लंबे समय बाद, जब इस जुलाई के शुरुआत में ‘सांख्यिकी और योजना कार्यान्वयन मत्रालय’ की ओर से 2021-22 और 2022-23 का वार्षिक सर्वेक्षण जारी किया गया, तब यह साफ हो गया था कि मोदी 3.0 सरकार बरोजगारी और छोटे उद्यम की बर्बादी को एक सीमा तक स्वीकार करने के लिए तैयार हो चुकी है। इस सर्वेक्षण में यह स्वीकरण दिखता है कि नोटबंदी और कोविड-19 की महामारी के दौरान किया गया लॉकडाउन ने लाखों उद्यमों को बर्बाद कर दिया और बड़े पैमाने पर बेरोजगारी को पैदा की। कल, 23 जुलाई 2024 को पेश किये बजट में इसका साफ असर दिखता है।
यहां इसी से जुड़ा हुआ एक और पक्ष भी सामने आया है, वह है कुशल मजदूरों की आपूर्ति। ठेका मजदूरी प्रथा ने अनौपचारिक मजदूरी को बड़े पैमाने पर आगे बढ़ाया। नोटबंदी और कोरोना महामारी ने मजदूर वर्ग को सड़क पर फेंक दिया। इसका बहुलांश हिस्सा प्रवासी मजदूर था, जो पैदल ही गांव की ओर निकल पड़ा। पूरे परिवार के साथ शहर से गांव की ओर पलायन भारत के इतिहास का सबसे बड़ा पलायन बन गया। अमूमन यह संख्या 3.5 करोड़ से ऊपर मानी गई। उस समय खेती पर निर्भर लोगों के रोजगार का प्रतिशत 42.5 प्रतिशत से बढ़कर 45.6 प्रतिशत हो गया था। जबकि शहर में रोजगार हिस्सेदारी रिकार्ड स्तर पर घट गई।
नोटबंदी, और खासकर कोविड लॉकडाउन ने सबसे बड़ा असर शिक्षा पर डाला। युवा, जो रोजगार में हिस्सेदारी के लिए जिस शिक्षा व्यवस्था से गुजरते हैं, उसकी तालाबंदी और डिजिटल वैकल्पिक पढ़ाई ने प्रशिक्षण की प्रक्रिया से गुजरने से वंचित रह गये। उद्यमों की बंदी, लॉकडाउन और शहरों से पलायन एक ओर खेती पर जबरदस्त दबाव बनाया, वहीं युवाओं को रोजगार की चली आ रही मद्धिम गति में हिस्सेदारी की संभावना को न सिर्फ रोजगार के स्तर पर, साथ उसकी क्षमता के स्तर को भी प्रभावित किया। बेरोजगारी और छद्म बेरोजगारी की दर उछाल मारते हुए विकराल रूप धारण कर लिया। निश्चित ही मनरेगा जैसी योजना इस दिशा में ऊंट के मुंह मे जीरा से अधिक हो नहीं सकता था। उस पर भी खुद मोदी और भाजपा की नीति मनरेगा को लेकर सकारात्मक कभी नहीं रहा।
इस बजट में बेरोजगारी का स्वीकरण यह दिखाता है कि रोजगार की स्थिति बदतर हो चुकी है। बजट से पूर्व जारी किये गये आर्थिक सर्वेक्षण में प्रतिवर्ष 78.5 लाख रोजगार पैदा करने की जरूरत पर जोर इसी पक्ष को दिखाता है। बड़ी पूंजी का राग अलापने वाली मोदी की पहली और दूसरी सरकार ने अपनी नीतियों से सिर्फ वित्तीय संस्थानों में ही एकाधिकारी संस्थानों को जन्म दिया है, यह मूलभूत संरचनागत क्षेत्रों में भी एकाधिकारी उद्योगों को आगे बढ़ाया है। आज यह अडानी और अंबानी के नाम से जाना जा रहा है। ऐसे में रोजगार के लिए छोटे उद्यमों की ओर जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह जाता है। इस बजट में इस ओर झुकाव साफ है। लेकिन, सिर्फ झुकाव से विकास का रास्ता नहीं बन जाता। उत्पादन व्यवस्था की मूलभूत जरूरत पूंजी और श्रम है। इसके बाद बाजार है जहां की कुल प्रक्रिया अंततः मुनाफे में बदलती है।
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नोटबंदी के दौरान आम लोगों की बचत का संकेंद्रण बैंकों में होने, छोटे उद्यमों के बर्बाद होने का सीधा परिणाम बाजार में कुल खर्च में कमी और डिजिटल भुगतानों में बढ़ोत्तरी के तौर पर देखा जाता है। इसका एक बड़ा प्रभाव खेती पर पड़ा। कोरोना लॉकडाउन ने इन्हीं स्थितियों को बदतर बनाया और साथ रोजगार की स्थितियों को और भी बदहाल हर कर दिया। इस दौरान, आमतौर पर सभी राज्यों ने श्रम से जुड़े नियमों, शर्तों और कानूनों में बड़े पैमाने पर बदलाव किया। कुछ मूलभूत निर्देशों को छोड़कर बाकी सारी श्रम कानूनों के अधिकार को छीन लिया गया। इसका सीधा असर मजदूरों की सीधी आय पर पड़ा। कहने के लिए न्यूनतम मजदूरी 13 हजार रूपये से ऊपर दिखती है, लेकिन वास्तविक आय इसके आधे या इससे थोड़ा अधिक है। रेहड़ी पट्टी पर दुकानदारों की आय और भी कम हो गई। सबसे अधिक बदतर स्थिति डिजिटल माध्यमों से काम करने वाले गिग मजदूरों की हुई जिसको लेकर अभी तक ढंग का कोई कानून और व्यवस्था नहीं बनी है।
इस बजट में, कहने के लिए सरकार 11.11 लाख रूपये पूंजी निवेश में खर्च करेगी। देखना यह है कि यह खर्च किन क्षेत्रों में होता है और उससे कितना रोजगार पैदा होगा? इस बजट ने घोषणा किया है कि औपचारिक क्षेत्र की टॉप 500 कंपनियों में इंटर्नशिप करने वाले श्रमिकों को पहले एक साल तक सरकार 5000 रूपये का अनुदान देगी। साथ ही यह भी वादा किया गया है कि इस क्षेत्र में पहली बार काम करने आये श्रमिक को एक महीने का 15000 रूपये वेतन भुगतान करेगी और साथ ही दो साल तक प्रति महीने 3000 रूपये के पीएफ का भुगतान दो साल के लिए सरकार मालिक के हिस्से में योगदान करेगी। यहां सरकार की मंशा साफ है। वह युवा के प्राथमिक औद्योगिक प्रशिक्षण की जिम्मेवारी अपने कंधे पर ले रही है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि पिछले 30 सालों में मारुति उद्योग से लेकर साफ्टवेयर क्षेत्र की कंपनियों तक में प्रशिक्षु रोजगार की हिस्सेदारी आधे से अधिक बनी रहती है। इनसे लंबे समय तक काम लिया जाता है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि इन्हें न तो कथित नियमित रोजगार के बराबर अधिकार होता है और न ही उनके बराबर भुगतान किया जाता है। इन्हें कभी भी बाहर निकाला जा सकता है। इन्हें मालिकों पर नियमित करने का दबाव भी नहीं रहता है। जुलाई, 2011 में मारुति सुजुकी उद्योग में मजदूरों की हड़ताल और वहां घटी हिंसक घटना में यह पक्ष एक महत्पूर्ण कारकों में से एक था। गुड़गाँव से लेकर नोएडा, मद्रास, बंगलुरु और मुंबई तक मजदूरों के प्रतिरोध के पीछे रोजगार की ये स्थितियां ही जिम्मेवार थीं। यह बजट इन हालातों में बदलाव वाले खर्च की व्यवस्था के बजाय उन व्यवस्थाओं को पुख्ता करते हुए दिख रही है।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रोहित लांबा, जो पूंजीवादी विकास के हिमायती हैं, ने इंडियन एक्सप्रेस, 24 जुलाई, 2024 को ठीक ही लिखा हैः ‘यह एक प्रशंसनीय शुरुआत है, लेकिन इसका प्रभाव तब तक उपयुक्त नहीं आयेगा जब तक कि मजदूरों से जुड़ी व्यवहार की समस्या को ठीक नहीं किया जाता है। क्यों एक पूरा उद्यम जो पूरी तरह से ठेका मजदूरी पर आधारित है, 3000 रूपये प्रति महीने की ईपीएफओ के तहत दो साल के अनुदान के लिए नियमित मजदूर रखेगा?’ वह लिखते हैं कि बजट भाषण में वित्त मंत्री के शब्दों में बेरोजगारी एक समस्या की तरह सामने आ रही थी और यह सच्चाई है। उन्हीं के शब्दों में, ‘केवल कुछ ही अच्छे रोजगार हैं। जो मजदूरों का हुजूम सामने आ रहा है वह बहुत कुशल नहीं है, युवा रोजगार के मामलों में कुछ श्रम शक्ति की हिस्सेदारी में पिछड़ रहे हैं। कुल मिलाकर रोजगार से जुड़ी प्रोत्साहन राशि निजी क्षेत्र की नियमित रोजगार देने और साथ ही उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए ही है।’
यहां खेती से जुड़े श्रमिकों के बारें में कुछ खास बात नहीं है। आज भी खेती पर निर्भर श्रमिकों की संख्या में जो नोटबंदी और कोरोना लॉकडाउन से बढ़ गया था, उल्लेखनीय तौर पर कम नहीं हुआ है। बजट युवाओं की शिक्षा के ऋण की व्यवस्था करने की बात कर रही है। लेकिन, इस क्षेत्र में कोई गुणात्मक फर्क नहीं दिख रहा है। आईटीआई, पॉलिटेक्निक, बीफार्मा जैसी तकनीकी पढ़ाई के संस्थानों में निजी क्षेत्र की घुसपैठ और वहां नाम मात्र की पढ़ाई और प्रशिक्षण ने श्रम की स्थितियों को और भी बदतर बनाया है। दूसरी और उच्च शिक्षा में स्थिति न सिर्फ पहले से खराब हुई है, इसका स्तर दिनों दिन गिरता जा रहा है। उत्पादन की व्यवस्था में एक ओर क्रोनी कैपटिलिज्म सर चढ़कर बोल रहा है, वहीं श्रमिक समुदाय को निरंतर अशिक्षा की ओर ठेला जा रहा है। यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह भारतीय अर्थव्यवस्था की भयावह त्रासदी है। इस बजट में इस त्रासदी से निकलने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है।