समाज कैसे बदलता है? यह एक सवाल हो सकता है। खासकर उनके लिए जो समाज के बदलने की प्रक्रिया से परिचित नहीं हैं। वैसे भी जिस देश में अधिकांश आबादी हैंड्स टू माउथ हो, वहां किसको पड़ी है कि वह समाज के बदलने की प्रक्रिया के बारे में सोचे। सियासत का असर ऐसा है कि सब अलग-अलग खेमे में बंटे हैं और समाज पर बाजार की पकड़ रोज-ब-रोज बढ़ती जा रही है। हालत यह हो गयी है कि आज शहरों से अधिक गांव बाजार के शिकंजे में हैं। लेकिन इससे न तो भारत के हुक्मरान को कोई फर्क पड़ता है और ना ही उन्हें जो गांवों में रहते हैं। यही यथार्थ है।
डॉ. शंभू कुमार केंद्रीय आलू अनुसंधान केंद्र,पटना के सीनियर साइंटिस्ट हैं। बात परसों की है। फोन पर उन्होंने जानकारी दी कि उनके नेतृत्व में केंद्र ने ट्रू पोटेटो सीड तैयार किया है। इसके उपयोग से किसानों की बीज संबंधी लागत में 80-90 फीसदी कमी आ जाएगी। सबसे सुखद आश्चर्य यह जानकर हुआ कि आलू का बीज उसके कंद से नहीं, फल से निकलेगा। इसके लिए बीहन तैयार करना जरूरी होगा। ठीक वैसे ही जैसे धान के लिए बिचड़ा तैयार किया जाता है। मगह में हम इसे मोरी भी कहते हैं। तो आलू के बीज के मामले में होगा यह कि किसान पहले इसका बीज अपने खेतों में लगाएंगे। फिर उससे आलू का बीज देने वाला पौधा निकलेगा। परागण के बाद इसमें टमाटर के जैसे फल आएंगे, जिनके फटने के बाद बीज प्राप्त होगा।
मेरे घर में आलू की खेती अब इतिहास है। उस समय पापा खेती करते थे। चूंकि वे बिहार राज्य विद्युत बोर्ड में खलासी के पद पर कार्यरत थे, तो उनके पास खेती के लिए अधिक समय भी नहीं होता था। थोड़ा-बहुत खाने भर या कहिए कि मन लगाने को खेती करते थे। वर्तमान में जहां मेरा घर है, वहीं पापा आलू लगाते थे। करीब सवा दो कट्ठे जमीन में।
हम सब उनका साथ देते थे। फिर चाहे वह खेत कोड़ने में हो या फिर आलू के लिए क्यारियां बनाने में। पापा बाजार से आलू का बीज खरीदकर नहीं लाते थे। बस घर में बचा हुआ आलू को छांट लेते और फिर हम सब अपने काम में जुट जाते। चूंकि मकसद केवल घरेलू उपयोग होता था तो इस बात की चिंता ही नहीं होती थी कि इसमें कितनी लागत लगी और इससे कितना मुनाफा होगा।
[bs-quote quote=”आज मेरी जेहन में यही दो बातें हैं। एक तो बीज का खेल और दूसरा मिसिंग मोमेंट्स। यह बात तो सही जान पड़ती है कि डॉ. शंभू कुमार के प्रयासों के कारण बीज की लागत में कमी आएगी। लेकिन यह केवल एक पक्ष है। इस तरह के बीज का उपयोग लिखो-फेंको कलम की तरह है। मतलब ये केवल एक बार इस्तेमाल किए जा सकेंगे। जबकि आलू की पारंपरिक खेती में ऐसा नहीं होता है। किसान खाने और बेचने के बाद भी अपने लिए बीज के हिस्से का आलू बचा लेते थे। वे बाजार पर आश्रित नहीं थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
जब खेत में आलू तैयार हो जाता और उसे निकालने की बारी आती तो अहसास होता कि प्रकृति हमें किस तरह समृद्ध करती है। सवा दो कट्ठे जमीन से इतना आलू हो जाता कि पापा आधा बेच देते फिर भी 6-8 महीने तक आलू खरीदना नहीं पड़ता था। आलू की उपलब्धता से कई कष्टों का निवारण हो जाता। घर में हरी सब्जियां मां के सौजन्य से मिल जाया करती थीं। बथानी का पूरा छप्पर कद्दू और कोहड़ा से भरा रहता था। भिंडी और लाल साग उपजाने की जिम्मेदारी हम दोनों भाइयों की थी। हम एक हिस्से में प्याज भी लगाते थे और हल्दी व लहसुन भी।
मुझे लगता है कि हम सबके संयुक्त प्रयास का असर यह होता था कि न केवल हमारी घर की जरूरतें पूरी होती थीं, बल्कि हम घर खर्च को न्यून करने में एक-दूसरे की मदद करते थे। उन दिनों पापा गेहूं, धान, मसूर और सरसों की खेती भी करते थे। कुल मिलाकर यह कि हम कम में गुजारा कर लेते थे। और वह भी लगभग सभी आवश्यक पौष्टिक खाद्यान्न व सब्जियों के साथ।
उन दिनों आलू के उपयोग का हमरा अपना तरीका था। एक तो ईंट भट्ठा पर आलू पकाना और दूसरा औंधा लगाना। ईंट भट्ठा पर आलू पकाने का कार्यक्रम तब होता था जब भैंस चराने जाता। तब गमछी में आलू बांध कर ले जाता और उन्हें भट्ठे में राख के नीचे दबा देता। करीब एक घंटे बाद जब उन्हें बाहर निकालता तब वे पक चुके होते थे। जबकि औंधा लगाने की प्रक्रिया थोड़ी अलग थी। इसके लिए एक हंड़िया का इस्तेमाल करते थे। उसके अंदर आलू डालकर उसके उपर पुआल रख देना होता था। फिर गोइठा का अदाह जोड़कर उसमें हंड़िया डाल दिया जाता था। इसमें भी आलू का स्वाद अतुलनीय हो जाता था।
आज सोचता हूं तो वह सब एक सपना सा लगता है। अब न तो घर की सब्जी है और ना ही घर का अनाज। बस हमारे पास पैसे हैं और पैसे से हम सबकुछ खरीद लेते हैं। जरूरतें भी पूरी हो रही हैं। लेकिन कुछ है जो मिसिंग है।
आज मेरी जेहन में यही दो बातें हैं। एक तो बीज का खेल और दूसरा मिसिंग मोमेंट्स। यह बात तो सही जान पड़ती है कि डॉ. शंभू कुमार के प्रयासों के कारण बीज की लागत में कमी आएगी। लेकिन यह केवल एक पक्ष है। इस तरह के बीज का उपयोग लिखो-फेंको कलम की तरह है। मतलब ये केवल एक बार इस्तेमाल किए जा सकेंगे। जबकि आलू की पारंपरिक खेती में ऐसा नहीं होता है। किसान खाने और बेचने के बाद भी अपने लिए बीज के हिस्से का आलू बचा लेते थे। वे बाजार पर आश्रित नहीं थे। और उन्हें इस बात का डर भी नहीं होता था कि जो आलू वह बोने जा रहे हैं, उससे उत्पादन होगा या नहीं होगा। वजह यह कि आलू के बीज उनके अपने बीज होते थे।
और दूसरी बात मिसिंग मोमेंट्स की। घर में संयुक्त रूप से खेती-बागवानी करने के अपने फायदे होते थे। हम सभी श्रम करते थे। मां भी उतना ही श्रम करती थी जितना कि पापा। भैया भी खूब मेहनती था। सभी को मेहनत करते देख मेरे मन में भी श्रम की इच्छा होती थी। इससे एक बात याद आयी। तब मैं इंटर कर चुका था और बिहार सरकार द्वारा श्रीविधि तरीके से धान की खेती का प्रचार-प्रसार किया जा रहा था। उसके पीछे भी फंडा बीज की लागत में कमी का ही था। दरअसल धान की पारंपरिक खेती में हमें धान के बीजों की अधिक आवश्यकता होती है। जबकि श्रीविधि में प्याज के जैसे बिचड़े तैयार करना होता है और फिर मुट्टी के बजाय धान का एक-एक पौधा लगाया जाता है। इस विधि में श्रम की बहुत आवश्यकता होती है। शायद यही वजह है कि बिहार में श्रीविधि से धान की खेती लोकप्रिय नहीं हो सकी।
लेकिन तब मेरे अंदर इच्छा हुई थी कि श्रीविधि से खेती करूं। बाजार से धान का बीज खरीदकर लाया था। पापा मना करते रहे कि बाहर का बीज मत खरीदो। कोई फायदा नहीं होगा। फिर मैंने उन्हें बीज के वैज्ञानिक फायदे के बारे में जानकारी दी तो वे मान गए। लेकिन हुआ वही जिसकी आशंका पापा ने व्यक्त की थी। मेरा प्रयोग असफल हुआ।
बहरहाल, मसला खेती का है। खेती में बाजार का हस्तक्षेप कम से कम हो तो किसानों को मुनाफा अधिक होगा। रही बात वैज्ञानिक तरीकों की तो किसानों की राय जरूरी होनी चाहिए। तभी तरीके कारगर होंगे।
खैर, बीते 7 जुलाई को केदारनाथ सिंह की जयंती थी। उनकी एक कविता याद आ रही है – काली मिट्टी। किसी दिन इस मिट्टी के बारे में लिखूंगा।

फिलहाल तो केदारनाथ सिंह की कविता –
काली मिट्टी काले घर
दिनभर बैठे-ठाले घर
काली नदिया काला धन
सूख रहे हैं सारे बन
काला सूरज काले हाथ
झुके हुए हैं सारे माथ
काली बहसें काला न्याय
खाली मेज पी रही चाय
काले अक्षर काली रात
कौन करे अब किससे बात
काली जनता काला क्रोध
काला-काला है युगबोध
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं