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मुक्तिबोध को एक ग़ज़लकार की चिट्ठी -3

अगर इस कहानी में सिर्फ़ इतना ही होता कि बम गिराकर क्लॉड ईथरली को इतना पछतावा होता है कि वो अपने को सज़ा दिलाने के लिए तरह-तरह के जुर्म करने के बावजूद ‘वार हीरो’ होने की वजह से छोड़ दिया जाता है और आख़िर एक पागलख़ाने में डाल दिया जाता है, तो ये कहानी कोरी […]

अगर इस कहानी में सिर्फ़ इतना ही होता कि बम गिराकर क्लॉड ईथरली को इतना पछतावा होता है कि वो अपने को सज़ा दिलाने के लिए तरह-तरह के जुर्म करने के बावजूद ‘वार हीरो’ होने की वजह से छोड़ दिया जाता है और आख़िर एक पागलख़ाने में डाल दिया जाता है, तो ये कहानी कोरी जज़्बातियत की कहानी भर बनकर रह जाती। मगर ये कहानी तो बहुत पेचीदा है। क्लॉड ईथरली अमरीका के पागलख़ाने में डाला जाता है और वो पागलख़ाना हिंदुस्तान में निकल आता है, जिसमें झाँकते हुए ‘मैं’ को सी. आई. डी. वाला देख लेता है। ‘मैं’ उससे पूछता है, ‘तो क्या यह हिंदुस्तान नहीं है? हम अमरीका में रह रहे हैं?’ ( मुक्तिबोध रचनावली : तीन — सं. नेमिचंद्र जैन, पे. 157 ) सी. आई. डी.वाला बताता है, ‘मुख़्तसर क़िस्सा यह है कि हिंदुस्तान भी अमरीका ही है।’ ( वही, पे. 158 )

मुक्तिबोध के अदब का मर्कज़ी मस्ला यानी दरम्यानी तब्क़े के आदमियों के ‘डिक़्लास’ होने का मसला तो इसमें है ही। सी.आई.डी.वाला सवाल करता है, ‘क्या हमने इंडोनेशियाई या चीनी या अफ्रीकी साहित्य से प्रेरणा ली है या लुमुंबा के काव्य से ? छिः छिः ! वह जानवरों का, चौपायों का साहित्य है।’ ( वही, पे. 158 ) कोई पूछ सकता है कि इसका ‘डिक़्लास’ होने से क्या रिश्ता हो सकता है ; कोई तो बढ़कर ये भी पूछ सकता है कि ‘डिक़्लास’ होने का ही क्या मतलब हो सकता है? ऐसे में ‘क्लॉड ईथरली’ कहानी कितनी अहम हो जाती है!

[bs-quote quote=”हर फ़लसफ़े का मिशन होता है और हर मिशन के लिए जिहाद किया जाता है। जिहाद की तीन क़िस्में बहुत मशहूर हैं – जिहाद-बिल-क़ल्ब, जिहाद-बिल-लिसान और जिहाद-बिल-सैफ़।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

‘क्लॉड ईथरली’ में ऐसी और भी बहुत सारी चीज़ें हैं, जिन्हें तफ़सील के साथ देखना ज़रूरी है। पहला सवाल तो यही कि इसका नैरेटर अपनेआपको ‘ .. बुनियादी तौर से बेईमान.. ’ ( वही, पे. 154 ) क्यों समझता है ? उसकी समझ में हक़ीक़त से कहीं ज़्यादा मुबालग़े का रवैया देखा जा सकता  है । ये मसला आपका भी था। आप भी कहीं-न-कहीं ये समझते थे कि तब तक डी क्लास होने का कोई मतलब नहीं है, जब तक ‘मार्क्स–एंगेल्स-लेनिन’ न बन जाया जाय । ऐसे में अगर आप ये फ़िक्र करते थे कि ‘मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में / सभी मानव / सुखी, सुंदर व शोषण-मुक्त कब होंगे ?’ ( मुक्तिबोध रचनावली : दो – सं. नेमिचंद्र जैन, पे. 243 ), तब भी आपको लगता था कि मैं कुछ नहीं कर पा रहा हूँ । सच पूछिए तो आपको जीते-जी औरों से तो क्या ख़ुद अपनेआप से भी अख़लाक़ी हिमायत नहीं मिली। मेरा ऐसा ख़याल है कि अगर आपके वक़्त में लेनिन होते, तो ज़रूर आपकी हिमायत करते, जैसा कि उन्होंने Demyan Bedny की हिमायत करते हुए कहा था, As regard Demyan Bedny, I continue to be for. Don’t find fault, friends, with human failings ! Talent is rare. It should be systematically and carefully supported. It will be a sin ( a hundred times bigger than various personal ‘sins’, if such occur…) against the democratic working-class movement if you don’t draw in this talented contributor and don’t help him. The disputes were petty, the caus is a serious one. Think over this ! ( On Liturature and Art – Lenin, Page 209 )

कहानी में कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि कहानीकार कोई विचार देना किसी किरदार को चाहता है, और दे किसी और किरदार को जाता है। मिसाल के लिए आपकी ‘आत्मा की आवाज़’वाली बात नैरेटर और सी. आई. डी.वाले के बीच बँट गयी है, बल्कि उसका ये अहम हिस्सा तो आपने बजाय नैरेटर को देने के, सी. आई. डी.वाले को सौंप दिया है, ‘जो आदमी आत्मा की आवाज़ कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है । आत्मा की आवाज़ जो लगातार सुनता है, और कहता कुछ नहीं है, वह भोला-भाला सीधा-सादा बेवक़ूफ़ है। जो उसकी आवाज़ बहुत ज़्यादा सुना करता है, और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदमी आत्मा की आवाज़ ज़रूरत से ज़्यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है, और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है, वह निहायत पागल है । पुराने ज़माने में संत हो सकता था। आजकल उसे पागलख़ाने में डाल दिया जाता है।’ ( मुक्तिबोध रचनावली : तीन — सं. नेमिचंद्र जैन, पे. 155-156 )

हर फ़लसफ़े का मिशन होता है और हर मिशन के लिए जिहाद किया जाता है। जिहाद की तीन क़िस्में बहुत मशहूर हैं – जिहाद-बिल-क़ल्ब, जिहाद-बिल-लिसान और जिहाद-बिल-सैफ़।

[bs-quote quote=”‘जिहाद-बिल-सैफ़’वाले हरदम तलवार ही घुमाते रहें, इस तरह के मसख़रे वो नहीं होते। सी. आई. डी.वाले ने ‘आत्मा की आवाज़’ सुननेवालों की जो क़िस्में बनायी हैं, उसमें उसकी जितनी ग़लती है, उतनी ही आपकी भी है। इस ग़लती से पता सिर्फ़ ये चलता है कि आपके भीतर कशमकश बहुत थी। इसी वजह से आपकी कहानी ‘क्लॉड ईथरली’ अपनी दिलचस्पी भी बनाये रखती है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

सी. आई. डी.वाले का ‘भोला-भाला सीधा-सादा बेवक़ूफ़’ चाहे ‘करता’ और ‘कहता’ कुछ न हो, लेकिन ‘आत्मा की आवाज़’ सुनता है, इस हिसाब से वो ‘जिहाद-बिल-क़ल्ब’ ज़रूर करता है । इसे बहुत ऊँचा दर्जा नहीं दिया जाता, लेकिन उसका दर्जा कम भी नहीं हो जाता।

सी. आई. डी.वाले ने ऐसे अदीब का ज़िक्र किया है, जो ‘आत्मा की आवाज़ कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है।’ ये कहने से ऐसे अदीबों का दर्जा नीचे गिर जाता है, जो सचमुच ‘जिहाद-बिल-लिसान’ करते हैं।

ज़बान से जिहाद करनेवालों का दर्जा कभी-कभी इतना बुलंद हो जाता है कि हाथ से कभी सैफ़ न छूनेवाले ऐसे जिहादियों को कभी फाँसी दे दी जाती है, कभी सलीब पर चढ़ा दिया जाता है, कभी ज़ह्र दे दिया जाता है, कभी ज़िंदा जला दिया जाता है।

‘आत्मा की आवाज़’ के मुताबिक़ जो काम करने लग जाता है, सी. आई. डी.वाले ने उनके दो हिस्से कर दिये हैं – एक ‘अपराधी’ और दूसरे ‘पागल’। ये दोनों हिस्से ग़ैरज़रूरी हैं। दुनिया उन्हें क्या कहती है, इससे बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ता । अस्ल में वो ‘जिहाद-बिल-सैफ़’वाले होते हैं।

‘जिहाद-बिल-सैफ़’वाले हरदम तलवार ही घुमाते रहें, इस तरह के मसख़रे वो नहीं होते। सी. आई. डी.वाले ने ‘आत्मा की आवाज़’ सुननेवालों की जो क़िस्में बनायी हैं, उसमें उसकी जितनी ग़लती है, उतनी ही आपकी भी है। इस ग़लती से पता सिर्फ़ ये चलता है कि आपके भीतर कशमकश बहुत थी। इसी वजह से आपकी कहानी ‘क्लॉड ईथरली’ अपनी दिलचस्पी भी बनाये रखती है।

[bs-quote quote=”इस तरह के जज़्बों में डूबने-उतरानेवाले किसी भी हाल में ‘काठ’ नहीं कहे जा सकते। इसलिए आपका ये नतीजा मुनासिब नहीं कहा जा सकता, ‘दोनों स्त्री-पुरुष के जीवन पर विराम का पूर्ण चिह्न लग गया है, काठ हो गये हैं। बाढ़ आती है। किनारे पर पड़े हुए काठों को बहाकर ले जाती है।’” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

‘चुन्नू या चुन्नीलाल शर्मा, एम. एस. सी., असिस्टैंट टीचर’ ( वही, पे. 164 ) के रोज़मर्रा की ज़िंदगी के चंद टुकड़ों को काटकर ‘जलना’ कहानी रची गयी है। माली बदहाली कैसे-कैसे तमाम रिश्तों को तहस-नहस कर देती है, उसकी कई मिसालें इस कहानी में मिल जायेंगी।

चुन्नू की बीवी को जैसे ही ‘ ..  ख़याल आया कि उसका पति चाय बना रहा है, उसके मन में तेज़ाबी गटर बहने लगा ।’ ( वही, पे. 162 )

चुन्नू की माँ ने ‘.. दयनीय भाव से गिड़गिड़ाकर कहा – मुझे एक गरम चाय और दे, चुन्नू !

चुन्नू का हृदय उस आर्द्र वाणी को सुनकर दुखी हो गया। कहाँ गयी माँ की वह पुरानी शान, जब वह घर पर शासन करती थी!’ ( वही, पे. 164 )

चुन्नू की बीवी की चिड़चिड़ाहट उसके सपने में भी झलक जाती है, ‘ ..अगर वह पढ़-लिख जाती और नौकरी करने लगती तो उसकी इतनी दुर्दशा न होती, तो उसके घर के पिछवाड़े से चुपचाप वह औरत न आती, जो पठान से भी अधिक सूद लेती है, तो उसको इतना अपमानित न होना पड़ता।’  ( वही, पे. 166 )

‘और इसी तरह के ख़यालों में गिरफ़्तार वह स्त्री जब अपने बाल फैलाये हुए चुपचाप सोचती जा रही थी, कि उसके अनजाने में चूल्हे की तड़ाक से उड़ी चिनगारी उसकी साड़ी के एक कोने में दुबककर बैठ गयी।’ ( वही, पे. 166 ) फिर वो सोचती है, ‘आग ने उसपर चढ़ाई की, क्यों की, क्यों की ?’ ( वही, पे. 167 )

जिस वक़्त ये हादसा हो रहा था, उस वक़्त चुन्नीलाल पंसारी की दुकान के सामने खड़ा ये ख़्वाब देख रहा था, ‘उसके बच्चे बड़े होंगे। कॉलेज एजुकेशन तो क्या ले सकेंगे ! इतना पैसा ही नहीं है कि उनके लिए किताबें ख़रीदें ! लेकिन हाँ, मैं अपने सारे विचार, मेरी अपनी सारी कल्पनाएँ और धारणाएँ उन्हें बता दूँगा। उनका बिल्कुल सिस्टमैटिकली अध्ययन करा दूँगा। मैं उन्हें बड़े आदमियों की बैठकों से दूर रखूँगा और इस तरह घुट्टी दूँगा कि वे उनके तौर-तरीक़ों से घृणा करें, कि अपने जैसे ग़रीबों में ही रहें, और उन्हें लिखायें-पढ़ायें, उन्हें नये-नये विचार दें, उनकी जगत-चेतना को विस्तृत और यथार्थवादी बना दें, और उनमें मरें और जियें। मैं उन्हें क्रांतिकारी बनाऊँगा। मैं उन्हें समाज की तलछट बनने के लिए प्रेरित करूँगा, वे वहाँ बैठ-बैठ किताबें लिखेंगे, पैंफ्लेट छापेंगे, और जो मिलेगा, उसे सबके साथ खाकर उन सब भड़कीले दंभों से घृणा करेंगे कि जो शिक्षा और संस्कृति के नाम पर चलते हैं  ..।’ ( वही, पे. 167 )

जब चुन्नू की पत्नी का ‘जलना’ वजूद में आता है, तब होता ये है, ‘बच्चे रो रहे हैं। बूढ़ी माँ रोती हुई काँप रही है, उसकी साँवली झुर्रियाँ गीली हैं। और बूढ़े बाप के चेहरे पर श्मसान की छाया है। वह बालटी पर बालटी डाल रहा है।’ ( वही, पे. 167 )

सिर्फ़ इतने से ही ये पता नहीं चलता कि तमाम चिड़चिड़ाहटों और बदहालियों में दफ़्न होने के बावजूद उनके रिश्तों में कहीं मुहब्बत ज़िंदा है, बल्कि इससे भी पता चलता है, जब ‘.. चुन्नीलाल ने अपनी स्त्री को बग़ल में ख़ींच लिया।’, तब उसने कहा, ‘तुम मुझे छोड़कर मत जाया करो।’ ( वही, पे. 168 )

चुन्नीलाल की सोच तब ज़ाती न रहकर अवामी बन जाती है, जब “वहाँ उसे शहर ही शहर और गाँव ही गाँव, सड़कें ही सड़कें, गलियाँ ही गलियाँ दिखायी दीं, जिनके भीतर से उठती हुई गूँज उसके पास आकर कहने लगी, ‘तुम मुझे छोड़कर मत जाया करो।’ ” ( वही, पे. 168 ) इतना ही नहीं, ‘ ..बच्चों के पीले उतरे चेहरों में से , बाप की बूढ़ी शिकनों में से, माँ की आँखों के सफ़ेद कोयों में से, उसे साफ़ झलक उठा कि मानो वे भी कह रहे हैं – तुम मुझे छोड़कर मत जाया करो।’ ( वही, पे. 168-169 )

[bs-quote quote=”आपके नैरेटर को सामंती और सरमायेदाराना ख़यालों ने कितना भी बिगाड़ दिया हो और उनके लिए वो अपने को कितना भी बड़ा गुनहगार समझ रहा हो, लेकिन इंक़लाब के ख़यालों ने उसे इतना बदल दिया है कि वो सरमाया जुटाने की हरीफ़ाई में क़तई नहीं जुट सकता। कशमकश में उसका पिघलना उसे उसी रास्ते पर ले जा रहा है, जहाँ वो इंक़लाब के हमदमों का हमक़दम बन जाये।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

क्या ऐसे में ये भी बताना पड़ेगा कि चुन्नीलाल और उसकी बीवी आपस में एक-दूसरे से मुहब्बत करते हुए भी आख़िर ‘किसकी’ वजह से एक-दूसरे से नाराज़ थे ? तब तो कहानी की सारी ‘तहदारी’ ही ख़त्म हो जायेगी ।

‘काठ का सपना’ में जिस तरह सरोज के माँ बाप उसकी ‘फ़िक्र’ से ‘काठ’ हो जाते हैं, वैसा अस्ल ज़िंदगी में होता नहीं। फ़िक्र से रिश्तों में उलझनें चाहे जितनी आयें, ‘जान’ बनी रहती है। रिश्तों में  ‘काठपन’ तब पैदा होता है, जब उनसे जी उचट जाता है । ‘माँ – बाप’ के जी उचटने के मंज़र इस कहानी में नहीं हैं। ‘जिस्मों’ के ‘बेजान’ हो जाने से ‘जी उचटना’ साबित नहीं होता।

नीचे का पैरेग्राफ़ सरोज के बाप की ‘बेचैनी’ को चाहे जितना ज़ाहिर करता हो, ‘काठ’ होना ज़रा भी ज़ाहिर नहीं करता, “उसके पिता अपनी बालिका को देख प्रसन्न नहीं होते हैं। विक्षुब्ध हो जाता है उनका मन, नन्हीं बालिका सरोज का पीला चेहरा तन में फटा हुआ, सिर्फ़ एक ‘फ़्राक’ और उसके दुबले हाथ उन्हें बालिका के प्रति अपने कर्तव्य की याद दिलाते हैं; ऐसे कर्तव्य की, जिसे वह पूरा नहीं कर सके, कर भी नहीं सकेंगे, नहीं कर सकते थे। अपनी अक्षमता के बोध से वे चिढ़ जाते हैं । और वे उस नन्हीं बालिका को डाँटकर पूछते हैं, ‘यहाँ क्यों बैठी है? अंदर क्यों नहीं जाती ?’ ( वही. पे. 170 )

सरोज के माँ बाप के फ़िक्र की ये इंतहा है, ‘ वे नहीं चाहते थे कि रात में नींद के पहले के ये कुछ क्षण ख़राब हो जायें, मन:स्थिति विकृत हो, और दुर्दमनीय चिंता से ग्रस्त होकर वे रातभर जागते- कराहते रहें, नहीं, ऐसा नहीं। चिंता सुबह उठकर करेंगे।’ ( वही, पे. 172 )

इंतहा की इस हक़ीक़त के बाद सोच का जो सिलसिला शुरू होता है, वो कहानी का उतना हिस्सा नहीं लगता, जितना फ़ल्सफ़े का और इसीलिए कुछ बेअसर भी हो जाता है, ‘- – लेकिन उन दोनों में न स्वीकार है, न अस्वीकार । सिर्फ़ एक संदेह है, यह संदेह साधार है कि निष्क्रियता में एक अलगाव है – एक भीतरी अलगाव है ।’ ( वही. पे. 172 )

सरोज के माँ-बाप सरोज के लिए ही नहीं, एक-दूसरे के लिए भी ‘काठ’ नहीं हो पाये हैं। देखिए , ‘वह उसकी बाँहों में थी। निश्चेष्ट शरीर। फिर भी, उसमें एक ऊष्मा है, जो मानो सौ नेत्रों से अपने पुरुष को देख रही हो, निर्णय प्रदान करने के लिए प्रमाण एकत्र कर रही हो। फिर भी निश्चेष्ट और सक्रिय।’ ( वही, पे. 172 )

इस तरह के जज़्बों में डूबने-उतरानेवाले किसी भी हाल में ‘काठ’ नहीं कहे जा सकते। इसलिए आपका ये नतीजा मुनासिब नहीं कहा जा सकता, ‘दोनों स्त्री-पुरुष के जीवन पर विराम का पूर्ण चिह्न लग गया है, काठ हो गये हैं। बाढ़ आती है। किनारे पर पड़े हुए काठों को बहाकर ले जाती है।’ ( वही.  पे. 173 )

किन्हीं ‘निष्प्राण काठ-लट्ठों’ के ज़रिये इस तरह का इरादा कैसे किया जा सकता है ? ..‘सरोज की इस बाल-मूर्ति की रक्षा करनी होगी।’ ( वही. पे. 173)

मुझे लगता है, ‘काठ का सपना’ उन्वान में ‘तहदारी’ चाहे जितनी हो, लेकिन ख़ुद उस कहानी में वो उतनी हावी नहीं, जितना उसका ‘बयान’ हावी है, जो उसे आपकी बेहतरीन कहानियों में जगह बनाने नहीं देता।

जो लाचार है, वो ‘विद्रूप’ होगा ही। सर्वटे इतना लाचार था कि उसे हमेशा मदद की ज़रूरत रहती थी और मुश्किल ये थी, ‘हमदर्दी मिलना आसान था, सहायता मिलना लगभग असंभव था।’( वही,    पे. 174 )

सर्वटे को ‘विद्रूप’ बनानेवाली एक चीज़ उसकी अना भी है, जिसमें तवाज़ुन बिल्कुल नहीं है। अपनी इस ‘विद्रूप’ अना को बचाने के लिए उसने अपना एक फ़ल्सफ़ा बना रख्खा था, जिसके अपने कुछ कानून थे, जिन्हें सर्वटे की बीवी प्रमिला नैरेटर यानी मालती के शौहर को इन लफ़्ज़ों में बताती है, ‘उनका पहला कानून यह है कि मनुष्य को सिर्फ़ एक ही बार खाना खाना चाहिए । ..  वे अपनी एक शर्ट चार दिन चलाते हैं, भले ही मैली क्यों न हो जाय।’ ( वही. पे. 178 )

इन क़ानूनों में क़लंदरों का परहेज़ तो पाया जा सकता है, लेकिन उनकी शान यानी मस्ती और आज़ादी बिल्कुल नज़र नहीं आती। इसलिए परहेज़ के ये सारे क़ानून भी ‘विद्रूप’ ही बनकर रह जाते हैं।

सर्वटे की बीवी प्रमिला अपने शौहर के कॉम्प्लेक्सेज़ को न सिर्फ़ जानती है, बल्कि उनकी वजहों पर भी रौशनी डालते हुए अपने बचपन के दोस्त नैरेटर से बताती है, ‘ अगर वे ग़रीब परिवार से आते तो उनके मन में इतने कॉम्प्लेक्सेज़ न रहते । वे जिस श्रेणी से आये हैं, उस श्रेणी से गिरे हुए हैं, इसीलिए उससे नफ़रत है, और इसी की उन्होंने एक फ़िलॉसफ़ी बना रखी है।’( वही, पे.  178-179 )

सर्वटे की बीवी उससे नाराज़ इसलिए नहीं होती क्योंकि वो जानती है, ‘ उनके कोई दोस्त नहीं हैं। दिल उन्होंने कठोर बना रखा है, जो कि वस्तुत: कठोर है नहीं। वह बिल्कुल मुलायम है। इसीलिए मुझे उनसे डर लगता है – क्योकि वह कठोरता भावना का कठोर पत्थर है। वह चाहे जिसको लग सकता है । सबसे ज़्यादा उनको ख़ुद को।’ ( वही, पे. 179 )

इस कहानी में आप न सिर्फ़ अपनी परहेज़गारी के चलते ही शामिल हैं, बल्कि उस आदत के चलते भी, जिसके तहत आप अक्सर उसी अंदाज़ में अपने पर इल्ज़ाम लगाने के आदी थे, जिस तरह सूरदास अपने पर इल्ज़ाम लगाया करते थे, ‘मो सम कौन कुटिल, खल, कामी।’( संपूर्ण सूर सागर :   खंड –  1- सं. किशोरीलाल गुप्त, पे. 78 )

आपकी ‘सतह से उठता आदमी’ नाम की कहानी में ‘सतह से उठता आदमी’ तो एक ही दिखायी देता है और वो है कृष्णस्वरूप। उसी के सिक्के के दूसरे पहलू रामनारायण को उसके तमाम अजूबेपन के बावजूद ‘सतह से उठता आदमी’ नहीं कहा जा सकता। अगर मास्टर जी को ‘सतह’ पर ठहरा हुआ आदमी कहा जाय, तो कन्हैया ‘सतह’ से भी नीचे का आदमी गिनाया जा सकता है, मगर ऐसा गिनाना मुनासिब इसलिए नहीं होगा क्योंकि उसकी हैसियत पर आपने साफ़-साफ़ रौशनी नहीं डाली।

मास्टर जी की हैसियत देखकर कन्हैया सोचता है, ‘ .. कुछ रोज़ में वह मास्टर साहब के पास पाँच सौ उधार लेने का प्रस्ताव भी रखेगा ( क्योंकि आख़िर ये लोग ब्याज-बट्टा भी तो करते हैं। )’ ( वही, पे. 180)

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मुक्तिबोध को एक ग़ज़लकार की चिट्ठी – 2

इन सतरों से ऐसा लगता है कि जैसे मास्टर जी की ‘सतह’ से कन्हैया की ‘सतह’ नीची हो, लेकिन ‘चाय पीने के बाद कन्हैया ने अपनी क़ीमती पैंट पर टैरीलिन की बुश्शर्ट चढ़ायी, जल्दी-जल्दी कंघी की ।’ (वही, पे. 180) जिससे यक़ीन करना मुश्किल हो जाता है कि उसकी ‘सतह’ मास्टर जी की ‘सतह’ से नीची होगी । आगे चलकर जब कन्हैया कृष्णस्ववरूप के घर अपना मनीबैग भूल आता है और वो उसे पहुँचाने आता है, तो कन्हैया कहता है, ‘लेकिन तुम फ़ोन कर देते, यहाँ तक आने की तक़लीफ़ क्यों की ?’ (वही, पे. 185 ) तब तो और भी यक़ीन नहीं आता कि उसकी ‘सतह’ नीची रही होगी ।

जिस कन्हैया के पास ‘क़ीमती पैंट और टैरेलिन की बुश्शर्ट’ हो और लगे हाथों ‘फ़ोन’ भी हो, पूरी कहानी में ये पता नहीं चलता कि आख़िर वो काम क्या करता है?

अब हम कन्हैया और ‘मास्टर साहब’ को छोड़कर कृष्णस्वरूप की ओर मुड़ते हैं, जो इस कहानी का मर्क़जी किरदार नज़र आता है, जिससे एक अजीब किरदार रामनारायण जुड़ा हुआ है।

‘.. जब कृष्णस्वरूप बिल्कुल ग़रीब था।’ (वही, पे. 181) ‘कन्हैया ने उसे एक बार पाँच रुपये उधार दिये थे, जिन्हें कृष्णस्वरूप ने कभी वापस नहीं किया।’ (वही, पे. 181)

यही वो ‘सतह’ थी, जहाँ से कृष्णस्वरूप को ‘ऊपर उठना’ था, उसे ‘बदलना’ नहीं था । अपनी इस नीची ‘सतह’ को झेलने के लिए वो ‘- – कहता था कि त्याग और आत्मदमन ही जीने का एकमात्र उपाय है ।’ (वही, पे. 181) कृष्णस्वरूप की ‘ऐसी फ़िलॉसफ़ी कन्हैया को हमेशा अप्राकृतिक मालूम   हुई ।’ (वही, पे. 182 )

ज़ाहिर है कि कृष्णस्वरूप क़ुदरती ज़िंदगी नहीं जी रहा था, लेकिन कन्हैया किस तरह की ज़िंदगी जी रहा था, ये भी इस कहानी से पता नहीं चलता।

कभी जो ‘- – कृष्णस्वरूप फटेहाल घूमता था ।’ ( वही, पे. 182 ) आज वो कन्हैया से कह रहा है, ‘..नहीं यार , पहले मैं एक कार खरीदूँगा। सरकार ने ऐसा कुछ झमेला लगा रखा है कि नयी कार के लिए बड़ा इंतज़ार करना पड़ता है।’ (वही, पे. 183)

कृष्णस्वरूप की ‘सतह’ के ऊपर उठने की वजह रामनारायण है, जिसकी ‘.. सूरत देखते ही कृष्णस्वरूप को काठ मार गया। वह ज्यों-का-त्यों बुतनुमा खड़ा हो गया । उसकी आँखे फटी-सी रह गयीं और होंठ कुछ बुदबुदाने से लगे ।’ (वही, पे. 183 )

रामनारायण के अजीब होने के बहुत सारे ब्यौरे आपने दिये हैं। एक तो इसी से ज़ाहिर हो जाता है,  ‘ .. यद्यपि रामनारायण क़ीमती सूट पहने है, फिर भी वह मैला कुचैला है, उसपर पान के दाग़ पड़े हैं।’   (वही, पे. 184) इसकी वजह कृष्णस्वरूप बताता है, ‘मेरे यहाँ जान-बूझकर सूट पहनकर आता है। उसका मुझपर यह आरोप है कि यदि वह दलिद्दर पोशाक में आयेगा तो मैं उसे घर के बाहर निकाल  दूँगा ।’ (वही, पे. 195 )

कृष्णस्वरूप की ग़रीबी के तो आपने बहुत सारे ब्यौरे दिये हैं। वो अपनी  इस ग़रीबी की ‘सतह’ से ऊपर उठ पाता है रामनारायण और उसकी माँ की मदद से।

रामनारायण की शख़्सियत पर फ़ैसला देते हुए कन्हैया कृष्णस्वरूप से कहता है, ‘मेरे ख़याल से तुम दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हो। ख़ैर जो भी हो, आज रामनारायण ने तुम्हें चिढ़ाने के लिए सूट पहना है, कल वह तुम्हें नीचा दिखाने के लिए अपनी जायदाद ख़ुद सँभालेगा। और तब चक्र पूरा घूम जायेगा। अगले दस साल के बाद मुझे रिपोर्ट देना। समझे !’ ( वही, पे. 195 )

इतना ही उसने अपने फ़ैसले को तल्ख़ी की इस इंतहा तक भी पहुँचा दिया, ‘कृष्णस्वरूप को विदा करने जब कन्हैया नीचे पहुँचा तब न मालूम क्यों उसने गटर में थूक दिया। क्यों ? पता नहीं।’ ( वही,    पे. 195 )

सवाल ये है कि इस कन्हैया को कृष्णस्वरूप और रामनारायण से इस क़दर नफ़रत करने का हक़ आख़िर किस तरह हासिल हो गया ! उसकी शख़्सियत में क्या ऐसी कोई ख़ूबी नज़र आयी, जिससे पता चले कि वो ‘ – – सचमुच शोषितों का उपकार कर रहा है ?’ ( वही, पे. 193 )

पूरी ‘जंक्शन’ कहानी का मर्क़ज है इंक़लाब, जिसकी क़ामयाबी के लिए de-class होना ज़रूरी  है । अगर ये सवाल किया जाये कि इस कहानी का नैरेटर क्या इंक़लाबी है ? जवाब आयेगा – नहीं। अगर ये सवाल किया जाये कि क्या वो अपने आपको डी क्लास  कर पा रहा है ? जवाब आयेगा – नहीं। अगर सवाल किया जायेगा कि क्या वो इंक़लाबियों का दुश्मन है? इसका भी जवाब आयेगा – नहीं। उसकी अस्ली हैसियत ये है कि वो इंक़लाब का हिमायती है । कोई इंक़लाबी लफ़्फ़ाज़ी करनेवाला ही उसे अपना दुश्मन गर्दान सकता है, सचमुच का इंक़लाबी तो क़तई नहीं।

नैरेटर की शख्सियत इंक़लाब की क़ल्बी हिमायत से आगे बढ़ती है, तो लिसानी हिमायत तक पहुँचती है। उसकी ज़िंदगी में दरम्यानी तब्के के कुछ ऐसे रुज्हान घर कर गये हैं कि वो उसे इंक़लाब की अमली हिमायत से रोक देते हैं। कहानी की शुरूआत के हिस्से में ही इसकी मिसाल मिल जायेगी, ‘आसपास बैठे हुए मुसाफ़िर फटी चादरों और धोतियों को ओढ़े हुए, सिमटे-सिमटे, ठिठुरे-ठिठुरे चुपचाप बैठे हैं। इनके भरोसे सामान कैसे लगाया जाये! कोई भी उसमें से कुछ उठाकर चंपत हो सकता है।’ ( वही, पे. 196 )

ज़ाहिर है कि आपने दरम्यानी तब्क़े के नैरेटर की उसकी ख़ुदकलामी के ज़रिये ख़ूब ख़बर ली, लेकिन सवाल ये है कि क्या आपने कभी ये भी पूछा कि ‘जंक्शन’ में प्रोलेतेरिएत दिखनेवाले लोग नैरेटर के बराबर भी इंक़लाब के हिमायती हैं क्या?

नैरेटर की हालत आस-पास बैठे हुए मुसाफ़िरों से बस इसी मानी में बेहतर थी कि उसका ‘ ..गरम कोट उधार लिया हुआ है।’ ( वही, पे. 196 ) इतना ही नहीं, वो ये भी क़बूल करता है, ‘और फिर होल्डाल निकालकर बिस्तर बिछा देता हूँ। सुंदर, गुलाबी अलवान और ख़ुशनुमा कंबल निकल पड़ता है । मैं अपने को अब वाक़ई भला आदमी समझने लगता हूँ, यद्यपि यह सच है कि दोनों चीज़ों में से एक भी मेरी नहीं है।’ (वही, पे. 197)

उसने अपने बिस्तर पर उस लड़के को जगह नहीं दी, जो ‘  – – ठिठुरा-ठिठुरा (गठरियों के बीच) गठरी बनकर लुप्त-सा हो गया  ..’ ( वही, पे. 200 ) था। उस लड़के को ज़रूर जगह दी, जो ‘ ..टेरीलीन की बुश्शर्ट पहने हुए ..’ (वही, 197) था ।

नैरेटर के मन में जब ये ख़याल आता है, ‘मेरा बिस्तर ख़ाली हो गया और अब मैं चाहूँ, तो बेंच के दूसरे छोर पर घुटनों से मुँह ढाँपे इस दूसरे बालक को आराम की सुविधा दे सकता हूँ ।’ (वही, पे. 201) तब उसके भीतर से आवाज़ आती है, ‘उठो, उठो, उस बालक को बिस्तर दो !’ ( वही, पे. 201 ) तब इस आवाज़ को काटती एक दूसरी ही “ ‘..नाराज़ और सख़्त आवाज़ सुनायी देती है, ‘मेरा बिस्तर क्या इसलिए है कि वह सार्वजनिक संपत्ति बने ! शी : ! ऐसे न मालूम कितने ही बालक हैं, जो सड़कों पर घूमते रहते हैं !’ (वही, पे. 201)

इस कशमकश में नैरेटर अपनी तंक़ीद कर जाता है, ‘अगर मैं ठंड में सिकुड़ते इस लड़के को बिस्तर दूँ , तो मेरी ( दूसरों की दी हुई ही क्यों न सही ) यह क़ीमती अलवान और यह नरम कंबल मैली हो जायेगी । क्योंकि जैसा कि साफ़ दिखायी देता है, यह लड़का अच्छे-ख़ासे साफ़-सुथरे बढ़िया कपड़े पहने हुए थोड़े है! मुद्दा यह है। हाँ, मुद्दा यह है कि वह दूसरे और निचले क़िस्म के, निचले तब्क़े के लोगों की पैदावार है।’ ( वही, पे. 201-202 )

इसके बाद नैरेटर को लगता है, ‘मैं अपने भीतर ही नंगा हो जाता हूँ। और अपने नंगेपन को ढाँपने की कोशिश भी नहीं करता।’ ( वही, पे. 202 )

आपके नैरेटर को सामंती और सरमायेदाराना ख़यालों ने कितना भी बिगाड़ दिया हो और उनके लिए वो अपने को कितना भी बड़ा गुनहगार समझ रहा हो, लेकिन इंक़लाब के ख़यालों ने उसे इतना बदल दिया है कि वो सरमाया जुटाने की हरीफ़ाई में क़तई नहीं जुट सकता। कशमकश में उसका पिघलना उसे उसी रास्ते पर ले जा रहा है, जहाँ वो इंक़लाब के हमदमों का हमक़दम बन जाये।

                                                                                                                                                   आपका

                                                                                                                                               सुल्तान अहमद 

सुल्तान अहमद जाने-माने ग़ज़लकार हैं ।

गाँव के लोग
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