े बुनते हैं। उन्हें प्रति मीटर कपड़े के लिए 25 रुपए रेट मिलता है। वे दिन में 4-5 मीटर कपड़ा बुनते हैं। इसके लिए उन्हें 8-10 घंटे काम करना पड़ता है। गोरखपुर में हर साड़ी पर उस्ताद बुनकर को कमीशन मिलता है। वे बुनने की सामग्री बुनकर को देते हैं और हर साड़ी पर 50 रुपया कमीशन लेते हैं। हालांकि ये रेट साड़ी के प्रकार पर निर्भर करता है।
आजमगढ़ के शाहपुर में बुनकर लुंगी बुनते हैं। शाहपुर ग्रामीण क्षेत्र है और मुबारकपुर विधानसभा में आता है। यहां बुनकरों को प्रति मीटर बुनाई का 10 रुपया दिया जाता है। वे 8-10 घंटे काम करके 25- 30 मीटर बुन पाते हैं। करघे के मालिक को लॉकडाउन से पहले प्रति लुंगी 30 रुपया मिलता था। अब मुश्किल से 10 रुपया मिलता है।
बुनाई और जरदोज़ी काम में महिलाओं की भूमिका और मजदूरी
साड़ी पर पत्थरों की नक्काशी: नक्काशी के काम में भी ‘भारी’ और ‘हल्का’ काम होता है। दोनों का रेट साड़ी पर निर्भर है। एक हल्की साड़ी पर नक्काशी का काम 4 घंटे में पूरा हो जाता है और इसके एवज में 10 रुपए मजदूरी दी जाती है। भारी साड़ी पर यह काम पूरा करने में 10-12 घंटे लगते हैं और इसकी मजदूरी 25-30 रुपए है। साड़ी, पत्थर, गोंद आदि सामग्री मालिक मुहैया करता है।
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फिनिशिंग काम: बनारसी साड़ी की अंतिम प्रक्रिया कटाई करना है। यह काम महिलाएं घर में करती हैं। इसमे कपड़े के उल्टे हिस्से में छूटे छोटे धागों को हाथ से काटना पड़ता है। इसके बाद साड़ी को तह लगाकर पैक किया जाता है। एक साड़ी की फिनिशिंग के काम में 20-25 मिनट समय लगता है और इसकी मजदूरी 5 रुपया है। सिर्फ हथकरघे पर बुनी गई साड़ी में फिनिशिंग का काम जरूरी होता है। हथकरघे की संख्या लगातार कम होने के कारण अब फिनिशिंग के काम की मांग लगभग नहीं के बराबर रह गई है।
चुनरी-दुपट्टा: चुनरी-दुपट्टा में गोटा लगाने का काम महिलाएं करती हैं। एक दिन में एक महिला 4-5 चुनरी-दुपट्टा का काम पूरा करती है। एक चुनरी-दुपट्टा के काम के लिए उन्हें सिर्फ 3 रुपए मिलते हैं। एक चुनरी-दुपट्टा का काम पूरा करने में 20-25 मिनट समय लगता है। गोटा, धागा, दुपट्टा, सुई मालिक मुहैया कराता है।
दुपट्टा और साड़ी पर जालदार झालर टांकने का काम: एक साड़ी पर जालदार झालर लगाने के काम में एक से डेढ़ घंटे का समय लगता है। इस काम के लिए 10-12 रुपए मिलते हैं। दुपट्टे पर यह काम करने में ढेड़ से दो घंटे लगते हैं और इसके एवज में महिला को 15-18 रुपए मिलते हैं। ये काम नियमित रूप से नहीं मिलता। महिलाओं को यह काम त्योहार और शादी के समय मिलता है।
नरी भरना: महिलाएं घर पर नरी भरने का काम करती हैं। अब यह काम मशीन से होने लगा है। गोरखपुर के महिलाओं की युवा पीढ़ी ने बहुत कम मजदूरी मिलने के कारण यह काम करना छोड़ दिया है। इस काम में 10 घंटे से ज्यादा काम करने के लिए सिर्फ 60-70 रुपए मजदूरी मिलती है। इस काम की जगह महिलाएं अब बैग सिलाई का काम करने लगी हैं। उन्हें एक बैग सिलने के लिए 1 रुपया मिलता है। वे एक दिन में 100 बैग सिलती हैं और 100 रुपए कमाती हैं।
“हाथ से एम्ब्रोइडरी जिसे जरदोज़ी कहा जाता है, लकड़ी के फ्रेम पर की जाती है। लॉकडाउन से पहले और बाद में कारचोब की संख्या 24 थी। इसका मतलब किसी ने कारचोब नहीं बेचा क्योंकि वह बहुत सस्ता है। यह सिर्फ 5 सौ रुपए का पड़ता है, जिसे बेचने पर कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। लेकिन लॉकडाउन के बाद सिर्फ 3 कारचोब चल रहे हैं। काम का ऑर्डर नहीं होने के कारण 21(87.5%) कारचोब बंद पड़े हैं।”
करघा/ कारचोब की स्थिति/ रोजगार
लॉकडाउन से पहले 33 (16%) लोगों के पास करघा था। लॉकडाउन के बाद यह संख्या 30 (15%) हो गयी। 3 लोगों ने आर्थिक संकट के कारण करघा बेच दिया। चित्र 8 में 77 प्रतिशत हथकरघे बंद होते हुए दिखाए गये हैं। इससे स्पष्ट होता है कि कई लोगों के पास हथकरघा होने के बावजूद काम नहीं मिल रहा था। लॉकडाउन के पहले 77 (38%) लोगों के पास पावरलूम था, लेकिन लॉकडाउन के बाद यह संख्या घटकर 72 (35%) हो गई। पावरलूम बेचने की कोशिश करने वाले लोगों को बहुत कम कीमत मिल रही थी, इसलिए कई लोगों ने नहीं बेचा। लेकिन लॉकडाउन के बाद 80% पावरलूम बंद हो गए थे। लॉकडाउन से पहले 5 (2%) लोगों के पास कारचोब था। किसी ने कारचोब नहीं बेचा, क्योंकि इसे बेचकर बहुत कम पैसा मिलता। लॉकडाउन से पहले हमारे अध्ययन क्षेत्र के सैम्पल में 204 लोगों के पास 68 हथकरघे थे। लॉकडाउन के बाद ये संख्या घटकर 60 हो गई। इससे पता चलता है कि लॉकडाउन के दौरान 8 (12%) हथकरघे बेचे गए। लोगों ने बताया कि उन्होनें बहुत कम दाम पर करघे बेचे। लॉकडाउन के बाद सिर्फ 14 (23%) हथकरघों पर काम हो रहा था और 46 हथकरघे (77%) बंद हो गए। लॉकडाउन के बाद बुनकरों के पास बहुत कम काम था। लोगों ने बताया की गिरस्ता ने उन्हें कहा- भाई जल्दी साड़ी मत बनाना। एक महीने बाद आना। काम नहीं है।
पहले एक बुनकर 6-7 दिनों में एक साड़ी बनाता था। अब उसके पास पूरे महीने काम नहीं रहता है।
पिछले दो दशकों से हथकरघा धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है क्योंकि ज्यादा से ज्यादा लोग पावरलूम (बिजली से चलने वाला करघा) की ओर मुड़ रहे हैं। लॉकडाउन से पहले भी हथकरघा बुनकरों के पास बहुत कम काम था और पावरलूम की संख्या बढ़ने के कारण हथकरघे की मांग बहुत कम हो गई थी। बुनकरों को रोजमर्रा की जरूरतें पूरा करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था। लॉकडाउन के बाद स्थिति और बदतर हो गई।
रेवड़ी तालाब बनारस के रहने वाले मोहम्मद शोएब के पास लॉकडाउन के पहले 12 हथकरघे थे। वे इनमें से कुछ को किराए पर देते थे। आज उनके सभी 12 हथकरघे ठप्प पड़े हैं। उनके करघों पर काम करने वाले बुनकर मजदूरी कर रहे हैं। मदनपुरा बनारस के शाहिद जमाल अंसारी के पास पहले 4 हथकरघे थे। उनके पास अब सिर्फ एक बचा है। इस पर काम करके सिर्फ इतना कमा पाते हैं जिससे उन्हें दिन में एक बार खाना मिल पाता है।
इन चंद उदाहरणों से हम समझ सकते हैं कि कोरोना महामारी के कारण लोग किस कदर आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं और मजबूरी में उन्हें रोजगार के एक मात्र जरिये हथकरघे को बेचना पड़ रहा है।
हामिद अंसारी बनारस के रेवड़ी तालाब के रहने वाले हैं। उन्होनें दिसम्बर 5, 2020 को हमारे टीम के साथ बातचीत में बताया- जो पावरलूम 5 लाख का था, उसे 7 हजार में बेचना पड़ा। हामिद ने आगे बताया कि उन्होनें एम्ब्रोइडरी कंप्यूटर मशीन पर 15 लाख रुपए निवेश किये थे। लेकिन उनके मकान मालिक ने उनसे पूछे बगैर मकान किराया और बिजली बिल वसूलने के लिए उसे बेच दिया। हामिद ने बताया- एक मशीन को 32 हजार रुपए में और दूसरी मशीन को 48 हजार रुपए में बेचा गया। लेकिन इससे हमें कोई पैसा नहीं मिला। लॉकडाउन के पूरे समय वे मकान का किराया नहीं दे पाये थे, इसलिए उनकी मशीन को रद्दी की तरह प्रति किलो के रेट से बेचा गया।
लॉकडाउन से पहले सरइयां के अहमद रजा के पास 5 पावरलूम थे, लेकिन उस समय की आर्थिक तंगी के कारण उन्होनें एक पावरलूम 70 हजार रुपए में बेच दिया। बड़ी बाजार निवासी शकील अहमद ने 4 साल पहले 62 हजार रुपए में एक पावरलूम खरीदा था। लॉकडाउन के समय 4 महीने तक काम पूरी तरह ठप्प रहने के कारण अपने परिवार को भुखमरी से बचाने के लिए उन्हें पावरलूम सिर्फ 14 हजार रुपए में बेचना पड़ा। कबाड़ी वाले को 23 रुपए किलो के हिसाब से बेचने पर उनका दिल टूट गया।
हमने बनारस के अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश के दूसरे जिलों में भी पावरलूम को बेचे जाने के बारे में सुना। गोरखपुर के रियाजुद्दीन के पास 10 पावरलूम थे, लेकिन मार्च महीने में लॉकडाउन के समय सभी लूम ठप्प पड़ गए। मऊ के अंसारूल के पास 4 पावरलूम थे। आजमगढ़ के अहमद अंसारी के पास 4 पावरलूम और आजमगढ़ के ही करिमुद्दीन के पास 5 पावरलूम थे। लॉकडाउन के समय से काम नहीं रहने के कारण सभी बंद पड़े हैं। सर्वे में हिस्सा लेने वालों में 16 लोग ऐसे थे जिनके पास लॉकडाउन से पहले 4 या उससे ज्यादा पावरलूम थे। अब सभी पावरलूम या तो ठप्प पड़े हैं या आर्थिक परेशानियों के कारण इनमें से कुछ को बेच दिया गया है।
लॉकडाउन से पहले सभी पावरलूम चल रहे थे, लेकिन लॉकडाउन के समय से सिर्फ 35 पावरलूम पर काम चल रहा है। यह कुल बिजली करघा का सिर्फ 20 प्रतिशत है। कुल 137 बिजली करघे ठप्प पड़े हैं जो कुल पावरलूम संख्या का 80 प्रतिशत हैं। चल रहे बिजली करघे भी काम की कमी के कारण नियमित रूप से नहीं चल पा रहे हैं।
पिछले कई महीनों से करघे बंद रहने के कारण इन्हें बिना मरम्मत किए चलाना संभव नहीं हो पा रहा है। मरम्मत करने और फिर से चलाने के लिए एक बिजली करघे पर 4-5 हजार रुपए और एक हथकरघे पर 5-6 हजार रुपए खर्च होगा। करघा मालिकों के पास मरम्मत करने के लिए न ही पैसा है और न ही काम।
सरइयां के शाहनवाज़ कहते हैं कि मशीन तो बंद है। मरम्मत के अभाव में पूरी तरह जाम हो गई है। पैसा है ही नहीं कि हम चालू करें। कहां से 5-6 हजार रुपया लाएं?
लॉकडाउन के समय उन्होंने बिस्किट, टॉफी आदि की दुकान खोली। शाहनवाज़ ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई थी। अभाव में बच्चों की पीड़ा देखकर दुकान खोलनी पड़ी।
‘हिंदुस्तान’ अखबार के वाराणसी संस्करण में 27 जुलाई, 2020 को बुनकरों द्वारा मजबूरी में कूड़े के भाव बिजली करघे बेचने को लेकर रिपोर्ट प्रकाशित हई। इस रिपोर्ट में दो घटनाओं का हवाला दिया गया है:
केस स्टडी-1
दोषीपुरा के हसन अब्बास ने 6 साल पहले 70 हजार रुपए में एक बिजली करघा खरीदा था। उनके परिवार में 4 सदस्य हैं। लॉकडाउन के समय काम और मजदूरी नहीं मिलने के कारण यह परिवार भुखमरी की कगार पर खड़ा था। लॉकडाउन के दौरान उनकी पूरी बचत खत्म हो गई और वे अपनी एक मात्र पावरलूम को सिर्फ 15 हजार रुपए में बेचने को मजबूर हो गए।
केस स्टडी-2
बड़ी बाजार के रहने वाले शकील अहमद ने 4 साल पहले 62 हजार रुपए में एक पावरलूम खरीदा था। 4 महीने काम बंद रहने की स्थिति में परिवार का भरण-पोषण करने के लिए उन्होनें सिर्फ 14 हजार रुपए में पावरलूम बेच दिया। पावरलूम एक कबाड़ व्यापारी को 23 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बेचा गया।
इन दोनों उदाहरणों से महामारी के समय लोगों की दुर्दशा का पता चलता है। बनारस में बुनकरों की स्थिति सभी जगहों पर इसी तरह की है। कुछ बुनकर सब्जी बेच रहें हैं तो कुछ परिवार को जीवित रखने के लिए दिहाड़ी मजदूरी कर रहें हैं। कुछ परिवार अपने गहने बेच रहे हैं। बनारस के बड़ी बाजार, रेवड़ी तालाब, सरइयां, लल्लापुरा, बजरडीहा, लोहता और कोटवा में बुनकरों की स्थिति बहुत गंभीर हो गई है। बिजली बिल की मार भी बुनकरों पर पड़ी है, लेकिन इसको लेकर बुनकरों का विरोध सरकार के कान तक नहीं पहुंच रहा है।
दिलावर (नाटे भाई) बड़ी बाजार में कबाड़ व्यापारी हैं। उन्होंने बुनकरों द्वारा बड़ी संख्या में पावरलूम बेचने की बात बताई।
(स्रोत : हिंदुस्तान, दिनांक 27.07.2020)
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हाथ से एम्ब्रोइडरी जिसे जरदोज़ी कहा जाता है, लकड़ी के फ्रेम पर की जाती है। लॉकडाउन से पहले और बाद में कारचोब की संख्या 24 थी। इसका मतलब किसी ने कारचोब नहीं बेचा क्योंकि वह बहुत सस्ता है। यह सिर्फ 5 सौ रुपए का पड़ता है, जिसे बेचने पर कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। लेकिन लॉकडाउन के बाद सिर्फ 3 कारचोब चल रहे हैं। काम का ऑर्डर नहीं होने के कारण 21 (87.5%) कारचोब बंद पड़े हैं।
जलालीपुरा के अब्दुल्ला कहते हैं कि उनके पास लॉकडाउन से पहले 20 कारचोब थे, लेकिन लॉकडाउन के 8 महीने बाद 19 बंद हैं और कुछ दिनों से सिर्फ एक ही चल रहा है।
चौहट्टा के आफ़ताब के पास एक कारचोब है। आफ़ताब और उनके साथ कुछ कारीगर एम्ब्रोइडरी का काम कर रहे थे। लॉकडाउन के कारण काम अचानक ठप्प हो गया। कारचोब के मालिक और कारचोब पर काम करने वाले कारीगरों के पास कोई काम नहीं है।
कोयला बाजार के शाहिद जमाल बैनर का डिज़ाइन बनाते हैं। ये डिज़ाइन वह जरदोजी का काम करने वालों को देते हैं। कारीगर इस पर जरदोजी का काम करते हैं। जमाल को विदेशी ग्राहकों से आर्डर मिलता है। उनके अधिकांश ग्राहक इंग्लैंड, जर्मनी और बेल्जियम के हैं। लॉकडाउन से पहले वे महीने में 10-15 हजार रुपए कमाते थे। अब ऑर्डर के अभाव में वे मुश्किल से 2-4 हजार रुपए कमा पाते हैं।
शाहिद बताते हैं कि वे काम पूरा करके भेज देते हैं लेकिन पेमेंट दो या तीन महीने बाद ही होता है। उनका काम 10-15 दिन में पूरा हो जाता है। उसके बाद सामान को ग्राहक तक पहुंचने में 10-15 दिन का समय लगता है। उसके बाद पेमेंट होता है। इसके कारण उन्हें आर्थिक परेशानी होती है। शाहिद को लगता है कि सरकार को इस कार्य से जुड़े लोगों की कोई फिक्र नहीं है।
शाहिद आगे कहते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय कूरियर चार्ज वैसे ही ज्यादा है, अब इसके साथ 12 प्रतिशत जीएसटी भी देना है। साथ ही भेजे जाने वाले सामान की कीमत को भी पहले जमा करना होता है। यह रकम बाद में वापस मिल जाती है। शाहिद के अनुसार कानून ठीक नहीं है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो यह काम बंद हो जाएगा।
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यूरोप और इंग्लैंड में कोविड-19 महामारी के कारण पूर्वांचल के हस्तकला और हस्तकरघा व्यापार को 3 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। लॉकडाउन के बाद इन देशों से मिलने वाले ऑर्डर या तो रद्द कर दिए गए या स्थगित कर दिए गए। यूरोप के देश भारत से सबसे ज्यादा मात्रा में रेशम के कपड़े, साड़ी, स्कार्फ, दुपट्टा, बेडशीट्स और तकियों के कवर आयात करते हैं। बनारसी वस्त्र उद्योग संघ के महासचिव राजन बहल ने यूरोप के देशों में कोरोना महामारी की दूसरी लहर को लेकर व्यापारियों के चिंतित होने की बात कही। कई ऑर्डर रद्द कर दिये गये। कई व्यापारियों ने उत्पादन कम करवा दिए और कई ने काम बंद कर दिया।
इंडो-अमेरिकन चेम्बर ऑफ कॉमर्स के वाराणसी चैप्टर के अध्यक्ष सुदेष्णा बसु के अनुसार यूरोप के देशों में कोरोना महामारी की दूसरी लहर के कारण वाराणसी और उसके नजदीकी जिलों से किए जाने वाले निर्यात के ऑर्डर रद्द कर दिये गए।
(स्रोत: अमर उजाला, वाराणसी संस्करण, 24.12.2020)
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कोयला बाजार के शेख अब्दुल्लाह मुकुट और मोरी बनाते हैं। इसमें बारीक जरदोजी के काम की जरूरत होती है। वे इन्हें यूरोप के बाजार में निर्यात करते हैं। अब नए ऑर्डर नहीं मिलने के कारण उनके पास बहुत कम काम है। उन्होंने बताया कि काम नहीं रहने के कारण उनके कारचोब पर काम करने वाले 20-25 कारीगरों के पास भी काम नहीं है। ये लोग जरदोज़ी के काम के बहुत अच्छे कारीगर हैं, लेकिन इन्हें मजबूरी में दिहाड़ी पर मजदूरी करनी पड़ रही है।
बनारस का शिवाला और कोयला बाजार चौहट्टा जरी/आरी काम के लिए जाना जाता है। लॉकडाउन के बाद काम नहीं रहने के कारण बहुत कम कारखानादारों और कारीगरों ने अपनी छोटी दुकान खोली। ज़्यादातर लोग दूसरे काम की तलाश कर रहे हैं।
(फोटो – अपर्णा)