Monday, June 9, 2025
Monday, June 9, 2025




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमविचारसर्वोच्च न्यायालय का चुनावी बॉन्ड रद्द करने का फैसला बीजेपी के लिए...

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

सर्वोच्च न्यायालय का चुनावी बॉन्ड रद्द करने का फैसला बीजेपी के लिए मुश्किल पैदा कर सकता है

बीस राजनानैतिक दलों ने चुनावी बॉन्ड से चन्दा उगाही की है। केवल माकपा ने चंदा भी नहीं लिया और कोर्ट में इस गोरखधंधा को उजागर करने के लिए चुनौती दी है।सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बॉन्ड रद्द करते हुए मतदाताओं के पक्ष में कहते हुए फैसला दिया कि कंपनियां भारी फंडिंग करती है, तो क्या निर्वाचित लोग मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होंगे?  

गत दस सालों में सरकार ने बगैर किसी आपातकाल की घोषणा किए ही आपातकाल की स्थिति पैदा कर दी है। देश की सभी संवैधानिक संस्थाओं को अपने दल की ईकाइयों में परिवर्तित कर अपने लोगों को बिठाया और उन संस्थाओं को अपने हिसाब से संचालित कर रहे हैं।

लेकिन 15 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बॉन्ड रद्द कर दिया (जिसे 2 जनवरी 2018 को अधिसूचित किया गया था)। सत्तारूढ़ दल का कहना था कि ‘यह पारदर्शिता लाने वाले प्रयासों के तहत राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले दान के विकल्प के रूप में पेश करने का दावा किया था।‘ उसको लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘गुप्त चंदा वोटर्स से विश्वासघात है साथ ही चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया। आगे कहा कि इन्हें खरीदने वाले दलों के नाम 13 मार्च तक सार्वजनिक करे।‘

सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से हमारे देश की संवैधानिक संस्थाओं को आशा की किरण दिखाई दे रही है। अन्यथा ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग, संसद से लेकर, मुख्य धारा की मीडिया जैसे सभी संस्थानों को भाजपा ने 2014 में सत्ता में आने के बाद, अपने मातृसंगठन संघ के ‘एकचालकानुवर्त’ के सिद्धांत के अनुसार संचालित कर रहे हैं।

वर्ष 2014 में सत्ता में आने बाद ही उन्होंने चुनावी बॉंड के नाम पर, कार्पोरेट घरानों से पैसे वसूल कर बेशर्मी से अपनी पार्टी के लिए खजाना भरना शुरू कर दिया था। इसके साथ बीजेपी चंद दिनों में ही विश्व की आर्थिक रूप से सबसे मजबूत और अमीर पार्टी बन गई। अमीर पार्टी बनने के लिए एकमात्र काम धनउगाही ही है। सुनते हैं कि ‘दिल्ली के भाजपा मुख्यालय, जो पहले दिल्ली प्रेस-क्लब के सामने था, से हटाकर, मिंटो ब्रिज के पास दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर बनाया गया जो पाँच सितारे से भी आगे बढ़कर सात सितारा सुविधाओं से युक्त है। भाजपा की घोषणा है कि इस तरह के कार्यालय भारत के सभी राज्यों में भी बनवाए जाएंगे।

सत्तारूढ़ दल का खेल

भाजपा कार्पोरेट घरानों के अनुकूल पार्टी है। इस वजह से औद्योगिक घरानों ने इस पार्टी को बेतहाशा धन दिया। महात्मा गाँधी की हत्या के बाद, तत्कालीन संघ प्रमुख माधव सदाशिव गोलवलकर ने सोचा कि अपनी खुद की राजनीतिक ईकाई होनी चाहिए और इसलिए उन्होंने 1950 में श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ के नाम से राजनीतिक दल, का निर्माण किया। धन उगाही और खुलकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए, हिंदू महासभा के रहते हुए भी वर्ष 1964 में देश-विदेश में रहने वाले हिंदूओ के लिए खुद की और एक ईकाई की स्थापना, विश्व हिंदू परिषद के नाम से की, जो अब अयोध्या, बनारस, मथुरा जैसे विवादों के इर्दगिर्द सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने का काम  सक्रियता से कर रही है। इसके अलावा सामाजिक समरसता मंच, बजरंग दल, दुर्गा वाहिनी, वनवासी कल्याण आश्रम, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, संस्कार भारती, राष्ट्र सेविका समिति और वैज्ञानिकों से लेकर साहित्यकार, पत्रकार तथा विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे लोगों के लिए भी सैकड़ों संगठनों का निर्माण किया।

यह भी पढ़ें…

इंडिया के खिलाफ मनोवैज्ञानिक युद्ध है ‘इस बार 400 पार’ का दावा जबकि सामाजिक न्याय के मुद्दे पर हार सकती है भाजपा

वर्ष 1973 में गोलवलकर की मृत्यु के बाद बालासाहब देवरस सर संघ चालक बने। तब जयप्रकाश नारायण के भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी और संघ ने एक षड्यंत्र के तहत नानाजी देशमुख, गोविंदाचार्य जैसे शातिर संगठनकर्ताओं को उस आंदोलन में शामिल होने की खुली छूट दी। इसी वजह से 25 जून, 1975 को इंदिरा गाँधी ने आपातकाल की घोषणा की। जनवरी 1977 में चुनाव की घोषणा के बाद, जनता पार्टी के निर्माण प्रक्रिया में जनसंघ भी शामिल हुआ। लेकिन संघ का नियंत्रण बदस्तूर जारी था इसलिए 1980 में संघ के साथ दोहरे रिश्ते को लेकर, जनता पार्टी से जनसंघ अलग होकर भारतीय जनता पार्टी’ के नाम से वापस इसे पुनर्जीवित किया।

बीजेपी ने खुलकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का सूत्रपात अपने घोषणा पत्र के माध्यम से शुरू किया, इसके बाद ही ‘बाबरी मस्जिद- राममंदिर’ आंदोलन की शुरुआत हुई। जिसकी बदौलत इस दल ने आज सत्तारूढ़ होने तक की यात्रा की, पर इस यात्रा में हजारों की संख्या में लोगों ने अपनी जान गंवाई। जिसमें 1989 का भागलपुर के दंगे से लेकर 2002 के गुजरात के गोधरा दंगों के अलावा कई आतंकवादी हमले और दंगे करावाये, जिसमें लगभग 25000 से अधिक लोगों की मौतें हुईं।

इसके बाद भी हमारे देश के औद्योगिक घरानों ने, इस दल को उदारता से चन्दा देकर धन मुहैया कराने का काम किया। यह देखकर, मुझे सौ वर्ष पहले जर्मनी में हिटलर की याद आई जहां जर्मनी के उद्योगपतियों ने इसी तरह बहुत ही उदारता से हिटलर की पार्टी को धन मुहैया कर उसे मजबूत करने में सहयोग किया था। हिटलर ने अपने दल की स्थापना करने के बाद जर्मनी के उद्योगपतियों की बैठक बुलाकर उन्हें साफ-साफ कहा कि ‘आप लोग जर्मनी के राष्ट्र निर्माण में बेतहाशा औद्योगिक उत्पादन कीजिए और हमारे दल को धन मुहैया कीजिए।‘ बिल्कुल हूबहू भारत में वर्तमान समय में यही आलम जारी है, जिसका जीता जागता उदाहरण है, जहां देश के किसान फिर से अपने अधिकार और मांग के लिए आंदोलन कर रहे हैं।

वर्ष 1990 में भले ही कांग्रेस ने तथाकथित खाऊजा (खाजगीकरण, उदारीकरण, जागतिकीकरण) आर्थिक नीति की शुरुआत की थी लेकिन तथाकथित दिखावे के लिए स्वदेशी जागरण जैसे छात्र संगठनों का निर्माण संघ ने किया। संघ अपनी राजनीतिक ईकाई भाजपा के द्वारा एक तरफ देश को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के संकट में उलझाकर, बहुत ही आसानी से  मुक्त अर्थव्यवस्था के लिए, अकूत मात्रा में संसाधनों के दोहन के लिए जल, जंगल और जमीन के अधिग्रहण के लिए बनायें गए, सभी कानून बदल कर कार्पोरेट घरानों के हिसाब से कर उन्हें सौंपने का काम किया और इसके एवज में पूंजीपतियों ने अपनी थैलियां भाजपा के लिए खोलकर रख दी।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा

2016 की नोटबंदी के बाद 2018 में  भाजपा की हिम्मत और बढ़ गई और हमारे देश के संविधान को धता बताते हुए भाजपा ने तथाकथित चुनावी बॉन्ड के नाम पर धनउगाही करने के लिए खुलकर अपनी पार्टी के लिए चुनावी बॉन्ड शुरू किए। जिस दल ने कभी जनलोकपाल बिल को समर्थन देते हुए (2012-13) अण्णा हजारे के नेतृत्व में आंदोलन में भागीदारी की थी, उसी दल ने सत्ता में आने के बाद, सूचना के अधिकार के कई प्रावधानों को बदलकर चुनावी बॉन्ड, पीएम फंड जैसे पैसे इकठ्ठा करने के नये-नये तरीके निकाल धन इकठ्ठा करने की शुरुआत कर दी। बेशर्मी की हद तब हुई जब दोनो फंडों को सूचना के अधिकार से बाहर रखने की जुर्रत की। जिसे हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने इसे ‘सूचना के अधिकार के उल्लंघन का मामला बोलते हुए चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक बताया।

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि ‘यह नागरिकों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन है, जिससे संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) के तहत स्वतंत्र भाषण और अभिव्यक्ति पर असर पड़ता है। सर्वोच्च न्यायालया ने भी कहा कि ‘राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता पूर्ण छूट देकर हासिल नहीं की जा सकती।‘ और सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘यह चुनावी योजना उस राजनीतिक दल की सहायता करेगी जो सत्ता में है, जिससे आर्थिक असमानता राजनीतिक जुड़ाव के विभिन्न स्तरों को जन्म देती है। सरकार काले धन का ढोल पीटने का काम कर रही है लेकिन इस चुनावी बॉन्ड से काले धन को बढ़ावा मिलेगा। चुनावी बॉन्ड के बेनामी खरीद को पारदर्शिता के खिलाफ करार देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘इससे आंख बंद नहीं कर सकते हैं, इससे काला धन खत्म नहीं होगा बल्कि उसे बढ़ावा मिलेगा।‘

यह भी पढ़ें…

कांग्रेस की भारत जोड़ो न्याय यात्रा, ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ की पहलकदमी है

सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल उठाया है कि ‘क्या कार्पोरेट चंदा निष्पक्ष चुनावों के खिलाफ है?’ चुनावी बॉन्ड में कार्पोरेट चंदे की जानकारी नहीं मिलती है। इससे यह पता नहीं चलता कि क्या वे किसी खास नीति के समर्थन में चंदा दे रहे हैं।  इससे स्वतंत्र चुनावों की निष्पक्षता खतरे में पड़ जाती है।‘

संविधान बेंच ने कहा कि ‘लोकतंत्र में मतदाता के जानने के अधिकार दानदाता की गोपनीयता से अधिक महत्वपूर्ण है। कार्पोरेट दानदाताओं और सियासी फायदा पाने वालों के पारस्परिक लाभ की व्यवस्था एक तरह की मनी लांड्रिंग है। देश की जनता को यह जानने का हक है, कि राजनीतिक दलों के पास पैसा कहां से आता है और कहा जाता है?’

लोकतंत्र सिर्फ चुनाव तक सीमित नहीं होता बल्कि हर यह माना जाता है कि हर नागरिक के वोट का मूल्य समान है। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड ने अपने 158 पन्ने के फैसले में कहा है कि ‘चुनाव प्रक्रिया की अखंडता सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। हमारे लोकतंत्र में नागरिकों को जाति-वर्ग के भेद के बिना समानता की गारंटी दी गई है। यहां हर मतदाता के वोट का की कीमत एक जैसी है। लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ चुनाव प्रक्रिया के शुरू होने और खत्म होने से नहीं है। हम खुद से पूछे कि कंपनियां भारी फंडिंग करती है, तो क्या निर्वाचित लोग मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होंगे? चुनावी बॉन्ड योजना में कई खामियां हैं। आंकड़े बताते हैं कि 94% चंदा एक करोड़ रुपये के मूल्य वर्ग में दिया गया है। यह संपन्न वर्ग को जनता के सामने गोपनीय बनाता है, पर सियासी दलों के लिए नहीं।‘

जनवरी 2024 तक 16,518  करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड बिके। वित्त वर्ष 2022-23 तक सियासी दलों ने 12000 करोड़ रुपये के बॉन्ड भुनाकर चंदा लिया है। जिसमें बीस राजनीतिक दलों ने चंदा लिया है, उसमें आधे से अधिक 6, 566 करोड़ रुपये भाजपा को प्राप्त हुआ। अकेली माकपा ने चंदा भी नहीं लिया और कोर्ट में इस गोरखधंधा को उजागर करने के लिए चुनौती दी है। दूसरे नंबर पर कांग्रेस को 1,123 करोड़, तृणमूल कांग्रेस को 1,093 करोड़, बीजद 774 करोड़, डीएमके 617 करोड़, आप 94 करोड़ और एनसीपी 64 करोड़ रुपए प्राप्त हुए।

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Bollywood Lifestyle and Entertainment