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इतिहास और ओबीसी साहित्य की आलोचना-पद्धति

ओबीसी साहित्य की चर्चा जहाँ होगी, वहाँ निश्चित ही ओबीसी – समाज और ओबीसी – इतिहास की बातें स्वयं आएंगी। जब आप देश के इतने बड़े समाज का साहित्य और उसकी आलोचना-पद्धति की बात करेंगे तो यह भला कैसे होगा कि ओबीसी के इतिहास को नजर अंदाज कर इसे आप भली भाँति समझ पाएंगे? जब […]

ओबीसी साहित्य की चर्चा जहाँ होगी, वहाँ निश्चित ही ओबीसी – समाज और ओबीसी – इतिहास की बातें स्वयं आएंगी। जब आप देश के इतने बड़े समाज का साहित्य और उसकी आलोचना-पद्धति की बात करेंगे तो यह भला कैसे होगा कि ओबीसी के इतिहास को नजर अंदाज कर इसे आप भली भाँति समझ पाएंगे? जब कोई ओबीसी साहित्य और ओबीसी समाज को नकारने की कोशिश करता है तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वह व्यक्ति इसकी ताकत को सहन नहीं कर पा रहा है और वह जिस समाज या वर्ग का हिस्सा है उस समाज और वर्ग को यह निश्चित ही भय है कि कहीं उसकी सत्ता या किसी तरह का उसका प्रभुत्व दरकने न लगे। यह देश विशाल जनसंख्या वाला देश है और यहाँ जिस इलाके या क्षेत्र में चले जाइए वहाँ एक बहुत बड़ी जनसंख्या ओबीसी की जिलेगी। फिर यह कैसे हज़म हो सकता है कि इसका अपना कोई इतिहास नहीं है।
प्राचीन भारत में मौर्य वंश ओबीसी का उदाहरण है। मध्यकाल में आप आसीरगढ़ का नाम सुने होंगे और वहाँ के राजा के बारे में भी। पर यह कितने लोग जानते हैं कि आसीरगढ़ का राजा आसी अहिर था और वह बहुत वर्षों तक वहाँ राज किया था। मैं यह उदाहरण बस इसलिए दे रहा हूँ ताकि लोग इतिहास को देखने समझने की नजरिया बदले और बदलने के साथ यह स्वीकार करें कि इतने बड़े भूभाग पर कोई एक दो जाति व समाज के लोग सदा से राज करने वाले नहीं हो सकते हैं; यह  सर्वथा गलत है।
प्राचीन भारत के इतिहास में ‘बुद्ध’ का नाम आदर के साथ लिया जाता है; वे शाक्य थे और ‘महावीर’ गयतो कुशवाह, जिसे अबतक के इतिहासकारों ने ज्ञातृ कुल का क्षत्रिय बतलाया है, यहीं ज्ञातृ वहाँ गयता/गयतो है। अंग्रेजों के समय में हरियाणा व रोहतक के क्षेत्रों में चौधरी छोटू राम की सक्रियता ने किसान आंदोलन के बिरवे को लगाने और उसे सींचने का जो काम किया वह इतिहास के पन्नों से गायब कैसे हो सकता है? वे जाति के ‘जाट’ किसान थे।

[bs-quote quote=”आज का सवर्ण समाज और उसके हमदर्द व्याख्याता, इतिहासकार न यह चाहे और न ही यह चाहेंगे कि इतने बड़े समाज की आँखें खुले या यह अपने समाज के गौरवशाली इतिहास को जान पाए! कारण कि जिनके पास अपना इतिहास होता है- वह जल्दी झुकता नहीं है और न ही तोड़ने से टूटता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

कुछ राज्यों में जाट निश्चित ही समृद्ध एवं शक्तिशाली हैं और वे जनरल है; पर उनकी पूरी संस्कृति ओबीसी की नजदीक है। जैसे गुजरात में ‘पटेल’। इसी वजह से उत्तर-प्रदेश में जाट ओबीसी के हिस्से बने और चौधरी चरण सिंह उनके बड़े नेता। पर जब आप पूरी समग्रता में जाएँगे तो यह निश्चित ही पाएँगे कि चौधरी छोटू राम और चौधरी चरण सिंह पूरे ओबीसी और किसानों के नेता थे।

गया के पास एक मानपुर जगह है, उसे कुशवाहा (कछवाहा) राजा मान सिंह ने बसाया था। फिर आप कैसे कह सकते हैं कि ओबीसी का अपना कोई इतिहास नहीं है? आप दक्षिण भारत में ओबीसी के अंतर्गत आने वाली रेड्डियों और महाराष्ट्र के कुनबियों की चर्चा करेंगे तो अपने आप इतिहास का सुनहरा पन्ना पलटने लगेगा।

गुजरात के पटेलों में ‘अनजाना’ एवं ‘मटिया पटेल ‘आज भी ओबीसी के हिस्से हैं, जबकि ‘लेवा पटेल’ के वंशों से संबंध रखने वाले बिहार के कुर्मी व ‘कड़वा पटेल’ वंशवृक्ष के हिस्से कुशवंशी-कुशवाहा, बिहार व उत्तर प्रदेश में ओबीसी में है। हरियाणा में सन् 2013 में कुशवाहा ओबीसी का हिस्सा बना। मतलब यह कि आजादी से पूर्व एवं बाद में समाज में बहुत परिवर्तन आए हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि वह समाज अपने अतीत से बिल्कुल कट चुका है।
ओबीसी समाज का बहुत ही सुंदर इतिहास रहा है और गौरवशाली इतिहास रहा है, इसलिए ओबीसी समाज को उखाड़ा नहीं जा सकता; क्योंकि इसकी जड़ें बहुत गहरे तर गई हैं। दूसरी बात यह कि जिस समाज का अपना इतिहास है, अपने लोग हैं, अपनी कृषि-संस्कृति है, अपने देवता-पितर हैं उसका अपना साहित्य कैसे न होगा? बहुत ही कम संख्या में ‘द्विज’ हैं- उनका साहित्य है, बहुत कम संख्या में दलित हैं-उनका साहित्य है, बहुत कम संख्या में आदिवासी हैं- उनका साहित्य है, फिर यह कैसे संभव है कि ‘ओबीसी साहित्य’ का कहीं अता-पता ही नहीं है?
आज का सवर्ण समाज और उसके हमदर्द व्याख्याता, इतिहासकार न यह चाहे और न ही यह चाहेंगे कि इतने बड़े समाज की आँखें खुले या यह अपने समाज के गौरवशाली इतिहास को जान पाए! कारण कि जिनके पास अपना इतिहास होता है- वह जल्दी झुकता नहीं है और न ही तोड़ने से टूटता है।

[bs-quote quote=”ओबीसी समाज क्यों लड़ता है? क्यों टकराता है? यह एक बड़ा सवाल है। कारण कि ओबीसी साहित्य के पीछे जो कारण-कार्य का सिद्धांत कार्य कर रहा है, उसका उत्तर इन सवालों में छुपा हुआ है और इन्हें जाने बगैर ओबीसी साहित्य को और उसकी आलोचना पद्धति को समझा नहीं जा सकता,” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

यादवों के पास कृष्ण से लेकर लालू प्रसाद यादव तक का इतिहास है तो कुशवाहों के पास राम-सीता से लेकर जगदीश मास्टर तक का इतिहास है। इसी वजह से ये जल्दी टूटते नहीं हैं; बल्कि लड़ते हैं, संघर्ष करते रहते हैं और अन्य प्रांतों में भी इसी तरह ओबीसी का एक बड़ा हिस्सा अन्याय व असमानता के खिलाफ लड़ रहा है, टकरा रहा है।
ओबीसी समाज क्यों लड़ता है? क्यों टकराता है? यह एक बड़ा सवाल है। कारण कि ओबीसी साहित्य के पीछे जो कारण-कार्य का सिद्धांत कार्य कर रहा है, उसका उत्तर इन सवालों में छुपा हुआ है और इन्हें जाने बगैर ओबीसी साहित्य को और उसकी आलोचना पद्धति को समझा नहीं जा सकता, क्योंकि यह ठीक उसी तरह है जैसे दूध को थर्मामीटर से मापना एवं अनाज को लीटर में मापना, मूर्खता के सिवा कुछ नहीं है। जो इतिहास में कभी न कभी उपस्थित रह चुके हैं, वे पुन: ग़र जिंदा हैं और उनकी कुछ भी स्मृति जिंदा है तो वे अपने प्रतिद्वंदी से क्षमतानुसार टकराएंगे ही, अगर थोड़ा भी मान की चाह हो और यह टकराहट जाने भी हो सकती है और अनजाने भी।
जो कभी भी संपत्ति का सुख भोगे हैं- वे पुनः भोगना चाहेंगे। इससे भी टकराहट पैदा होगी और उस वक़्त तो टकराहट निश्चित होगी जब किसी व्यक्ति या वर्ग का जीवन खतरे में पड़ जाएगा और दूसरा मज़ा लूटेगा या सत्ता का आनंद उठाएगा। यह आनंद बहुत अधिक दिन तक जिंदा नहीं रह पाएगा। चूँकि इतिहास में ऐसा कभी हुआ नहीं है- रोमन साम्राज्य से लेकर बंगाल की खाड़ी तक। जबकि ऐसा नहीं था कि इसके सपने देखने वाले लोग नहीं थे। पर इतिहास के रथ के चक्के तले पीसकर मर गए और मर जाएँगे भी।
एक समय था- जब द्विज साहित्य को ही लोग साहित्य कहते थे, उनकी प्रमाणिकता स्वीकार की जाती थी, लोग अपनी बात या तर्क उन्हीं के द्वारा मनवाते थे और आज है कि वह हमारे किसी काम का नहीं रहा। कोई साहित्य कब किसी काम का नहीं रहता है? जब वह एक बड़ी आबादी की आकाओं को पूरा नहीं करेगा और उसमें बड़े समाज की छोटी-बड़ी बहुतेरी घटनाओं को निरूपण करने की शक्ति नहीं रहेगी तब निश्चित ही वह साहित्य या तो मृत्यु को प्राप्त करेगा या ‘आउट डेटेड’ हो जाएगा।
आज ‘द्विज’ साहित्य आउटडेटेड हो गया है। दलित- साहित्य अनुसूचित का साहित्य हो गया है और आदिवासियों के अपना अलग साहित्य है। फिर कैसे नहीं हजारों वर्षों से बेनाम या विभिन्न नाम-रूपों से जाना जाने वाला साहित्य अपने नाम का दावा, अपने अस्तित्व का दावा पूर्ण रूप से न करता? वह कोई दूसरा नहीं; बल्कि ओबीसी साहित्य ही है जिसे कभी श्रमण साहित्य, कभी रैयत साहित्य, कभी अर्जक साहित्य तो कभी मंडल साहित्य के नाम से जाना गया।
मंडल साहित्य इसलिए कि कुछ लोग जिस तरह दलित-साहित्य को राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में अंबेडकरवादी साहित्य कह पुकारते थे, ठीक उसी तरह नब्बे के दशक के बाद ओबीसी साहित्य को राजनीति के क्षेत्र में मंडल साहित्य नाम दे दिया गया। जगदेव प्रसाद एवं रामस्वरूप वर्मा के प्रभाव की वजह ओबीसी साहित्य को ‘शोषित साहित्य’ के तौर पर भी चिन्हित किया गया।
किंतु यह साहित्य सर्वमान्य हुआ ओबीसी साहित्य के ही नाम से। कारण, इस सामासिक पद में ओबीसी समुदाय की सारी जनआकांक्षाएँ, भावनाएँ, विचार, कला-चित्रण, राजनीति, संस्कृति यहाँ तक कि पीड़ा, संघर्ष एवं भूख को निरूपण करने की शक्ति भी थी और शोषित, अर्जक, मंडल एवं श्रमण साहित्य के गुणों एवं अपेक्षाओं को पचाने की शक्ति भी। इसीलिए ओबीसी साहित्य नाम ही सर्वमान्य एवम् सर्व स्वीकृत हुआ।
ओबीसी साहित्य की आलोचना-पद्धति
मार्क्सवादी लेखक वैभव सिंह ने ‘मार्क्सवाद और साहित्यालोचन’ पुस्तक में टेरी ईगलटन के बारे में लिखते हैं कि ‘यह बात कई लोगों को विचित्र लग सकती है लेकिन टेरी ईगलटन आज भी मानते हैं कि कैथोलिक धर्म से उनकी विगत निष्ठाओं ने उनके मार्क्सवादी चिंतन को और गहरा बनाया है। रचनात्मकता के लिए केवल अनुभव संपन्न हो जाना काफी नहीं है बल्कि एक अबोधपन का अहसास भी जरूरी होता है।’

[bs-quote quote=”जब ओबीसी समाज ’देता’ है तो खुशी से उसके हृदय में उद्‌गार फूटते हैं और जब उसके श्रम को कोई लूटने की चेष्टा करता है या लूटता है तो उसके भीतर गुस्सा जन्म लेता है और वह अन्याय से टकराने में तनिक भी नहीं हिचकता। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

मैं मानता हूँ कि ओबीसी समाज के पास यह अबोधपन है। जो उसके लिए और उसके साहित्य सृजन में बड़ा काम आने वाला है। ओबीसी समाज इस अवबोधपन को स्वीकारता है, इस वजह से वह कभी भी हीन भावना का शिकार नहीं होता और सदैव श्रम एवं चिंतन से वह कुछ न कुछ सृजित करता रहता है। और यह सृजन ही मनुष्य और मनुष्यता को बचाने में अपना महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जो कुछ देता नहीं, वह टिकता नहीं | ओबीसी समाज हमेशा से पूरे समाज को लेने से ज्यादा- दिया। और इसका ‘दिया ‘या’ देना’ ही इसके सृजन के मूल है और इस मूल में खुशी, आनंद, परमतोष एवं टकराहट यानी द्वंद भी मौजूद है। ओबीसी साहित्य का सृजन इसी की देन है।
जब ओबीसी समाज ‘देता’ है तो खुशी से उसके हृदय में उद्‌गार फूटते हैं और जब उसके श्रम को कोई लूटने की चेष्टा करता है या लूटता है तो उसके भीतर गुस्सा जन्म लेता है और वह अन्याय से टकराने में तनिक भी नहीं हिचकता। चे ग्वेरा ने कहा था – ‘अन्याय को देख तुम्हारे भीतर यदि गुस्सा आता है तो तुम मेरे कामरेड हो।’ कर्पुरी ठाकुर, जगदेव प्रसाद कुशवाहा, जगदीश मास्टर, रामेश्वर अहिर, चंद्रशेखर प्रसाद, ललई सिंह यादव, कयूम अंसारी, मोहन कुशवाहा, भैयाराम यादव, चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ आदि जैसे ओबीसी के लोगों ने अन्याय पर न सिर्फ गुस्सा किये, बल्कि अन्याय करने वालों के टकराए भी, उन्हें चुनौती दिये और कुछ न्याय निमित लड़ते हुए अपने समाज और देश के लिए शहीद भी हुए।
अन्याय से लड़ने की जीवटता ही ओबीसी साहित्य के प्राण है। इसलिए ओबीसी साहित्य में श्रम की साधना, श्रम-गीत के अलावा सत्ता और आदमीयत के दुश्मनों एवं श्राम-धन के लुटेरों से सीधा मुठभेंड़ करने की क्षमता है। और इसी क्षमता से ओबीसी साहित्य की आलोचना पद्धति निर्मित हुई है और मजबूत हो रही है। ओबीसी साहित्य की आलोचना इस तथ्य को सदैव निरीक्षण करती है कि कोई रचना श्रम के महत्व को स्थापित कर रही है या कि नहीं।
उत्सव और आनंद को जीवन का वह अंग मानती है या कि नहीं। श्रमशीलों की सत्ता का समर्थन एवं पुरोहितवाद- पूँजीवाद से प्रेरित सत्ता का विरोध इसमें दर्ज है या कि नहीं? पेड़-पौधे-पहाड़ यानी प्रकृति को उचित सम्मान एवं सुरक्षा प्राप्त है कि नहीं? स्त्री की लाज और उसके द्वारा जलाई गई चूल्हे की आग के महत्व और उसके  इतिहास के प्रति रचनात्मक वफादारी है या कि नहीं?
कुर्सी -टेबल से लेकर ,सड़़क -भवन तक निर्माण करने वाले मजदूरों-शिल्पियों का चित्रण धारदार एवं प्रभावी ढंग से हुआ है या नहीं? ओबीसी के पक्ष में लड़ने वाले एवं विचार रखने वाले  के प्रति सम्मान भाव रचना में है कि नहीं; शिक्षा का महत्व किसी देवता के महत्व से ज्यादा है कि नहीं? इन सब बातों को ओबीसी साहित्य की आलोचना अपनी केंद्रीयता प्रदान करती है। ओबीसी साहित्य की आलोचना रूप से ज्यादा विचार को महत्व देती है इस शर्त के साथ कि कोई विचार या चिंतन ‘मेटेरियल’ की देन है। जहाँ पदार्थ नहीं; वहाँ चिंतन व विचार उगेंगे ही नहीं ।
इसलिए ओबीसी साहित्य पदार्थ एवं मानव के महत्व को स्वीकारता है और उसकी जीवंतता व नवीनता में मानव जीवन व उसके पूरे समाज की जीवंतता एवं नवीनता का दर्शन करता है। इसलिए ओबीसी साहित्य प्रकृति के हर चीज़ को मनुष्य के लिए और मनुष्य को प्रकृति के लिए जीवन जीने की कला सीखने पर बल देता है।
इसके लिए ‘बुद्धिज़म’ को वह ज्यादा पसंद करता है, लेकिन अन्य धर्मों में यदि मानवता एवं प्रकृति को बचाने का संदेश यदि है तो उसे अपनाने से वह नहीं चूकता है, लेकिन ‘धर्म के उस व्याख्या’ पर वह कभी यकीन नहीं करता, जिसे पुरोहित अपने पक्ष में अब तक करते आए हैं। ओबीसी साहित्य को राम, कृष्ण, शिव, गुरु नानक, मोहम्मद साहब या ईसा मसीह से नहीं; बल्कि उस सत्ता-केन्द्र या व्यवस्था से नफरत है जिसका संचालन पुरोहित-वर्ग एवं अमीर-जन करते हैं और राम-कृष्ण या ईसा मसीह को दैवीय शक्ति से आच्छादित कर आमजन के जीवन से बिल्कुल अलग-थलग करकर; केवल कुछ वर्गों के निजी स्वार्थ के लिए इन चरित्रों एवं नायकों को इस्तेमाल कर उनकी व्यापकता व भूमिकों को सीमटा देने का षड़यंत्र रचते हैं।
वरना, राम के हाथों रावण का मारा जाना, ब्राह्मण-वर्चश्व या यों कहें पुरोहित वर्चश्व के केन्द्र ‘लंका’ का पतन किसे पसंद नहीं! लव-कुश के हाथों में तीर धनुष, बलराम के हाथों में हल, कृष्ण के हाथों में बाँसुरी एवं राजा जनक को हल-कर्षण करते देख कौन किसान भला हर्षित नहीं होता होगा?
ईसा मसीह को भेंड चहराते और मोहम्मद साहब को बकरी चराने एवं गुरु नानक के भरता -पिता को खेती करते देख आमजन को कितना शूकुन मिलता है, इसे वहीं समझ सकता है जो श्रम के महत्व को कहीं न कहीं समझ रहा है। पर जब तुलसीकृत (एक ब्राह्मण कृत) ‘रामचरित मानस’ में जब ‘द्विजों’ की सेवा के लिए ‘प्रभु’ को इस्तेमाल करते दिखाया जाता है तो ओबीसी वर्ग को यह ताड़ जाना चाहिए कि उसने नायक के साथ भी ‘छल’ हो गया या हो सकता है यह छल किसी नायक के जीते जी होता है और किसी-किसी नायक की मृत्यु के पश्चात्|

[bs-quote quote=”ओबीसी साहित्य ज्ञान के सार्वजनीकरण में विश्वास कर जनता को गुलामी से मुक्त करना चाहता है। ताकि मानवता शर्मसार न हो और इंसान जीवन के एक-एक क्षण को जीकर खुशी अनुभव करे। अगर इस खुशी को, इंसान की आजादी को, उसके जीवन को सुंदर बनाने के क्रम में कोई ऐसी घटना जो पुरोहित एवं शासक वर्ग को नापसंद है, उसे वह अंजाम देने में हर्ष अनुभव करता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

पुरोहित वर्ग की दाल जब नायक के जीते जी नहीं गलती है तो उसकी मृत्यु के पश्चात् कई मनगढंत एवं श्रमिक समाज को भ्रमित करने के लिए कई तरह की कथाएँ वह गढ़ता है ताकि उसकी सत्ता बरकरार रहे और उसकी मान्यताएँ जिंदा रहे। ओबीसी आलोचना पद्धति की यह विशेषता है कि वह राम, कृष्ण और ईसा से नफरत नहीं बल्कि इन चरित्रों को आमजन के खिलाफ गलत तरीके से प्रस्तुत करने वाले, दूसरे व्याख्याताओं-रचनाकारों की पोल खोलने में विश्वास करता है और श्रमण-संस्कृति को, शिक्षा व ज्ञान के आदान- प्रदान की संस्कृति को बढ़ावा देता है।
ओबीसी साहित्य ज्ञान के सार्वजनीकरण में विश्वास कर जनता को गुलामी से मुक्त करना चाहता है। ताकि मानवता शर्मसार न हो और इंसान जीवन के एक-एक क्षण को जीकर खुशी अनुभव करे। अगर इस खुशी को, इंसान की आजादी को, उसके जीवन को सुंदर बनाने के क्रम में कोई ऐसी घटना जो पुरोहित एवं शासक वर्ग को नापसंद है, उसे वह अंजाम देने में हर्ष अनुभव करता है।
कारण कुछेक लोगों के लिए ओबीसी सा‌हित्य इस सुंदर जीवन को, सुंदर दुनिया को नरकीय बनाने का समर्थन नहीं करता है। यह दुनिया सबके लिए हो, और इस पर सबका समान अधिकार हो और श्रम करने वाले को सम्मान व प्रतिष्ठा की नजर से देखा जाए कि वह समर्थन देता है। ऐसे चिंतन पद्धति को ओबीसी साहित्य साकार रूप देता है। ‘बौद्धिक श्रम’ एवं ‘शारीरिक श्रम’ के अपने-अपने महत्त्व हैं; बशर्तें की वह मानवता को पुष्ट करे और उससे समानता को बल मिले। ओबीसी साहित्य की आलोचना पद्धति इतिहास के क्रमिक विकास के मद्देनजर ही किसी तथ्य को ‘डिफाइन’ करता है।
वह अतीत से वर्तमान और वर्तमान से अतीत की ओर जाने के लिए वर्ग या समुदाय को प्रेरित करता है ताकि इतिहास के पन्ने से कोई महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी तथ्य या घटना छूट न जाए। किसी की भूमिका को लोग भूल न जाएँ । सवर्ण साहित्य और इतिहास दूसरों के इतिहास एवं भूमिका को भूला कर चलता है और हर जगह ‘सिर्फ वह ही वह है’ दिखाने की कोशिश करता है, जोकि यह इतिहास के साथ यह अन्याय है और उसकी गलत व्याख्या भी। ओबीसी साहित्य की आलोचना पद्धति इस बात से इंकार नहीं करती कि ओबीसी के अलावा भी इस पूरे समाज में अन्य दूसरे -द्विज से लेकर आदिवासी तक भी हैं; जो या तो ओबीसी समुदाय के वर्ग के शत्रु हैं या दोस्त। जो शत्रु हैं उनके साथ किस तरह पेश आना है। यह ओबीसी साहित्य जानता है और जो दोस्त हैं उनके साथ कैसा रूख रखना है,इसे भी वह जानता है।
लेकिन जब कोई ओबीसी की संस्कृति,इसके इतिहास ,इसके समाज और इसकी वैचारिकी पर जब कोई सवाल उठाता है तब वह आम-ए-खास में किसी को पकड़कर लाने से नहीं चूकता है और पूछता है कि बुद्ध से लेकर मखली गोशाल, कबीर से लेकर पीपा, रेणु से लेकर राजेंद्र यादव, अनूप लाल मंडल से लेकर मधुकर सिंह, दिनेश दुशवाह से लेकर संतोष पटेल तक किसकी संपत्ति हैं? कुछ दलित साहित्यकार भी इधर ‘ओबीसी साहित्य की अवधारणा’ एवं उसकी ‘आलोचना पद्धति’ से घबराने लगे हैं। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि दलितों के कंधे को सहारा देकर ओबीसी के महानायकों-कबीर, फुले व राजेंद्र यादव आदि ने ही उनके मनोबल व आत्मविश्वास को मजबूत बनाया है, फिर इन्हें ‘सवर्णों की तरह’ देखना कहाँ का न्याय है?
बाबु सिंह कुशवाहा जी मायावती को, लालू प्रसाद यादव जी अनिता देवी को, क्या कुछ भी सहारा नहीं दिये ? क्या चौधरी चरण सिंह दलित विरोधी थे? नहीं न ? फिर आपको ‘ओबीसी साहित्य’ को नकारने या उससे चिड़ने से क्या मिलने वाला है? आज द्विज साहित्य अंतिम साँसे गिन रहा है। सवर्ण मानसिकता का, साहित्य में भी पर्दाफाश हो चुका है। भ्रम और रूप से सजा साहित्य अब क्या किसी भी काल में हमारे किसी काम के न थे। प्रो. चौथीराम यादव एवं डॉ.ललन प्रसाद सिंह मार्क्सवादी हैं। पर क्या यह सही नहीं है कि इनका मार्क्सवाद औरों के साथ ‘ओबीसी’ के साथ भी न्याय की मांग करते आ रहा है। ओबीसी एक विचार है। ऐसा मत वी.पी. सिंह जी का भी था।
मंडल-कमीशन की रिपोर्ट वैज्ञानिक समाजवाद की मांग है और ओबीसी की मार्गदर्शिका भी। जो लोग ‘ओबीसी साहित्य’ और ‘ओबीसी साहित्य की आलोचना पद्धति’ की बात आते ही यह हंसी उड़ाते थे कि दलितों के पास अंबेडकर हैं और ओबीसी के पास? आज वे चुप हैं। क्योंकि ओबीसी के पास कबीर, फुले, पेरियार, वी. पी मंडल, जगदेव प्रसाद, कर्पूरी ठाकुर, राजेन्द यादव, प्रेम कुमार मणि, और राजेंद्र प्रसाद सिंह जैसे लोग हैं। और आज भारत में हजार से ज्यादा ऐसे रचनाकार हैं, जो ओबीसी साहित्य को जाने- अनजाने रच रहे हैं और बेजोड़ रच रहे हैं- ओबीसी एवं किसानों के लिए रच रहे हैं।
बस जरूरत है उन्हें रेखांकित करने की, उन पर बहस एवं व्याख्यानमाला आयोजित करने की, उन्हें ‘प्रमोट’ एवं ‘बुस्टअप’ करने की। वे निश्चित ही ओबीसी साहित्य के पैमाने को समझेंगे, ओबीसी साहित्य साहित्य के टूल्स (औजारों) से अवगत होंगे और अन्य रचनाओं एवं रचनाकारों को तौलेंगे, स्थापित करेंगे जो काम लायक होगे; जिनमें प्रतिभा होगी ओबीसी समाज को समझने की या ओबीसी के विरोधियों को रिजस्ट करने की।
ओबीसी साहित्य की आलोचना पद्धति मनुष्य एवं मनुष्यता से किसी रचना को अवलोकित करते हुए, श्रम एवं श्रमशीलों के मान के लिए, समाज और व्यवस्था को ठीक ढंग से चलाने के लिए ओबीसी को उचित स्थान के लिए संघर्षरत ओबीसी लोगों के जीवन को और मिलजुलकर जीने की कला को आत्मसातकर ‘जीवन के लिए’ किसी रचना और रचनाकार के महत्व को स्थापित करती है या इसके विपक्ष में जाने पर उसका तार्किक समाधान देती है और ओबीसी के विरोधियों को रिजेक्ट करती है। आलोचना ही यह पद्धति भले ‘मॉडर्न’ न हो किंतु मानवता की रक्षा के लिए-जीवन की प्रगति के लिए यह आवश्यक जरूर है।
ओबीसी साहित्य आलोचना पद्धति में किसी घटना,भाव-विचार,चित्र व कल्पना का समायोजन करने से पूर्व उसकी उस तीव्रता पर भी विचार करने पर बल देती है जिसके तहत ओबीसी के लोगों का मानसिक स्तर, सोचने -विचारने एवं खुद को देखने-परखने का दृष्टिकोण सकरात्मक -सामाजिक है या नहीं। या समूह की भावना सुदृढ़ एवं मजबूत हो रही है कि नहीं। जहाँ समूह की भावना नहीं होगी, वहाँ व्यक्तितता होगी और यह ओबीसी साहित्य का एक गुण नहीं है।
ओबीसी साहित्य समाज एवं वर्ग को प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए इसकी आलोचना अद्भुत ऐतिहासिक विकास-क्रम एवं सवर्ण-मानसिकता की परिकल्पना के विरुद्ध एक मानवीय दृष्टिकोण को अपनाती है; जहाँ श्रम और प्रेम के बदौलत इस दुनिया को, इस जिंदगी को खूबसूरत बनाने की सक्रियता इसकी ताकत बनती है और इसकी जड़ों की को खाद-पानी को सींचती है और सूर्य की किरणों की तरह इंसान एवं श्रम -संस्कृति को अपनाने वाले लोगों को आभा-युक्त बनाती है।

[bs-quote quote=”ओबीसी साहित्य की आलोचना पद्धति दलितों एवं द्विजवादियों की आलोचना-पद्धति से भिन्न है क्योंकि टकराना इसके मूल में है। इसे न तो भिक्षाटन पर जीना है और न चिरौरी पर। प्रेम और टकराहट इसकी खूबसूरती है। ओबीसी साहित्य आलोचना इस खूबसूरत द्वंद को स्वीकार करती है। इसी कारण ओबीसी एवं ओबीसी साहित्य की रचना प्रक्रिया जटिल होती हुई भी मानव एवं श्रम करने वालों के लिए प्रेरणा का स्राेत बनी हुई है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

किसी भी साहित्य में आलोचना पद्धति के विकास के पीछे जो कारण विद्यमान रहता है वह यह होता है कि उस साहित्य में जितनी भी भिन्न तरह के साहित्य लिखे गए हों, उन साहित्यों का सटीक मूल्यांकन हो सके। पर, ओबीसी साहित्य की आलोचना-पद्धति के विकास इस बात निर्भर करता है कि वह कितना मानवोपयोगी एवम् कितना सार्थक है और सार्थकता का आधार -ओबीसी समूह का चहुँमुखी विकास व प्रगति है, उसके साथ न्याय है, उसके सौंदर्यबोध का विकास है, उसकी कलात्मक क्षमताओं का निरूपण है, उसका प्रकृति और इंसान के साथ तादात्मय-संबंध का विस्तार है। साहित्य एक कला है और इस कला का उपयोग मानव-जीवन को सुन्दर एवं श्रेष्ठतर बनाना है। ओबीसी साहित्य भी मानव जीवन को सुंदर एवं श्रेष्ठतर बनाने की रचनात्मक एवं सामाजिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में वह ‘रूप’ भी धारण करता है, पर यह रूप ‘कला’ की ऊँचाई तो प्रदान करता है, साथ ही मानव जीवन एवं श्रमशील वर्ग को भी ऊँचाई प्रदान करता है। ओबीसी साहित्य का रूप केवल केवल कलात्मक सुंदरता तक सीमित नहीं है बल्कि मानव मानव के लिए काम आए, संकटों में एक-दूसरे के दुख:-दर्द को समझे, मदद करे, इस उदेश्य की पूर्ति हेतु भी समर्पित है।
ओबीसी साहित्य का रूप-निर्धारित कवि से ज्यादा कवि के मन एवं हृदय को, उसके चिंतन एवं विषय को, कल्पना एवं रचना को उद्वेलित एवं  तीव्र बनाने वाली भौतिक क्रिया- कलाप एवं पदार्थों का अपना हलचल है, जो मानव-मन,हृदय को बिन प्रभावित किए नहीं छोड़ता। भाषा तो सिर्फ उसे अमलीजामा पहनाती है; पर यह सच है कि ओबीसी की भाषा धार्मिक भावनाओं को व्यक्त करने वाली भाषा एवं शोषक-वर्ग की भाषा से भिन्न है और आमजन की सहमिलू है। सहमिलू का अर्थ यह लगना चाहिए कि वह ज्यादा मानवीय है और ऐसी भाषा की शक्ति, उसकी संप्रेषणीयता की खोजबीन एवं उसकी प्रभावान्विति से आमजन को परिचित कराना है, उसके उपयोग पर बल देना-ओबीसी  आलोचन पद्धति के मुख्य कार्यों में से है।
संस्कृत काव्य-शास्त्र में जिस ‘भदेसपन’ की चर्चा काव्यालोचना में होती है, उस भदेसपन पर ओबीसी साहित्य आलोचना विचार करने से नहीं चूकती और उसके बीच संभावना तलाशती है कि कहीं यह भदेसपन मानव-जीवन के इतिहास में कुछ बदलने की ताकत तो नहीं रखती है? अगर ऐसा है तो ऐसी भाषा और ऐसे शब्दों के साथ ओबीसी साहित्य आलोचना पद्धति खड़ा होने से बाज नहीं आती है। कारण कोई भाषा भदेस है, इसका निर्णय आमजन करते हैं, श्रमशील वर्ग करता है तो ठीक है वरना पंडित-ब्राह्मणजन निर्णय करने वाले कौन होते हैं? ऐसा ओबीसी साहित्य मानता है।
ओबीसी साहित्य की आलोचना पद्धति दलितों एवं द्विजवादियों की आलोचना-पद्धति से भिन्न है क्योंकि टकराना इसके मूल में है। इसे न तो भिक्षाटन पर जीना है और न चिरौरी पर। प्रेम और टकराहट इसकी खूबसूरती है। ओबीसी साहित्य आलोचना इस खूबसूरत द्वंद को स्वीकार करती है। इसी कारण ओबीसी एवं ओबीसी साहित्य की रचना प्रक्रिया जटिल होती हुई भी मानव एवं श्रम करने वालों के लिए प्रेरणा का स्राेत बनी हुई है। वजह श्रम व चिंतन का रिश्ता और रास्ता अलग-अलग नहीं हैं। ओबीसी साहित्य आलोचना पद्धति  इनके मध्य ही जीती एवं  फलती है ताकि मनुष्यता विजयी होती रहे।

हरेराम सिंह अध्यापक हैं और बिक्रमगंज, बिहार में रहते हैं। 

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