
राज्य स्थापना के बाद के इन 21 वर्षों का हमारा अनुभव यह रहा कि जो सामाजिक घटक जनतांत्रिक राजनीति के स्तर पर संगठित होकर दबाव समूह के रूप में उभर कर व्यवस्था में सकारात्मक हस्तक्षेप कर सके, उन्होंने अपनी प्राथमिकता के क्षेत्र में लाभ उठाने में सफलता प्राप्त की। जो पीछे रह गये, वे पीछे ही रह गये। इस पिछडे़पन में आदिवासी समूह सर्वाधिक दयनीय दशा में रहे। लाभ न उठा पाने से भौतिक स्तर पर यथास्थिति को भी न बचा पाये। भरपाई न होने का कारण ‘स्वीकार्य विकल्प’ का अभाव रहा।
समाज के स्तर पर ‘साधन सम्पन्न’ और ‘साधनहीन’ अर्थात वर्ग की अवधारणा अपनी जगह महत्वपूर्ण है। लेकिन जब हम सामाजिक घटकों की तुलनात्मक स्थिति पर चर्चा करते हैं। तो पाते हैं कि जो घटक जीवन और भविष्य के प्रति खुला दृष्टिकोण विकसित कर सके, उन्होनें प्रगति की। इसके लिए वे अपने मूल स्थानों से अन्यत्र तक जाते रहे। मारवाड़ी वणिक जातियाँ एवं पंजाब के सिख इसका बेहतरीन उदाहरण हैं, जो देश के अन्य प्रांतों ही नहीं बल्कि विश्व के विभिन्न देशों तक में चले गये और भौतिक दृष्टि से समृद्ध हो सके। इस दृष्टिकोण से यदि हम आदिवासियों के बारे में विचार करें तो पायेंगे कि आदिवासी समूह अपने इलाकों में ही रहने की बंद मानसिकता से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। इसके बहुत सारे कारण हो सकते हैं। प्रश्न उन कारणों को खोजने का अपनी जगह महत्वपूर्ण है। फिलहाल यहाँ आदिवासी के वर्तमान और भविष्य की चिन्ता के साथ-साथ उनके विकास का विषय केन्द्र में है।
थोड़ी देर के लिए हम आदिवासियों और समाज की मुख्यधारा में अछूतों का जीवन जीते चले आ रहे दलितों पर तुलनात्मक दृष्टि से बात करें तो पायेंगे कि कि अछूत दलित यह बात आसानी से समझ पाये कि उनकी दयनीय दशा की वजह क्या रही। सर्वण मानसिकता के षड्यंत्रों को वे आसानी से जान सके, इसलिए कि वे ऐसी मानसिकता वाले व्यक्ति समूहों के इर्द-गिर्द रहे। हर स्तर पर वंचित रहने के बावजूद चाहे दबाव व मजबूरियों में जीवन को जीते रहे। लेकिन यह नहीं माना जा सकता कि वे जानते नहीं, उनकी दुर्दशा के कारणों को या उसके स्वरूप को। इसलिए इस वर्ग में डाॅ. अम्बेडकर जैसे चेतनाकामी नायक उभर सके। यही वजह रही कि अछूत दलित हर क्षेत्र में हस्तक्षेप करने की स्थिति में आ सके। लेकिन ठीक इसके दूसरी तरफ अलग-थलग रहते रहे आदिवासियों के साथ ऐसी परिस्थितियाँ विकसित नहीं हो पायीं। आज भी उनकी मानसिकता बंद सोच की चली आ रही है। बाहरी दुनिया से कुछ सीखने की बजाय वे अपनी परंपरागत जीवन शैली और दृष्टिकोण से ही बंधे रहे।

अब ऐसा भी नहीं है कि इन 21 वर्षों में यहाँ कुछ भी नहीं हुआ। बात झारखंड राज्य के विकास की हो या फिर आदिवासी चेतना में सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक उभार का। हर स्तर पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से कुछ न कुछ बदलाव दिख रहा है। स्कूल भवन बड़ी संख्या में बने, शिक्षक दोगुने हुए पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा अब भी बड़ी चुनौती। साक्षरता दर में वृद्धि हुई है लेकिन महिला साक्षरता अभी भी बहुत पीछे है। महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग व मेडिकल काॅलेज की संख्या भी बढ़ी। गाँव से शहरों तक सड़कों का जाल भी बिछा। छोटे बड़े हजारों पुल पुलिया बने, पर उसकी गुणवत्ता पर हमेशा सवाल उठते रहे। घर-घर बिजली पहुँची, व्यवस्था में बेहतरी के लिए काम भी हुआ पर जीरो पावर कट अभी भी सपना है। अस्पतालों और वहाँ बेडों की संख्या भी बढ़ी लेकिन सुविधाएँ सीमित। विभाग का दावा 39 फीसदी खेतों तक सिंचाई, फिर भी मौसम के भरोसे किसान। 38 फीसदी आबादी तक ही पहुँचा पाया है अभी पाईप लाईन से पानी बड़ी आबादी अभी भी पेयजल सुविधा से कोसों दूर। बात खाद्यान की करें तो राज्य की करीब पौने चार करोड़ आबादी के लिए जितने खाद्यान की जरूरत है उसका आधा ही हम उपजा पा रहे हैं। हाँ सब्जी और मतस्य उत्पादन में यहाँ आत्मनिर्भरता बढ़ी है। राज्य में खाद्य सुरक्षा की बात करें तो यहाँ डीलरों की संख्या 8 हजार से बढ़कर 25 हजार से ऊपर हो गई। 56 लाख कार्डधारियों तक राशन पहुँचा। अभी भी 15 लाख नये लाभुकों के लिए कार्ड बनने की प्रक्रिया जारी है। पहले गरीबों का अनाज सम्पन्न लोग खाते रहे लेकिन अब ऑनलाइन सिस्टम से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा है। लेकिन डीलरों के खिलाफ लाभुकों का विरोध और उनकी शिकायत जिला प्रशासन तक आये दिन पहुंचते ही रहते हैं जिसको नजरअंदाज करना भी उचित नहीं होगा। गौरतलब है कि खाद्य आपूर्ति विभाग ने राज्य भर में 763 पीडीएस डीलरों का लाइसेंस निलंबित किया है। सभी के खिलाफ जांच चल रही है। मजे की बात यह है कि नाक के नीचे राजधानी रांची और पड़ोसी जिला बोकारो में सबसे ज्यादा गड़बड़ी की शिकायतें मिली हैं। घरेलू गैस की उपलब्धता के मामले में स्थिति पहले से बहुत अच्छी कही जा सकती है, जिसमें उज्जवला योजना की बड़ी भूमिका रही है।
गाँवों में आवास, शौचालय और कुएँ व तालाब भी बने। सिंचाई से लेकर जल संचय पौधारोपण और फसली जमीन भी तैयार हुई। मनरेगा से काम भी मिला। कुछ हद तक पलायन भी रुका। बाबजूद झारखंड के लोग रोजी रोटी के लिए बाहर जा ही रहे हैं। कभी संकट में फंसने पर सरकार उन्हें वापस लाकर अपनी पीठ भी थपथपाती रही है। लगभग 5 लाख से ऊपर बेघरों को आवास मिला। आजीविका मिशन से गाँव की महिलाएँ कुछ हद तक स्वाबलंबी और आत्मनिर्भर भी हुई। मिशन नवजीवन, दीदी बाड़ी और फूलो झानो आशीर्वाद योजना से उम्मीद तो थी लेकिन इस योजना से जुड़कर लाभ उठाने वाली महिलाएं आज भी चोरी छिपे हंड़िया दारु बेचने में लगी हैं। आये दिन ग्रामीण हाटों और सड़कों से गुजरते हुए यह नजारा देखा जा सकता है। इसी कड़ी में अभी हाल में हेमंत सरकार द्वारा शुरू की गई 10 रुपए में सोना सोबरन धोती साड़ी लूंगी योजना को भी देखा समझा जा सकता है। इस योजना के तहत सरकार के द्वारा राज्य के 57 लाख से अधिक लाल पीला कार्डधारी गरीब परिवारों को धोती साड़ी लूंगी देने का लक्ष्य है। त्योहार से पहले 14 लाख से ऊपर परिवारों तक इसे पहुंचाना था लेकिन अभी तक यह लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सका है। नाक के नीचे राजधानी रांची और संताल परगना के जामताड़ा जिले के आंकड़े इस लोक लुभावन योजना को लेकर आम जनता की उदासीनता बयां कर रही है। झारखंड के भोले भाले आदिवासी और यहां की गरीब जनता जो इस योजना से जुड़ रही है, उन्हें इस योजना की हकीकत का पता चल रहा है।

उद्योग एवं व्यवसाय की बात करें तो बड़ा उद्योग आज भी यहां एक सपना है। छोटे और देशज उद्योग भी लाख प्रयास के बावजूद मजबूती से खड़े नहीं हो पा रहे हैं। हाँ इधर हाल के कुछ वर्षों में लगभग एक हजार से अधिक एसटी-एससी उद्यमी बन चुके हैं। पंचायती राज और गाँव की सरकार की बात करें तो पिछले एक दशक में दो कार्यकाल पूरा कर चुके हैं। कोविड के कारण लगभग छह महीने का एक्सटेंशन भी पा चुके हैं लेकिन अधिकार और पैसे माँगने में ही गुजर दिए 10 साल। और अब तीसरी पारी खेलने का भी इंतजार कर रहे हैं। इन दस सालों में ग्राम पंचायतों का कितना और कैसा विकास हुआ यह तो सब जानते ही हैं लेकिन इस बीच जनप्रतिनिधियों और उसके साथ लगे बिचौलियों ने जो अपना विकास किया है, वह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है। बेराजगारी और नियोजन नीति को देखें-परखें तो जहाँ एक ओर सरकारी विभागों में एक लाख से ज्यादा पद खाली हैं वहीं दूसरी ओर नियोजन नीति भी स्पष्ट नहीं है। कई विभागों की नियुक्ति नियमावली में अभी भी पेंच है। पारा शिक्षक, स्वास्थ्यकर्मी, पोषण सखी, पंचायत स्वयं सेवक, कम्प्यूटर ऑपरेटर, सहिया साथी, जल सहिया से लेकर साक्षरताकर्मी तक सभी अनुबंध कर्मी आज तक अपने हक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं लेकिन सरकार अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है। ऐसे में आउट सोर्सिंग एजेंसियां हमारे राज्य में फल-फूल रही हैं। सरकार द्वारा विभिन्न जिलों में लगने वाले रोजगार मेले की असलियत जानना हो तो, वहां सुबह हाथ में डिग्रियों की फाइल लेकर उम्मीद से जाने और शाम खाली हाथ निराश लौटने वाले सैकड़ों बेरोजगार युवकों से मिलकर उनका अनुभव जान लें।
झारखंड स्थापना दिवस पर जनमत शोध संस्थान द्वारा जारी विशेष रिपोर्ट