भाजपा और उसके पितृ संगठन आरएसएस के आनुषंगिक संगठनों द्वारा पिछले कई महीनों से अयोध्या में होने वाले राम मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह को लेकर जनोन्माद फैलाने का जबरदस्त प्रयास हो रहा है, जो अब 22 जनवरी की तिथि घोषित होने के बाद शिखर की ओर पहुँचता दिख रहा है। इन तैयारियों के मध्य भाजपा की ओर से विपक्ष को उकसाने का भी प्रयास जारी है ताकि वह मुंह खोले और उसे राम-विरोधी कहकर प्रचारित किया जा सके।
भाजपा की इस चाल से विपक्ष बचाव की मुद्रा में आ गया है। वह जानता है कि राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के जरिये भाजपा सुपरिकल्पित रूप से लोकसभा चुनाव 2024 के लिए अपने पक्ष में अभूतपूर्व माहौल पैदा कर रही है। किन्तु सब कुछ जानते हुए भी वह डिफेंसिव मोड़ में दिखाई पड़ रहा है। राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा की आड़ में खेली जा रही कुत्सित राजनीतिक चाल को जनसमक्ष लाने का साहसिक प्रयास नहीं कर पा रहा है। यह अपवाद रूप से एकमात्र शिवसेना(यूबीटी) के उद्धव ठाकरे हैं जो राम मंदिर के आड़ में खेली जा रही है, राजनीति के खिलाफ साहसिक बयान जारी किये जा रहे हैं। यही कारण है जब राम मंदिर उद्घाटन की तैयारियां जोर पकड़ने लगीं, उन्होंने 10 सितम्बर, 2023 को जलगाँव से एक बड़ा और व्यवहारिक सन्देश दे दिया था। तब महाराष्ट्र के पूर्व सीएम उद्धव ठाकरे ने कहा था कि आने वाले दिनों में राम मंदिर का उद्घाटन होगा। संभावना है कि उद्घाटन के लिए देशभर से भारी संख्या में लोगों को बुलाया जाएगा। सम्भावना है कि सरकार राम मंदिर उद्घाटन के लिए यहां से बसों और ट्रकों में बड़ी संख्या में लोगों को आमंत्रित कर सकती है और समारोह खत्म होने के बाद लोगों के लौटने पर वे गोधरा कांड जैसा कुछ कर सकते हैं!
आज जिस तरह से बड़ी संख्या में लोगों को अयोध्या लाने की तैयारी जो पर है; जिस तरह हिंदुत्ववादी बड़े समूह में घर-घर पहुंचकर अक्षत बाँटने के साथ तरह-तरह से उद्घाटन को लेकर माहौल बना रहे हैं, उसे देखते हुए मानना पड़ेगा कि आज से चार माह पूर्व उद्धव ठाकरे ने एक और गोधरा घटित होने की सम्भावना जाहिर कर राष्ट्र को जो सावधान किया था, वह कितना दूरदर्शितापूर्ण कदम था। वास्तव में सितम्बर में ठाकरे ने जो बात कही थी, उसे कहने के लिए सम्पूर्ण विपक्ष और बुद्धिजीवी वर्ग को सामने आना चाहिए था, पर कोई भी ठाकरे की भूमिका में सामने नहीं आया और आज एक और गोधरा की सम्भावना प्रबलतर होती जा रही है। बहरहाल जिस उद्धव ठाकरे ने आज से चार माह पूर्व राम मंदिर उद्घाटन में एक और गोधरा होने की साहसिक भविष्यवाणी की थी, उसी ठाकरे ने 22 जनवरी को लेकर एक अलग कार्यक्रम की घोषणा कर राष्ट्र को चौका दिया है। सनद रहे 22 जनवरी को अयोध्या में प्राण-प्रतिष्ठा समारोह आयोजित होने जा रहा है।इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित छः हजार लोगों को शामिल होना है, जिसमें साधु-संतों सहित पक्ष-विपक्ष के नेता और फिल्म तथा स्पोर्ट्स से जुड़े सेलेब्रेटी भी होंगे।
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उद्धव ठाकरे ने अपनी मां मीना ठाकरे के जन्मदिन के मौके पर पर घोषणा किया है कि 22 जनवरी को वह और उनकी पार्टी के नेता नासिक में कालाराम मंदिर जायेंगे और महाआरती करेंगे! इस अवसर पर अपनी बात विस्तार से रखते हुए उन्होंने कहा है कि अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन गर्व और स्वाभिमान का विषय है। उस दिन यानी 22 जनवरी की शाम को हम 6:30 बजे कालाराम मंदिर जायेंगे, जहां बाबा साहेब डॉ आंबेडकर और समे गुरूजी ने कभी उसमें प्रवेश का आन्दोलन चलाना पड़ा था। शाम 7:30 बजे हम गोदावरी नदी के तट पर महाआरती करेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि 23 जनवरी को उनके पिता और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे की जयंती है और इस अवसर पर हम नासिक में एक रैली करेंगे। अयोध्या जाने के सम्बन्ध में कहा कि मुझे अभी तक कोई निमंत्रण नहीं मिला है और मुझे अयोध्या आने के लिए किसी के निमंत्रण की आवश्यकता भी नहीं ,क्योंकि रामलला सभी के हैं। जब भी मेरा मन होगा, मैं जाऊंगा!
बहरहाल उद्धव ठाकरे द्वारा 22 जनवरी को अयोध्या के बजाय नासिक के कालाराम मंदिर जाने के पीछे राजनीतिक विश्लेषकों का अलग-अलग ख्याल है। कुछ का मानना है कि चूँकि ठाकरे को अयोध्या आने का निमंत्रण नहीं मिला इसलिए उन्होंने उस दिन नासिक जाने का मन बनाया। इस विषय में एक वर्ग का मानना है कि चूँकि उद्धव ठाकरे उस बाल ठाकरे की योग्य संतान हैं, जिस बाल ठाकरे ने दूसरे बड़े हिंदुत्ववादियों के विपरीत बाबरी ध्वंस में अपनी जिम्मेवारी लेने से मुकरने के बजाय सीना ठोककर जिम्मेवारी लिया था। स्मरण रहे जब बाबरी ध्वंस के जिम्मेवार लोगों का पता लगाने के लिब्राहन आयोग गठित हुआ तो सजा के डर से उसके सामने जिम्मेवारी लेने से भाजपा के बडे-बड़े आग मार्का नेता पीछे हट गए थे। यह बाल ठाकरे रहे जो समय-समय पर जिम्मेवारी लेने की खुली घोषणा करते रहे। वैसे बाल ठाकरे की संतान उद्धव जब अयोध्या जायेंगे तो मंदिर आन्दोलन में खुद को नायक जाहिर करने वाले भाजपा नेता, निस्तेज हो जायेंगे, इसीलिए उद्धव ठाकरे को निमंत्रण नहीं मिला।
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बहरहाल कारण जो भी ,किन्तु उद्धव ठाकरे की 22 जनवरी को कालाराम मंदिर जाने की घोषणा खुद में बेहद साहसिक और ऐतिहासिक ही नहीं बेहद समयोचित है। यह देखते हुए कि राममंदिर प्राण- प्रतिष्ठा की सारी तैयारी चुनाव को दृष्टिगत रखकर की गयी है, इसलिए उस राजनीति की काट के लिए विपक्षी पार्टी में होने के नाते ठाकरे को इस किस्म का निर्णय लेना जरुरी था,जो उन्होंने नायकोचित अंदाज़ में किया।
स्मरण रहे कि जब 7 अगस्त , 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित हुई, उससे न सिर्फ आरक्षण का विस्तार हुआ, बल्कि वर्ण – व्यस्था के वंचित(दलित-आदिवासी- पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित) हिन्दू धर्म द्वारा खड़ी की गयी घृणा और शत्रुता की दीवार को लांघकर भ्रातृ- भाव के साथ एक दूसरे के निकट आने लगे। इससे वंचितों में जाति चेतना का जो लम्बवत विकास हुआ, उससे वर्ण- व्यवस्था के सुविधाभोगी वर्ग के राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील होने की सम्भावना पैदा हो गयी। वैसे में धार्मिक चेतना के जरिये वंचितों की जाति चेतना की काट के लिए भाजपा के कद्दावर नेता एलके आडवाणी ने मंडल रिपोर्ट के जनसमक्ष आने के डेढ़ माह बाद राम जन्मभूमि- मुक्ति के लिए सोमनाथ से अयोध्या की रथ यात्रा शुरू कर दी। राम मंदिर आन्दोलन के जरिये भाजपा दलित-बहुजनों में मुस्लिम विद्वेष और हिन्दू धर्म-संस्कृति के प्रति गौरव का प्रसार कर बहुजनों की जाति चेतना को धार्मिक- चेतना में तब्दील करने में सफल हो गयी और मंडल से लाभान्वित जातियाँ भाजपा के पक्ष में वोट करने लगीं। वर्ण-व्यवस्था के वंचितों को निरंतर हिन्दू- धर्म/ हिंदुत्व के नाम पर उद्वेलित करते रहने से परवर्तीकाल में भाजपा की अप्रतिरोध्य सत्ता कायम हो गयी ,जिसके जरिये आज वह बहुजनों को गुलामों की स्थिति में पहुचाने में सफल होती दिख रही है। यह जानना दिलचस्प होगा कि मंडल रिपोर्ट के जरिये जब बहुजनों के सशक्तिकरण की अभूतपूर्व प्रक्रिया शुरू हुई: भाजपा ने क्यों राम मंदिर के जरिये धर्म –केन्द्रित आन्दोलन छेड़ा! इसका कारण है विपुल मात्रा में रचित हिन्दू धर्म- शास्त्रों द्वारा फैलाई गयी स्व- धर्म पालन की आस्था!
स्मरण रहे भाजपा जिस हिन्दू – धर्म की उत्तोलक है, उस हिन्दू धर्म का प्राणाधार वर्ण-व्यवस्था आध्यात्मिक कम , मुख्य रूप से शक्ति के स्रोतों(आर्थिक- राजनीतिक- शैक्षिक और धार्मिक ) के बंटवारे की व्यवस्था रही। जैसे दुनिया के तमाम संगठित धर्म अपने अनुयायियों को स्व- धर्म पालन का निर्देश देते हैं, वैसा ही सनातन/ हिन्दू धर्म में भी हुआ। वेद–पुराण से लेकर रामायण- महाभारत इत्यादि समस्त धर्म शास्त्रों में ही स्व- धर्म पालन की हिदायत देते हुए कहा गया है कि स्व-धर्म पालन से ही मोक्ष सहित समस्त लौकिक व पारलौकिक सुख मिल सकते हैं, विपरीत आचरण करने पर नरक व तरह-तरह का कष्ट भोगना पड़ सकता है। स्वधर्म पालन के नाम पर हिन्दू धर्म-शास्त्रों द्वारा चार वर्णों में बंटे हिन्दुओं के लिए भिन्न- भिन्न पेशे/कर्म(वृतियां) स्थिर की गईं। ब्राह्मण का धर्म अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, राज्य संचालन में मंत्रणा-दान; क्षत्रिय का धर्म भूस्वामित्व, राज्य और सैन्य-संचालन तो वैश्यों का धर्म पशुपालन , व्यवसाय- वाणिज्य का कार्य सम्पादिक करना रहा। चूँकि पेश/ कर्म अपरिवर्तित रहे इसलिए वर्ण- व्यवस्था ने एक आरक्षण- व्यवस्था : हिन्दू आरक्षण- व्यवस्था का रूप ले लिया, जिसमे हिन्दू ईश्वर के जघन्य अंग पैर से जन्मे शुद्रातिशुद्रो( बहुजनों) को शक्ति के समस्त स्रोतों में कोई अवसर नहीं रहा। स्व- धर्म पालन के नाम पर उनके हिस्से में आई सिर्फ हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग : मुख-बाहू-जंघे से उत्पन्न सवर्णों की सेवा, वह भी पारिश्रमिक-रहित।
चूँकि हिन्दू धर्म-शास्त्रों द्वारा परलोक सुख को ही सर्वोच्च माना गया है, इसलिए शुद्रातिशूद्र हजारों साल से परलोक सुख की चाह में अधिकारविहीन मनुष्य बने रहे। हिन्दू धर्म-शास्त्रों द्वारा दलित-पिछड़ों में विकसित की स्व- धर्म पालन की मानसिकता को देखते हुए ही भाजपा- संघ इन्हें धर्म के नाम पर उद्वेलित कर मंडल से उपजे हालात से पार गया। ऐसे में भाजपा द्वारा राम मंदिर के नाम पर छेड़े गये धार्मिक आन्दोलन के पीछे बहुजनों को लामबंद होते देख जरुरी था कि भाजपाई विपक्ष, खासकर सामाजिक न्यायवादी दल हिंदुत्व/ हिन्दू-धर्म का अर्थशास्त्र बताकर भाजपा के पाले से बहुजनों को दूर करते। पर, विपक्ष अपनी अज्ञानता और कमियों के कारण ऐसा न कर सका, फलतः आज बहुजन भारी संख्या में अपनी शत्रु- पार्टी भाजपा के साथ जुड़े चुके हैं।
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वर्ण-व्यवस्था के जिन वंचितों को स्व- धर्म पालन के नाम पर शक्ति के स्रोतों से दूर रखा गया, उनमे एक क्षेत्र धर्म का भी रहा। हिन्दू धर्म में हजारों साल से शुद्रातिशूद्रों और महिलाओं के लिए मोक्ष और अन्य जागतिक सुखों के लिए आध्यात्मानुशीलन पूरी तरह निषिद्ध रहा। इसमें जहां महिलाओं को पति- चरणों में मोक्ष का संधान करने का उपाय बताया गया, वहीँ शुद्रातिशूद्रों को तीन उच्च वर्णों की पारिश्रमिक रहित-सेवा में! इसमें सबसे सोचनीय स्थिति दलितों की रही। वे मंदिरों में घुसकर अपने दुःख मोचन के लिए ईश्वर के समक्ष प्रार्थना तक नहीं कर सकते थे। इन्हीं दलितों को मंदिरों में प्रवेश दिलाने के लिए वर्षों से ढेरों विफल आन्दोलन हुए, जिनमे 1874 में मद्रास के मीनाक्षी मंदिर, 1924 में पेरियार द्वारा चलाया वाईकोम का मंदिर प्रवेश, 1929 में पुणे के पार्वती मंदिर में प्रवेश के लिए चलाया गया आन्दोलन खासतौर से चर्चित हैं। लेकिन इनमे सबसे चर्चित रहा डॉ आंबेडकर द्वारा चलाया गया कालाराम मंदिर में प्रवेश का आन्दोलन।
कालाराम मंदिर आन्दोलन धार्मिक सेक्टर से वर्ण व्यवस्था के वंचितों बहिष्कार के विरुद्ध चलाया गया भारत के इतिहास का सबसे बड़ा अन्दोलानन रहा। इसमें घुसने के लिए डॉ आंबेडकर ने 2 मार्च, 1930 को जो सत्याग्रह किया उसमें दादा साहेब गायकवाड, सहस्र बुद्धे, देवराव नाइक, अमृतराव, पीएन भोज सहित विशिष्ट हस्तियों के साथ 15 हजार लोग शामिल हुए। उक्त अवसर पर बोलते हुए बाबा साहेब ने कहा था, ’मंदिर में जाने से हमारी सारी समस्याएं ख़त्म नहीं हो जाएँगी। हमारी समस्यायें सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और शैक्षणिक हैं। कालाराम मंदिर में प्रवेश करना सवर्ण हिन्दुओं के लिए चुनौती से कम नहीं थी। सवर्णों ने हमारी पीढ़ियों के हक़ मारे हैं। हम अपने अधिकारों की मांग कर रहे हैं। क्या सवर्ण हिन्दू हमें एक मनुष्य के तौर पर स्वीकार करेंगे। कालाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश से यह साफ़ हो जायेगा!’ और सबको पता है साधु-संतों और उच्च वर्ण हिन्दुओं ने आंबेडकर का काले रंग के राम के मंदिर में प्रवेश का आन्दोलन विफल कर बता दिया था कि वे दलितों को मनुष्य रूप में स्वीकृति देने के लिए तैयार नहीं हैं। वे दलित,आदिवासी, पिछड़े और महिलाओं को सवर्णों के सामान धार्मिक अधिकार देने को तैयार नहीं हैं।
ऐसे में जो कालाराम मंदिर शुद्रातिशूद्रों और महिलाओं के धार्मिक अधिकार के विरुद्ध सबसे बड़े प्रतीक के रूप में विद्यमान है, वहां 22 जनवरी को पहुचने की घोषणा कर उद्धव ठाकरे ने अयोध्या में हो रहे प्राण-प्रतिष्ठा के विरुद्ध सबसे बड़ी चुनौती पेश कर दी है। अगर विपक्ष राम मदिर के जरिये खेली जा रही कुत्सित राजनीति के विरुद्ध है तो वह बहुजनों को अयोध्या के बजाय लाखों की संख्या में नासिक पहुंचाने में सर्वशक्ति लगाये तथा वहां से 2 मार्च, 1930 को आंबेडकर द्वारा दिए गए सन्देश को देश के चप्पे- चप्पे तक पहुचाएं!